श्री हरि सखियों के श्याम और मोक्षदायिनी सप्तपुरिया
श्रीहरि सखियों के श्याम
सखियों के श्याम
( दिन दुलहा दिन दुलहिन राधा नंदकिशोर )
'सखियों! सबके विवाह हो गये, किंतु जिनका विवाह देखनेको नयन तृषित हैं, उनका न जाने क्यों विधाताको स्मरण ही नहीं होता।'
गोपकुमारियाँ सिरपर घड़े और हाथमें वस्त्र लिये जमुनाकी ओर जा रही थी।
चलते-चलते चित्राने यह बात कही तो उत्तरमें इला बोली—
'अरी बहिन! बड़े भाई के कुमारे रहते, छोटे भाईका विवाह कैसे हो!
इसी संकोचके मारे नंदबाबा अपने लालाका विवाह नहीं कर रहे।'
अहो, इला जीजी तो बहुत शास्त्र जानती है।
किंतु दोनों सगे भाई तो नहीं कि नंदकुमारको परिवेत्ता होनेका दोष लगे!'—
नंदाने हँसकर कहा।
'सगे न सही।
किंतु बाबा महा—
संकोची हैं।
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वे तबतक श्यामसुंदरका विवाह नहीं करेंगे जबतक दाऊ दादाका विवाह न हो जाय अथवा उन्हें उनके पिता वसुदेवजी मथुरा न बुला लें।
पहले कंसने उनके ढेर सारे बालक मार दिये हैं, अब दाऊजी यहाँसे बड़े बलवान बनके जायेंगे और कंसको मारकर, माता — पिताको सुख देंगे।
अभी तो वे कंससे छिपकर यहाँ रह रहे हैं।'—
इलाने गम्भीरता से कहा।
'तबतक क्या श्रीकिशोरी जू कुमारी ही रहेंगी!'–
नंदाने आश्चर्य व्यक्त किया।
'और नहीं तो क्या ?'
विद्या हँस पड़ी—
'सगाई तो हो चुकी अब विलम्बके भयसे सगाई तोड़े वृषभानुराय; यह सम्भव नहीं लगता! अतः जबतक श्याम कुमारे तबतक श्री जू कुमारी!"
यह तो महा-अनरथ —
अनहोनी होगी अहिरोंकी बेटी तो घुटनोंके बल चलनेके साथ ही सुसरालका मुँह देख लेती है।
सच है बहिन! पर अब क्या हो, कठिनाई ही ऐसी आन पड़ी है।
अच्छा जीजी! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बड़े जब उनका अवकाश हो, तब उनका विवाह करें।
हम अपने ढंगसे उनका विवाह रचकर नेत्रोंकी प्यास बुझा लें। —
क्षमाने इन्दुलेखाजीसे कहा; तो अनेक कंठोंने समर्थन किया हर्षपूर्वक ।
'विवाहका खेल कैसे खेला जा सकता है मेरी बहिन!' –
इन्दुलेखा जीजीने स्नेहसे क्षमाकी ठोड़ी छूकर कहा।
क्यों नहीं जीजी! जब कभी - न - कभी उनका विवाह निश्चित है...!
' तो फिर खेलमें विवाह निषेध कैसे क्यों ? '
क्षमाने युक्ति प्रस्तुत की।
अच्छा बहिन!
मैं तेरी बात बरसानेकी बहिनों को बताऊँगी। —
जीजी हँसकर बोलीं।
'बरसानेकी बहिनों—
से भी समर्थन प्राप्त हुआ और वह धन्य क्षण आया।
'दुःख यही है कि तुम ननिहाल थी कला! यह उत्सव देख न सकीं।'
उत्तरमें कलाके नयन झर झर बरस उठे—
'मेरा दुर्भाग्य ही मुझे यहाँसे दूर ले गया था बहिन! नयन अभागे ही रहे, वह सौभाग्य तुम्हारी कृपासे कर्ण प्राप्त करें।"
'सुन सखी!
