|| मीरा और कृष्ण का प्रेम ||
मीरा और कृष्ण का प्रेम...!
मीरा का मार्ग था प्रेम का, पर कृष्ण और मीरा के बीच अंतर था पाच हजार साल का।
फिर यह प्रेम किस प्रकार बन सका।
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प्रेम के लिए न तो समय का कोई अंतर है और न स्थान का।
प्रेम एकमात्र कीमिया है, जो समय को और स्थान को मिटा देती है।
जिससे तुम्हें प्रेम नहीं है वह तुम्हारे पास बैठा रहे, शरीर से शरीर छूता हो, तो भी तुम हजारों मील के फासले पर हो।
और जिससे तुम्हारा प्रेम है वह दूर चांद - तारों पर बैठा हो, तो भी सदा तुम्हारे पास बैठा है।
प्रेम एकमात्र जीवन का अनुभव है जहां समय और स्पेस, समय और स्थान दोनों व्यर्थ हो जाते हैं।
प्रेम एकमात्र ऐसा अनुभव है जो स्थान की दूरी में भरोसा नहीं करता और न काल की दूरी में भरोसा करता है, जो दोनों को मिटा देता है।
परमात्मा की परिभाषा में कहा जाता है कि वह काल और स्थान के पार है, कालातीत।
प्रेम परमात्मा है-
इसी कारण।
क्योंकि मनुष्य के अनुभव में अकेला प्रेम ही है जो कालातीत और स्थानातीत है।
उससे ही परमात्मा का जोड़ बैठ सकता है।
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कृष्ण पाच हजार साल पहले थे।
प्रेमी अंतराल को मिटा देता है।
प्रेम की तीव्रता पर निर्भर करता है।
मीरा के लिए कृष्ण समसामयिक थे।
किसी और को न दिखायी पड़ते हों, मीरा को दिखायी पड़ते थे।
किसी और को समझ में न आते हों, मीरा उनके सामने ही नाच रही थी।
मीरा उनकी भाव-
भंगिमा पर नाच रही थी।
मीरा को उनका इशारा - इरादा साफ था।
यह थोड़ा हमें जटिल मालूम पड़ेगा, क्योंकि हमारा भरोसा शरीर में है।
शरीर तो मौजूद नहीं था।
कृष्णा ने स्वयं कहा है कि जो मुझे प्रेम करेंगे और जो मेरी बात को समझेंगे, कितना ही समय बीत जाए, मैं उन्हें उपलब्ध रहूंगा।
और जिन्होंने प्रेम नहीं किया, वे सामने बैठे रहे तो भी उपलब्ध नहीं थे।
शरीर समय और क्षेत्र से घिरा है।
लेकिन तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, समय और और क्षेत्र का उस पर कोई संबंध नहीं है।
वह बाहर है।
वह अतिक्रमण कर गया है।
वह दोनों के अतीत है।
जिस कृष्ण को मीरा प्रेम कर रही थी, वे देहधारी कृष्ण नहीं थे।
वह देह तो पाच हजार साल पहले जा चुकी।वह तो धूल - धूल में मिल चुकी।
इस लिए जानकार कहते हैं कि मीरा का प्रेम राधा के प्रेम से भी बड़ा है।
होना भी चाहिए।
अगर राधा प्रसन्न थी कृष्ण को सामने पाकर, तो यह तो कोई बड़ी बात न थी।
लेकिन मीरा ने पांच हजार साल बाद भी सामने पाया, यह बड़ी बात थी।
गोपियों ने कृष्ण को मौजूदगी में पाया और प्रेम किया–
प्रेम करने योग्य थे वे, उनकी तरफ प्रेम सहज ही बह जाता, वैसा उत्सवपूर्ण व्यक्तित्व पृथ्वी पर मुश्किल से होता है-
तो कोई भी प्रेम में पड़ जाता।
लेकिन कृष्ण गोकुल छोड़कर चले गए द्वारका, तो बिलखने लगीं गोपियां, रोने लगा, पीड़ित होने लगीं।
गोकुल और द्वारका के बीच का फासला भी वह प्रेम पूरा न कर पाया।
वह फासला बहुत बड़ा न था।
स्थान की ही दूरी थी, समय की तो कम से कम दूरी न थी।
मीरा को स्थान की भी दूरी थी,समय की भी दूरी थी; पर उसने दोनों का उल्लंघन कर लिया, वह दोनों के पार हो गयी।
प्रेम के हिसाब में मीरा बेजोड़ है।
एक क्षण उसे शक न आया, एक क्षण उसे संदेह न हुआ, एक क्षण को उसने ऐसा व्यवहार न किया कि कृष्ण पता नहीं, हों या न हों।
वैसी आस्था, वैसी अनन्य श्रद्धा फिर समय की कोई दूरी - दूरी नहीं रह जाती।
दूरी रही ही नहीं।
आत्मा सदा है।
जिन्होंने प्रेम का झरोखा देख लिया,उन्हें वह सदा जो आत्मा है, उपलब्ध हो जाती है।
जो अमृत को उपलब्ध हुए हैं - कृष्ण जब भी उन्हें प्रेम करेंगे, तभी उनके निकट आ जाएंगे।
वे तो सदा उपलब्ध हैं, जब भी तुम प्रेम करोगे, तुम्हारी आख खुल जाती है।
|| कृष्ण प्रेम की दिवानी मीरा ||
|| गर्भपात महापाप ये दुगुना पाप ||
यत्पापं ब्रह्महत्याया द्विगुणं गर्भपातने।
प्रायश्चितं न तस्यास्त्यागो वीधीयते ।।
अर्थात्:- ब्रह्महत्या से जो पाप लगता है ।
उससे दुगुना पाप गर्भपात करने से लगता है।
इस गर्भपात रूपी महापाप का कोई प्रायश्चित नहीं है।
