मां का प्रेम , 'दुर्गावती’
|| मां का प्रेम ||
संसार में सबसे अधिक प्रेम करने वाला कोई व्यक्ति है, तो उसे मां कहते हैं।
पिता को भी अपने बच्चों से प्रेम होता है, परन्तु इतना नहीं जितना मां को होता है।
यह नियम केवल मनुष्य जाति में ही नहीं, बल्कि सभी योनियों में देखा जाता है।
चाहे गौ की योनि हो, सूअर की हो, कुत्ते बिल्ली शेर भेड़िया चिड़िया आदि कोई भी योनि हो, सब योनियों में उन बच्चों की मां अपने बच्चों से बहुत प्रेम करती है।
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यह ईश्वर की एक व्यवस्था है।
क्योंकि यदि मां को बच्चों से इतना प्रेम न हो, तो शायद बच्चे पल भी नहीं पाएंगे।
बच्चों के लालन - पालन के लिए मां में इतना प्रेम होना आवश्यक भी है।
इसी प्रेम के कारण वह मां बच्चों का लालन पालन वर्षों तक करती है।
और सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी अपने बच्चों को सुख देती है, और उनकी रक्षा करती है।
दार्शनिक शास्त्रीय भाषा में इसे "राग" कहते हैं।
और साहित्यिक भाषा में इसे "स्नेह" कहते हैं। अस्तु।
भाषा जो भी हो, यह जो 'राग' या 'स्नेह' की "भावना" है, यह माता में बच्चों के लिए अद्वितीय होती है।
इस भावना को मां ही अनुभव कर सकती है।
दूसरे व्यक्ति इसको पूरी तरह से अनुभव नहीं कर सकते, कुछ कुछ मात्रा में कर लेते हैं।
परंतु इस भावना की अभिव्यक्ति शब्दों में करना तो असंभव है।
जैसे गुड़ का स्वाद शब्दों से व्यक्त करना असंभव है।
वह स्वाद तो "अनुभव करने का" विषय है।
ऐसे ही जो मां का बच्चों के प्रति राग या स्नेह होता है, वह भी अनुभव करने का ही विषय है।
उसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता।
इस लिए सब लोगों को मां का सम्मान अवश्य करना चाहिए।
और केवल अपनी मां का ही नहीं,बल्कि सभी माताओं का सम्मान करना चाहिए।
क्योंकि सभी माताएं अपने बच्चों के लिए जितना कष्ट उठाती हैं....!
उतना कष्ट कोई नहीं उठाता या उठा सकता।
|| मां तो मां ही होती है ||
‘दुर्गावती’
दुर्गाष्टमी पर जन्म, इसलिए नाम पड़ा ‘दुर्गावती’
रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को बांदा जिले के कालिंजर किले में हुआ था।
दुर्गाष्टमी पर जन्म लेने के कारण उनका नाम ‘दुर्गावती’ रखा गया।
वे कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की इकलौती संतान थीं।
अपने नाम के अनुरूप ही रानी दुर्गावती ने साहस, शौर्य और सुंदरता के कारण ख्याति प्राप्त की।
उनका विवाह गोंडवाना राज्य के राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से हुआ था।
विवाह के चार साल बाद ही राजा दलपत शाह का निधन हो गया।
उस समय रानी दुर्गावती का पुत्र नारायण केवल तीन वर्ष का
था, अतः उन्होंने स्वयं गढ़मंडला का शासन संभाल लिया।
अकबर के आगे नहीं झुकीं रानी दुर्गावती
रानी दुर्गावती इतनी पराक्रमी थीं कि उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के सामने झुकने से इनकार कर दिया।
राज्य की स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने युद्ध का मार्ग चुना और कई बार शत्रुओं को पराजित किया।
24 जून 1564 को उन्होंने वीरगति प्राप्त की।
अंत समय निकट जानकर रानी ने अपनी कटार स्वयं अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान दिया।
|| शत् शत् नमन और प्रणाम ||
जो कुछ भी इस जगत में है वह ईश्वर ही है और कुछ नहीं वह आनंद स्रोत है, रस है।
ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता का अंधेरा दूर होता है।
बिना स्वाध्याय के, बिना ज्ञान की उपासना के बुद्धि पवित्र नहीं हो सकती.....!