जब सब बहिनें और श्यामसुंदरके सखा भी सहमत हो गये, तो हमने अक्षय तृतीयाकी गोधूलि बेला विवाह के लिये निश्चित की।
श्रीराधा - कृष्णका शृंगार हुआ ।
गिरिराजकी तलहटीमें मालती - कुंजमें लग्न मंडप बना।
गणपति पूजनके पश्चात दोनों मंडपमें बिराजित हुए।
उस छविका वर्णन कैसे करूँ सखी!
दोनों ही एक - दूसरे की शोभा देखना चाहते थे, अतः ललचाकर दोनों हीके नयन तिरछे हो जाते; किंतु लज्जा और संकोचके मारे दृष्टि ठहर नहीं पाती थी।
दोनोंके माथे पे मोर और मोतीकी लड़ियाँ शोभित थीं।
किशोरीजीका मुख घड़ीमें आरक्त हो उठता, सदाके मुखर कान्ह जू भी उस दिन सकुचायेसे बैठे थे।'
'मधुमंगलने दोनों ओर का पौरोहित्य निभाया।
सदाके मसखरे मधुमंगलको धीर – गम्भीर स्वरमें मंत्रपाठ और शाखोच्चार करते देख विश्वास नहीं हो पा रहा था कि यह यही चिढ़ने-चिढ़ानेवाला मधुमंगल है।'
'कन्यादानके समय एक आश्चर्य भयो!
न जाने कहाँ ते एक बूढ़ा ब्राह्मण आ पहुंँचो, अपनी काँपती वाणीमें हाथ जोड़कर बोला- यह सौभाग्य मुझे प्रदान हो!
उसे देखते ही राधा - कृष्णने खड़े होकर प्रणाम किया और सिर हिलाकर उसकी प्रार्थना स्वीकार की।
'उस बेचारे की दशा देखतीं तुम!
रोमोत्थानसे काँपती देह, शिथिल वाणीसे निकलता मन्त्र पाठ और नयनों से झरता प्रवाह।
जब पान, सुपारी, श्रीफल, पुष्प और दक्षिणाके साथ उसने किशोरीजीका कर श्यामसुंदरके हाथमें दिया तो तीनों ही की देह हल्की सिहरन – से थरथरा उठी।
सखियाँ मंगलगान और सखा विनोद करना भूल गये।
मधुमंगलकी वाणी वाष्परुद्ध हो कंठमें ही गोते खाने लगी।
मानो सबके सब चित्रलिखे –
से रह गये।'
अब भांवरकी शोभा कैसे कहूँ.... !' —
कहते - कहते क्षमाको रोमांच हुआ और वाणी तथा देह एक साथ कंटकित हो विराम पा गयी।
क्षमाके चुप होते ही कलाकी आकुल-व्याकुल दृष्टि ऊपर उठी —
गद्गद स्वर फूटा—
'भांवर.... भांवर कैसे हुई बहिन ?'
वह उतावलीसे बोली —
'मेरे तृषित कर्णोंको तृति प्रदान करो बहिन!'
कुछ क्षण पश्चात संयत होकर क्षमा बोली-
'बहिन!
