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Sunday, December 7, 2025

मंदिर का निर्माण क्यों ?

मंदिर का निर्माण क्यों ?


व्यक्ति किसी भी देश, संप्रदाय या वर्ग का क्यों न हो, दुनिया के समस्त प्राणियों में सिर्फ मनुष्य ने ही मंदिर ( धर्म - स्थलों ) का निर्माण किया है। 





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भले ही अलग - अलग संप्रदाय के लोग अपने - अपने ढंग से, अलग - अलग तरह के मंदिर बनाकर उन्हें गुरुद्वारा, गिरजाघर ( चर्च ), मस्जिद आदि अलग - अलग नामों से पुकारते हों, किंतु इन्हें बनाने का उद्देश्य है कि इन्हें देखकर मनुष्य को परमात्मा का स्मरण हो, जहां पर परमात्मा की शरण प्राप्त करने का मार्ग मिले, जहां दुनियादारी के झंझटों को भूलकर एकाग्र और ध्यान - मग्न होकर मन को शांति मिले। 

उस पवित्र वातावरण में मन को निर्विकार कर प्रभु भक्ति में लीन किया जा सके।

वास्तव में देखा जाए तो मंदिर एक ऐसा स्थल होता है, जहां आध्यात्मिक और धार्मिक वातावरण होता है तथा देवपूजा उसका लक्ष्य होता है। 

यहां आप अकेले या अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति में भी बैठकर शांत मन से जाप, पूजा - पाठ, आरती, भजन, मंत्र पाठ, ध्यान आदि कर सकते हैं। 

ऐसे धूप - दीप आदि सुगंधित द्रव्यों के कारण मंदिर के चारों ओर दिव्य शक्ति का संचार रहता है, 

जिसके कारण भूत-प्रेत और विषाणुयुक्त कीटाणुओं की शक्ति क्षीण होती है। 

माहौल में आपके मन की भाव - दशा प्रभु की भक्ति, पूजा, प्रार्थना उपासना के अनुकूल होती है, जिससे इन कर्म - कांडों को पूरा करने का आपको शारीरिक और मानसिक लाभ मिलता है। 

अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। 

इस में कोई दो मत नहीं कि मंदिर जाने वालों में वास्तविक भक्त कम और याचक यानी भगवान से कुछ न कुछ मांगने वाले ज्यादा होते हैं। 

कुछ मन्नत मांगने के लिए मंदिर पहुंचते हैं तो कुछ मांगी हुई मन्नत पूरी होने पर अपना वायदा पूरा करने के लिए पहुंचते हैं। 

मतलब यह कि भगवान को भी मंदिर में रिश्वत का लालच देने का प्रचलन आम बन गया है। 

यदि हम कुछ मांगने के लिए ही मंदिर जाते हैं तो फिर हम मंदिर नहीं, किसी दुकान पर जाते हैं । 

जबकि वास्तविक, सच्चा भक्त भक्ति भाव, अहोभाव और प्रभु के प्रति तादात्म्य भाव लेकर ही मंदिर जाता है। 

एक बार, जगद्गुरु शंकराचार्य से नगर सेठ माणिक ने पूछा-"आचार्यवर! 

आप तो वेदांत के समर्थक हैं। 

भगवान् को निराकार सर्वव्यापी मानते हैं, फिर मंदिरों की प्रदर्शनात्मक मूर्तिपूजा परक प्रक्रिया का समर्थन क्यों करते हैं ?

" आचार्य बोले-" वत्स! उस दिव्य सर्वव्यापी चेतना का बोध सबको अनायास नहीं होता। 

मंदिरों में प्रात :- संध्या संधिकाल से, शंख - घंटों के नाद के साथ दूर - दूर तक उपासना के समय का बोध कराया जाता है। 

घर - घर उपासना के योग्य उपयुक्त स्थल नहीं मिलते, मंदिर के संस्कारित वातावरण में कोई भी 

जाकर उपासना कर सकता है। 

नैतिकता, सदाचार और श्रद्धा के दर्रों के रूप में देवालय अत्यंत उपयोगी हैं। 

जनसाधारण के लिए यह अत्यावश्यक है।"

मंदिर के ऊपर गुंबद का निर्माण क्यों ?

