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Wednesday, June 25, 2025

मां का प्रेम , 'दुर्गावती’

मां का प्रेम ,  'दुर्गावती’  

 || मां का प्रेम ||


संसार में सबसे अधिक प्रेम करने वाला कोई व्यक्ति है, तो उसे मां कहते हैं। 

पिता को भी अपने बच्चों से प्रेम होता है, परन्तु इतना नहीं जितना मां को होता है।


यह नियम केवल मनुष्य जाति में ही नहीं, बल्कि सभी योनियों में देखा जाता है। 

चाहे गौ की योनि हो, सूअर की हो, कुत्ते बिल्ली शेर भेड़िया चिड़िया आदि कोई भी योनि हो, सब योनियों में उन बच्चों की मां अपने बच्चों से बहुत प्रेम करती है।




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यह ईश्वर की एक व्यवस्था है। 

क्योंकि यदि मां को बच्चों से इतना प्रेम न हो, तो शायद बच्चे पल भी नहीं पाएंगे। 

बच्चों के लालन - पालन के लिए मां में इतना प्रेम होना आवश्यक भी है। 

इसी प्रेम के कारण वह मां बच्चों का लालन पालन वर्षों तक करती है। 

और सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी अपने बच्चों को सुख देती है, और उनकी रक्षा करती है।


दार्शनिक शास्त्रीय भाषा में इसे "राग" कहते हैं। 

और साहित्यिक भाषा में इसे "स्नेह" कहते हैं। अस्तु।


भाषा जो भी हो, यह जो 'राग' या 'स्नेह' की "भावना" है, यह माता में बच्चों के लिए अद्वितीय होती है। 

इस भावना को मां ही अनुभव कर सकती है। 

दूसरे व्यक्ति इसको पूरी तरह से अनुभव नहीं कर सकते, कुछ कुछ मात्रा में कर लेते हैं।

परंतु इस भावना की अभिव्यक्ति शब्दों में करना तो असंभव है।

जैसे गुड़ का स्वाद शब्दों से व्यक्त करना असंभव है। 

वह स्वाद तो "अनुभव करने का" विषय है। 

ऐसे ही जो मां का बच्चों के प्रति राग या स्नेह होता है, वह भी अनुभव करने का ही विषय है। 

उसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता।


इस लिए सब लोगों को मां का सम्मान अवश्य करना चाहिए। 

और केवल अपनी मां का ही नहीं,बल्कि सभी माताओं का सम्मान करना चाहिए। 

क्योंकि सभी माताएं अपने बच्चों के लिए जितना कष्ट उठाती हैं, उतना कष्ट कोई नहीं उठाता या उठा सकता।


     || मां तो मां ही होती है ||


‘दुर्गावती’ 


दुर्गाष्टमी पर जन्म, इसलिए नाम पड़ा ‘दुर्गावती’


रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को बांदा जिले के कालिंजर किले में हुआ था। 

दुर्गाष्टमी पर जन्म लेने के कारण उनका नाम ‘दुर्गावती’ रखा गया। 

वे कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की इकलौती संतान थीं।





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अपने नाम के अनुरूप ही रानी दुर्गावती ने साहस, शौर्य और सुंदरता के कारण ख्याति प्राप्त की। 

उनका विवाह गोंडवाना राज्य के राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से हुआ था। 

विवाह के चार साल बाद ही राजा दलपत शाह का निधन हो गया। 

उस समय रानी दुर्गावती का पुत्र नारायण केवल तीन वर्ष का 

था, अतः उन्होंने स्वयं गढ़मंडला का शासन संभाल लिया।


अकबर के आगे नहीं झुकीं रानी दुर्गावती


रानी दुर्गावती इतनी पराक्रमी थीं कि उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के सामने झुकने से इनकार कर दिया। 

राज्य की स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने युद्ध का मार्ग चुना और कई बार शत्रुओं को पराजित किया। 

24 जून 1564 को उन्होंने वीरगति प्राप्त की। 

अंत समय निकट जानकर रानी ने अपनी कटार स्वयं अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान दिया।


   ||  शत् शत् नमन और प्रणाम ||




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जो कुछ भी इस जगत में है वह ईश्वर ही है और कुछ नहीं वह आनंद स्रोत है, रस है। 

ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता का अंधेरा दूर होता है। 

बिना स्वाध्याय के, बिना ज्ञान की उपासना के बुद्धि पवित्र नहीं हो सकती, मानसिक मलीनता दूर नहीं हो सकती। 

मानव जीवन का लक्ष्य आत्मा का परमात्मा से मिलन है,जो की ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। 

ब्रह्मज्ञान एक दिव्य ज्ञान है जो आध्यात्मिक उन्नति और सम्पूर्णता का अनुभव है।


ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से, मनुष्य में प्रेम, करुणा, और समता जैसे गुण स्वतः ही उत्पन्न होते हैं। 

ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। 

ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति केवल पूर्ण सतगुरु से ही हो सकती है।

अतः अविद्या के अज्ञानता के सारे द्वार बंद कर स्वयं को ब्रह्मज्ञान के द्वारा प्रकाशित करें...।


अंधकार में अनेक प्रकार के भय, त्रास एवं विघ्न छिपे रहते हैं। 

दुष्ट तत्वों की घात अंधकार में ही लगती है।

अविद्या को अंधकार कहा गया है। 

अविद्या का अर्थ अक्षर ज्ञान की जानकारी का अभाव नही है, वरन्  जीवन की लक्ष्य भ्रष्टता है। 

इसी को नास्तिकता, अनीति, माया, भान्ति पशुता आदि नामों से पुकारते हैं।


अध्यात्म के द्वारा हम स्वयं को रूपांतरित कर सकते है। 

अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता है, जो सहज स्फूर्त नैतिकता को संभव बनाता है, और हम जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ते हैं। 

इस से व्यक्तित्व में दैवीय गुणों का विकास होता है और एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता व्यक्तित्व में जन्म लेती है।




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जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से संबंधित है। 

हमें चाहिए कि हम अपने गुणों की वृद्धि करते रहे। 

ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा - पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण है, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। 

व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवन कला के विरोधी दुर्गुण है। 

इन का त्याग करने से जीवन कला को बल प्राप्त होता है।


अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है । 

इस के अभाव में असुख, अशाँति एवं असंतोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है। 

मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिए अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। 

जो साधक 'ब्रह्मज्ञान' के निकट पहुंच चुका है अथवा उसमें आत्मसात हो चुका है, उसके लिए सूर्य या ब्रह्म न तो उदित होता है, न अस्त होता है। 

वह तो सदा दिन के प्रकाश की भांति जगमगाता रहता है और साधक उसी में मगन रहता है...।


       || श्री अवधेशानंद गिरि जी महाराज  ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु