श्री रामचरित्रमानस संक्षिप्त प्रवर्चन - रावण की मृत्यु का यह अद्भुत रहस्य
||रावण की मृत्यु का यह अद्भुत रहस्य ||
विभीषण को दोषी न समझे
हम बचपन से ही अपने बुजर्गो या माता पिता से रामायण की कथा सुनते आये है तथा आज तक हमें सिर्फ यही पता है की रावण की मृत्यु की वजह उसका भाई विभीषण था।
विभीषण ने ही श्री राम को अपने भाई रावण के मृत्यु का रहस्य बताया था।
रावण सहित उसके दो भाई कुम्भकर्ण तथा विभीषण ने ब्रह्मा जी की कठिन तपस्या की तथा उन्हें प्रसन्न किया।
जब ब्र्ह्मा जी तीनो भाइयो की कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुए तो रावण ने ब्रह्मा जी से अमरता का वरदान मांगा।*
ब्रह्म जी ने रावण के इस वरदान पर असमर्थता जताई परन्तु उन्होंने रावण को एक तीर दिया व कहा की यही तीर तुम्हारे मृत्यु का कारण बनेगा।
रावण ने ब्रह्मा जी से वह तीर ले लिया तथा उसे अपने महल में ले जाकर सिहासन के पास दीवार में चुनवा दिया ।
जब भगवान श्री राम तथा रावण का युद्ध चल रहा था तब भगवान श्री राम द्वारा चलाया गया हर बाण रावण के ऊपर बेअसर हो रहा था।
रावण का सर जैसे ही श्री राम अपने तीरो से काटते तो रावण का एक नया सर स्वयं ही उत्पन्न हो जाता।*
*भगवान श्री राम को जब लगने लगा की रावण का अब वध करना असम्भव है तब ठीक उसी समय विभीषण भगवान श्री राम के पास आये था उन्होंने रावण की मृत्यु का राज बताते हुए राम से कहा की प्रभु रावण के नाभि में अमृत की एक कुटिया है जिसे ब्रह्म देव के विशेष तीर द्वारा ही फोड़ा जा सकता है।
उसी समय विभीषण ने राम को यह भी बताया की उस विशेष तीर के द्वारा ही रावण का वध किया जा सकता है अन्यथा कोई भी अस्त्र उसका वध नहीं कर सकता है।
तथा यह राज सिर्फ मंदोदरी को ही पता था।
*बस फिर क्या था हनुमान जी ने एक ज्योतिषाचार्य का रूप धारण किया था।
लंका में जाकर वहां एक स्थान से जाकर दूसरे स्थान में घूमने लगे तथा वहां जाकर लोगो का भविष्य बताने लगे।
कुछ ही समय में हनुमान रूपी ज्योतिष की खबर पुरे लंका में फैल गयी।
उस ज्योतिष की खबर रावण की पत्नी मंदोदरी तक पहुंची तथा मंदोदरी ने उनकी विशेषता जान उत्सुकता वश उन्हें अपने महल में बुलवा लिया।
हनुमान रूपी ज्योतिष ने मंदोदरी को रावण के संबंध में कुछ ऐसी बात कही जिसे सुन मंदोदरी आश्चर्यचकित हो गई।*
*बातो ही बातो में हनुमान जी मंदोदरी को रावण के संबंध उसे ब्रह्मजी से वरदान के रूप में प्राप्त तीर के बारे में बतलाया।
साथ ही साथ हनुमान जी ने यह भी बताने की कोशिश की कि जहां भी वो बाण पड़ा है, वह सुरक्षित नहीं है।
हनुमान जी चाहते थे कि मंदोदरी उन्हें किसी भी तरह उस बाण का स्थान बता दे।
मंदोदरी पहले तो ज्योतिषाचार्य को आश्वस्त करने की कोशिश करती रही कि वो बाण सुरक्षित है।
लेकिन हनुमान जी की वाक पटुता की वजह से मंदोदरी बोल ही पड़ी कि वह बाण रावण के सिंहासन के सबसे नजदीक स्थित स्तंभ के भीतर चुनवाया गया है।*
*यह सुनते ही हनुमान जी ने अपना असली स्वरूप धारण कर लिया और जल्द ही वह बाण लेकर श्रीराम के पास पहुंच गए।
रामजी ने उसी बाण से फिर रावण की नाभि पर वार किया।
इस तरह रावण का अंत हुआ।*
*( संदर्भ,आनंद रामायण से)*
*आगे फिर कभी पढ़े अद्भुत*
*रहस्य मंदोदरी बाली की पत्नी थी।*
*|| ज्योतिषाचार्य हनुमान जी की जय हो ||*
हमे अगर अपने जीवनकाल में सबसे अधिक गर्व होता है तो इस बात पर कि हमने ऐसे देश में जन्म लिया है जो पूरे ब्रम्हाण्ड का सिरमोहर रहा है !
