श्रीमद्भागवत कथा का एक प्रसंग :
|| ठाकुरजी की अष्टयाम सेवा ||
अष्टयाम सेवा का अर्थ है भगवान की आठों पहर की सेवा।
आठों पहर अर्थात पूरे दिन सिर्फ ठाकुरजी की सेवा का भाव' और कुछ नहीं।
ब्रज में ठाकुरजी के बाल स्वरूप की सेवा होती है,अतः आठों पहर की सेवा का भाव भी उसी के अनुरूप ही होता है।
प्रातःकाल से शयन समय तक -
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मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती और शयन।
अष्टयाम सेवा इन्हीं भावों में विभक्त है।
मंगला भाव की सेवा-
प्रातः उठते ही मंगल कामना मानव मात्र करता है, जिससे दिनभर आन्नद में बीते।
ग्रन्थों के आरंभ में मंगलाचरण होता है, इस लिए प्रथम दर्शन का नाम मंगला रखा है।
इस दर्शन की झांकी से पहले श्रीकृष्ण को जगाया जाता है, उसके बाद मंगल भोग ( दूध, माखन, मिश्री , बासून्दी, आदि ) धराया जाता है, फिर आरती की जाती है।
यशोदा मैया परिसेवित श्रीकृष्ण के मंगला दर्शन को इस प्रकार निरूपण किया जाता है, बाल कृष्ण यशोदा मैया की गोद में बिराजमान है।
माँ उनके मुख कमल का दर्शन कर रही है, मुख चूम रही है, नंदबाबा आदि प्रभु को गोद में लेकर लाड़ लड़ा रहे हैं।
श्याम -
सुन्दर के सखा बाल गोपाल गिरधर गुणों का गान कर रहे हैं।
ब्रजगोपियां अपने रसमय कटाक्ष से उनकी सेवा कर रही है।
नन्दनन्दन कलेवा कर रहे हैं, प्रभु की मंगला आरती हो रही है। प्रभु मिश्री और नवनीत का रसास्वादन कर रहे हैं।*
श्रृंगार भाव की सेवा-
लोकदशा
माता यशोदा अपने बाल गोपाल का समयानुकूल ललित श्रृंगार करती है।
उबटन लगाकर स्नान कराती है।
श्यामसुन्दर को पीताम्बर धारण कराती है।
ब्रजसुन्दरी गण और भक्त उनका परम रसमय दर्शन करके अपने आपको धन्य मानते हैं।
प्रभु यशोदा माँ की गोद में विराजमान है, करमें वेणु और मस्तक पर मयूर पंख की छवि मनोहारिणी है।
कही लाला के नजर न लग जाय की भावना से काजल का टीका लगाती है।
श्रृंगार नित्य में सामान्य होते हैं किन्तु उत्सव महोत्सव मनोरथादि पर भारी एवं विभिन्न आभूषणों को धराया जाता है।
श्रृंगार चार प्रकार की भावना के कहे जाते है।
कटि पर्यन्त, मध्य के, छेड़ा के, और चरणारविन्दनार्थ।
इनमें आभूषण ऋतुनुसार धराये जाते हैं।
उष्णकाल में मोती - फाल्गुन में सुवर्ण तथा दूसरी ऋतु में रत्न जटित।
ग्वाल भाव की सेवा-
श्री कृष्ण ग्वाल बालों की मंडली के साथ गोचारण लीला में प्रवृत होते हैं, माँ सीख देती है कि-
''हे लाल गोपाल'' वन ओर जलाशय की और न जाना, बालकों के साथ लड़ना मत, कांटो वाली भूमि पर न चलना और दौडती गायों के सामने मत दौडना।
प्रभु बाल गोपालों को साथ-लेकर गोचारण जा रहे हैं, 'वेणु बजाकर प्रभु गायों को अपनी और बुला रहे हैं, प्रभु के वेणु वादन से समस्त चराचर जीव मुग्ध हैं।
श्री कृष्ण की ग्वाल मंडली नृत्य, गीत आदि पवित्र लीला में तल्लीन है, प्रभु का गोचारण कालीन ग्वाल वेष धन्य है।
अपने श्रृंगार रस के भावात्मक स्वरूप से श्रीकृष्ण गोपियों का धैर्य हर लेते हैं।
वेणुनाद सुनकर सरोवर में सारस, हंस आदि मौन धारणकर तथा नयन मूंदकर तन्मय हो जाते हैं।
वृंदावन की द्रुमालताएं मधु धारा बरसाती है।
प्रभु श्रीकृष्ण लीला पूर्वक ( इठलाते हुए ) चल रहे हैं।
ब्रज भूमि का मर्दन कर दुःख दूर कर रहे हैं।