मंदिर के ऊपर गुंबद बनाना ध्वनि सिद्धांत और वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है साधक देव प्रतिमाओं के सामने बैठकर पूजा - अर्चन में जो मंत्र जाप करते हैं, उनकी ध्वनि मंदिर के गुंबद से टकराकर घूमती है और ऊपर की ओर गुंबद के संकरे होते जाने के कारण केंद्रीभूत हो जाती है। 

गुंबद का सबसे ऊपर का मध्य भाग जहां कलश - त्रिशूल आदि लगा होता है। 

वह अत्यंत संकरा और बिंदु रूप होता है। 

यह स्थान इस प्रकार बनाया जाता है कि देव प्रतिमा का सहस्रार स्थान और गुंबद का विंदु स्थान एक रेखा में रहे।

मंत्र शाश्वत शब्द ब्रह्म है और उसमें सभी प्रकार की ईश्वरीय शक्ति समन्वित है। 

अतः गुंबद से टकराकर जब मंत्र ध्वनि देवता के सहस्रार से टकराती है, तो देव प्रतिमाएं जाग्रत हो जाती हैं और साधक को उसकी भावना के अनुसार फल प्रदान करती हैं।

जिस प्रकार का मंत्र बोला जाता है, वह देव प्रतिमा को उसी रूप में जाग्रत करता है अतः देव प्रतिमा से मिलने वाला फल मंत्र की भावना के अनुकूल ही होता है। 

ऐसे स्थल निरंतर पूजा - साधना से सिद्ध स्थल हो जाते हैं और वहां जाकर साधना करने पर तुरंत फल मिलता है। 

इस लिए ये बहुत प्रसिद्ध भी हो जाते हैं। 

गुंबद एक अर्थ में हमारे ऋषि - मुनियों द्वारा खोजे गए पिरामिड संबंधी ज्ञान के प्रतिरूप हैं। 

पिरामिड सिद्धांत के गुंबद के रूप में एक ऐसे शक्ति क्षेत्र का निर्माण किया जाता है जहां रखी वस्तुएं बहुत काल तक पृथ्वी के बाह्य प्रभाव से मुक्त होकर सुरक्षित रही आती हैं। 

मिश्र के पिरामिडों में हजारों वर्ष से रखी मृत देह और अन्य वस्तुओं का आज भी सुरक्षित मिलना तथा एक विशेष प्रकार की चुंबकीय शक्ति का वहां मिलना इन्हीं तथ्यों को प्रकट करता है। 

इस रूप में मंदिर के गुंबदों का संबंध देव - प्रतिमाओं, साधकों और उनकी भावनाओं की सुरक्षा एवं पूर्ति से स्पष्ट प्रतीत होता है।





|| करुणा ||


करुणा का अर्थ है दूसरों के दुख को समझना और उस दुख को दूर करने के लिए मदद करने की तीव्र इच्छा होना। 

यह केवल सहानुभूति या दया से बढ़कर है, क्योंकि यह सक्रिय रूप से दूसरों की पीड़ा को कम करने के लिए प्रेरित करती है। 

यह एक ऐसी भावना है जो प्रेम, दया, अहिंसा और शांति जैसे गुणों को सशक्त बनाती है।

करुणा केवल भावना नहीं,यह आत्मा की मूल गंध, उसका प्राकृतिक प्रकाश है।

जहाँ करुणा है, वहाँ अहंकार नहीं;जहाँ करुणा है, वहाँ हिंसा नहीं;और जहाँ करुणा है, वहीं ईश्वर का निवास है।

करुणा हमें दूसरों की पीड़ा महसूस कराती है,पर उससे भी गहरा यह है कि करुणा हमें हमारी अपनी आत्मा से जोड़ती है। 

एक करुणामय व्यक्ति जहाँ जाता है,वहाँ शांति फैलती है, संतोष लता है,और लोगों के हृदय हल्के हो जाते हैं।

करुणा के तीन रूप :- विचारों में करुणा, किसी के लिए बुरा न सोचना वाणी में करुणा, किसी को चोट पहुँचाए बिना बोलना कर्म में करुणा,बिना अपेक्षा सहायता करना।

करुणा वह शक्ति है - जो कठोर से कठोर हृदय को भी पिघला देती है।

यह संघर्ष नहीं मिटाती,यह संघर्ष को साधना में बदल देती है।

उपनिषद् करुणा को धर्म का हृदय बताते हैं-
दया धर्म का मूलम्।ये धर्मों का आधार है।

       || महाकाल ||

|| किशोरी जी की अद्भूत कृपा ||


बरसाना में चेतन्य महाप्रभु के छःशिष्यों में से एक हैं जीव गोस्वामी। 

एक बार श्री रूप गोस्वामी भ्रमण करते - करते अपने चेले,जीव गोस्वामीजी के यहाँ बरसाना आए। 

जीव गोस्वामीजी ठहरे फक्कड़ साधू | 

फक्कड़ साधू को जो मिल जाये वो ही खाले, जो मिल जाये वो ही पी ले।

आज उनके गुरु आए तो उनके मन में भाव आया कि मैं तो रोज सूखी रोटी, पानी में भिगोकर खा लेता हूं। 

मेरे गुरु आये हैं क्या खिलाऊँ ?

