मंदिर का निर्माण क्यों ?
व्यक्ति किसी भी देश, संप्रदाय या वर्ग का क्यों न हो, दुनिया के समस्त प्राणियों में सिर्फ मनुष्य ने ही मंदिर ( धर्म - स्थलों ) का निर्माण किया है।
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भले ही अलग - अलग संप्रदाय के लोग अपने - अपने ढंग से, अलग - अलग तरह के मंदिर बनाकर उन्हें गुरुद्वारा, गिरजाघर ( चर्च ), मस्जिद आदि अलग - अलग नामों से पुकारते हों, किंतु इन्हें बनाने का उद्देश्य है कि इन्हें देखकर मनुष्य को परमात्मा का स्मरण हो, जहां पर परमात्मा की शरण प्राप्त करने का मार्ग मिले, जहां दुनियादारी के झंझटों को भूलकर एकाग्र और ध्यान - मग्न होकर मन को शांति मिले।
उस पवित्र वातावरण में मन को निर्विकार कर प्रभु भक्ति में लीन किया जा सके।
वास्तव में देखा जाए तो मंदिर एक ऐसा स्थल होता है, जहां आध्यात्मिक और धार्मिक वातावरण होता है तथा देवपूजा उसका लक्ष्य होता है।
यहां आप अकेले या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में भी बैठकर शांत मन से जाप, पूजा - पाठ, आरती, भजन, मंत्र पाठ, ध्यान आदि कर सकते हैं।
ऐसे धूप - दीप आदि सुगंधित द्रव्यों के कारण मंदिर के चारों ओर दिव्य शक्ति का संचार रहता है,
जिसके कारण भूत-प्रेत और विषाणुयुक्त कीटाणुओं की शक्ति क्षीण होती है।
माहौल में आपके मन की भाव - दशा प्रभु की भक्ति, पूजा, प्रार्थना उपासना के अनुकूल होती है, जिससे इन कर्म - कांडों को पूरा करने का आपको शारीरिक और मानसिक लाभ मिलता है।
अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
इस में कोई दो मत नहीं कि मंदिर जाने वालों में वास्तविक भक्त कम और याचक यानी भगवान से कुछ न कुछ मांगने वाले ज्यादा होते हैं।
कुछ मन्नत मांगने के लिए मंदिर पहुंचते हैं तो कुछ मांगी हुई मन्नत पूरी होने पर अपना वायदा पूरा करने के लिए पहुंचते हैं।
मतलब यह कि भगवान को भी मंदिर में रिश्वत का लालच देने का प्रचलन आम बन गया है।
यदि हम कुछ मांगने के लिए ही मंदिर जाते हैं तो फिर हम मंदिर नहीं, किसी दुकान पर जाते हैं ।
जबकि वास्तविक, सच्चा भक्त भक्ति भाव, अहोभाव और प्रभु के प्रति तादात्म्य भाव लेकर ही मंदिर जाता है।
एक बार, जगद्गुरु शंकराचार्य से नगर सेठ माणिक ने पूछा-"आचार्यवर!
आप तो वेदांत के समर्थक हैं।
भगवान् को निराकार सर्वव्यापी मानते हैं, फिर मंदिरों की प्रदर्शनात्मक मूर्तिपूजा परक प्रक्रिया का समर्थन क्यों करते हैं ?
" आचार्य बोले-" वत्स! उस दिव्य सर्वव्यापी चेतना का बोध सबको अनायास नहीं होता।
मंदिरों में प्रात :- संध्या संधिकाल से, शंख - घंटों के नाद के साथ दूर - दूर तक उपासना के समय का बोध कराया जाता है।
घर - घर उपासना के योग्य उपयुक्त स्थल नहीं मिलते, मंदिर के संस्कारित वातावरण में कोई भी
जाकर उपासना कर सकता है।
नैतिकता, सदाचार और श्रद्धा के दर्रों के रूप में देवालय अत्यंत उपयोगी हैं।
जनसाधारण के लिए यह अत्यावश्यक है।"
मंदिर के ऊपर गुंबद का निर्माण क्यों ?
