श्रीमद्भागवत कथा का एक प्रसंग
रुकमणी अष्टमी आज
हर साल पौष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रुक्मिणी अष्टमी का पर्व मनाया जाता है।
इस दिन व्रत रखा जाता है। और मां रुक्मिणी संग भगवान श्रीकृष्ण की पूजा - अर्चना की जाती है।
धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस दिन द्वापर युग में विदर्भ के राजा भीष्मक के घर देवी रुक्मिणी ने जन्म हुआ था।
देवी रुक्मिणी को मां लक्ष्मी का अवतार माना जाता है।
धार्मिक मान्यता है कि रुक्मिणी अष्टमी के दिन व्रत करने और देवी रुक्मिणी की पूजा करने से मां लक्ष्मी भी प्रसन्न होती हैं, जिससे वे अपने भक्तों को अन्न, धन सुख और समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं।
रुक्मिणी अष्टमी के दिन पूजा और व्रत करने से सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।
रुक्मिणी अष्टमी की तिथि
वैदिक पंचांग के अनुसार, इस साल पौष माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की शुरुआत 22 दिसंबर को दोपहर 2 बजकर 31 मिनट से शुरू होगी।
वहीं, इस तिथि का समापन अगले दिन 23 दिसंबर की शाम 5 बजकर 7 मिनट पर होगा। ऐसे में उदयातिथि के अनुसार, रुक्मिणी अष्टमी 23 दिसंबर 2024 को मनाई जाएगी।
रुक्मिणी अष्टमी क्यों मनाई जाती है?
रुक्मिणी अष्टमी को रुक्मिणी जयंती भी कहा जाता है।
यह त्योहार हिंदू चंद्र माह पौष में कृष्ण पक्ष के आठवें दिन मनाया जाता है।
देवी रुक्मिणी के जन्म लेने के उत्सव के रूप में रुक्मिणी अष्टमी मनाई जाती है।
रुक्मिणी अष्टमी की पूजा विधि
रुक्मिणी अष्टमी के दिन सुबह उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो जाएं।
फिर पूजा स्थल पर भगवान श्रीकृष्ण और मां रुक्मिणी की मूर्ति रखकर पूजा करें।
इसके बाद दक्षिणावर्ती शंख से भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का अभिषेक करें।
अभिषेक करने के लिए शंख में केसर युक्त दूध इस्तेमाल करें।
साथ ही पंचोपचार विधि से पूजा-अर्चना करें।
फिर रुक्मिणी रानी को लाल वस्त्र, इत्र, हल्दी और कुमकुम अर्पित करें।
इसके बाद दूध, दही, घी और शहद को मिलाकर भगवान को भोग लगाना चाहिए।
साथ ही भगवान श्रीकृष्ण के भोग में तुलसी का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए।
रुक्मिणी अष्टमी मंत्र
रुक्मिणी अष्टमी की पूजा के दौरान मां रुक्मिणी अष्टमी और कृं कृष्णाय नमः मंत्र के साथ ही मां लक्ष्मी जी के मंत्रों का जाप करना चाहिए।
पूजा में घी का दीपक जलाएं।
कपूर के साथ रुक्मिणी देवी की आरती करें और फिर ब्राह्मणों को भोजन कराएं।
मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होगी, जिससे आपकी हर मनोकामनाएं पूरी हो जाएंगी।
भगवान श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के विवाह की कथा
श्रीमद्भागवत के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तो देवी लक्ष्मी भी रुक्मिणी के रूप में धरती पर आईं।
देवी रुक्मिणी के पिता का नाम भीष्मक और भाई का नाम रुक्मी था। देवी रुक्मिणी के भाई रुक्मी उनका विवाह शिशुपाल से करना चाहते थे।
लेकिन देवी रुक्मिणी, श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थीं। जब ये बात श्रीकृष्ण को पता चली तो उन्होंने रुक्मिणी का हरण कर लिया और द्वारिक ले आए।
द्वारिका में ही इनका विवाह हुआ।
तुलसी व तुलसी - माला की महिमा
25 दिसम्बर को तुलसी पूजन दिवस है ।
तुलसीदल एक उत्कृष्ट रसायन है।
यह गर्म और त्रिदोषशामक है।
रक्तविकार, ज्वर, वायु, खाँसी एवं कृमि निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है।
सफेद तुलसी के सेवन से त्वचा, मांस और हड्डियों के रोग दूर होते हैं।
काली तुलसी के सेवन से सफेद दाग दूर होते हैं।
तुलसी की जड़ और पत्ते ज्वर में उपयोगी हैं।
वीर्यदोष में इसके बीज उत्तम हैं तुलसी की चाय पीने से ज्वर, आलस्य, सुस्ती तथा वातपित्त विकार दूर होते हैं, भूख बढ़ती है।
जहाँ तुलसी का समुदाय हो, वहाँ किया हुआ पिण्डदान आदि पितरों के लिए अक्षय होता है।
यदि तुलसी की लकड़ी से बनी हुई मालाओं से अलंकृत होकर मनुष्य देवताओं और पितरों के पूजनादि कार्य करें तो वह कोटि गुना फल देने वाला होता है।
तुलसी सेवन से शरीर स्वस्थ और सुडौल बनता है।
मंदाग्नि, कब्जियत, गैस, अम्लता आदि रोगों के लिए यह रामबाण औषधि सिद्ध हुई है।
गले में तुलसी की माला धारण करने से जीवनशक्ति बढ़ती है, आवश्यक एक्युप्रेशर बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है, जिससे मानसिक तनाव में लाभ होता है, संक्रामक रोगों से रक्षा होती है तथा शरीर स्वास्थ्य में सुधार होकर दीर्घायु की प्राप्ति होती है।
शरीर निर्मल, रोगमुक्त व सात्त्विक बनता है।
इसको धारण करने से शरीर में विद्युतशक्ति का प्रवाह बढ़ता है तथा जीव - कोशों द्वारा धारण करने के सामर्थ्य में वृद्धि होती है।
गले में माला पहनने से बिजली की लहरें निकलकर रक्त संचार में रूकावट नहीं आने देतीं ।
प्रबल विद्युतशक्ति के कारण धारक के चारों ओर चुम्बकीय मंडल विद्यमान रहता है।
तुलसी की माला पहनने से आवाज सुरीली होती है, गले के रोग नहीं होते, मुखड़ा गोरा, गुलाबी रहता है।
हृदय पर झूलने वाली तुलसी माला फेफड़े और हृदय के रोगों से बचाती है।
इसे धारण करने वाले के स्वभाव में सात्त्विकता का संचार होता है।
जो मनुष्य तुलसी की लकड़ी से बनी हुई माला भगवान विष्णु को अर्पित करके पुनः प्रसाद रूप से उसे भक्तिपूर्वक धारण करता है, उसके पातक नष्ट हो जाते हैं।
कलाई में तुलसी का गजरा पहनने से नब्ज नहीं छूटती, हाथ सुन्न नहीं होता, भुजाओं का बल बढ़ता है।
तुलसी की जड़ें कमर में बाँधने से स्त्रियों को, विशेषतः गर्भवती स्त्रियों को लाभ होता है।
प्रसव वेदना कम होती है और प्रसूति भी सरलता से हो जाती है।
कमर में तुलसी की करधनी पहनने से पक्षाघात नहीं होता, कमर, जिगर, तिल्ली, आमाशय और यौनांग के विकार नहीं होते हैं।
तुलसी की माला पर जप करने से उँगलियों के एक्यूप्रेशर बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है, जिससे मानसिक तनाव दूर होता है ।
इसके नियमित सेवन से टूटी हड्डियाँ जुड़ने में मदद मिलती हैं ।
तुलसी की पत्तियों के नियमित सेवन से क्रोधावेश एवं कामोत्तेजना पर नियंत्रण रहता है ।
तुलसी के समीप पड़ने, संचिन्तन करने से, दीप जलने से और पौधे की परिक्रमा करने से पांचो इन्द्रियों के विकार दूर होते हैं ।
सत्संग बड़ा है या तप
एक बार विश्वामित्र जी और वशिष्ठ जी में इस बात पर बहस हो गई, कि सत्संग बड़ा है या तप???