एक बार अपनी कुटिया में देखा तो किंचित तीन दिन पुरानी रोटी जो बिल्कुल कठोर हो चुकी रखी थी। 
मैं साधू पानी में गला - गलाकर खा लूं।

यद्यपि मेरे गुरु साधुता की परम स्थिति को प्राप्त कर चुके हैं फिर भी मेरे मन के आनन्द के लिए कैसे मेरा मन संतुष्ट होगा? 

एक क्षण के भक्त के मन में संकल्प आया कि अगर समय होता तो किसी बृजवासी के घर चला जाता। 
दूध मांग लाता, चावल मांग लाता। 

मेरे गुरु पधारे जो देह के सम्बंध में मेरे चाचा भी लगते हैं। 

लेकिन भाव साम्रज्य में प्रवेश कराने वाले मेरे गुरु भी तो हैं। उनको खीर खिला देता।

रूप गोस्वामीने आकर कहा जीव भूख लगी है तो जीव गोस्वामी उन सूखी रोटीयो को अपने गुरु को दे रहा है। 

अँधेरा हो रहा है। 

जीव गोस्वामी की आँखोंमें अश्रु आ रहे हैं और रुप गोस्वामीजी ने कहा तू क्यों रो रहा है |

हम तो साधू हैं ना, जो मिल जाय वही खा लेते हैं। 

नहीं - नहीं मैं खा लूंगा। 

जीव ने कहा, नहीं बाबा! 

मेरा मन नहीं मान रहा। 

आपकी यदि कोई पूर्व सूचना होती तो मेरे मन में कुछ था। 

यह चर्चा हो ही रही थी कि कोई अर्द्धरात्रि में दरवाजा खटखटाता है। 

ज्यो ही दरवाजा खटखटाया तो जीव गोस्वामीजी ने दरवाजा खोला। 

एक किशोरी खड़ी हुई है 8 -10 वर्ष की हाथ में कटोरा है। 

कहा, बाबा! 

मेरी माँने खीर बनाई है और कहा है  जाओ बाबा को दे आओ। 

जीव गोस्वामी ने उस खीर के कटोरे को ले जाकर रुप गोस्वामीजी के पास रख दिया। 

बोले बाबा पाओ।

ज्यों ही रूप गोस्वामीजीने उस खीर को स्पर्श किया उनका हाथ कांपने लगा।

जीव गोस्वामीको लगा बाबा का हाथ कांप रहा है। 

पूछा बाबा! 

क्या कोई अपराध बन गया है। 

रूप गोस्वामी जी ने पूछा, जीव! आधी रात को यह खीर कौन लाया ?

बाबा पड़ोस में एक कन्या है मैं जानता हूं उसे। 

वो लेके आई है। 

नहीं जीव इस खीर को मैने जैसे ही चखके देखा और मेरे में ऐसे रोमांच हो गया।

नहीं जीव! 

तू पता कर यह कन्या मुझे मेरे किशोरीजी के होने का अहसास दिला रही है। 

नहीं बाबा ! 

+++ +++

वह कन्या पास की है, मैं जानता हूं उसको।

अर्ध रात्रिमें दोनों उसके घर गये और दरवाजा खटखटाया। 

अंदर से उस कन्या की माँ निकलकर बाहर आई। 

जीव गोस्वामीजी ने पूछा आपको कष्ट दिया, परन्तु आपकी लड़की कहां है।

उस महिला ने कहा, का बात हो गई बाबा ? 

आपकी लड़की है कहाँ ? 

वो तो उसके ननिहाल गई है गोवेर्धन, 15 दिन हो गए हैं। 

रूप गोस्वामीजी तो मूर्छित हो गए।

जीव गोस्वामीजी ने पैर पकडे और जैसे - तैसे श्रीजी के मंदिर की सीढ़िया चढ़ने लगे। 

जैसे एक क्षणमें ही चढ़ जायें। 

लंबे - लंबे पग भरते हुए मंदिर पहुचे। 

वहां श्री गोसाईजी से पूछा, बाबा! 

