भगवान की दुविधा , !! ग्वालन की शिक्षा !! , कबीरा , आचार्य चाणक्य !!
भगवान की दुविधा
एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए! कि कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता है।
तब मेरे पास भागा-भागा आता है और मुझे सिर्फ अपनी परेशानियां बताने लगता है।
मेरे पास आकर कभी भी अपने सुख या अपनी संतुष्टि की बात नहीं करता मेरे से कुछ न कुछ मांगने लगता है!
अंतत: भगवान ने इस समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले-
कि हे देवो, मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं।
कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता हैं, जबकी मै उन्हे उसके कर्मानुसार सब कुछ दे रहा हूँ।
फिर भी थोड़े से कष्ट मे ही मेरे पास आ जाता हैं।
जिससे न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं, न ही शास्वत स्वरूप में रह कर साधना कर सकता हूं।
आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं, जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।
प्रभु के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट करने शुरू किए।
गणेश जी बोले-
आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं। भगवान ने कहा-
यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में हैं।
उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा।
इंद्रदेव ने सलाह दी-
कि आप किसी महासागर में चले जाएं।
वरुण देव बोले-
आप अंतरिक्ष में चले जाइए।
भगवान ने कहा-
एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा।
भगवान निराश होने लगे थे।
वह मन ही मन सोचने लगे-
“ क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं हैं।
जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं "।
अंत में सूर्य देव बोले-
प्रभु! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं!
मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा।
क्योंकि मनुष्य बाहर की प्रकृति की तरफ को देखता है दूसरों की तरफ को देखता है खुद के हृदय के अंदर कभी झांक कर नहीं देखता इस लिए वह यहाँ आपको कदापि तलाश नहीं करेगा।
करोड़ों में कोई एक जो आपको अपने ह्रदय में तलाश करेगा वह आपसे शिकायत करने लायक नहीं रहेगा क्योंकि उसकी बाहरी इच्छा शक्ति खत्म हो चुकी होगी ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई।
उन्होंने ऐसा ही किया और भगवान हमेशा के लिए मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए।
उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को मन्दिर, पर्वत पहाड़ कंदरा गुफा ऊपर, नीचे, आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहें हैं।
परंतु मनुष्य कभी भी अपने भीतर ईश्वर को ढूंढने की कोशिश नहीं करता है।
इस लिए मनुष्य " हृदय रूपी मन्दिर " में बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पाता और ईश्वर को पाने के चक्कर में दर-दर घूमता है पर अपने ह्रदय के दरवाजे को खोल कर नहीं देख पाता..!!
कहानी से सीखः-
“ हृदय रूपी मंदिर ” में बैठे हुए ईश्वर को देखने के लिए “ मन रूपी द्वार ” का बंद होना अति आवश्यक है।
क्योंकि “ मन रूपी द्वार ” संसार की तरफ़ खुला हुआ है और “ हृदय रूपी मंदिर ” की ओर बंद है।
हर हर महादेव हर
!! ग्वालन की शिक्षा !!
एक बार एक ग्वालन दूध बेच रही थी और सबको दूध नाप नाप कर दे रही थी।
उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया तो ग्वालन ने बिना नापे ही उस नौजवान का बर्तन दूध से भर दिया।
वहीं थोड़ी दूर पर एक साधु हाथ में माला लेकर मनको को गिन गिन कर माला फेर रहा था।
तभी उसकी नजर ग्वालन पर पड़ी और उसने ये सब देखा और पास ही बैठे व्यक्ति से सारी बात बताकर इसका कारण पूछा।
उस व्यक्ति ने बताया कि जिस नौजवान को उस ग्वालन ने बिना नाप के दूध दिया है वह उस नौजवान से प्रेम करती है।
इस लिए उसने उसे बिना नाप के दूध दे दिया।
यह बात साधु के दिल को छू गयी और उसने सोचा कि एक दूध बेचने वाली ग्वालन जिससे प्रेम करती है।
तो उसका हिसाब नहीं रखती और मैं अपने जिस ईश्वर से प्रेम करता हूँ।
उसके लिए सुबह से शाम तक मनके गिनगिन कर माला फेरता हूँ।
मुझसे तो अच्छी यह ग्वालन ही है और उसने माला तोड़कर फेंक दिया।
शिक्षा:-
जीवन भी ऐसा ही है।
जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब किताब नहीं होता है और जहाँ हिसाब किताब होता है।
वहाँ प्रेम नहीं होता है, सिर्फ व्यापार होता है..!!