विश्वामित्र जी ने कठोर तपस्या करके ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त किया था, इसीलिए वे तप को बड़ा बता रहे थे।
जबकि वशिष्ठ जी सत्संग को बड़ा बताते थे।
वे इस बात का फैसला करवाने ब्रह्मा जी के पास चले गए।
उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा- मैं सृष्टि की रचना करने में व्यस्त हूं।
आप विष्णु जी के पास जाइये।
विष्णु जी आपका फैसला अवश्य कर देगें।
अब दोनों विष्णु जी के पास चले गए।
विष्णु जी ने सोचा- यदि मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं तो विश्वामित्र जी नाराज होंगे, और यदि तप को बड़ा बताता हूं तो वशिष्ठ जी के साथ अन्याय होगा।
इसीलिए उन्होंने भी यह कहकर उन्हें टाल दिया,
कि मैं सृष्टि का पालन करने मैं व्यस्त हूं।
आप शंकर जी के पास चले जाइये।
अब दोनों शंकर जी के पास पहुंचे। शंकर जी ने उनसे कहा- ये मेरे वश की बात नहीं है।
इसका फैसला तो शेषनाग जी कर सकते हैं।
अब दोनों शेषनाग जी के पास गए।
शेषनाग जी ने उनसे पूछा-
कहो ऋषियों!
कैसे आना हुआ।
वशिष्ठ जी ने बताया-
हमारा फैसला कीजिए....!
कि तप बड़ा है या सत्संग बड़ा है?
विश्वामित्र जी कहते हैं कि तप बड़ा है, और मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं।
शेषनाग जी ने कहा-
मैं अपने सिर पर पृथ्वी का भार उठाए हूं, यदि आपमें से कोई भी थोड़ी देर के लिए पृथ्वी के भार को उठा ले, तो मैं आपका फैसला कर दूंगा।
तप में अहंकार होता है,
और विश्वामित्र जी तपस्वी थे।
उन्होंने तुरन्त अहंकार में भरकर शेषनाग जी से कहा-
पृथ्वी को आप मुझे दीजिए।
विश्वामित्र ने पृथ्वी अपने सिर पर ले ली।
अब पृथ्वी नीचे की और चलने लगी।
शेषनाग जी बोले- विश्वामित्र जी! रोको।
पृथ्वी रसातल को जा रही है।
विश्वामित्र जी ने कहा-
मैं अपना सारा तप देता हूं,
पृथ्वी रूक जा।
परन्तु पृथ्वी नहीं रूकी।
ये देखकर वशिष्ठ जी ने कहा-
मैं आधी घड़ी का सत्संग देता हूं, पृथ्वी माता रूक जा।
पृथ्वी वहीं रूक गई।
अब शेषनाग जी ने पृथ्वी को अपने सिर पर ले लिया, और उनको कहने लगे-
अब आप जाइये।
विश्वामित्र जी कहने लगे-
लेकिन हमारी बात का फैसला तो हुआ नहीं है।
शेषनाग जी बोले-
विश्वामित्र जी!
फैसला तो हो चुका है।
आपके पूरे जीवन का तप देने से भी पृथ्वी नहीं रूकी, और वशिष्ठ जी के आधी घड़ी के सत्संग से ही पृथ्वी अपनी जगह पर रूक गई।
**फैसला तो हो गया है कि तप से सत्संग ही बड़ा होता है।.:!**
---इसी लिए---
**हमें नियमित रूप से सत्संग सुनना चाहिए।**
**और उस पर अमल करना चाहिए।.:!**
**सत्संग की आधी घड़ी---**
**तप के वर्ष हजार--**
**तो भी नहीं बराबरी**
**संतन कियो विचार **
भगवान से मिलने
एक बार एक संत, एक सेठ के पास आए।
सेठ ने उनकी बड़ी सेवा की।
उनकी सेवा से प्रसन्न होकर,
संत ने कहा-
अगर आप चाहें तो आपको भगवान से मिलवा दूं?
सेठ ने कहा-
महाराज! मैं भगवान से मिलना तो चाहता हूँ, पर अभी मेरा बेटा छोटा है।
वह कुछ बड़ा हो जाए तब मैं चलूँगा।
बहुत समय के बाद संत फिर आए, बोले-
अब तो आपका बेटा बड़ा हो गया है।
अब चलें?
सेठ-
महाराज! उसकी सगाई हो गई है।
उसका विवाह जाता, घर में बहू आ जाती, तब मैं चल पड़ता।
संत तीन साल बाद फिर आए।
बहू आँगन में घूम रही थी।
संत बोले-
सेठ जी!
अब चलें?
सेठ-
महाराज!
मेरी बहू को बालक होने वाला है।
मेरे मन में कामना रह जाएगी कि मैंने पोते का मुँह नहीं देखा।
एक बार पोता हो जाए, तब चलेंगे।
संत पुनः
आए तब तक सेठ की मृत्यु हो चुकी थी।
ध्यान लगाकर देखा तो वह सेठ बैल बना सामान ढ़ो रहा था।
संत बैल के कान में बोले-
अब तो आप बैल हो गए, अब भी भगवान से मिल लें।
सेठ-
मैं इस दुकान का बहुत काम कर देता हूँ।
मैं न रहूँगा तो मेरा लड़का कोई और बैल रखेगा।
वह खाएगा ज्यादा और काम कम करेगा।
इसका नुकसान हो जाएगा।
संत फिर आए तब तक बैल भी मर गया था।
देखा कि वह कुत्ता बनकर दरवाजे पर बैठा था।
संत ने कुत्ते से कहा-
अब तो आप कुत्ता हो गए, अब तो भगवान से मिलने चलो।
कुत्ता बोला-
महाराज!
आप देखते नहीं कि मेरी बहू कितना सोना पहनती है, अगर कोई चोर आया तो मैं भौंक कर भगा दूँगा।
मेरे बिना कौन इनकी रक्षा करेगा?
संत चले गए।
अगली बार कुत्ता भी मर गया था और सेठ गंदे नाले पर मेंढक बने टर्र टर्र कर रहा था।
संत को बड़ी दया आई, बोले-
सेठ जी अब तो आप की दुर्गति हो गई।
और कितना गिरोगे?
अब भी चल पड़ो।
मेंढक क्रोध से बोला-
अरे महाराज! मैं यहाँ बैठकर,
अपने नाती पोतों को देखकर प्रसन्न हो जाता हूँ।
और भी तो लोग हैं दुनिया में, आपको मैं ही मिला हूँ भगवान से मिलवाने के लिए?
जाओ महाराज किसी और को ले जाओ।
मुझे माफ करो।
संत तो कृपालु हैं, बार बार प्रयास करते हैं।
पर उस सेठ की ही तरह, दुनियावाले भगवान से मिलने की बात तो बहुत करते हैं,पर मिलना नहीं चाहते..!!
संक्षिप्त श्रीस्कन्द-महापुराण
इस अध्याय में:-
संक्षिप्त श्रीस्कन्द-महापुराण
वैष्णव-खणड
वैशाखमास-माहात्म्य
( महर्षि वसिष्ठ के उपदेश से राजा कीर्तिमान् का अपने राज्य में वैशाख मास के धर्म का पालन कराना और यमराज का ब्रह्माजी से राजा के लिये शिकायत करना )
मिथिलापतिने पूछा -
ब्रह्मन् !
जब वैशाख मास के धर्म अतिशय सुलभ, पुण्यराशि प्रदान करने वाले, भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक, चारों पुरुषार्थों की तत्काल सिद्धि करने वाले, सनातन और वेदोक्त हैं तब संसार में उनकी प्रसिद्धि कैसे नहीं हुई ?
श्रुतदेवजीने कहा -
राजन्!