एक बात बताओ आज क्या भोग लगाया था श्रीजी श्यामा प्यारी को। 

श्रीजीव गोस्वामी को गोसांईजी जानते थे। 

श्री गोसाईंजी ने कहा क्या बात है बाबा...? 

श्रीजीव ने कहा क्या भोग लगाया था ? 

गोसाईजी ने कहा, आज श्रीजी को खीर का भोग लगाया था।

रूप गोस्वामी तो श्रीराधे श्रीराधे कहने लगे। 

उन्होंने गोसाईजी से कहा बाबा! 

एक निवेदन और है आपसे। 

यद्दपि यह मंदिर की परंपरा के विरुद्ध है कि एक बार जब श्रीजी को शयन करा दिया जाये तो उनकी लीला में जाना अपराध है। 

{ प्रिया प्रियतम जब विराज रहे हों तो नित्य लीला है उनकी।

अपराध है फिर भी आप एक बार यह बता दीजिये कि जिस पात्रमें भोग लगाया था वह पात्र रखो है के नहीं रखो है। }

गोसाईजी मंदिर के पट खोलते हैं और देखते हैं कि वह पात्र नहीं है वहां पर। 

गोसांईजी बाहर आते हैं और कहते हैं बाबा वह पात्र नहीं है वहां पर! न जाने का बात है गई है...?

रूप गोस्वामीजीने अपना दुप्पटा हटाया और वह चाँदी का पात्र दिखाया, बाबा! यह पात्र तो नहीं है | 

गोसांईजी ने कहा हां बाबा यही पात्र तो है।

रूप गोस्वामीजी ने कहा, श्रीराधा रानी 300 सीढ़ी उतरकर मुझे खीर खिलाने आई। 

किशोरी पधारी थी, राधारानी आई थी। 

+++
+++

उस खीर को मुख पर रगड़ लिया सब साधु संतो को बांटते हुए श्रीराधे श्रीराधे करते हुऐ फिर कई वर्षो तक श्री रूप गोस्वामीजी बरसाना में ही रहे। 

हे करुणा निधान! इस अधम, पतित - दास को ऐसी पात्रता और ऐसी उत्कंठा अवश्य दे देना कि इन रसिकों के गहन चरित का आस्वादन कर अपने को कृतार्थ कर सकूँ। 

इनकी पद धूलि की एक कनिका प्राप्त कर सकूँ।

              || जय श्री राधे राधे  ||

!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!

जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
श्री सरस्वति ज्योतिष कार्यालय
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-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

Friday, December 5, 2025

मार्गशीर्ष मास अनंत व्रत :

मार्गशीर्ष मास अनंत व्रत :

अनंत व्रत से श्रेष्ठ संतान के साथ प्राप्त होता है ऐश्वर्य,कथा और विधि हिंदू धर्म में अनंत व्रत का मार्गशीर्ष मास से शुरू होने वाला व्रत है....! 

पौराणिक मान्यता के अनुसार इस व्रत से व्रतकर्ता को संतान व एैश्वर्य की प्राप्ति होती है....! 

इस व्रत में बारह महीनों में नक्षत्र के हिसाब से भगवान विष्णु की पूजा करने का विधान है।

संतान सुख व ऐश्वर्य पाने के लिए हिंदू धर्म में अनंत व्रत का विधान है....! 

मार्गशीर्ष मास में शुरू होने वाले इस व्रत में भगवान विष्णु की बारह मास की पूजा की जाती है....! 





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पौराणिक मान्यता के अनुसार जो भी सन्तानहीन स्त्री - पुरुष इस व्रत को करते हैं...! 

उन्हें नीरोगी, दीर्घायु, बलवान, धर्मज्ञ, भाग्यवान और सभी गुणों से संपन्न संतान की प्राप्ति होती है।

अनंत व्रत की कथा :


प्राचीन समय में हैहयवंश में महिष्मति नगरी में कृत्यवीर्य नाम के राजा की शीलधना नाम की एक रानी थी....! 

जिसने संतान प्राप्ति के लिए ब्रह्मावादिनी मैत्रयी से उपाय पूछा था...! 

इस पर मैत्रेयी ने उसे अनंत व्रत की विधि बताई....! 