*🙏🏻🙏🏿🙏🏾जय श्री कृष्ण*🙏🏼🙏🙏🏽
कबीरा
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पर न जानही, सो का पीर में पीर।
अर्थ:
जिस मनुष्य के हृदय में दूसरों के दुख _ दर्द को समझने की क्षमता होती है।
वही सही मायने में वह सच्चा इंसान है और जो ऐसा नहीं कर पाता वह इंसान इस संसार में किसी काम का नही।
क्योंकि समय आने पर ऐसे मनुष्य को कोई नहीं समझता, इसलिए जानवरों का जीवन न जियो क्योंकि जानवर स्वार्थी हो सकते है लेकिन मनुष्य को जो अलग रखता है वह ही लगाव, जुड़ाव, और इंसानियत।
(((( देवता नाराज क्यों हुए ? ))))
दिव्या के घर में बाबू नाम का एक बकरा है।
उसके गले में घंटी बंधी है।
वह पूरे घर में कहीं भी आजादी से घूम-फिर सकता है।
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घर में कोई भी उसे परेशान नहीं कर सकता।
किसी ने उसे जरा सा छेडऩे की कोशिश की तो वह तुरंत दौड़कर दिव्या के पास पहुंच जाता है।
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दिव्या जब तक स्कूल से घर नहीं आती, बाबू दरवाजे पर उसका इंतजार करता है।
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जैसे ही उसे दिव्या के आने की आहट मिली, दौड़ते हुए उसके पास पहुंच जाता है।
फिर वे दोनों एक साथ घर लौटते हैं।
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इसके बाद बाबू को हरी पत्तियां और टमाटर मिलते हैं।
टमाटर खाते वक्त कई बार बाबू के पूरे मुंह में उसका रस लग जाता है।
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तब दिव्या उसे बाल्टी से पानी डाल - डालकर नहलाती है।
और बाबू के ऊपर भी पानी पड़ा नहीं कि वह शरीर को झटक कर पानी हटा देता है।
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दोनों के लिए यह एक तरह का खेल होता है।
रोज दिव्या के लौटने के बाद दोपहर का यह खेल चलता है..
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लेकिन उस रोज ऐसा नहीं हुआ।
दिव्या स्कूल से लौटी तो बाबू उसे लेने नहीं आया।
घर वालों से पूछा तो उन्होंने बताया कि
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दादा - दादी बाबू को पास के मंदिर तक ले गए हैं।
थकी-हारी थी, इस लिए जल्दी ही सो गई।
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शाम होते तक जब उसकी आंख खुली तो लगा जैसे बाबू उसके तलवे चाट रहा है।
वह अक्सर ही उसे उठाने के लिए ऐसा किया करता था।
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दिव्या हड़बड़ाकर उठ बैठी।
लेकिन देखा कि उसके पैरों के पास तो दादा जी बैठे हैं, जो गीले हाथ से उसके तलवे सहला रहे थे।
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उन्होंने दिव्या से कहा कि वह उनके साथ मंदिर चले।
दोनों मंदिर पहुंचे तो देखा वहां भारी भीड़ के बीच बाबू खड़ा है।
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उसके माथे पर तिलक और गले में माला थी।
भीड़ ने उसके ऊपर कई बाल्टी पानी डाला था।
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सूरज डूबने में थोड़ा ही वक्त था।
बलि देने के लिए बाबू को वहां लाया गया था।