इस पृथ्वी पर लौकिक कामना रखने वाले ही मनुष्य अधिक हैं।
उनमें से कुछ राजस और कुछ तामस हैं।
वे लोग इस संसार के भोगों तथा पुत्र - पौत्रादि सम्पदाओं की ही अभिलाषा रखते हैं।
कहीं किसी प्रकार कभी बड़ी कठिनाई से कोई एक मनुष्य ऐसा मिलता है, जो स्वर्गलोक के लिये प्रयत्न करता है और इसी लिये वह यज्ञ आदि पुण्यकर्मों का अनुष्ठान बड़े प्रयत्न से करता है; परंतु मोक्ष की उपासना प्राय: कोई नहीं करता।
तुच्छ आशाएँ लेकर बहुत - से कर्मो का आयोजन करने वाले लोग प्रायः काम्य - कर्मो के ही उपासक हैं।
यही कारण है।
कि संसार में राजस और तामस धर्म अधिक विख्यात हो गये, परंतु सात्त्विक धर्मो की प्रसिद्धि नहीं हुई।
ये सात्त्विक धर्म भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं, निष्काम भाव से किये जाते हैं और इहलोक तथा परलोक में सुख प्रदान करते हैं।
देवमाया से मोहित होने के कारण मूढ़ मनुष्य इन धर्मो को जानते ही नहीं हैं।
पूर्वकाल की बात है, काशीपुरी में कीर्तिमान् नाम से विख्यात एक चक्रवर्ती राजा थे।
वे इक्ष्वाकुवंश के भूषण तथा महाराज नृग के पुत्र थे।
संसार में उनका बड़ा यश था।
वे अपनी इन्द्रियों पर और क्रोध पर विजय पा चुके थे ब्राह्मणों के प्रति उनके मन में बड़ी भक्ति थी।
राजाओं में उनका स्थान बहुत ऊँचा था।
एक दिन वे मृगया में आसक्त होकर महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर आये।
वैशाख की चिलचिलाती हुई धूप में यात्रा करते हुए राजा ने मार्ग में देखा, महात्मा वसिष्ठ के शिष्य जगह - जगह अनेक प्रकार के कार्यों में विशेष तत्परता के साथ संलग्न थे।
वे कहीं पौंसला बनाते थे और कहीं छायामण्डप।
किनारे पर झरनों के जल को रोककर स्वच्छ बावली बनाते थे।
कहीं वृक्षों के नीचे बैठे हुए लोगों को वे पंखा डुलाकर हवा करते थे, कहीं ऊख देते, कहीं सुगन्धित पदार्थ भेंट करते और कहीं फल देते थे। दोपहरी में लोगों को छाता देते और सन्ध्या के समय शर्वत।
कोई शिष्य घनी छाया वाले वन में झाड़ बुहारकर साफ किये हुए आश्रम के प्रांगणों में हितकारक बालुका बिछाते थे और कुछ लोग वृक्षों की शाखा में झूला लटकाते थे।
उन्हें देखकर राजा ने पूछा-
' आप लोग कौन हैं ? '
उन्होंने उत्तर दिया-
' हम लोग महर्षि वसिष्ठ के शिष्य हैं। '
राजा ने पूछा-
' यह सब क्या हो रहा है ? '
वे बोले-
' ये वैशाख मास में कर्तव्य रूप से बताये गये धर्म हैं, '
जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - चारों पुरुषार्थों के साधक हैं।
हम लोग गुरुदेव वसिष्ठ की आज्ञा से इन धर्मोका पालन करते हैं।
राजा ने पुन: पूछा-
' इनके अनुष्ठान से मनुष्यों को कौन - सा फल मिलता है?
किस देवता की प्रसन्नता होती है ? '
उन्होंने उत्तर दिया-
' हमें इस समय यह बताने के लिये अवकाश नहीं है, आप गुरुजी से ही यथोचित प्रश्न कीजिये वे महायशस्वी महर्षि इन धर्मो को यथार्थ रूप से जानते हैं। '
शिष्यों से ऐसा उत्तर पाकर राजा शीघ्र ही महर्षि वसिष्ठ के पवित्र आश्रम पर जो विद्या और योग शक्ति से सम्पन्न था, गये राजा को आते देख महर्षि वसिष्ठ मन - ही - मन बड़े प्रसन्न हुए।
उन्होंने सेवकों सहित महात्मा राजा का विधिपूर्वक आतिथ्य - सत्कार किया।
जब वे आराम से बैठ गये, तब गुरु वसिष्ठ से प्रसन्नता पूर्वक बोले-
'भगवन् !
मैंने मार्ग में आपके शिष्यों द्वारा परम आश्चर्यमय शुभ कर्मो का अनुष्टान होते देखा है; किंतु उसके सम्बन्ध में जब प्रश्न किया, तब उन्होंने दूसरी कोई बात न बताकर आपके पास जाने की आज्ञा दी उनकी आज्ञा के अनुसार मैं इस समय आपके समीप आया हूँ।
मेरे मन में उन धर्मो को सुनने की बड़ी इच्छा है।
अत: आप मुझसे उनका वर्णन करें।
तब महायशस्वी वसिष्ठजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-
राजन् !
तुम्हारी बुद्धि को उत्तम शिक्षा मिली है।
अत: उसने यह उत्तम निश्चय किया है।
भगवान् विष्णु की कथा के श्रवण और भगवद्धर्मो के अनुष्ठान में जो तुम्हारी बुद्धि की आत्यन्तिक प्रवृत्त हुई है, यह तुम्हारे किसी पुण्य का ही फल है।
जिसने वैशाख मास में बताये हुए महाधर्मो के द्वारा भगवान् श्रीहरि की आराधना की है, उसके उन धर्मो से भगवान् बहुत सन्तुष्ट होते और उसे मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं।
सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् लक्ष्मीपति समस्त पापराशि का विनाश करने वाले हैं।
वे सूक्ष्म धर्मो से प्रसन्न होते हैं, केवल परिश्रम और धन से नहीं।
भगवान् विष्णु भक्ति से पूजित होने पर अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं; इसलिये सदा भगवान् विष्णु की भक्ति करनी चाहिये।
जगदीश्वर श्रीहरि जल से भी पूजा करने पर अशेष क्लेश का नाश करते और शीघ्र प्रसन्न होते हैं।
वैशाख मास में बताये हुए ये धर्म थोड़े - से परिश्रम द्वारा साध्य होने पर भी भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक एवं शुभ होने के कारण अधिक व्यय से सिद्ध होने वाले बड़े - बड़े यज्ञादि कर्मो का भी तिरस्कार करने वाले हैं।
अत: भृपाल !
तुम भी वैशाख मास में बताये हुए धर्मो का पालन करो और तुम्हारे राज्य में निवास करने वाले अन्य सब लोगों से भी उन कल्याणकारी धर्मो का पालन कराओ।
इस प्रकार से वैशाख - धर्म के पालन की आवश्यकता को शास्त्रों और युक्तियों से भली - भाँति सिद्ध करके वसिष्ठजी ने वैशाख मास के सब धर्मो का राजा के समक्ष वर्णन किया।
उन सब धर्मो को सुनकर राजा ने गुरु का भक्ति भाव से पूजन किया और घर आकर वे सब धर्मो का विधिपूर्वक पालन करने लगे।
देवाधिदेव भगवान् विष्णु में भक्ति रखते हुए राजा कीर्तिमान् देवेश्वर पद्मनाभ के अतिरिक्त और किसी देवता को नहीं देखते थे।
उन्होंने हाथी की पीठ पर नगाड़ा रखकर सिपाहियों से अपने राज्य भर में डंके की चोट यह घोषणा करा दी कि मेरे राज्य में जो आठ वर्ष से अधिक की आयु वाला मनुष्य है, उसकी आयु जब तक अस्सी वर्ष की न हो जाय, तब तक मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर यदि वह प्रात:काल स्नान नहीं करेगा तो मेरे द्वारा दण्डनीय, वध्य तथा राज्य से निकाल देने योग्य समझा जायगा यह मेरा निश्चित आदेश है।
पिता, पुत्र, अथवा सुहृद् - जो कोई भी वैशाख धर्म का पालन नहीं करेगा, वह चोर की भाँति दण्ड का पात्र समझा जायगा।
प्रात:काल शुभ जल में स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दान करना चाहिये।
तुम सब लोग अपनी शक्ति के अनुसार पौंसला और दान आदि धर्मो का आचारण करो।'
राजा कीर्तिमान् ने प्रत्येक ग्राम में धर्म का उपदेश करने वाले एक-एक ब्राह्मण को बसाया।
पाँच - पाँच गाँवों पर एक - एक ऐसे अधिकारी की नियुक्ति की, जो धर्म का त्याग करने वाले लोगों को दण्ड दे सके।
उस अधिकारी की सेवा में दस - दस घुड़सवार रहते थे।
इस प्रकार चक्रवर्ती नरेश के शासन से सर्वत्र और सब देशों में यह धर्म का पौधा प्रारम्भ हुआ और आगे चलकर खूब बढ़े हुए वृक्ष के रूप में परिणत हो गया उस राजा के राज्य में जो लोग मर जाते थे, वे भगवान् विष्णु के धाम में जाते थे।
वहाँ के मनुष्यों को विष्णु लोक की प्राप्ति निश्चित थी।
एक बार भी वैशाख स्नान कर लेने से मनुष्य यमराज के पास नहीं जाता।
अपने धर्मानुकूल कर्म में स्थित हुए सब लोगों के विष्णुलोक में चले जाने से यमपुरी के सब नरक खाली हो गये।
वहाँ एक भी पापी प्राणी नहीं रह गया वैशाख मास के प्रभाव से यमपुरी के मार्ग की यात्रा ही बंद हो गयी।
सब मनुष्य दिव्य आकृति धारण करके भगवान् के धाम में जाने लगे।
देवताओं के जो लोक हैं, वे सब भी शून्य हो गये।
स्वर्ग और नरक दोनों के शून्य हो जाने पर एक दिन नारदजी ने धर्मराज के पास जाकर कहा-
' धर्मराज !