जिसे विधिपूर्वक करने पर शीलधना को कार्तवीर्यार्जुन नाम का ओजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ....! 

जिसने भगवान विष्णु के अवतार श्री दत्तात्रेय की आराधना कर चक्रवर्ती सम्राट बनने का वर प्राप्त कर देवताओं की तरह पूजनीय स्थान प्राप्त किया था।

अनंत व्रत की विधि :


भविष्यपुराण के अनुसार मैत्रेयी के बताये अनुसार अनंत व्रत की विधि भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को भी बताई थी....! 

जिसके अनुसार मार्गशीर्ष मास में जिस दिन मृगशिरा नक्षत्र हो उस दिन व्रत शुरू करना चाहिए....! 

इस वर्ष यह व्रत मार्गशीर्ष मास मे 29 नवम्बर एवं 26 दिसंबर से आरम्भ करना चाहिये। 

इस दिन स्नान कर गंध, पुष्प, धूप, दीप आदि से अनंत भगवान के बाएं चरण का पूजन कर ब्राह्मण को दक्षिणा देनी चाहिए. रात के समय तेल रहित भोजन करना चाहिए....! 

इसी विधि से पौष मास में पुष्य नक्षत्र में भगवान के बाएं कटी प्रदेश, माघ मास में मघा नक्षत्र में भगवान की बाईं भुजा और फाल्गुन मास में फाल्गुनी नक्षत्र में बायें कंधे का पूजन करें....! 

इन 4 महीनों में व्रती गोमूत्र का सेवन कर ब्राह्मण को तिल का दान करें।

चैत्र से कार्तिक तक यूं करें पूजन :


भविष्य पुराण के अनुसार चैत्र मास में चित्रा नक्षत्र में भगवान के दाहिने कंधे, वैशाख में विशाखा नक्षत्र में दाहिनी भुजा, ज्येष्ठ में ज्येष्ठा नक्षत्र में दाहिने कटी प्रदेश और आषाढ़ में आषाढ़ा नक्षत्र में दाहिने पैर का पूजन करें....! 

इन 4 महीनों में पंचगव्य का सेवन कर व्रती को रात को भोजन  कर ब्राह्मण को दान देना चाहिए....! 

श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र में भगवान विष्णु के दोनों चरणों, भाद्रपद में उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में गुह्या स्थान, अश्विन मास में अश्विनी नक्षत्र में ह्रदय और कार्तिक मास में कृतिका नक्षत्र में भगवान के सिर का पूजन करना चाहिए...! 

इन 4 महीनों में व्रतकर्ता को घी का सेवन कर ब्राह्मण को दान देना चाहिए।

हर महीने हवन, चार महीने से पारणा :


भविष्य पुराण के अनुसार इस व्रत में भगवान विष्णु के व्रत के साथ हवन का विधान भी है....! 

मार्गशीर्ष से फाल्गुन मास तक पहले चार महीनों में घी, चैत्र से आषाढ़ मास तक शालिधान्य तथा श्रावण से कार्तिक मास तक दूध से भगवान विष्णु का हवन करना चाहिए....! 

इस तरह 12 महीनों में तीन पारणा कर वर्ष के अंत में अनंत भगवान की मूर्ति और चांदी के हल व मूसल बनाएं....! 

बाद में मूर्ति को ताम्र पीठ पर स्थापित कर दोनों हल व मूसल रखकर पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि उपचारों से पूजन करें....! 

बाद में चंद्रमा की पूजा कर सारी सामग्री ब्राह्मण को प्रदान करने पर व्रत पूर्ण होता है।

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🌿अपने जीवन के श्रीराम बनें🌿 


समस्या क्या है..? 

आज लाखों लोग जी रहे हैं - पर जीवन को जी नहीं रहे। 

हर दिन वही भागदौड़, वही थकान, वही आदतें, वही बातें — 

और मन के भीतर एक धीमी फुसफुसाहट:

“क्या यही मेरा जीवन है? 

क्या मैं इससे ज़्यादा नहीं बन सकता.?”

हम दूसरों की अपेक्षाओं में उलझकर अपने ही जीवन के डिज़ाइनर बनना भूल जाते हैं। 

जीवन बहता जाता है और हम बस बहते जाते हैं।

समाधान क्या है..? 