मानसिक मलीनता दूर नहीं हो सकती।
मानव जीवन का लक्ष्य आत्मा का परमात्मा से मिलन है,जो की ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही सम्भव है।
ब्रह्मज्ञान एक दिव्य ज्ञान है जो आध्यात्मिक उन्नति और सम्पूर्णता का अनुभव है।
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से, मनुष्य में प्रेम, करुणा, और समता जैसे गुण स्वतः ही उत्पन्न होते हैं।
ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है।
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति केवल पूर्ण सतगुरु से ही हो सकती है।
अतः अविद्या के अज्ञानता के सारे द्वार बंद कर स्वयं को ब्रह्मज्ञान के द्वारा प्रकाशित करें...।
अंधकार में अनेक प्रकार के भय, त्रास एवं विघ्न छिपे रहते हैं।
दुष्ट तत्वों की घात अंधकार में ही लगती है।
अविद्या को अंधकार कहा गया है।
अविद्या का अर्थ अक्षर ज्ञान की जानकारी का अभाव नही है.....!
वरन् जीवन की लक्ष्य भ्रष्टता है।
इसी को नास्तिकता, अनीति, माया, भान्ति पशुता आदि नामों से पुकारते हैं।
अध्यात्म के द्वारा हम स्वयं को रूपांतरित कर सकते है।
अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता है.....!
जो सहज स्फूर्त नैतिकता को संभव बनाता है.....!
और हम जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ते हैं।
इस से व्यक्तित्व में दैवीय गुणों का विकास होता है और एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता व्यक्तित्व में जन्म लेती है।
जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से संबंधित है।
हमें चाहिए कि हम अपने गुणों की वृद्धि करते रहे।
ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा - पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण है, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं।
व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवन कला के विरोधी दुर्गुण है।
इन का त्याग करने से जीवन कला को बल प्राप्त होता है।
अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है ।
इस के अभाव में असुख, अशाँति एवं असंतोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है।
मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिए अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है।
जो साधक 'ब्रह्मज्ञान' के निकट पहुंच चुका है अथवा उसमें आत्मसात हो चुका है, उसके लिए सूर्य या ब्रह्म न तो उदित होता है, न अस्त होता है।
वह तो सदा दिन के प्रकाश की भांति जगमगाता रहता है और साधक उसी में मगन रहता है...।
|| श्री अवधेशानंद गिरि जी महाराज ||
अन्न का कण :
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श्री कृष्ण भगवान की एक प्रेरणादायक कहानी ( "छोटा सा निवाला" )
एक बार की बात है।
महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था।
द्वारका लौटने के बाद श्री कृष्ण भगवान एक दिन अपने महल में विश्राम कर रहे थे।
तभी रुक्मिणी जी ने उनसे पूछा: "प्रभु, आपने इस युद्ध में सभी का साथ दिया, द्रौपदी की लाज बचाई, अर्जुन का रथ चलाया, लेकिन कभी अपने लिए कुछ नहीं माँगा।
आपको कभी भूख, थकावट या दुख नहीं हुआ क्या ?"
श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले:
"रुक्मिणी, मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ जो तुम्हें समझा देगी कि मुझे क्या तृप्त करता है....!
और फिर उन्होंने एक पुरानी घटना सुनाई।
महाभारत युद्ध से पहले, जब पांडव वनवास में थे, वे बहुत कष्ट में थे।
एक दिन ऋषि दुर्वासा अपने शिष्यों सहित पांडवों के आश्रम आए।
उन्होंने कहा कि वे भोजन करने आए हैं और थोड़ी देर में लौटेंगे।
उस समय पांडवों के पास अन्न का एक दाना भी नहीं था।
द्रौपदी बहुत चिंतित हो गईं।
उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया।
श्री कृष्ण तुरन्त प्रकट हुए।
द्रौपदी ने कहा: "भगवन, हमारे पास ऋषियों को भोजन कराने के लिए कुछ भी नहीं है।
क्या करें ?"