आपके इस नरक में पहले-जैसा कोलाहल नहीं सुनायी पड़ता, पहले की भाँति पाप - कर्मो का लेखा भी नहीं लिखा जा रहा है।
चित्रगुप्तजी तो ऐसे मौन भाव से बैठे हुए हैं, जैसे कोई मुनि हों।
महाराज !
इसका कारण तो बताइये?
महात्मा नारदके ऐसा कहने पर राजा यम ने कुछ दीनता के स्वर में कहा-
नारद!
इस समय पृथ्वी पर जो यह राजा राज्य करता है, वह पुराणपुरुषोत्तम भगवान् विष्णु का बड़ा भक्त है।
उसके भय से कोई भी मनुष्य कभी वैशाख मास का उल्लंघन नहीं करता।
उस पुण्य कर्म के प्रभाव से सभी भगवान् विष्णु के परम धाम में चले जाते हैं।
मुनिश्रेष्ठ !
उस राजा ने इस समय मेरे लोक का मार्ग लुप्त - सा कर रखा है।
स्वर्ग और नरक दोनों को शून्य बना दिया है।
अत: ब्रह्माजी के समीप जाकर यह सब समाचार उनसे निवेदन करके तभी मैं स्वस्थ होऊँगा।
ऐसा निश्चय करके यमराज ब्रह्माजी के लोक में गये और वहाँ बैठे हुए उन ब्रह्माजी का दर्शन किया, जिनका आश्रय ध्रुव है, जो इस जगत् के बीज तथा सब लोकों के पितामह हैं और समस्त लोकपाल, दिक्पाल तथा देवता जिनकी उपासना करते हैं।
ब्रह्माजी ने यमराज को देखा और यमराज ब्रह्माजी के आगे पृथ्वी पर गिर पड़े।
फिर यमराजने कहा-
कमलासन!
काम में लगाया हुआ जो पुरुष स्वामी की आज्ञा का ठीक - ठीक पालन नहीं करता और उसका धन लेकर भोगता है, वह काठ का कीड़ा होता है।
जो बुद्धिमान् मनुष्य लोभवश स्वामी के धन का उपभोग करता है, वह तीन सौ कल्पों तक तिर्यग्-योनिरूप नरक में जाता है।
जो कार्य में नियुक्त हुआ पुरुष कार्य करने में समर्थ होकर भी अपने घर में ही बैठा रहता है, वह बिलाव होता है।
देव! मैं आपकी आज्ञा से धर्म पूर्वक प्रजा का शासन करता आ रहा हूँ।
मैं अब तक मुनियों और धर्मशास्त्रों के कथनानुसार पुण्यात्मा को पुण्य के फल से और पापात्मा को पाप के फल से संयुक्त किया करता था, परंतु अब आपकी आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हो गया हूँ।
कीर्तितमान् के राज्य में सब लोग वैशाखमासोक्त पुण्य कर्मो का अनुष्ठान करके पितरों और पितामहों के साथ वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं।
उनके मरे हुए पितर और मातामह आदि भी विष्णुलोक में चले जाते हैं।
इतना ही नहीं, पत्नी के पिता - श्वशुर आदि भी मेरे लेख को मिटाकर विष्णुलोक में चले जाते हैं।
देव! बड़े - बड़े यज्ञों द्वारा भी मनुष्य वैसी गति नहीं पाता है, जैसी वैशाख मास में मिल रही है।
सम्पूर्ण तीर्थों से, दान आदि से, तपस्याओं से, व्रतों से अथवा सम्पूर्ण धर्मो से युक्त मनुष्य भी उस गति को नहीं पाता, जो वैशाख धर्म तत्पर हुए मनुष्य को प्राप्त हो रही है।
वैशाख में प्रात:काल स्नान करके देवपूजन, मास - माहात्म्य की कथाका श्रवण तथा भगवान् विष्णु को प्रिय लगने वाले तदनुकृूल धर्म का पालन करने वाला मनुष्य एकमात्र विष्णु लोक का स्वामी होता है और जगत् पति भगवान् विष्णु के लोक की तो मेरी समझ में कोई सीमा ही नहीं है; क्योंकि सब ओर से कोटि - कोटि प्राणियों का समुदाय वहाँ पहुँच रहा है तो भी वह भरता नहीं है।
इस संसार में पवित्र और अपवित्र सभी लोग राजा की आज्ञा से वैशाख मास के धर्म का पालन करके विष्णुलोक को जा रहे हैं।
लोकनाथ! उसकी प्रेरणा से संस्कारहीन मनुष्य भी वैशाख - स्नान मात्र से वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं।
वह केवल भगवान् विष्णु के चरणों की शरण लेने वाला है जान पड़ता है, वह समस्त संसार को विष्णुलोक में पहुँचा देगा।
जो पुत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतिकृूल चलता हो, वह पृथ्वी पर माता के पेट से पैदा हुआ रोग है।
वह अधम पुरुष अपनी माता का घात करने वाला कहा जाता है; किंतु राजा कीर्तिमान् की माता और उसकी पत्नी का पुण्य संसारमें विख्यात है।
उसकी माता एकमात्र वीरजननी है और वह राजा निश्चय ही संसार में बहुत बड़ा वीर है।
जिस प्रकार कीर्तिमान् मेरी लिपि को मिटाने में उद्यत हुआ है, ऐसा उद्योग पुराणों में और किसी का नहीं सुना गया है।
भगवान् विष्णु की भक्ति में तत्पर हुए राजा कीर्तिमान् के सिवा दूसरे ऐसे किसी को मैं नहीं जानता, जो डंका बजाकर घोषणा करते हुए लोगों को ऐसी प्रेरणा देता हो और मेरे लोक के मार्ग को विलुप्त करने की चेष्टा करता रहा हो।'
"जय जय श्री हरि "
भगवान् छप्पर फाड़कर देते हैं
भगवान् छप्पर फाड़कर देते हैं
‘आप दिन भर गीता पाठ करें और गीता के अनुसार जीवन बनाने के प्रयत्न में लगे रहें, पर पेट-पूजा का भी तो थोड़ा ध्यान रखना चाहिये’- छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा।
बड़ा भाई निरन्तर गीता पाठ में लगा रहता था।
उसने सुन लिया था कि ‘सम्पूर्ण गीतापाठ की अपेक्षा अर्थ और भाव सहित एक अध्याय का प्रतिदिन पाठ कर लेना उत्तम है, किंतु गीता के साँचे में अपना जीवन ढाल लेना तो सबसे उत्तम है।
गीता में बहुत - से ऐसे भी श्लोक हैं, जिनमे से किसी एक श्लोक को अपने जीवन में उतार लेने से कल्याण हो जाता है।
उन चारों भाइयों में यह बड़ा भाई गीताप्रेमी था।
वह १२वें अध्याय के १७वें श्लोक को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न कर रहा था।
छोटे भाई की उपर्युक्त बात सुनकर भी वह चुप रहा।
‘धनोपार्जन के लिये हमारी तरह आपको भी श्रम करना पड़ेगा।’-
दूसरे छोटे भाई ने कहा।
‘हम कब तक कमाकर खिलायेंगे ?-
तीसरे ने भी उसी का समर्थन किया।
‘सबसे अच्छा यही है कि आप अलग हो जाइये’-
पहले छोटे भाई ने आवेश में कह दिया।
‘सचमुच आपके साथ हम लोगों का निर्वाह नहीं हो सकेगा।’
दुसरे छोटे भाई ने यह कर्कश स्वर में कहा।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कान्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान य: स में प्रिय:॥
बड़े भाई ने गम्भीरता से उत्तर दिया, भैया !