रामायण हमें सिखाती है कि जीवन संयोग से नहीं, संकल्प से बनता है। 

जैसे श्रीराम ने अपना हर कदम धर्म, उद्देश्य और स्पष्टता के साथ रखा...!

वैसे ही हम भी अपना भविष्य गढ़ सकते हैं।

रामायणजी बताती हैं कि आप अपने जीवन के वास्तुकार कैसे बनेंगे-: 

1. स्पष्ट दृष्टि — आपका आदर्श जीवन कैसा दिखता है?

जिस तरह राम वनवास में भी अपना धैर्य और मर्यादा नहीं भूले...!,

वैसे ही पहले यह तय करें — आप किस तरह का जीवन जीना चाहते हैं?

किस तरह के व्यक्ति बनना चाहते हैं? 

दृष्टि के बिना दिशा नहीं मिलती।

2. अपने मूल मूल्य तय करें।

राम के मूल्य स्पष्ट थे — सत्य, करुणा, कर्तव्य।

सीता के मूल्य स्पष्ट थे — धैर्य, प्रेम, त्याग।

लक्ष्मण के मूल्य स्पष्ट थे — निष्ठा, सेवा, समर्पण।

जब आपके मूल्य स्पष्ट होते हैं, तो निर्णय आसान हो जाते हैं।

3. दीर्घकालीन लक्ष्य — जो आपकी दृष्टि से मेल खाएँ।

महान कार्य एक दिन में नहीं होते।

हनुमान जी ने भी समुद्र-लांघन आकस्मिक नहीं किया —

वह उनके भीतर के वर्षों के अभ्यास, चरित्र और विश्वास का परिणाम था।      

छोटे - छोटे कदम जोड़कर ही महान यात्राएँ बनती हैं।

4. अपने सपनों को छोटे - छोटे कार्यों में बदलें।

राम ने लंका पर विजय एक ही दिन में नहीं पाई। 

पहले सेतु बना, फिर योजना बनी, फिर युद्ध हुआ। 

“बड़ा सपना — छोटे कदम — बड़ी जीत”

5. अपने जीवन से ऊर्जा - चूसने वाली चीज़ें हटाएँ।

कुंभकरण की तरह कुछ लोग, कुछ आदतें, कुछ विचार हमारी ऊर्जा खा जाते हैं।

सीता जी का अशोक वाटिका में दुख — रावण या लंका नहीं था — वह अकेलापन और नकारात्मक वातावरण था। 
+++ +++
अपने जीवन में उन सबको पहचानें जो आपकी रोशनी को मंद करते हैं।

6. अपना मानसिक ढांचा उन्नत करें।

हनुमान जी अपनी शक्ति भूल गए थे और जाम्बवंत ने उन्हें याद दिलाया -

“तुममें जितनी शक्ति है, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते।”

अपने मन को रोज़ यह याद दिलाना सीखें—

मैं सीख सकता हूँ। 

मैं बेहतर बन सकता हूँ। 

मैं अपने जीवन को बदल सकता हूँ।

7. ऐसी दिनचर्या बनाएँ जो हमको अपने सपनों के व्यक्तित्व में ढाले।

हम भविष्य से नहीं बदलते, हम आदतों से बदलते हैं।

लक्ष्मणजी की तपस्या, हनुमानजी की निष्ठा, सीताजी का धैर्य, रामजी का अनुशासन — सब आदतें थीं, चमत्कार नहीं।

8. अपने आसपास प्रेरक लोग रखें...!

हमारा वातावरण हमारा भविष्य तय करता है।

राम के पास लक्ष्मण थे, हनुमान थे, विभीषण जैसे मार्गदर्शक थे।

गलत संगत ग़लत दिशा की और ले जाती है।

सही संगत सही उन्नति की और ले जाती है ।

9. लचीले रहें — जीवन बदलता है, हम भी बदलें।

रामायण हमें सिखाती है — परिस्थितियाँ बदलें, मार्ग बदलें, पर मूल्य और उद्देश्य नहीं बदलते।

हमारी योजना कठोर नहीं होनी चाहिए, हमारा संकल्प होना चाहिए।

10. हर महीने अपने जीवन की समीक्षा करें।

राम ने भी अपने हर निर्णय पर विचार किया—

चाहे वह वनवास हो, या सीता की अग्नि परीक्षा, या लंका का अभियान।

जीवन में आगे बढ़ने का एक ही तरीका है — समीक्षा, सुधार और पुनर्संकल्प।

अपने जीवन के श्रीराम बनें। हम यह जीवन एक ही बार जीते हैं।

इसे बहने न दें — इसे बनाएं।

हमारे निर्णय, हमारी आदतें, हमारी संगत, हमारा दृष्टिकोण और हमारा साहस — यही मिलकर वह जीवन बनाते हैं, जिसे जीकर हम गर्व महसूस करते हैं।

रामायणजी कहती हैं कि जीवन को संयोग पर मत छोड़ो, स्वयं उसका निर्माता बनो।

🙏🏼🌺 || श्रीकृष्ण ||🌺🙏🏼

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|| मीरा चरित ||


क्रमशः से आगे .........!