मेरे देश में सदैव नारी को शक्ति रूप में पूजा है !
नारी को शक्तिरूपा बनाने में माता अनुसुइया का योगदान सर्वमान्य है, विश्व में नारी शक्ति के विश्वास का माता से बड़ा उदाहरण दूसरा नही मिलता है !
हमारे शास्त्रों में जाने कितनी कथाएँ मिलती हैं कि माता के समय - काल के उपरांत भी हमारी कितनी माताओं / बहनों ने केवल उनका नाम स्मरण करने से असीमित शक्तियाँ प्राप्त की हैं !
हम लोग बड़े भाग्यवान हैं कि हमने कलयुग में जन्म लिया है....!
क्योंकि जो तपस्या का फल सतयुग में 100 वर्ष में, त्रेता में 10 वर्ष में, द्वापर में 1 वर्ष में मिलता था वही कलयुग में मात्र 1 माह की तपस्या से मिल सकता है !
पर मायापति की माया ही समझो कि मेरे जैसे कितने ही लोग माया के चक्कर में मायापति को ही भूल बैठे हैं !
एक माह क्या जीवन में मात्र 1 घण्टे का समय भी प्रतिदिन हमारे पास बिना किसी कामना के महादेव का स्मरण करने के लिए नहीं है !
हम लोगों की समस्या यह है कि अगर हमने एक - दो धार्मिक ग्रँथ पढ़ लिए तो हमे लगता है कि हमसे ज्यादा विद्वान इस दुनिया में कोई नही है !
इस सम्बंध में मुझे मेरी माँ की सुनाई हुई एक कथा याद आ रही है !
पुराने समय की बात है एक गांव में एक ब्राह्मण रहते थे!
ब्राह्मण हरि भक्त थे तथा अपने एक मात्र पुत्र को वह हरि कथा सुनाया करते थे!
पुत्र भी बड़े श्रद्धा भाव से कथा सुना करते थे....!
अचानक ब्राह्मण का देहावसान हो गया !
घर में केवल माँ और बेटा रह गए !
पिता की मृत्यु के उपरांत ब्राह्मण पुत्र के मन मे वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह घर छोड़ कर तपस्या करने वन में चले गए !
तपस्या से उन्हें शक्तियाँ प्राप्त हो गई, एक दिन वह नदी में स्नान कर रहे थे तभी एक चील उनके वस्त्र उठा कर उड़ गई !
जब ब्राह्मण पुत्र ने चील को वस्त्र ले जाते हुए देखा तो उन्हें क्रोध आ गया औऱ उन्होंने चील की तरफ क्रोध से देखा और उनके देखते ही चील जल कर नीचे गिर गई !
यह देख कर ब्राह्मण पुत्र के मन में अभिमान जाग गया कि में बहुत बड़ा तपस्वी बन गया हूँ ।
ब्राह्मण पुत्र वस्त्र पहनकर एक गांव में भिक्षा हेतु पहुंचे और एक घर के दरवाजे पर भिक्षा हेतु आवाज लगाई !
उस समय घर में ग्रहणी अपने पति को भोजन खिला रही थी !
महिला माँ अनुसुइया की अनुगामी एवं माँ की अनन्य भक्त थी !
भोजन करते हुए पति को छोड़कर ग्रहणी ने बाहर जाना उचित नहीं समझा और तपस्वी को कुछ समय इंतजार करने का अनुरोध किया !
पति के भोजन करने के उपरांत जब ग्रहणी भिक्षा लेकर दरवाजे पर पहुंची तो ब्राह्मण पुत्र क्रोध में भर गए और चील के जलने का दृश्य उनकी आंखों में तैरने लगा !
अनुसूयाजी जी की भक्त ग्रहणी ने ब्राह्मण पुत्र की मनोदशा को पहचान लिया और कहने लगी कि हे ब्राह्मण पुत्र क्या आपको यह लग रहा है कि आप मुझे भी उस चील की तरह जला देना चाहते हो !
गृहणी की बात सुनकर तपस्वी का क्रोध तुरंत ठंडा हो गया और सोचने लगे कि इनको कैसे ज्ञात हुआ कि मैने नदी पर चील को जला दिया था !
ब्राह्मण पुत्र कहने लगे कि हे माता तुम्हे कैसे ज्ञात है कि मैने अपने तप से चील को जला दिया था !
गृहणी कहने लगी कि हे पुत्र माँ अनुसूयाजी की आराधना करती थी अपने पति की सेवा की शक्ति के कारण मुझे सब ज्ञात हो जाता है !,
अतः
पुत्र अब तुम अपने घर जाओ और अपनी माँ की सेवा करो वह तुम्हारा रास्ता देख रही हैं!
बेटा माँ की सेवा से बड़ी कोई तपस्या नही हो सकती !
तपस्या करने की आवश्यकता उन्हें होती है जिन्हें अपनी माँ की सेवा का अवसर नही प्राप्त होता है !
अब तो ब्राह्मण पुत्र की आँखे खुल गई और वह उस सती के चरणों में गिरकर रोने लगे !
सती ने उन्हें उठाया और भोजन कराया !
ब्राह्मण पुत्र नम आंखों से उस सती से विदा ले कर अपने घर को चल दिये ।
यह मार्मिक कथा जैसी मुझे याद आई आपको सुनाई,बोलो माता अनुसूयाजी की जय ।
|| मात अनुसूया जी की जय हो ||
*|| मुक्ति सहज नहीं मिलती ||*
*शरीर के मरने से मुक्ति नहीं मिलती , बल्कि मन के मरने मुक्ति मिलती है, मन का निरोध ही मुक्ति है अर्थात् सभी सांसारिक विषयों से मन हटकर जब मिलकर ईश्वर से मिल जाता है तब मुक्ति ही आ जाती है।
परमात्मा आनन्द स्वरुप हैं,मन अर्धचेतन है, मन सांसारिक विषयों के साथ एक नहीं हो सकता क्योंकि संसार जड़ है और मन अर्धचेतन, सजातीय वस्तु ही एक हो पाती है, मन ईश्वर के सिवाय अन्य किसी वस्तु से एक नहीं हो सकता।
मनुष्य चाहे जितना कामी क्यों न हो,कामसुख के बाद उसका मन नारी देह से दूर हो जाता है, कामैषणा दूसरी बार जाग सकती है, किन्तु तत्काल तो नारी देह से हट ही जायेगी, यही उदासीनता यदि हमेशा के लिए मन में जम जाय हो बेड़ा पार है, वैराग्य क्षणिक नहीं स्थायी होना चाहिए।*
*विषय भोग के बाद शीघ्र ही उत्पन्न होने वाला वैराग्य, वैराग्य नहीं, बल्कि उसका आभास मात्र है, मन संसार के जड़ पदार्थों के साथ नहीं,ईश्वर के साथ एक हो सकता है।
पूर्व जन्म का शरीर तो मर गया है किन्तु मन नया शरीर लेकर आया है, जीवात्मा मन के साथ जाता है, सो शरीर की अपेक्षा मन की चिंता अधिक करना चाहिए।
मृत्यु के बाद भी मन साथ ही जाता है, पति पत्नी माता पिता पुत्र परिवार सब यहीं रह जाते हैं, किन्तु मन साथ चलता है।
सांसारिक वस्तु नष्ट होने पर पुनः मिलेगी किन्तु मन बिगड़ने पर दूसरा नहीं मिलेगा, जीवात्मा तन को छोड़ता है किन्तु मन को नहीं ।*
*मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।*
*अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।*
*(गीता.15/7/9)*
*जीवों मे बसा मेरा अंश त्रिगुणमयी माया में स्थिर होकर मन सहित पाँचो इन्द्रियों को आकर्षित करता है, मन का आश्रय करके जीवात्मा ही इन विषयों का उपभोग करता है, अतः मनुष्य के मरने के बाद भी मन तो साथ ही रहता है, शरीर तो मरता है किन्तु मन नहीं, मन तभी मरता है जब मनमोहन के साथ एकरुप हो जाता है, अर्थात् मुक्ति तभी मिले जब मन मरता है।
विषयों की तरफ दौड़ता हुआ मन नहीँ मरता , बल्कि जब ईश्वर का चिंतन, ध्यान , मनन करने से ईश्वर को प्राप्त करता है तब मन मरता है।
संसार के निंदनीय कर्मों का त्याग करके संसार के वंदनीय कर्मों में एकाग्र होना चाहिए।
आत्मा मन का गुरु है, स्वामी है,मुक्त है, मुक्ति मन को मिलती है, आत्मा तो मुक्त है, स्वतन्त्र है।मन मतंग माने नहीं जबलो धका न खाय।*
*|| जय श्री कृष्ण जय श्री श्याम ||*
यदि हम जीवन में दो बातें भूल जाएं तो ईश्वर का वरदहस्त हमारे सर पे होगा एक तो जो...!
हम परमात्मा की कृपा से किसी की सहायता कर पाते और दूसरा,प्रारब्धवश दूसरों से.....!
हमें जो हानि या असहयोग मिलता मानव से महामानव बनने तक की यात्रा,इन्हीं दो....!
बिंदुओं पर निर्भर है क्योंकि सांसारिक अपेक्षाओं और प्रतिशोध के भाव भी यही दो कारक हमारे मन में पैदा करते हैं।
जब हम इनसे ऊपर उठ जाएंगे तो हमारे कर्मों की परिधि और परायणता, अपने - पराए के भेद को भुला कर,हमको केवल नीतिगत दायित्वों का बोध कराती रहेगी।
और हम एक आदर्श व दोषमुक्त जीवन जी पाएंगे आज अपने प्रभु से जीवन में सेवा का भाव मस्तिष्क में न रखते हुए....!