ग्वाल के दर्शन के सन्मुख कीर्तन नहीं होते है क्योकि सारस्वत कल्प की भावना के अनुसार श्री कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ खेलकर पुनः नन्दालय पधारते हैं तब माता यशोदा उन्हे दूध आरोगाती है इस दूध को घैया कहते हैं।
राजभोग भाव की सेवा-
प्रभु के गोचारण की बात सोचकर यशोदा मैया चिन्ता कर रही है कि मेरे लाल ग्वाल बालों के साथ वन प्रांत में भूखे होगे।
माता व्याकुल हो रही है किन्तु अत्यन्त प्रेम में गोपियों द्वारा अपने लाडले गोपाल कन्हैया के लिए सरस मीठे पकवान, विभिन्न प्रकार की स्निग्ध सुस्वादु सामग्री सिद्ध कर रही है और सारी सामग्री स्वर्ण और रजत पात्रों में सजाकर गोपियों के साथ प्रभु को आरोगने के लिए भिजवा रही है।
माता गोपियों को सावधान कर रही है कि सामग्री अच्छी तरह रखना कही दूसरी मे न मिल जाय।
गोपियां राजभोग नंन्द नन्दन के समक्ष पधाराती है प्रभु लीला पूर्वक कालिन्दी के तट पर बैठकर भोजन आरोग रहे है।
यह दर्शन राजाधिराज स्वरूप में ब्रज से पधारने के भाव से है।
इस दर्शन में प्रभु की झांकी के अद्भुत दर्शन होते है क्योंकि देवगण, गन्धर्वगण, अप्सराएं आदि ब्रज पधारते है।
भोग धरे जाते है।
गोप - गोपियों के आग्रह से लीला -बिहारी मदनमोहन गिरिराज पधार कर कन्द मूल फलादि आरोगते है।
यह झांकी अद्भुत है।
प्रभु वन प्रांत से घर आने को उत्सुक है।
उत्थापन संध्या आरती के भाव की सेवा-
श्री कृष्ण मन्द - मन्द वेणु बजाते हुए वन से गायें चराते हुए लौट रहे हैं माता यशोदा पुत्र दर्शन की लालसा में व्याकुल होकर उनका पथ देख रही है।
गोधूलि वेला में गोपाल लाल की छवि रमणीय है। ब्रज गोपीकाएं प्रभु के चरणार विन्दनिहारती हैं, वेणु वादन सुनती हैं और सागर में निमग्न हो जाती हैं।
माता यशोदा के हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ता है।
प्रभु इस भाव में मुग्ध हो रहे हैं।
यशोदा उनकी आरती उतारती है।
माता के सर्वांग में स्वेद, रोमांच, कम्प और स्तम्भ दीख पड़ते हैं।
वे कपूर, घी, कस्तुरी से सुगन्धित वर्तिका युक्त आरती अपने पुत्र पर वार रही है।
संध्यार्ति मातृभाव से मानी जाती है।
प्रभु वन में अनेक स्थानों पर घूमते हैं, खेलते हैं, अनेक स्थानों पर आपके चरण पड़ते हैं इस लिए नंदालय आते ही आरती उतारती है।
त्रिकाल समय का वारषा उतारा ही संध्यार्ती मानी है।
भोग, आरती व शयन भाव की सेवा-
यशोदा मैया अपने लाल को शयन भोग अरोगाने के लिए बुलाती है।
आरोगने की प्रार्थना (मनुहार) करती है।
कहती है -
'हे पुत्र मैने अनेक प्रकार की सरस सामग्री सिद्ध की है, सोने के कटोरे में नवनीत मिश्री भी प्रस्तुत हैं।
प्रभु आरोगते है।
प्रभु इसके बाद दुग्ध धवल शय्या पर शयन के लिए बिराज मान होते हैं, माता यशोदा उनकी पीठ पर हाथ फेर कर सो जाने के लिए अनुरोध करती है और उनकी लीलाओं का मधुर गान करती है।
माता अपने लाल को निद्रित जानकर अपने पास सखी को बैठाकर अपने कक्ष में चली जाती है।
सखियों का समूह दर्शन करके निवेदन करता है कि श्रीस्वामिनी आपकी बाट देख रही है।
शय्या आदि सजाकर प्रतीक्षा कर रही है। श्रीस्वामिनी जी की विरहवस्था का वर्णन सुनकर श्री राधारमण शय्या त्याग कर तुरन्त मन्द - मन्द गति से चले आते है।
कारोड़ो कामदेवों के लावण्य वाले मदनाधिक मनोहर श्यामसुन्दर सखियों के बताये मार्ग पर धीरे - धीरे चलने लगे।
धीरे - धीरे मुरली बजाते वे केलि मन्दिर में प्रवेश करते हैं।
यह बड़ी दिव्य झांकी है।
दर्शन भावना के साथ ही दर्शन महिमा का माहत्म्य है।
मंगला के दर्शन करने से कंगाल नहीं होते कभी।
श्रृंगार के दर्शन करने से स्वर्ग लोक मिलता है।
ग्वाल के दर्शन करने से प्रतिष्ठा बनी रहती है।
राजभोग के दर्शन करने से भाग्य प्रबल होता है।
उत्थापन के दर्शन करने से उत्साह बना रहता है।
भोग के दर्शन करने से भरोसा बना रहता है।
आरती के दर्शन करने से स्वार्थ न रहे कभी।
शयन के दर्शन करने से शान्ति बनी रहती है।
|| आज का श्रीमद् भागवत चिंतन ||
भागवत में उद्धवजी ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा है -
संसार में सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ?
उत्तर में भगवान ने कहा है -
मूर्खो देहाद् अहं बुद्धिः, पन्था मन्नि गमः स्मृतः।
जो यह सब जानते हुए भी, कि मेरे अंदर वह परमात्मा बैठा है, जिसके कि बल पर मैं चल - फिर रहा हूँ,देख - सुन रहा हूँ, सूँघ रहा हूँ ,स्पर्श कर रहा हूँ,जान रहा हूँ, मान रहा हूँ , फिर भी अपने आपको आत्मा न मानकर देह ही मानता है,और सांसारिक कर्मों में उलझा रहने के कारण बार - बार गर्भों में लटकता रहता है।
आनंद की परिभाषा है - अखंड,असीम व स्वाधीन सुख ।
आनंद की अनुभूति, अखंडता और स्वाधीनता में है ।
चूंकि आनंद कंद परमात्मा ही सभी जीवों के अंदर आत्मा रूप में विराजमान हैं।
इस लिये उसकी आनंद की खोज बाहर करना, बिल्कुल वैसे ही है - जैसे कि कस्तूरी मृग अपने कस्तूरी कंद को बाहर ढूंढता है,जबकि वह है ,उसके अंदर ही ।
जीव भी इस अनित्य शरीर से क्षणिक विषय - भोगों में आनन्द ढूँढ़ रहा हैं , जो कि उसे कभी मिलना नहीं है,क्योंकि आनंद तो उसका स्व स्वरूप है,वह उसे जब भी मिलेगा,स्वयं के अंदर ही मिलेगा ।
मानव शरीर में विवेक है, इसीलिये तो इसकी महिमा है ।
विवेक ही तो सत्-असत, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराकर परमात्म तत्त्व की प्राप्ति कराता है ।
मनुष्य का यह विवेक उसके कर्मों का फल नहीं, बल्कि भगवत्प्रदत्त और आदि- अनादि है। तभी तो वह विवेक को धारण करके पुण्यकर्म में प्रवर्त होता है ।
अंतर केवल इतना है, कि यह विवेक पापी का सोया रहता है,और धर्मात्मा का हमेशा जाग्रत।
|| प्रेम और वासना में कई अंतर होते हैं:- ||
प्रेम मन में बसने की कामना है, जबकि वासना तन को पाने की लालसा है।
प्रेम निष्कपट, निस्वार्थ, और निष्फल होता है, जबकि वासना में लालसा, कपट, और स्वार्थ होता है।
प्रेम किसी के साथ रहने की इच्छा या आवश्यकता है, जबकि वासना शारीरिक अंतरंगता की इच्छा का वर्णन करती है।
प्रेम में तन-मन का एकीकृत हो जाना और एक - दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाना होता है, जबकि वासना निरस्त्र करने को लालायित रहती है।
प्रेम प्रेमी के सम्मान को मानता है, जबकि वासना हर मर्यादा को लांघती है।
प्रेम मन की उद्विग्नता को शांत करता है, जबकि वासना शारीरिक क्षुधा मात्र मिटाती है।
प्रेम ईश्वर - स्वरूप होता है, जबकि वासना मन का रोग है।
वासना क्षणिक होती है,जबकि प्रेम निरंतर होता है।
वासना तन की होती है, जबकि प्रेम अनमोल होता है।
प्रेम और वासना के बीच अंतर को समझना ज़रूरी है।
प्रेम में दयालु होना अहम भूमिका निभाता है।
प्रेम धीरज वान होता है और कभी असफल नहीं होता।
वासना और प्रेम
स्त्री की ओर झुकाव दो तरह से हो सकता है!एक वासना के कारण और दूसरा प्रेम के कारण वासना लालची चित्त की अवस्था है और प्रेम निस्वार्थ,भाव दशा है!