उस शोभाका वर्णन करनेको मेरे पास तो क्या; वागीश्वरीके समीप भी शब्दोंका अभाव ही होगा! भांवरके पश्चात हम उन्हें निकुंज – भवनमें ले गयी।'
'उस बूढ़े ब्राह्मणका क्या हुआ-
कौन था वह ?'–
कलाने पूछा।
'विवाहके पश्चात प्रणामकरके दम्पतिने उसे दक्षिणाकी पृच्छा की।
न जाने कैसा ब्राह्मण था वह, बहुत देर तक आँसू बहाते हुए हाथ जोड़कर न जाने क्या - क्या कहता रहा, एक भी शब्द हमारी समझमें नहीं आया।
सम्भवतः वह कोई अनुपम वरदान चाहता था।
क्योंकि अंतमें जब वह प्रणामके लिये भूमिष्ठ हुआ तो श्यामसुंदरने उसे उठाकर 'तथास्तु' कहा।'
'निकुञ्ज – भवनमें दोनों को सिंहासनपर विराजमान करके दो सखियाँ चँवर डुलाने लगी।
ललिता जीजीने चरण धोकर हाथों का प्रक्षालन करा आचमन कराया।
वर — वधु किसी कारण इधर - उधर देखते तो लगता मानो नयन श्रवणोंसे कोई गुप्त बात करने त्वरापूर्वक उनके समीप जा लौट आये हैं।
आचमनके अनन्तर षट्-रस भोजनका थाल सम्मुख धरा।
विशाखा जू श्यामसुन्दरको और ललिता जू श्री किशोरी जू को मनुहार देना सिखा रही थीं। '
'प्रथम, श्यामसुन्दरने मिठाईका छोटा - सा ग्रास श्रीकिशोरीजीके मुख में दिया; मानो कोई नाग अपनी विष ज्वाला न्यून करने हेतु चन्द्रमासे अमृत याचना करते हुए अर्घ्य अर्पित कर रहा हो।
इसी प्रकार श्रीकिशोरी जू ने भी मिठाईका छोटा - सा ग्रास श्यामसुंदरके मुखमें दिया —
ऐसा लगा मानो नाल सहित कमलने ऊपर उठकर उषाकालीन सूर्यकी अभ्यर्थना की हो।'
कलाके अधखुले नयन मुक्ता - वर्षणकर रहे थे।
खुले काँपते अधरपुटोंसे धवल दन्तपंक्तिकी हल्की - सी झलक मिल जाती।
प्रत्येक रोम उत्थित हो, मानो अपनी स्वामिनीकी अंतरकथा कहनेको आतुर हो उठा।
क्षमा समझ गयी कला राधा - कृष्णकी ब्याह – लीला देखने में निमग्न है।
'सुन कला! ध्यान फिर कर लेना अभी श्रवण सार्थक कर ले बहिन।'—
क्षमाने उसके कंधे हिलाये।
उसके नयन उघड़े, तो भीतर भरा जल ऐसे झर पड़ा जैसे दो सुक्तियोंने मुक्ता वर्षण किया हो ।
'आगे?'–
उस दृष्टिने प्रश्न किया और क्षमा कहने लगी—
'भोजनके पश्चात् इलाने हस्त-प्रक्षालन कराया —
ताम्बूल अर्पण किया। यह लो आ गयी इला भी, अब तुम्ही आगे की बात सुनाओ बहिन!' क्या कहुँ बहिन! सबकी सेवा निश्चित हो गयी थी, पर सखियोंने कृपाकरके मुझे अवसर दिया।
अपनी दशा क्या कहुँ !
हाथोंका कम्प, नेत्रों के अश्रु और कंठके स्वर; सब मिलकर मुझे स्थिर —
अस्थिर करनेको मानो कटिबद्ध थे।
किंतु सेवाका सौभाग्य भी तो कोई छोटा न था! श्यामसुंदरने अपने हाथसे ताम्बूल श्रीजूके मुखमें दिया और उन्होंने श्यामसुन्दरके मुखमें।
क्या कहुँ सखी! लाजके भारसे श्रीजूकी पलकें उठ नहीं पा रही थी, पर मन निरन्तर दर्शनको आतुर था! वे कोमल अनियारे झुके-झुके नयनकंज बार-बार तिरछे होकर मुड़ जाते।
श्याम जू की जिह्वा भी आज सकुचायी-सी थी ।
चन्द्रावली जू और ललिता जू ने दोनोंसे कहा- 'नेक समीप है के बिराजो स्याम जू! नहीं तो सदा आँतरो रहेगो बीच में।'
सुनकर सब सखियां हँस पड़ी थी। श्यामसुन्दर कुछ कहनेको हुए, पर कसमसा कर चुप हो गये।
'क्या बात है, आज बोल नहीं फूट रहा मुखसे; जसुदा जू ने बोलना नहीं सिखाया क्या?"