श्री कृष्ण जन्माष्टमी का समय है । 

मीरा श्याम कुन्ज में ठाकुर के आने की प्रतीक्षा में गायन कर रही है ।

उसे लीला अनुभूति हुई कि वह गोप सखा वेश में आँखों पर पट्टी बाँधे श्यामसुन्दर को ढूँढ रही है ।

तभी गढ़ पर से तोप छूटी । 

चारभुजानाथ के मन्दिर के नगारे , शंख , शहनाई एक साथ बज उठे ।

समवेत स्वरों में उठती जय ध्वनि ने दिशाओं को गुँजा दिया - 

" चारभुजानाथ की जय ! गिरिधरण लाल की जय ।"

उसी समय मीरा ने देखा - जैसे सूर्य चन्द्र भूमि पर उतर आये हो , उस महाप्रकाश के मध्य शांत स्निग्ध ज्योति स्वरूप मोर मुकुट पीताम्बर धारण किए सौन्दर्य - सुषमा सागर श्याम सुन्दर खड़े मुस्कुरा रहे हैं ।
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वे आकर्ण दीर्घ दृग ,उनकी वह ह्रदय को मथ देने वाली दृष्टि , वे कोमल अरूण अधर - पल्लव , बीच में तनिक उठी हुई सुघड़ नासिका , वह स्पृहा - केन्द्र विशाल वक्ष , पीन प्रलम्ब भुजायें ,कर - पल्लव , बिजली सा कौंधता पीताम्बर और नूपुर मण्डित चारू चरण । 

एक दृष्टि में जो देखा जा सका.......! 

फिर तो दृष्टि तीखी धार -कटार से उन नेत्रों में उलझ कर रह गई । 

क्या हुआ ? 

क्या देखा ? 

कितना समय लगा ? 

कौन जाने ? 

समय तो बेचारा प्रभु और उनके प्रेमियों के मिलन के समय प्राण लेकर भाग छूटता है ।

"इतनी व्याकुलता क्यों , क्या मैं तुमसे कहीं दूर था ?" 

श्यामसुन्दर ने स्नेहासिक्त स्वर में पूछा ।

मीरा प्रातःकाल तक उसी लीला अनुभूति में ही मूर्छित रही ।

सबह मूर्छा टूटने पर उसने देखा कि सखियाँ उसे घेर करके कीर्तन कर रही है । 

उसने तानपुरा उठाया ।सखियाँ उसे सचेत हुई जानकार प्रसन्न हुई ।

कीर्तन बन्द करके वे मीरा का भजन सुनने लगी ....!

+++ +++

🌿 म्हाँरा ओलगिया घर आया जी ।
तन की ताप मिटी सुख पाया , 
हिलमिल मंगल गाया जी ॥

🌿 घन की धुनि सुनि मोर मगन भया,
यूँ मेरे आनन्द छाया जी ।
मगन भई मिल प्रभु अपणा सूँ , 
भौं का दरद मिटाया जी ॥

🌿 चंद को निरख कुमुदणि फूलै ,
हरिख भई मेरी काया जी ।
रगरग सीतल भई मेरी सजनी ,
हरि मेरे महल सिधाया जी ॥

🌿 सब भक्तन का कारज कीन्हा ,
सोई प्रभु मैं पाया जी ।
मीरा बिरहणि सीतल भई ,
दुख द्वदं दूर नसाया जी ॥
म्हाँरा ओलगिया घर आयाजी ॥🌿

इस प्रकार आनन्द ही आनन्द में अरूणोदय हो गया । 

दासियाँ उठकर उसे नित्यकर्म के लिए ले चली ।

_क्रमशः ..................!

🙏🏼🌺 जय श्रीराधे🌺🙏🏼

!!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!

जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
श्री सरस्वति ज्योतिष कार्यालय
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