श्री कृष्ण मुस्कराए और बोले:
"द्रौपदी, अपने पात्र को तो देखो।"
द्रौपदी ने जब पात्र देखा, तो उसमें एक चावल का छोटा सा दाना चिपका हुआ था।
श्री कृष्ण ने वह छोटा सा दाना खा लिया और आँखें बंद कर लीं।
अचानक ऋषि दुर्वासा और उनके सभी शिष्य जहां कहीं भी थे....!
उन्हें इतना तृप्ति का अनुभव हुआ कि वे वापस ही नहीं आए।
वे कहीं और चले गए।---
रुक्मिणी यह सुनकर अचंभित रह गईं और बोलीं:
"केवल एक दाना और पूरी सृष्टि तृप्त हो गई?"
श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले: "जब प्रेम और विश्वास से कुछ दिया जाता है.....!
तो वह अमृत बन जाता है।
मुझे भूख नहीं लगती रुक्मिणी, मुझे प्रेम तृप्त करता है।"
शिक्षा ( Moral ) :
सच्चा प्रेम और भक्ति ही भगवान को तृप्त करती है।
हमारी श्रद्धा से भरा छोटा सा प्रयास भी अगर सच्चे मन से हो, तो वह ईश्वर के लिए बहुत बड़ा होता है।
जय श्री कृष्ण
जय जय श्री राधे
कौन थीं,? राधा, सीता, और पार्वती जी की माँ पितरों की तीन मानसी कन्याओं की कथा ।
जगदम्बिका माँ पार्वती, सीता मैया और राधारानी जी का आपस में सम्बन्ध है।
जी हाँ, शायद आपने भी पितरों की मानसी पुत्रियों के बारे में सुना या पढ़ा होगा।
श्रीशिव महापुराण में से एक ऐसी ही कथा के बारे में बताते हैं जो जुड़ी है पितरों की मानसी कन्याओं के साथ। इस कथा में उन्हें मिला शाप ही उनके लिए वरदान बन गया।
पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष की साठ पुत्रियाँ थी, जिनका विवाह ऋषि कश्यप आदि के साथ किया गया।
इनमें से स्वधा नामक पुत्री का विवाह दक्ष ने पितरों के साथ किया।
कुछ समय के बाद पितरों के मन से प्रादुर्भूत तीन कन्याएँ स्वधा को प्राप्त हुईं।
बड़ी कन्या का नाम मेना, मझली का नाम धन्या और सबसे छोटी कन्या का नाम कलावती था।
ये तीनों कन्याएँ ही बहुत सौभाग्यवती थीं।
एक बार की बात है, तीनों बहनें, श्री विष्णु के दर्शन करने के लिए श्वेतद्वीप गईं।
भगवान् विष्णु के दर्शन कर, वे प्रभु की आज्ञा से वहीं रुक गईं।
उस समय वहाँ एक बहुत बड़ा समाज एकत्रित हुआ था।
उस समाज में अन्य सभी के साथ ब्रह्मा जी के पुत्र सनकादि भी उपस्थित हुए।
सनकादि मुनियों को वहाँ आया देख सभी ने उन्हें प्रणाम किया और वे सब अपने - अपने स्थान से उठ खड़े हुए।
लेकिन महादेव की माया से सम्मोहित हो कर तीनों बहनें वहाँ अपने - अपने स्थान पर बैठी रहीं और विस्मित होकर उन मुनियों को देखती रहीं।
कहते हैं न कि शिवजी की माया बहुत ही प्रबल है....!
जो सब लोगों को अपने अधीन रखती है....!
अर्थात उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं होता और इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ।
सनकादि के स्वागत- सत्कार में जब तीनों बहनें उठी नहीं....!