यह श्लोक गीता का है।
अर्जुन से भगवान् कहते हैं कि ‘जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ समस्त कर्मों को त्याग चुका है, वह भक्तियुक्त पुरुष मुझे प्रिय है।’
गीताभ्यासी ने श्लोक सुनाया, इसी बीच में -
‘ उपदेश अपने पास रखिये।
आज ही आप अलग हो जाइये’ - तीसरे छोटे भाई ने जोर से कहा।
तुम लोग मुझे अलग करते हो, इससे न तो मुझे कोई हर्ष है न कोई शोक ही है-
गीताप्रेमी बड़े भाई ने शान्ति से उत्तर दिया। ‘
न द्वेष है और न अलग होने की आकांक्षा ही है।
हर्ष, शोक, इच्छा तथा द्वेष से रहित पुरुष ही प्रभु का प्रिय पात्र है।
तुम लोग जो उचित समझो करो।’
‘बिना अलग किये इनकी अक्ल ठिकाने नहीं आयेगी।
लच्छेदार उपदेश देकर आनन्द पूर्वक दिन बिताना चाहते हैं।’
छोटे पहले भाई ने निश्चय सुना दिया।
‘हम लोगों ने बहुत दिनों तक इनका पालन - पोषण किया।
अब तंग आ गये’-
छोटे दूसरे भाई ने भी दोनों बन्धुओं का अनुमोदन किया
‘मैं सम्मिलित रहती तो तीनों का भोजन बनाना पड़ता’ भीतर से गीताभ्यासी की कर्कशा पत्नी ने जोर से कहा।
‘तीनों को अलग हो जाने दो, चिन्ता की कोई बात नहीं।’
‘अनुकूल परिस्थिति पाकर जिसे हर्ष नहीं होता, वही प्रभु का प्रिय है।’
गीताभ्यासी ने अपनी पत्नी को प्रेम से समझाया - ‘तुम्हे इस तरह नहीं बोलना चाहिये।
फिर यह तो अनुकूल भी नहीं है; क्योंकि भगवान् ने तुम्हें इतने प्राणियों की सेवा का अवसर दिया था।
यह तो तुम्हारे सौभाग्य की बात थी, तुम्हें इसके लिये प्रभु का कृतज्ञ होना चाहिये था।’
इतने गहने, कपडे, बर्तन और रूपये आपके रहे और छोटा घर आपके रहने के लिये।
तीनों भाइयों ने बड़े भाई के सामने थोड़ी-सी चीजें रख दी।
सभी भाई जोश में थे।
भाभी की कटु वाणी ने क्रोधाग्नि में घृत का काम कर दिया था।
‘भगवान् की जैसी इच्छा।’-
गीताभ्यासी ने शान्ति के साथ उत्तर दिया।
उसकी मुख मुद्रा पूर्व की भाँति ही सहज प्रसन्न और शान्त थी।
चिन्ता की कोई रेखा उसकी आकृति पर नहीं दीख रही थी।
‘अब भी आप चुपचाप बैठे हैं, कैसे काम चलेगा ?
गीताभ्यासी की पत्नी ने कहा।
‘ न कांक्षति’ उत्तर मिला। ‘
मुझे कोई धन की आकांक्षा नहीं है।
आकांक्षा रहित व्यक्ति ही प्रभु को प्रिय है।
‘रूपये खर्च हो जाने पर कैसे काम चलेगा ?’
- पुन: प्रश्न हुआ।
‘न शोचति’ नपा - तुला उत्तर मिला।'
शोक रहित पुरुष प्रभु का प्रिय पात्र है।
अत: जीविका के लिये मुझे शोक नहीं है।’
गीताभ्यासी की पत्नी चुप हो गयी।
‘अब तो मेरे पास रूपये नहीं रहे, क्या करूँ ?-
चिन्तित पत्नी ने एक दिन पति से पूछा।
‘न कांक्षति’ वही पुराना उत्तर मिला ।
‘आभूषण तो तन पर एक भी नहीं रहा।’-
दु:खी पत्नी ने कुछ दिनों बाद फिर कहा।
‘सब - के - सब पेट का गड्ढा भरने में समाप्त हो गये, अब आप कुछ करें।’
‘न शोचति’ पुन: वही चार अक्षरों का उत्तर मिला।
स्त्री निराश हो, मन मसोसकर रह गयी।
‘अब मेरे पास कुछ नहीं रह गया।’
रोती हुई गीताभ्यासी की पत्नी ने कहना शुरू कर दिया।
अपना मकान तो बिक ही गया।
घर किराये का है।
बर्तन दूसरों से उधार लेकर रसोई बनायी है।
पहनने के लिये दो - दो कपड़ों के अतिरिक्त अब तो हम लोगों के पास रूपये - पैसे, गहने - कपडे, बर्तन - बासन या अन्य कोई भी वस्तु नहीं रह गयी; जिससे जीवन निर्वाह हो सके।
अब तो कुछ काम कीजिये।
पत्नी ने आशान्वित होकर आग्रह किया।
‘न कांक्षति’ वही पुराना जवाब मिला।
‘ मुझे कोई आकांक्षा नहीं है। ’
‘आखिर काम कैसे चलेगा ?’-
आँसू पोंछते हुए अधीर नारी ने कह दिया।
‘ न शोचति’ - ‘
मैं शोक नहीं करता, ऐसा ही पुरुष प्रभु का प्रिय है’ कहकर गीताभ्यासी मौन हो गया।
‘ बड़ा विचित्र मस्तिष्क है आपका। ’
पत्नी ने चिढ़कर कहा -
‘ मुझे तो आशा थी कि सब कुछ समाप्त हो जाने पर तो आप कुछ करेंगे ही, पर ‘न कांक्षति’, ‘न शोचति’ इसी से भगवान् संतुष्ट रहते हैं’ -
यह सब सुनते - सुनते तो मैं हैरान हो गयी।
‘मैं सच्ची बात कहता हूँ ब्राह्मणी !’ गीताभ्यासी कहने लगा।
‘आज ही प्रात:काल की बात है।
शौच से निवृत होकर जब मैं नदी - तट पर गया तो देखा कि नदी का जल ऊपर सूख गया है, भीतर - ही - भीतर बह रहा है, जल के लिये मैंने घाट के किनारे ही गड्ढा खोदा तो वहाँ मणि - माणिक्य तथा स्वर्ण - मुद्राओं से पूरित एक टोकना निकल आया।
उस समय भगवान् का वाक्य मुझे तुरंत स्मरण हो आया -
‘अनुकूल की प्राप्ति में जो हर्षित नहीं होता, वह मेरा प्रिय है।’
इस लिये उस रत्नराशि को देखकर भी मैं जरा सा भी हर्षित नहीं हुआ।
भगवन ने ‘न द्वेष्टि’ कहा है, इस लिये मैंने उससे द्वेष नहीं किया, उसे निकालकर कहीं फेंका भी नहीं।
उसकी मुझे ‘आकांक्षा’ भी नहीं थी। मैं उसे ज्यों - का - त्यों ढककर वापस आ गया।
उस अनन्त धन - राशि को परित्याग करने का रंचमात्र भी मुझे शोक नहीं है।
इस प्रकार भगवान् की दया से मुझे न हर्ष हुआ, न द्वैष और न पश्चाताप हुआ तथा न आकांक्षा ही।
उसे मैं तो लाया नहीं; पर कोई मुझे लाकर मुझे दे जाय तो मैं रख लूँ - ऐसी भी मेरी भावना नहीं है।
क्योंकि भगवान् ने कहा है -
‘ जो शुभ - अशुभ का परित्यागी होता है, वह मुझे प्रिय होता है।’
स्त्री ने खीझकर कहा-
‘आपको न सही, मुझको तो आकांक्षा है।’
पण्डितजी ने कहा-
‘तुम्हे भी आकांक्षा नहीं करनी चाहिये।’
' अरे !