वासना संसार है और प्रेम आध्यात्म है,जो समय के साथ बढता जाये वो प्रेम है और जो समय के साथ घटता जाए वो वासना है वासनाग्रस्त चित्त सदैव अशांत रहता है और प्रेमपूर्ण चित्त सदैव शांत रहता है आनन्दित रहता है!
जिसने स्त्री में वासना देखी,उसे स्त्री का प्रेम मिल नहीं सकता है और जिसने स्त्री को प्रेम किया उसे स्त्री में परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है,प्रेम में इतनी शक्ति है कि स्त्री परमात्मा हो जायेगी।
!! जय जय श्री राधे!!
गोवर्धन पर्वत धीरे धीरे छोटा होता जा रहा है ।
गोवर्धन पर्वत को लेकर धार्मिक मान्यता है कि यह पर्वत हर रोज तिल भर घटता जाता है।
यह केवल मान्यता नहीं है बल्कि " विशेषज्ञों ने भी बताया है कि 5 हजार साल पहले गोवर्धन पर्वत कई हज़ार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब यह पर्वत केवल 30 मीटर ही रह गया है। "
एक रोचक कहानी के अनुसार गोवर्धन पर्वत के हर रोज घटने का कारण ऋषि पुलस्त्य का शाप है।
कथा के अनुसार, एक बार ऋषि पुलस्त्य गिरिराज पर्वत के पास से गुजर रहे थे, तभी उनको इसकी खूबसूरती इतनी पसंद आई की वे मंत्रमुग्ध हो गए।
ऋषि पुलस्त्य ने द्रोणांचल पर्वत से निवेदन किया मैं काशी में रहता हूँ आप अपने पुत्र गोवर्धन को मुझे दे दीजिए। मैं उसको काशी में स्थापित करूंगा और वहीं रहकर पूजा करूँगा।
पिता द्रोणांचल पुत्र गोवर्धन के विछोह से दुःखी हुए ।
गोवर्धन ने कहा कि हे महात्मा मैं आपके साथ चलूँगा लेकिन मेरी एक शर्त है।
शर्त यह है कि आप मुझे सबसे पहले जहाँ भी रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाऊँगा।
पुलस्त्य ने गोवर्धन की शर्त मान ली।
गोवर्धन ने ऋषि से कहा कि मैं दो योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा हूँ, आप मुझे काशी कैसे लेकर जाएँगे?