बोलना तो आता है सखी! पर तुम मुझे गँवार कहोगी, इसी भयसे चुप हो रहा।'
'अच्छा स्याम जू! क्या कहना चाहते थे भला?"
'जाने दो सखी; कुछ नहीं! तुम्हारी बकर-बकर सुनकर मौन हो जाना ही शुभ है।' –
श्यामसुन्दरकी बात सुनकर सब हँस पड़ी।
इसके पश्चात् आरती हुई ढ़ोल-मृदंग-वीणा-पखावजके साथ सखियोंके स्वर गूँज उठे–
'आरति मुरलीधर मोहन की प्राणप्रिया संग सोहन की।'
उस समयकी शोभा कैसे कहूँ.... देखते ही बनती थी।
शंख जलके छोटे पड़े तो चेत हुआ तथा इसके पश्चात गाना बजाना और नृत्य हुए।
इन्दुलेखा जीजीके नृत्यके पश्चात चन्द्रावलीजूने कहा-
'मोहन!अब तुम दोनोंके गाने – नाचनेकी बारी है।'
युगल जोड़ीने तिरछे नयनोंसे एक दूसरे की ओर देखा।
किशोरीजीने लजाकर पलके झुका लीं; पर श्यामसुंदर हँसकर बोले-
'मैं क्या छोरी हूँ सखी ?
यह सब काम तो तुम्हीं को शोभा देते हैं; मुझे तो गाना-नाचना आता नहीं।'
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"अहा.... हा, भली कही!'-
— चन्द्रावलीज़ बोली।
'हमने तो कभी देखा सुना ही नहीं न! अरे तुम तो हमसे भी सुन्दर नृत्य-गायन करते हो।
तुम्हारी ये बातें यहाँ नहीं चलेंगी।'- कहकर उन्होंने उनके हाथ पकड़कर सिंहासन से उतार दिया,
इसी प्रकार ललिताजीने श्री जू को सहारा दिया।
बीचमें राधा–श्यामको अवस्थित करके हम सब चन्द्राकर स्थित हुई।
'वैकुण्ठ हूँ ते प्यारो मेरो यह वृंदावनधाम।'–
श्यामसुंदरके आलाप लेते ही, वाद्य मुखर हो उठे; अन्य सब हाथोंसे ताल देने लगीं।
दोनोंकी सम्मलित स्वर - माधुरी और नृत्य देखकर हमारे नेत्र धन्य हुए; हम कृतकृत्य हुईं ।
'सखी! अनेकों बार हमने अलग-अलग इनका नृत्य–गान सुना है, किंतु यह माधुर्य, नेत्र चालन, हस्त–मुद्रायें, निर्दोष पद-चालन और अंग–विलास, स्वर ताल और भाव-वेष्ठित यह युगल.... ।'
जय श्री राधे....
मोक्षदायिनी सप्तपुरियां कौन कौन सी हैं?
सप्तपुरी पुराणों में वर्णित सात मोक्षदायिका पुरियों को कहा गया है।
इन पुरियों में 'काशी', 'कांची' (कांचीपुरम), 'माया' ( हरिद्वार ), 'अयोध्या', 'द्वारका', 'मथुरा' और 'अवंतिका' ( उज्जयिनी ) की गणना की गई है।
'काशी कांची चमायाख्यातवयोध्याद्वारवतयपि, मथुराऽवन्तिका चैताः सप्तपुर्योऽत्र मोक्षदाः'; 'अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका, पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।'
पुराणों के अनुसार इन सात पुरियों या तीर्थों को मोक्षदायक कहा गया है।
इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
1. अयोध्या
अयोध्या उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक शहर है।
दशरथ अयोध्या के राजा थे।
श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था।
राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है।
अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है।
अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है।
रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी।
कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्य वंश की राजधानी रहा।
अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है।
यहाँ आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं।
जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।
2. मथुरा
पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है।
अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा।
ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
वराह पुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं।
[3] श्राद्ध कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है।
मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है।
उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था।
पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है।
पृथ्वी के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है?
महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है।
वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है।
यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है।
इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृन्दावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुण्ड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है।
इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है।
गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है।
पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है।
3. हरिद्वार
हरिद्वार उत्तराखंड में स्थित भारत के सात सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में एक है।
भारत के पौराणिक ग्रंथों और उपनिषदों में हरिद्वार को मायापुरी कहा गया है।
गंगा नदी के किनारे बसा हरिद्वार अर्थात हरि तक पहुंचने का द्वार है।
हरिद्वार को धर्म की नगरी माना जाता है।
सैकडों सालों से लोग मोक्ष की तलाश में इस पवित्र भूमि में आते रहे हैं।
इस शहर की पवित्र नदी गंगा में डुबकी लगाने और अपने पापों का नाश करने के लिए साल भर श्रद्धालुओं का आना जाना यहाँ लगा रहता है।
गंगा नदी पहाड़ी इलाकों को पीछे छोड़ती हुई हरिद्वार से ही मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है।
उत्तराखंड क्षेत्र के चार प्रमुख तीर्थस्थलों का प्रवेश द्वार हरिद्वार ही है।
संपूर्ण हरिद्वार में सिद्धपीठ, शक्तिपीठ और अनेक नए पुराने मंदिर बने हुए हैं।
4. काशी
वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत देश के उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन और धार्मिक महत्ता रखने वाला शहर है।
वाराणसी का पुराना नाम काशी है।
वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है।
यह गंगा नदी किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है।
दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पडा।
बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है।
संस्कृत पढने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे।
वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है।
5. कांचीपुरम
कांचीपुरम तीर्थपुरी दक्षिण की काशी मानी जाती है, जो मद्रास से 45 मील की दूरी पर दक्षिण–पश्चिम में स्थित है।
कांचीपुरम को कांची भी कहा जाता है।
यह आधुनिक काल में कांचीवरम के नाम से भी प्रसिद्ध है।
ऐसी अनुश्रुति है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्मा जी ने देवी के दर्शन के लिये तप किया था।
मोक्षदायिनी सप्त पुरियों अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया ( हरिद्वार ), काशी और अवन्तिका ( उज्जैन ) में इसकी गणना की जाती है।
कांची हरिहरात्मक पुरी है।
इसके दो भाग शिवकांची और विष्णुकांची हैं।
सम्भवत: कामाक्षी अम्मान मंदिर ही यहाँ का शक्तिपीठ है।
6. अवंतिका
उज्जयिनी का प्राचीनतम नाम अवन्तिका, अवन्ति नामक राजा के नाम पर था। [
9] इस जगह को पृथ्वी का नाभिदेश कहा गया है।
महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था।
उज्जयिनी महाराज विक्रमादित्य की राजधानी थी।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है।
इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है।
यहाँ हर 12 वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है।
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है।
7. द्वारका
द्वारका का प्राचीन नाम है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था।
बाद में त्रिविकम भगवान ने कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था।
त्रिविक्रम का मंदिर द्वारका में रणछोड़जी के मंदिर के निकट है।
ऐसा जान पड़ता है कि महाराज रैवतक ( बलराम की पत्नी रेवती के पिता ) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकाल कर यह नगरी बसाई होगी।
हरिवंश पुराण के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी।
विष्णु पुराण के अनुसार,अर्थात् आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर आनर्त पर राज्य किया।
विष्णु पुराण से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी-'कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव, सा द्वारका संप्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा'।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
श्री राधे 🙏🏽