यह तो काला नाग है ’-
चौंकते हुए एक चोर ने कहा।
‘ गीताभ्यासी परम धूर्त है। ’
दूसरे चोर ने धीरे से जवाब दिया।
‘ उसने समझ लिया था कि हम लोग उसके घर में घुस गये हैं, इस लिये ज्ञान बघारने लगा और हमें साँप से कटवाने की नियत से ही टोकने में हीरे - पन्ने बताकर उसने हमें धोखा दिया।’
‘उसकी स्त्री भी कम चंट नहीं है।’
तीसरा चोर तुरंत बोल उठा।
‘दोनों ने मिलकर हमें छकाया है।
सचमुच मार डालने की युक्ति ही उन दोनों ने सोची थी।’
‘यही युक्ति उन पर लगायी जाय।’
चौथे ने सलाह दी।
नाग समेत टोकना उनकी झोपडी में डाल दिया जाय; बस, ‘न शोचति’, ‘न कांक्षति’ का पूरा अभ्यास हो जायगा।
जिस समय रात को ब्राह्मण अपनी पत्नी से टोकने की बात कह रहा था, उसी समय चोर उसके घर में घुसे थे और उन्होंने उनकी बातें सुनकर धन के लोभ से नदी के तट पर आकर टोकने को निकाला था और उसका मुँह खोलते ही उन्हें भयंकर काला नाग फुफकार मारता दिखायी दिया, तब उनमे ऊपर लिखी बातचीत हुई !
चौथे चोर की बात का सबने एक स्वर से समर्थन किया।
टोकने का मुँह बंद करके चारों चोरों ने उसे कंधें पर उठाया।
हाँफते हुए सब - के - सब गीताभ्यासी के मकान पे आये।
घर के ऊपर छप्पर में एक छिद्र बनाकर तीन तो सरक गये।
चौथा टोकने को मकान के ऊपर छिद्र के मुँह पर उलटकर भाग खड़ा हुआ।
‘अरे, यह देखिये सोने की अशर्फियों का ढेर !’-
गीताभ्यासी पण्डित की पत्नी मणि - माणिक्य और अशर्फियों की ध्वनि से जाग पड़ी थी।
नाग मणियों के नीचे दबकर परलोक सिधार चुका था।
ब्राह्मणी हर्षातिरेक से उत्फुल्ल हो रही थी।
उसने कहा-
‘ भगवान् ने छप्पर फाड़कर रत्न भण्डार भेज दिया।'
‘हर्षोत्फुल्ल नहीं होना चाहिये।’
पण्डित जी ने सहज भाव से तुरंत कहा।
‘प्रिय वस्तु पाकर जो हर्षित नहीं होता, भगवान् उसी को प्यार करते हैं।’
‘हम लोग क्षमा चाहते हैं।’-
तीनों भाइयों ने एक दिन आकर लज्जित स्वर में कहा।
‘मैं किसी से द्वेष नहीं करता, तुम लोग तो मेरे भाई हो, मुझे लज्जित न करो’-
गीताभ्यासी ने बड़ी नम्रता से उतर दिया।
‘भैया !’
कन्ठ स्वर भर आया था तीनों बन्धुओं का।
उन्हें ऐसे प्रेम भरे शब्दों की बड़े भाई से आशा नहीं थी।
एक ने कहा-
‘आपसे अलग होने पर हम लोगों को सदा क्षति ही उठानी पड़ी है ।
लक्ष्मी देवी ने घर ही त्याग दिया।
हम सब ऋणी हो गये हैं, दाने - दाने के लिये तरसकर समाज में अपमानित तथा लांछित जीवन बिता रहे हैं।’
‘हमारी जिंदगी भार हो गयी भैया।’
दूसरे छोटे भाई ने कहा।
‘लज्जा से हम लोग आपके पास नहीं आ रहे थे, पर विपत्तियोंयों ने हमें भेजा है।’ -
छोटे तीसरे भाई ने कह दिया।
‘सहोदर भाई आप हैं।’
पुन: पहले छोटा बोला।
‘आप पुण्यात्मा हैं।
प्रति दिन दीनों को इतना धन खुले हाथों बाँट रहे हैं।
हम तो आपके छोटे भाई हैं, हमें क्षमा करें।’-
दूसरे ने गिड़गिड़ाते हुए कहा-
‘ये रत्न-अशर्फियाँ आप लोग ले जायँ।’
गीताभ्यासी पण्डित की पत्नी तीनों देवरों के करुणायुक्त दीन वचन सुनकर द्रवित हो गयी थीं।
कुछ रत्न-अशर्फियाँ लाकर देते हुए बोली-
‘हमें तो भगवान् ने छप्पर फाड़कर दिया है, और भी दे जायँगे।’
‘भगवान् हमें फिर दे जायँगे’ ऐसी आकांक्षा तुम्हें नहीं करनी चाहिये।-
अपनी पत्नी को सम्बोधित करते हुए पण्डित जी ने कहा।
‘आकांक्षा रहित पुरुष ही भगवान् का प्रिय पात्र बनता है।’
‘अपराध के लिये क्षमा चाहती हूँ।’-
पत्नी ने भूल स्वीकार की।
‘भैया आप हमें अपने में मिला लें।’-
एक छोटे भाई ने प्रार्थना की।
‘हाँ भैया !
बड़ी कृपा होगी आपकी।’-
दूसरे छोटे भाई ने भी आग्रह किया।
‘आपके पुण्य से हम ऋणमुक्त हो जायँगे, हम लोगों का सारा दुःख मिट जायगा, भैया !’
तीसरे ने भी अनुरोध किया।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान् य: स मे प्रिय:॥
गीताभ्यासी पण्डित ने वही प्राचीन श्लोक, जो उनका प्राण था, दुहराया।
तुम लोग मुझे पुन: सम्मिलित करना चाहते हो, इसमें मुझे किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है और न हर्ष ही है।
यदि पुन: तुम लोग मुझे अलग कर दोगे, तो भी मुझे शोक नहीं होगा और न मैं तुम लोगों से द्वेष ही रखूँगा; क्योंकि हर्ष, द्वेष, शोक, आकांक्षा तथा शुभाशुभ को परित्याग करने वाला पुरुष ही भगवान् का सच्चा प्रेमी समझा जाता है।
‘आपके पदार्पण करते ही आपकी कृपा से हमारा घर और घर का तमाम सामान, जो गिरवी रखा था, छूट गया।
हम ऋणमुक्त हो गये’-
एक दिन चारों भाइयों के एकत्र होने पर सबसे छोटे भाई ने कहा।
‘हमारा जीवन आनन्द से बीत रहा है।’
‘लक्ष्मीदेवी की हम पर बड़ी कृपा हो गयी है।’
दूसरे छोटे भाई ने कहा।
‘यो न हृष्यति न द्वेष्टि..।’
श्लोक गाती हुई गीताभ्यासी पण्डित की पत्नी ने आकर कहा-
‘चलिये भोजन तैयार है।’
भोजन करने के लिये उद्यत होते हुए छोटे तीसरे भाई ने कहा-
‘अब तो भैया और भाभी की तरह हम लोग भी प्रतिदिन नियमपूर्वक गीतापाठ किया करेंगे।’
‘गीता के अनुसार जीवन बनाने का पूर्ण प्रयत्न करेंगे’-
सबसे छोटे भाई ने कह दिया।
‘फिर तो हमारा घर भगवान् का मन्दिर बन जायगा’-
दूसरे छोटे भाई ने कहा।
‘प्रभु करें ऐसा ही हो’-
मुसकराते हुए गीताभ्यासी सबसे बड़े भाई बोल गये।
( निवृतिपरक स्वभाव का अनुसरण करके यह गाथा लिखी गयी है।
इस श्लोक का अर्थ प्रवृतिपरक भी होता है और इस तरह प्रत्येक कर्मशील भक्त के लिये भी यह श्लोक आदर्श है। )
स महात्मा सुदुर्लभ:-- गीता ७.१९
सुदुर्लभ:--
विचारकर देखो भगवान सबमें हैं, इसलिए सुलभ हैं परन्तु महात्मा दुर्लभ है ।
भगवान् दुर्लभ नहीं हैं ।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।
गीता ७. ३
'हजारों मनुष्योंमें कोई एक वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धोंमें कोई एक ही मुझे तत्त्वसे जानता है।'
तत्त्वरूपसे हैं भगवान, इसलिए सुलभ हैं ।
परन्तु पहचाननेवाला जो है, वह तो हजारों मनुष्योंमें कॊई एक व्यक्ति ईश्वरकी ओर चलना चाहता है ।
और 'यततामपि कश्चित् सिद्धो भवति'- प्रयत्न करनेवाले हजारों - लाखोंमें किसी एकका अन्त:करण शुद्ध होता है ।
और 'यततामपि सिंद्धानां' उन हजारों, लाखों सिद्धोंमें से कोई परमात्माको तत्त्वत: जानता है ।
इस लिए महात्माका मिलना बड़ा मुश्किल और भगवान् का मिलना आसान ।
भगवान् से मिले हुए महात्माका मिलना बड़ा मुश्किल ।
पर यह महाराज, भगवान् भी ऐसे हैं कि ये रहते तो सब जगह हैं, उदासीन भावसे रहते हैं अपने आप न किसीसे जान -
पहचान करते हैं, न मिलते हैं, पर जब कोई पहले परिचय करा दे कि महाराज !