तब ऋषि ने कहा कि मैं अपने तपोबल के माध्यम से तुमको अपनी हथेली पर उठाकर ले जाऊँगा ।
ऋषि पर्वत उठाए चलने लगे ।
रास्ते में ब्रज आया, तब गोवर्धन पर्वत को दिखा कि यहाँ पर भगवान कृष्ण अपने बाल्यकाल में लीला कर रहे हैं।
बड़ा मनोहारी दृश्य और मनभावन जगह है ।
उनकी वहाँ ठहरने की इच्छा हुई ।
गोवर्धन ऋषि के हाथों में अपना भार बढ़ाने लगे, जिससे ऋषि ने आराम और साधना के लिए पर्वत को नीचे रख दिया।
ऋषि पुलस्त्य यह बात भूल गए थे कि उन्हें गोवर्धन पर्वत को कहीं पर भी रखना नहीं है।
साधना के बाद ऋषि ने पर्वत को उठाने की बहुत कोशिश की लेकिन पर्वत हिला तक नहीं।
इससे ऋषि पुलस्त्य बहुत क्रोधित हो गए और उन्होंने शाप दे दिया कि तुमने मेरे मनोरथ को पूर्ण नहीं होने दिया इस लिए अब हर रोज तिल भर तुम्हारा क्षरण होता रहेगा।
माना जाता है कि " उसी समय से गिरिराज पर्वत हर रोज घट रहे हैं और कलयुग के अंत तक पूरी तरह विलीन हो जाएँगे।"
।।जय गिर्राज जी।।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
*( गीता 6/22)*
जिस लाभ की प्राप्ति होने के बाद कोई लाभ शेष न रहे।
मानने में भी नहीं आ सकता कि इससे बढ़कर कोई लाभ होता है और जिसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता।
किसी कारण शरीर के टुकड़े - टुकड़े किये जायँ तो टुकड़े करने पर भी आनन्द रहे, शान्ति रहे, मस्ती रहे।
दुःख से वह विचलित नहीं हो सकता।
उसके आनन्द में कमी नहीं आ सकती।
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
*(गीता 6/23)*
इतना आनन्द होता है कि दुःख वहां रहता ही नहीं।
ऐसी चीज प्राप्त हो सकती है मानव - शरीर से।
मनुष्य - शरीर की ऐसी महिमा तत्त्व - प्राप्ति की योग्यता होने के कारण से है।
मनुष्य - शरीर को प्राप्त करके ऐसी ही तत्त्व की प्राप्ति करनी चाहिये।
उसे प्राप्त न करके झूठ, कपट, बेईमानी, विश्वासघात, पाप करके नरकों की तैयारी कर लें तो कितना महान् दुःख है।
यह खयाल करने की बात है कि मनुष्य-शरीर मिल गया।
अब भाई अपने को नरकों में नही जाना है।
चौरासी लाख योनियों में नहीं जाना है। नीची योनि में क्यों जायें ?
चोरी करने से, हत्या करने से, व्यभिचार करने से, हिंसा करने से, अभक्ष्य-भक्षण करने से, निषिद्ध कार्य करने से मनुष्य नरकों में जा सकता है।
कितना सुन्दर अवसर भगवान् ने दिया है कि जिसे देवता भी प्राप्त नहीं कर सकते, ऐसा ऊँचा स्थान प्राप्त किया जा सकता है—
इसी जीवन में।
प्राणों के रहते - रहते बड़ा भारी लाभ लिया जा सकता है।
बहुत शान्ति, बड़ी प्रसन्नता, बहुत आनन्द—
इसमें प्राप्त हो जाता है।
ऐसी प्राप्ति का अवसर है मानव - शरीर में। इस लिये इसकी महिमा है।
इसको प्राप्त करके भी जो नीचा काम करते हैं, वे बहुत बड़ी भूल करते हैं।
कोई बढ़िया चीज मिल जाय तो उसका लाभ लेना चाहिये।
जैसे किसी को पारस मिल जाय तो उससे लोहे को छुआने से लोहा सोना बन जाय।
अगर ऐसे पारस से कोई बैठा चटनी पीसता है तो वह पारस चटनी पीसने के लिये थोड़ी ही है।
पारस, पत्थर से चटनी पीसना ही नहीं, कोई अपना सिर ही फोड़ ले तो पारस क्या करे ?
इसी तरह मानव - शरीर मिला, इससे पाप, अन्याय, दुराचार करके नरकों की प्राप्ति कर लेना अपना सिर फोड़ना है।
संसार के भोगों में लगना—
यह चटनी पीसना है।
भोग कहाँ नहीं मिलेंगे ?
सूअर के एक साथ दस-बारह बच्चे होते हैं।
अब एक-दो बच्चे पैदा कर लिये तो क्या कर लिया ?
कौन - सा बड़ा काम कर लिया ?
धन कमा लिया तो कौन - सा बड़ा काम कर लिया ?
साँप के पास बहुत धन होता है।
धन के ऊपर साँप रहते हैं।
धन तो उसके पास भी है।
धन कमाया तो कौन - सी बड़ी बात हो गयी ?
ऐश -आराम में सुख देखते हैं और कहते हैं कि इसमें सुख भोग लें।
बम्बई में मैंने कुत्ते देखे हैं, जिन्हें बड़े आराम से रखा जाता है।
बाहर जाते हैं तो मोटर और हवाई जहाज में ले जाते हैं।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
|| जय जय श्री राधेकृष्ण ||