इसमें तो उस स्त्री का त्याग कर देना ही विधान है ।
भगवान विशेष कृपा करके ही जीव को मनुष्य शरीर देते हैं।
पर नसबंदी,आप्रेशन,गर्भपात, लूप, गर्भनिरोधक दवाओं आदि के द्वारा उस जीव को मनुष्य शरीर में न आने देना जन्म से पहले ही उस जीव को नष्ट कर देना बडा भारी पाप है।
वह जीव मनुष्य शरीर में आकर न जाने क्या - क्या अच्छे काम करता , समाज की सेवा करता ,अपना उद्धार करता , पर जन्म लेने से पहले ही उसकी हत्या करना घोर अन्याय है , घोर पाप है ।
अपना उद्धार,व कल्याण न करना भी पाप है।
फिर दूसरे को उद्धार का मौका प्राप्त न होने देना कितना बडा पाप है।
ऐसा महापाप करने वाले स्त्री - पुरूष को अगले जन्म में कोई संतान नही होगी।वे संतान के बिना जन्म- जन्मातर तक रोते रहेंगे।
{ पारासर स्मृति 4 / 20 }
प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के माध्यम से अपना भविष्य स्वयं बनाता है।
यदि वह अच्छे कर्म करता है।
जैसे सत्य बोलना सेवा करना परोपकार करना योग्य पात्रों को दान देना वैदिक धर्म प्रचार में सहयोग देना इत्यादि, तो ईश्वर उसे सुख फल देता है।
यदि कोई व्यक्ति बुरे काम करता है।
जैसे झूठ बोलना चोरी करना रिश्वत लेना ब्लैक मेल करना ब्लैक मार्केटिंग करना दूसरों को धोखा देना दूसरों की संपत्ति हड़प लेना इत्यादि, तो ईश्वर उसे इसी जन्म में चिंता तनाव क्रोध लोभ मोह आदि अनेक मानसिक रोग और अगले जन्म में शेर भेड़िया सांप बिच्छू कुत्ता बिल्ली आदि योनियों में अनेक दुख देता है।
तो जो व्यक्ति शुभ कर्मों को करके अपना सुख स्वयं बढ़ाता है, वह स्वयं अपना ही मित्र है।
और जो पाप कर्म करके स्वयं अपना दुख बढ़ाता है,वह अपना ही शत्रु स्वयं है।
आप भी अपना अपना आत्म निरीक्षण करके देखिए, कि आप किस प्रकार के कर्म कर रहे हैं?
क्या आप अपने मित्र हैं ?
या अपने ही शत्रु हैं?
यदि आप अपने ही शत्रु स्वयं हैं, तो आप बुरे कर्मों को छोड़ कर शुभ कर्मों का आचरण करें, और अपने मित्र स्वयं बनें।
तभी आपका यह जीवन सफल और आनंदित होगा, तथा अगला जन्म भी उत्तम होगा।
चन्द्रहासोज्जवलकरशैलवरवाहनाम्।
कात्यायनी शुभं दद्यात् देवी दानवघातिनी॥
देवी कात्यायनी आदिशक्ति की षष्ठी स्वरूपा,जो न केवल ऋषि कात्यायन की तपस्या से प्रकट हुईं, अपितु कालातीत करुणा की साक्षात् मूर्ति बनकर सृष्टि में अवतरित हुईं।
वे कोई साधारण अवतरण नहीं, वरन् पर ब्रह्मस्वरूपिणी - परम करुणामयी; परम सत्ता साधकों के ध्यान की अधिष्ठात्री और आज्ञाचक्र की स्वामिनी हैं,जो चित्त की एकाग्रता और आत्मसाक्षात्कार का द्वार खोलती हैं।
पराम्बा यह शब्द स्वयं में सम्पूर्णता का संनाद है; वह जो परात्पर, अप्रमेय और सृष्टि - स्थिति - संहार की लीला धारिणी है।
भगवद्पाद शंकराचार्य अपनी सौन्दर्य लहरी में कहते हैं -
त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः
त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया।
भयात्त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं
शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ॥
यह स्तुति माँ के चरणों की अरुणिमा और त्रैलोक्य- चेतन्य को प्रज्वलित करने वाली उनकी महिमा का गान करती है।
देवी कात्यायनी आत्मबोध की अधिष्ठात्री हैं, जो साधक को आज्ञाचक्र के पथ पर ले जाकर बुद्धि को आत्म- समर्पण हेतु परिष्कृत करती हैं।
अद्वैत वेदान्त के दृष्टिकोण से यह वही अवस्था है, जहाँ चित्तस्य शुद्धिः,ज्ञाननिष्ठा और कर्तृत्व - अकर्तृत्व भ्रांति का लय होता है।
उनकी उपासना साधक को स्वयं की सुप्त ब्रह्मबुद्धि के जागरण की ओर ले जाती है।
माँ कात्यायनी का स्मरण केवल देवत्व का आवाहन नहीं, अपितु आत्मा का स्वयं से संनाद है।
उनके कृपा पात्र साधक के लिए कोई लक्ष्य असाध्य नहीं, क्योंकि उन पर उस चेतना का सान्निध्य होता है, जो स्वयं कर्ता,भोक्ता और साक्षी है।
उनकी उपासना आत्म-बोध का दिव्य साधन है, जहाँ अज्ञान का लय होता है और सत्य का प्राकट्य।
माँ पराम्बा कात्यायनी; त्रैलोक्य का मंगल करें, साधकों को आत्म - साक्षात्कार का पथ प्रशस्त करें।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
|| मां कात्यायनी की जय हो ||