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गांव वालों की मान्यता थी कि जब तक बकरा शरीर पर डाले गए पानी को झड़ा नहीं देता तब तक बलि नहीं दी जा सकती।
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और बाबू तो चुपचाप खड़ा था।
लोग इसे बुरे साए का प्रभाव मान रहे थे।
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दिव्या पहुंची तो लोगों को कुछ आस बंधी।
बड़े - बुजुर्गों ने बच्ची से आग्रह किया कि वह बाबू को शरीर से पानी झटकने के लिए तैयार करे।
दिव्या से कहा गया कि बाबू ने शरीर से पानी नहीं झड़ाया तो बारिश के देवता नाराज हो जाएंगे।
उसका मन घबरा रहा था लेकिन उसने बड़ों की बात मान ली।
बाबू के पास गई।
उसे सहलाया।
एक टमाटर खिलाया।
बाबू ने चुपचाप टमाटर खाया लेकिन रस इस बार भी उसके चेहरे पर लग गया।
दिव्या ने पानी से उसका चेहरा पोंछा।
बाबू चुपचाप दिव्या को देखे जा रहा था।
दोनों की आंखें भीगी थीं।
उनके बीच क्या बात हुई, किसी को समझ नहीं आया।
लेकिन तभी सबने देखा कि बाबू ने जोर से शरीर हिलाया और पूरा पानी शरीर से झटक दिया।
भीड़ खुशी से उछल पड़ी।
बाबू के गलेे सेे घंटी और रस्सी खोलकर दिव्या को दे दी गई।
फिर उसे मंदिर के पीछे ले जाया गया।
दो मिनट बाद ही बाबू की चीख सुनाई दी।
फिर सब शांत हो गया।
दादा जी के साथ दिव्या चुपचाप घर लौट आई थी।
उस रात गांव में भोज हुआ।
लेकिन अगली सुबह पूरा गांव एक बार फिर इकट्ठा था।
दिव्या की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए।
गांव वालों में से किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं था कि आखिर अब कौन से देवता नाराज हुए।
जिन्होंने उस छोटी सी बच्ची को दुनिया से उठा लिया।
मजबूरी कोई भी हो।
मासूम बच्चों के भरोसे को तोडऩे का हम में से किसी को हक नहीं।
बच्चों को समझ पाने की जहां तक बात है,तो लगता है हमारे समाज को अभी से मन से सोचना है कि उनकी भी अपनी दुनिया है..!!
जय श्री कृष्ण
आचार्य चाणक्य
मूर्ख द्विपद पशु मान के, रहो सदा ही दूर |
शब्द शरों से बेधता, पग गुखुरू सा क्रूर ||
मूर्खस्तु परिहर्तव्य: प्रत्यक्षो द्विपद: पशु:
भिनत्ति वाक्यशल्येन अदृष्ट: कण्टको यथा।
इसका अर्थ है कि मूर्ख से दूर रहना और उसे त्याग देना ही उचित है।
क्योंकि वह प्रत्यक्ष रूप से दो पैरों वाला पशु है।
वह वचन रूपी बाणों से मनुष्य को ऐसे बींधता है जैसे अदृश्य कांटा शरीर में घुसकर बींधता है।
आचार्य चाणक्य के अनुसार व्यक्ति को अपने आसपास योग्य और शिक्षित व्यक्तियों को रखना चाहिए, योग्य व्यक्ति सदैव सही सलाह देगा और आपकी सफलता में सहयोगी बनेगा।
वहीं अज्ञानी और मूर्ख यदि आसपास रहेंगे तो वे कभी सही मार्गदर्शन नहीं करेंगे।
जिस कारण व्यक्ति को बाद में हानि भी उठानी पड़ सकती है।
इस स्थिति का सामना न करना पड़े इस लिए जितनी जल्दी हो मूर्ख से किनारा कर लेना चाहिए।
मूर्ख व्यक्ति के नजदीक भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि मूर्ख हमेशा ऐसे वचन बोलता है जो व्यक्ति को चुभते हैं।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
|| ॐ रामनाथ स्वामी महादेवा ||