यह आपका भक्त है, यह आपको दूँढ़ता हुआ आया है और भक्तसे कहे कि भक्तजी देखो, यह भगवान् हैं, तो ये मिलते हैं ।
कोई मिलनिया चाहिए इनको बीचमें ।
जैसै विलायतमें दो आदमी मिलते हैं तो कोई परिचय करानेवाला चाहिए; न परिचय करावे तो दिनभर साथ बैठे रहेंगे, साथ बैठकर खायेंगे और साथ ही रहेंगे, साथ ही चलेंगे, लेकिन आपसमें बातचीत नहीं करेंगे ।
कि क्यों नहीं करते ?
कि अभी किसीने परिचय नहीं करवाया और मनमें बहुत है कि बोलें, बात करें ।
तो यह भगवान् का भी ऐसा स्वभाव है कि ये जीवसे मिलते तब हैं, बोलते तब हैं, जान - पहचान तब करते हैँ जब कोई बीचमें मिलनिया हो, जब कोई भक्तसे कहे-
यह रहे भगवान् और भगवान् से कहे कि यह रहा तुम्हारा भक्त ।
यह आपसे मिलनेके लिए बहुत दिनोंसे उत्कठिंत है ।
भगवान् बोलेंगे अरे भाई मिलनेके लिए उत्कठिंत मैं भी था, लेकिन कोई जान - पहचान करानेवाला - महात्मा नहीं था ।
तो, महात्मा सुदुर्लभ: । ।
तो 'सुदुर्लभ'का अर्थ, दो विभाग कर इसकी व्याख्या करनी चाहिए ।
'सु' और 'दु:' ये दो उपसर्ग हैं और ' लभ्' धातु है-
उससे तो आप बहुत परिचित हो, क्योंकि यही लाभ बन कर आता है ।
तो अलग - अलग दोनोंको जोड़ो-
एकबार सुलभ: करो और एकबार दुर्लभ: करो ।
दो व्याख्या इसकी हैं ।
यह महात्मा कैसा ?
बोले--
सुलभ: ।
और यह महात्मा कैसा ?
तो बोले--
दुर्लभ: ।
एक ही व्यक्ति सुलभ और दुर्लभ, दोनों करो ?
तो बोले-
जो श्रद्धालु हैं और जो संसारके तापसे परितप्त हैं, जो सचमुच दुनियाको छोड़ना चाहते हैं और श्रद्धालु हैं, उनके लिए तो यह महात्मा सुलभ है; और जो संसारको छोड़ना नहीं चाहते पकड़ रखना चाहते हैं और श्रद्धा सम्पन्न नहीं हैं, उनके लिए यह महात्मा दुर्लभ है ।
किसीके लिए सुलभ है, किसीके लिए यह दुर्लभ है ।
स्वयं महात्मा ही देखता है--
कहाँ हमारी जरूरत है ।
जो संसारको छोड़ना चाहता है, श्रद्धालु है, ईश्वरके मार्गमें चलना चाहता है, उसके घरमें महात्मा आ जाता है और जिसके चित्तमें श्रद्धा नहीं है जो संसारको नहीं छोडना चाहता, संसारको ही पकड़ रखना चाहता है उसके घरमें आया हुआ भी लौट जाता है ।
क्योंकि वह पहचानेगा ही नहीं, उसके मनमें तो कीमत धनकी है, उसके मनमें तो कीमत संसारकी है, उसके मनमें कीमत तो संसारी बंधनोंकी है, वस्तुओंकी है, महात्माकी कीमत नहीं है ।
इसी लिए उसके लिए वह दुर्लभ होता है ।
( श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय पर प्रवचन'में संकलित प्रवचनों से )
भक्तिमय मंगल प्रभात
मानवता की सेवा में इस तन को लगाएँ ,
सद्भावों के बीज को मन में हम उगाएँ ।
बैरभाव , कडुवाहट को भूल कर सभी ,
जीवन को महका हुआ चंदन हम बनाएँ ।।
अग्नि में तपकर ही निखरता है कुंदन ,
घिसकर और अधिक महकता है चंदन ।
कठिनाइयों से लड़कर आगे जो बढ़े ,
उन मनीषियों को हैं करते सब वंदन ।।
परम अर्थ
राह मे साथ मे चलने हेतु अपने से श्रेष्ठ या बराबरी का साथी ना मिले तो अकेले राह चले !
कयोंकि मूर्ख मे साथ देने की क्षमता नहीं होती !
जो खरी खरी सुनाता है , सन्मार्ग बताता है तथा असन्मार्ग से बचाता है , वहीं सज्जनों को प्रिय होता है !
ना दुराचारी मित्रों की संगत करे , ना ही अधम पुरुषों का संग करे !
सदाचारी मित्रों की संगत करे और उत्तम पुरुषों से ही व्यवहार करे !
मुड़ जनों की संगती के परिणाम स्वरूप शोक ही प्राप्त होता है !