मंदिर के ऊपर गुंबद बनाना ध्वनि सिद्धांत और वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है साधक देव प्रतिमाओं के सामने बैठकर पूजा - अर्चन में जो मंत्र जाप करते हैं, उनकी ध्वनि मंदिर के गुंबद से टकराकर घूमती है और ऊपर की ओर गुंबद के संकरे होते जाने के कारण केंद्रीभूत हो जाती है।
गुंबद का सबसे ऊपर का मध्य भाग जहां कलश - त्रिशूल आदि लगा होता है।
वह अत्यंत संकरा और बिंदु रूप होता है।
यह स्थान इस प्रकार बनाया जाता है कि देव प्रतिमा का सहस्रार स्थान और गुंबद का विंदु स्थान एक रेखा में रहे।
मंत्र शाश्वत शब्द ब्रह्म है और उसमें सभी प्रकार की ईश्वरीय शक्ति समन्वित है।
अतः गुंबद से टकराकर जब मंत्र ध्वनि देवता के सहस्रार से टकराती है, तो देव प्रतिमाएं जाग्रत हो जाती हैं और साधक को उसकी भावना के अनुसार फल प्रदान करती हैं।
जिस प्रकार का मंत्र बोला जाता है, वह देव प्रतिमा को उसी रूप में जाग्रत करता है अतः देव प्रतिमा से मिलने वाला फल मंत्र की भावना के अनुकूल ही होता है।
ऐसे स्थल निरंतर पूजा - साधना से सिद्ध स्थल हो जाते हैं और वहां जाकर साधना करने पर तुरंत फल मिलता है।
इस लिए ये बहुत प्रसिद्ध भी हो जाते हैं।
गुंबद एक अर्थ में हमारे ऋषि - मुनियों द्वारा खोजे गए पिरामिड संबंधी ज्ञान के प्रतिरूप हैं।
पिरामिड सिद्धांत के गुंबद के रूप में एक ऐसे शक्ति क्षेत्र का निर्माण किया जाता है जहां रखी वस्तुएं बहुत काल तक पृथ्वी के बाह्य प्रभाव से मुक्त होकर सुरक्षित रही आती हैं।
मिश्र के पिरामिडों में हजारों वर्ष से रखी मृत देह और अन्य वस्तुओं का आज भी सुरक्षित मिलना तथा एक विशेष प्रकार की चुंबकीय शक्ति का वहां मिलना इन्हीं तथ्यों को प्रकट करता है।
इस रूप में मंदिर के गुंबदों का संबंध देव - प्रतिमाओं, साधकों और उनकी भावनाओं की सुरक्षा एवं पूर्ति से स्पष्ट प्रतीत होता है।
|| करुणा ||
करुणा का अर्थ है दूसरों के दुख को समझना और उस दुख को दूर करने के लिए मदद करने की तीव्र इच्छा होना।
यह केवल सहानुभूति या दया से बढ़कर है, क्योंकि यह सक्रिय रूप से दूसरों की पीड़ा को कम करने के लिए प्रेरित करती है।
यह एक ऐसी भावना है जो प्रेम, दया, अहिंसा और शांति जैसे गुणों को सशक्त बनाती है।
करुणा केवल भावना नहीं,यह आत्मा की मूल गंध, उसका प्राकृतिक प्रकाश है।
जहाँ करुणा है, वहाँ अहंकार नहीं;जहाँ करुणा है, वहाँ हिंसा नहीं;और जहाँ करुणा है, वहीं ईश्वर का निवास है।
करुणा हमें दूसरों की पीड़ा महसूस कराती है,पर उससे भी गहरा यह है कि करुणा हमें हमारी अपनी आत्मा से जोड़ती है।
एक करुणामय व्यक्ति जहाँ जाता है,वहाँ शांति फैलती है, संतोष लता है,और लोगों के हृदय हल्के हो जाते हैं।
करुणा के तीन रूप :- विचारों में करुणा, किसी के लिए बुरा न सोचना वाणी में करुणा, किसी को चोट पहुँचाए बिना बोलना कर्म में करुणा,बिना अपेक्षा सहायता करना।
करुणा वह शक्ति है - जो कठोर से कठोर हृदय को भी पिघला देती है।
यह संघर्ष नहीं मिटाती,यह संघर्ष को साधना में बदल देती है।
उपनिषद् करुणा को धर्म का हृदय बताते हैं-
दया धर्म का मूलम्।ये धर्मों का आधार है।
|| महाकाल ||
|| किशोरी जी की अद्भूत कृपा ||
बरसाना में चेतन्य महाप्रभु के छःशिष्यों में से एक हैं जीव गोस्वामी।
एक बार श्री रूप गोस्वामी भ्रमण करते - करते अपने चेले,जीव गोस्वामीजी के यहाँ बरसाना आए।
जीव गोस्वामीजी ठहरे फक्कड़ साधू |
फक्कड़ साधू को जो मिल जाये वो ही खाले, जो मिल जाये वो ही पी ले।
आज उनके गुरु आए तो उनके मन में भाव आया कि मैं तो रोज सूखी रोटी, पानी में भिगोकर खा लेता हूं।
मेरे गुरु आये हैं क्या खिलाऊँ ?
एक बार अपनी कुटिया में देखा तो किंचित तीन दिन पुरानी रोटी जो बिल्कुल कठोर हो चुकी रखी थी।
मैं साधू पानी में गला - गलाकर खा लूं।
यद्यपि मेरे गुरु साधुता की परम स्थिति को प्राप्त कर चुके हैं फिर भी मेरे मन के आनन्द के लिए कैसे मेरा मन संतुष्ट होगा?
एक क्षण के भक्त के मन में संकल्प आया कि अगर समय होता तो किसी बृजवासी के घर चला जाता।
दूध मांग लाता, चावल मांग लाता।
मेरे गुरु पधारे जो देह के सम्बंध में मेरे चाचा भी लगते हैं।
लेकिन भाव साम्रज्य में प्रवेश कराने वाले मेरे गुरु भी तो हैं। उनको खीर खिला देता।
रूप गोस्वामीने आकर कहा जीव भूख लगी है तो जीव गोस्वामी उन सूखी रोटीयो को अपने गुरु को दे रहा है।
अँधेरा हो रहा है।
जीव गोस्वामी की आँखोंमें अश्रु आ रहे हैं और रुप गोस्वामीजी ने कहा तू क्यों रो रहा है |
हम तो साधू हैं ना, जो मिल जाय वही खा लेते हैं।
नहीं - नहीं मैं खा लूंगा।
जीव ने कहा, नहीं बाबा!
मेरा मन नहीं मान रहा।
आपकी यदि कोई पूर्व सूचना होती तो मेरे मन में कुछ था।
यह चर्चा हो ही रही थी कि कोई अर्द्धरात्रि में दरवाजा खटखटाता है।
ज्यो ही दरवाजा खटखटाया तो जीव गोस्वामीजी ने दरवाजा खोला।
एक किशोरी खड़ी हुई है 8 -10 वर्ष की हाथ में कटोरा है।
कहा, बाबा!
मेरी माँने खीर बनाई है और कहा है जाओ बाबा को दे आओ।
जीव गोस्वामी ने उस खीर के कटोरे को ले जाकर रुप गोस्वामीजी के पास रख दिया।
बोले बाबा पाओ।
ज्यों ही रूप गोस्वामीजीने उस खीर को स्पर्श किया उनका हाथ कांपने लगा।
जीव गोस्वामीको लगा बाबा का हाथ कांप रहा है।
पूछा बाबा!
क्या कोई अपराध बन गया है।
रूप गोस्वामी जी ने पूछा, जीव! आधी रात को यह खीर कौन लाया ?
बाबा पड़ोस में एक कन्या है मैं जानता हूं उसे।
वो लेके आई है।
नहीं जीव इस खीर को मैने जैसे ही चखके देखा और मेरे में ऐसे रोमांच हो गया।
नहीं जीव!
तू पता कर यह कन्या मुझे मेरे किशोरीजी के होने का अहसास दिला रही है।
नहीं बाबा !
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वह कन्या पास की है, मैं जानता हूं उसको।
अर्ध रात्रिमें दोनों उसके घर गये और दरवाजा खटखटाया।
अंदर से उस कन्या की माँ निकलकर बाहर आई।
जीव गोस्वामीजी ने पूछा आपको कष्ट दिया, परन्तु आपकी लड़की कहां है।
उस महिला ने कहा, का बात हो गई बाबा ?
आपकी लड़की है कहाँ ?
वो तो उसके ननिहाल गई है गोवेर्धन, 15 दिन हो गए हैं।
रूप गोस्वामीजी तो मूर्छित हो गए।
जीव गोस्वामीजी ने पैर पकडे और जैसे - तैसे श्रीजी के मंदिर की सीढ़िया चढ़ने लगे।
जैसे एक क्षणमें ही चढ़ जायें।
लंबे - लंबे पग भरते हुए मंदिर पहुचे।
वहां श्री गोसाईजी से पूछा, बाबा!
एक बात बताओ आज क्या भोग लगाया था श्रीजी श्यामा प्यारी को।
श्रीजीव गोस्वामी को गोसांईजी जानते थे।
श्री गोसाईंजी ने कहा क्या बात है बाबा...?
श्रीजीव ने कहा क्या भोग लगाया था ?
गोसाईजी ने कहा, आज श्रीजी को खीर का भोग लगाया था।
रूप गोस्वामी तो श्रीराधे श्रीराधे कहने लगे।
उन्होंने गोसाईजी से कहा बाबा!
एक निवेदन और है आपसे।
यद्दपि यह मंदिर की परंपरा के विरुद्ध है कि एक बार जब श्रीजी को शयन करा दिया जाये तो उनकी लीला में जाना अपराध है।
{ प्रिया प्रियतम जब विराज रहे हों तो नित्य लीला है उनकी।
अपराध है फिर भी आप एक बार यह बता दीजिये कि जिस पात्रमें भोग लगाया था वह पात्र रखो है के नहीं रखो है। }
गोसाईजी मंदिर के पट खोलते हैं और देखते हैं कि वह पात्र नहीं है वहां पर।
गोसांईजी बाहर आते हैं और कहते हैं बाबा वह पात्र नहीं है वहां पर! न जाने का बात है गई है...?
रूप गोस्वामीजीने अपना दुप्पटा हटाया और वह चाँदी का पात्र दिखाया, बाबा! यह पात्र तो नहीं है |
गोसांईजी ने कहा हां बाबा यही पात्र तो है।
रूप गोस्वामीजी ने कहा, श्रीराधा रानी 300 सीढ़ी उतरकर मुझे खीर खिलाने आई।
किशोरी पधारी थी, राधारानी आई थी।
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उस खीर को मुख पर रगड़ लिया सब साधु संतो को बांटते हुए श्रीराधे श्रीराधे करते हुऐ फिर कई वर्षो तक श्री रूप गोस्वामीजी बरसाना में ही रहे।
हे करुणा निधान! इस अधम, पतित - दास को ऐसी पात्रता और ऐसी उत्कंठा अवश्य दे देना कि इन रसिकों के गहन चरित का आस्वादन कर अपने को कृतार्थ कर सकूँ।
इनकी पद धूलि की एक कनिका प्राप्त कर सकूँ।
|| जय श्री राधे राधे ||
!!!! शुभमस्तु !!!
🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
श्री सरस्वति ज्योतिष कार्यालय
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Satvara vidhyarthi bhuvn,
" Shri Aalbai Niwas "
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏
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