हृदय में रखने की आवश्यकता है।
*|| ||*
*|| मुक्ति सहज नहीं मिलती ||*
शरीर के मरने से मुक्ति नहीं मिलती , बल्कि मन के मरने मुक्ति मिलती है, मन का निरोध ही मुक्ति है अर्थात् सभी सांसारिक विषयों से मन हटकर जब मिलकर ईश्वर से मिल जाता है तब मुक्ति ही आ जाती है।
परमात्मा आनन्द स्वरुप हैं,मन अर्धचेतन है, मन सांसारिक विषयों के साथ एक नहीं हो सकता क्योंकि संसार जड़ है और मन अर्धचेतन, सजातीय वस्तु ही एक हो पाती है, मन ईश्वर के सिवाय अन्य किसी वस्तु से एक नहीं हो सकता।
मनुष्य चाहे जितना कामी क्यों न हो,कामसुख के बाद उसका मन नारी देह से दूर हो जाता है, कामैषणा दूसरी बार जाग सकती है, किन्तु तत्काल तो नारी देह से हट ही जायेगी, यही उदासीनता यदि हमेशा के लिए मन में जम जाय हो बेड़ा पार है, वैराग्य क्षणिक नहीं स्थायी होना चाहिए।
विषय भोग के बाद शीघ्र ही उत्पन्न होने वाला वैराग्य, वैराग्य नहीं, बल्कि उसका आभास मात्र है, मन संसार के जड़ पदार्थों के साथ नहीं,ईश्वर के साथ एक हो सकता है।
पूर्व जन्म का शरीर तो मर गया है किन्तु मन नया शरीर लेकर आया है, जीवात्मा मन के साथ जाता है, सो शरीर की अपेक्षा मन की चिंता अधिक करना चाहिए।
मृत्यु के बाद भी मन साथ ही जाता है, पति पत्नी माता पिता पुत्र परिवार सब यहीं रह जाते हैं, किन्तु मन साथ चलता है।
सांसारिक वस्तु नष्ट होने पर पुनः मिलेगी किन्तु मन बिगड़ने पर दूसरा नहीं मिलेगा, जीवात्मा तन को छोड़ता है किन्तु मन को नहीं ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।
( गीता.15 / 7 / 9 )
जीवों मे बसा मेरा अंश त्रिगुणमयी माया में स्थिर होकर मन सहित पाँचो इन्द्रियों को आकर्षित करता है....!
मन का आश्रय करके जीवात्मा ही इन विषयों का उपभोग करता है, अतः मनुष्य के मरने के बाद भी मन तो साथ ही रहता है....!
शरीर तो मरता है किन्तु मन नहीं, मन तभी मरता है जब मनमोहन के साथ एकरुप हो जाता है....!
अर्थात् मुक्ति तभी मिले जब मन मरता है।
विषयों की तरफ दौड़ता हुआ मन नहीँ मरता , बल्कि जब ईश्वर का चिंतन, ध्यान , मनन करने से ईश्वर को प्राप्त करता है तब मन मरता है।
संसार के निंदनीय कर्मों का त्याग करके संसार के वंदनीय कर्मों में एकाग्र होना चाहिए।
आत्मा मन का गुरु है, स्वामी है,मुक्त है, मुक्ति मन को मिलती है, आत्मा तो मुक्त है, स्वतन्त्र है।
मन मतंग माने नहीं जबलो धका न खाय।
|| जय श्री कृष्ण जय श्री श्याम ||
मृत्यु के बारे में चिंता करने के बजाय, हर दिन और हर पल को भगवान के नाम के साथ जीना चाहिए।
खुद को बदलो, दुनिया बदल जाएगी।
1. जब हम स्नान करते समय भगवान का नाम लेते हैं, तो वह एक पवित्र स्नान बन जाता है।
2. जब हम खाना खाते समय नाम लेते हैं, तो वह भोजन प्रसाद बन जाता है।
3. जब हम चलते समय नाम लेते हैं, तो वह एक तीर्थ यात्रा बन जाती है।
4. जब हम खाना पकाते समय नाम लेते हैं, तो वह भोजन दिव्य बन जाता है।
5. जब हम सोने से पहले नाम लेते हैं, तो वह ध्यानमय नींद बन जाती है।
6. जब हम काम करते समय नाम लेते हैं, तो वह भक्ति बन जाती है।
7. जब हम घर में नाम लेते हैं, तो वह घर मंदिर बन जाता है।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
🌹🌹🌹 जय श्री कृष्णा 👏👏👏
🙏 जय माताजी 🙏