हरे-कृष्णा-हरे-कृष्णा कृष्णा-कृष्णा-हरे-हरे
हरे-रामा-हरे-रामा रामा-रामा-हरे हरे
अजामिल - वो पापी जिसने स्वर्ग प्राप्त किया।
प्राचीन काल में अजामिल नामक एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण था।
उसके पिता ने उसे बहुत अच्छी शिक्षा और संस्कार दिए थे और वो भी सदैव अपने पिता की सेवा एवं ईश्वर की साधना में लगा रहता था।
उसके पिता ऐसे आदर्श पुत्र को प्राप्त कर अपने आप को धन्य समझते थे।
समय आने पर उन्होंने अजामिल का विवाह एक सुन्दर एवं सुशील ब्राह्मण कन्या से कर दिया।
एक आदर्श पुत्र की भांति ही अजामिल एक आदर्श पति भी साबित हुआ और दोनों सुख पूर्वक रहने लगे।
एक बार अजामिल पूजा के लिए पुष्प लेने वन को गया।
वापस आते समय उसने देखा कि एक व्यक्ति शराब के नशे में धुत्त एक अति सुन्दर वेश्या के साथ रमण कर रहा है।
अपने संस्कारों के कारण उसने बहुत प्रयास किया कि उस ओर ना देखे, किन्तु उस वेश्या के रूप ने उस पर ऐसा जादू किया कि वो चाह कर भी स्वयं को उस ओर देखने से रोक ना सका।
थोड़ी देर बाद जब वो घर वापस आया तो उसका मुख मलिन था।
अजामिल उस स्त्री को अपने मन से निकाल नहीं पा रहा था।
पूजा - पाठ, धर्म - कर्म इत्यादि में उसकी कोई रूचि ना रही।
अंततः एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण का वो पुत्र अपने ह्रदय से हार उस वेश्या के निवास पर जा पहुँचा।
बहुत दिनों तक उसने अपने सभी संस्कारों को भुला कर उस स्त्री के साथ भोग - विलास में लिप्त रहा।
वो उसके रूप पर ऐसा मोहित हुआ कि उस वेश्या को वो अपने घर पर ले कर आ गया।
उसके पिता और स्त्री को उसके इस बलदे रूप पर विश्वास नहीं हुआ।
अजामिल ने धर्म से स्वयं को विमुख कर लिया और उस वेश्या के साथ सदैव भोग - विलास में लिप्त रहने लगा।
जब पानी सर से ऊपर चला गया तो उसके पिता ने उसे उसके कृत्य के लिए झिड़का और उसे आज्ञा दी कि वो तत्काल उस स्त्री को घर से निकाल दे।
किन्तु अजामिल ने उलट अपने पिता और अपनी नवविवाहिता पत्नी को धक्के दे कर उन्ही के घर से निकाल दिया।
अब तो वो और स्वछन्द रूप से भोग-विलास में रम गया। उसके पास जो धन था वो सारा समाप्त हो गया किन्तु उस वेश्या की सभी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए वो ब्राह्मण पुत्र चोरी, डकैती एवं हत्या जैसा जघन्य अपराध करने से भी ना चूका।
धीरे - धीरे वही उसका व्यवसाय बन गया। समय बीता और उस वेश्या से अजामिल को ९ पुत्र प्राप्त हुए और पुनः वो गर्भवती हुई।
अजामिल उस पूरे प्रदेश में अपने कुकर्मों के कारण कुख्यात हो गया।
एक बार ऋषियों का एक समूह उस गांव में आया।
मार्ग में उन्होंने वहां के निवासियों से पूछा कि वो कहाँ रात्रि व्यतीत कर सकते हैं।
तब लोगों ने मजाक ही मजाक में उन्हें अजामिल के घर ये बोल कर भेज दिया कि वो बड़ा सच्चरित्र व्यक्ति है।
उसके वास्तविक कर्मों से अनभिज्ञ जब वे ऋषि अजामिल के घर पहुंचे तो वो लूट - पाट के लिए बाहर गया हुआ था।
उसकी अनुपस्थिति में उसकी गर्भवती स्त्री ने ऋषियों को भोजन कराया और कहा कि वो जल्द खाकर वहाँ से चले जाएँ अन्यथा यदि अजामिल वापस आ गया तो बहुत बिगड़ेगा।
अब ऋषियों को अजामिल की सच्चाई मालूम पड़ी, किन्तु उसका उद्धार करने के लिए उन्होंने कहा कि अब इतनी रात्रि वो कहाँ जायेंगे, इस लिए आज भर उन्हें वही रहने दिया जाये।
जब अजामिल वापस आया तो अपने घर पर ऋषियों का झुण्ड देख कर बहुत क्रोधित हुआ।
उसने उन सभी को मार कर वहां से भगाना चाहा किन्तु उसकी स्त्री ने उसे ये कह कर रोक दिया कि केवल एक ही रात की बात है इसी लिए उन्हें वही रहने दे।
उसकी बात मानकर अजामिल ने उन ऋषियों के एक रात अपने घर में रहने की आज्ञा दे दी।
अगले दिन सूर्योदय होते ही अजामिल ने सभी ऋषियों को वहां से जाने को कहा।
तब ऋषियों ने कहा कि क्या वो उन्हें कुछ दक्षिणा दे सकता है ?
अब अजामिल तो खुद चोर ठहरा, उन्हें धन कहाँ से देता।
उसने सीधे - सीधे बोल दिया कि उसके पास उन्हें दक्षिणा में देने के लिए कुछ नहीं है ।
तब ऋषियों ने कहा कि दक्षिणा में उन्हें धन नहीं चाहिए, बस वो अपने होने वाले पुत्र का नाम नारायण रख दे।
अजामिल को लगा वो तो सस्ते में छूटा ।
उसे अपनी संतान का कुछ तो नाम रखना ही था, अब वो नारायण हो या कुछ और उससे क्या फर्क पड़ता है ?
उन ऋषियों से छुटकारा पाने के लिए उसने उन्हें वचन दे दिया कि वो अपने होने वाली संतान का नाम नारायण ही रखेगा ।
समय आने पर उसकी स्त्री ने १० वें पुत्र को जन्म दिया और वचन के अनुसार अजामिल ने उसका नाम नारायण रख दिया।
अब दैव योग से वो पुत्र अजामिल का सबसे प्रिय हो गया।
समय का चक्र यूँ ही चलता रहा और अजामिल अपने पाप कर्म में लिप्त रहा।
समय बीता और अजामिल वृद्ध हो गया।
जब उसका अंत समय आया तो अजामिल के कर्मों के अनुसार उसे नर्क में ले जाने के लिए भयानक यमदूत उसके सामने उपस्थित हुए।
मृत्युशैय्या में पड़ा अजामिल उन भयानक दूतों को देख कर भयभीत हो गया और जोर से अपने पुत्र को नारायण - नारायण कह पुकारने लगा।
जैसे ही यमदूतों ने अजामिल पर अपना पाश फेंका, उसी समय विष्णुदूत वहां पहुँचे और युद्ध कर उन यमदूतों से अजामिल को छुड़ाया।
इस पर यमदूतों ने उनसे पूछा कि वो उसे क्यों बचा रहे हैं ?
अजामिल ने जीवन भर पाप के अतिरिक्त कुछ और किया ही नहीं है और इसके कर्मों के अनुसार यमराज की आज्ञा से वे उसे नर्क ले जाने आये हैं।
तब विष्णुदूतों ने कहा कि भले ही अजामिल ने जीवन भर पाप किया किन्तु अज्ञानतावश ही सही, उसने अपने अंत समय में श्रीहरि के नाम का स्मरण किया है, अतः वे किसी भी मूल्य पर उसे नर्क जाने नहीं दे सकते।
अब तो दोनों पक्षों में अपने - अपने तर्कों के आधार पर विवाद हो गया किन्तु विष्णुदूतों ने यमदूतों को उसे नर्क ले जाने नहीं दिया।
थक कर यमदूत यमराज के पास पहुंचे और उन्हें सारा वृतांत सुनाया।
तब यमराज ने हँसते हुए कहा कि विष्णु दूत सही कह रहे हैं।
चूंकि अजामिल ने अनजाने में ही सही, किन्तु भगवान विष्णु का नाम लिया है, उसे स्वतः ही एक वर्ष का जीवन और मिल गया है ।
अब इस एक वर्ष के जीवन में उसके किये कर्म के अनुसार उसे स्वर्ग अथवा नर्क प्राप्त होगा।
उधर अजामिल ने जब ये देखा तो सोचने लगा कि यदि केवल एक बार श्रीहरि के नाम लेने का ये प्रभाव है तो क्या होता यदि वो जीवन भर उनकी भक्ति में रमा रहता?
उसे बहुत पश्चाताप हुआ और उसने अपने बचे हुए १ वर्ष में स्वयं को विष्णु भक्ति में लगा दिया। वो सोते - जागते सदैव नारायण की ही भक्ति में ही डूबा रहता था।
1 वर्ष बाद जब उसकी आयु पूर्ण हुई तो यमदूत पुनः उसे लेने आये किन्तु इस बार उन्होंने बड़ी नम्रता से अजामिल को अपने साथ स्वर्ग चलने को कहा।
अंततः जीवन पर्यन्त केवल पाप कर्म करने वाला अजामिल केवल श्रीहरि के नाम का स्मरण करने के कारण स्वर्ग को प्राप्त हुआ। ये कथा भागवत पुराण में दी गयी है जिससे हमें ये शिक्षा मिलती है कि भगवत भजन का क्या पुण्य प्राप्त होता है।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )
"जय जय श्री राधे"