तो सनकादि जैसे महान ज्ञाता मुनिश्वरों ने उन तीनों बहनों पर क्रोध किया।
सनत्कुमार ने दण्डित करने के लिए उन्हें शाप दे दिया।
सनत्कुमार ने कहा, ‘तुम तीन बहनें पितरों की कन्या हो....!
तब भी तुम मूर्ख, सद्ज्ञान से रहित और वेदतत्व के ज्ञान से खाली हो।
अभिमान के कारण तुम तीनों ने हमारा अभिवादन नहीं किया और तुम नरभाव से मोहित हो गई हो इस लिए तुम स्वर्ग से दूर हो कर....!
मनुष्यों की स्त्रियाँ बन जाओगी।
जब शिवजी की माया तीनों बहनों से दूर हुई....!
तब तीनों ने सनकादि के चरण पकड़ लिए और उनसे कहा कि मूर्ख होने के कारण हम ने आपका आदर-सत्कार नहीं किया।
अपने किए का फल हमें स्वीकार है।
हम अपनी गलती की क्षमा माँगते हैं और हे महामुने!
हम पर दया कीजिए।
आप हमें, पुनः स्वर्गलोक की प्राप्ति हो सके, उसका उपाय बताइए।
साध्वी कन्याओं से प्रसन्न हो कर सनत्कुमार बोले कि सबसे बड़ी पुत्री विष्णु जी के अंशभूत हिमालय पर्वत की पत्नी होगी....!
जिसकी पुत्री स्वयं माँ जगदम्बिका पार्वती होंगी।
धन्या नामक कन्या का विवाह राजा सीरध्वज जनक से होगा....!
जिनकी पुत्री स्वयं श्री लक्ष्मी होंगी और उसका नाम सीता होगा।
इसी प्रकार से तीसरी और सबसे छोटी कन्या, कलावती का विवाह वृषभानु से होगा, जिनकी पुत्री के
रूप में द्वापर के अंत में श्री राधारानी जी प्रकट होंगी।
इस प्रकार तीनों ही बहनें, तीन महान देवियों की माता होने का सुख पाएँगी और समय आने पर अपने - अपने पति के साथ स्वर्ग को चली जाएँगी।
सनत्कुमार ने इन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि महादेव की भक्ति के फल के रूप में ये तीनों बहनें हमेशा ही पूजनीय रहेंगी।
कालांतर में पितरों की सबसे बड़ी पुत्री मेना का विवाह हिमालय पर्वत के साथ हुआ और उन्हें पुत्री के रूप में स्वयं माँ जगदम्बिका, पार्वती जी प्राप्त हुईं।
शिवजी को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती जी ने कठोर तपस्या की और अपनी पुत्री के वरदान स्वरूप मेना और उनके पति हिमालय अपने उसी शरीर के साथ परम पद कैलाश को चले गए।
वहीं धन्या का विवाह जनकवंश में उत्पन्न हुए राजा सीरध्वज के साथ हुआ।
और उनकी संतान के रूप में सीता जी का साथ उन्हें मिला।
सीता जी का विवाह विष्णु जी के अवतार, श्री राम से हुआ।
स्वयं श्री लक्ष्मी जिनकी पुत्री हुई, उन साध्वी माता धन्या ने, अपने पति के साथ वैकुण्ठ लोक को प्राप्त किया।
पितरों की सबसे छोटी बेटी का विवाह वृषभानु जी से हुआ और इन्हें श्री राधारानी जी की माँ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
ये अपनी पुत्री के साथ ही गोलोक को चली गईं।
सनत्कुमार के द्वारा पितरों की मानसी कन्याओं को प्राप्त शाप ही उनके उद्धार का कारण बना और मनुष्य योनि में आने के बाद भी तीनों बहनों को शिवलोक, वैकुण्ठ और गोलोक की प्राप्ति हुई।
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|| समस्त मातृ शक्तियों को प्रणाम ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु