श्रीमदभागवत कथा का एक प्रसंग , बकासुर वध की कथा , श्री राधा अमृत कथा , पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई , हौं लागी गृह - काज - रसोई, जसुमति विनय कह्यौ
श्रीमदभागवत कथा का एक प्रसंग , बकासुर वध की कथा , श्री राधा अमृत कथा , पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई , हौं लागी गृह - काज - रसोई, जसुमति विनय कह्यौ
श्री यजुर्वेद और विष्णु पुराण सहित अनेक पुराणों के अनुसार,माता संतोषी का जन्म एक अद्भुत और दिव्य घटना है,जो भगवान गणेश के परिवार में घटित हुई थी।
इस कथा का हर पल रोमांच और भक्ति से भरा हुआ है..*
एक बार की बात है, कैलाश पर्वत पर भगवान गणेश अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक समय बिता रहे थे।
गणेश जी के दो पुत्र, शुभ और लाभ, बचपन के खेल और जिज्ञासाओं में व्यस्त थे।
देवी रिद्धि और सिद्धि अपने पुत्रों को संस्कारों की शिक्षा दे रही थीं।
एक दिन, रक्षाबंधन का पवित्र पर्व आया।
भगवान गणेश अपनी बहन से रक्षा सूत्र बंधवा रहे थे।
इस दृश्य को देखकर शुभ और लाभ चकित हो गए।
उन्होंने पिता गणेश से पूछा, "पिता जी, यह रक्षा सूत्र क्या है और क्यों बांधा जा रहा है?"
गणेश जी ने मुस्कुराते हुए कहा, "यह रक्षा सूत्र भाई - बहन के प्रेम, आशीर्वाद और सुरक्षा का प्रतीक है।
बहन अपने भाई की रक्षा और सुख-शांति की कामना करती है, और भाई जीवन भर बहन की रक्षा का वचन देता है।"
यह सुनकर शुभ और लाभ बहुत उत्साहित हुए और बोले, "पिता जी, हमें भी एक बहन चाहिए, ताकि हम भी इस पवित्र रस्म का अनुभव कर सकें।"
शुभ और लाभ की इस मासूम लेकिन दृढ़ इच्छा को सुनकर भगवान गणेश ने मन ही मन विचार किया।
वे अपने पुत्रों की जिज्ञासा और प्यार से अभिभूत हो गए।
लेकिन समस्या यह थी कि उनके परिवार में कोई बहन नहीं थी।
गणेश जी ने अपनी दिव्य शक्तियों का आह्वान करने का निर्णय लिया।
उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों, देवी रिद्धि और सिद्धि, और अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा का उपयोग करके एक विशेष पूजा आरंभ की।
इस पूजा के दौरान उन्होंने सृष्टि की सभी सकारात्मक शक्तियों का आह्वान किया और कहा, "हे देवी शक्ति, हे संतोष और शांति की प्रतीक! मेरी प्रार्थना स्वीकार करें और मेरे पुत्रों के लिए एक बहन के रूप में प्रकट हों।"
गणेश जी की प्रार्थना से एक दिव्य प्रकाश उत्पन्न हुआ।
यह प्रकाश इतना तेजस्वी था कि कैलाश पर्वत भी उसकी चमक से आलोकित हो गया।
उस प्रकाश के केंद्र से एक सौम्य और दयालु रूप प्रकट हुआ।
यह थीं मां संतोषी।
मां संतोषी कमल के आसन पर विराजमान थीं।
उनके चेहरे पर एक अद्भुत तेज था, लेकिन साथ ही उनकी आंखों में करुणा और संतोष झलकता था।
उनकी उपस्थिति से पूरा वातावरण शांति और संतोष से भर गया।
देवी रिद्धि और सिद्धि ने उन्हें अपनी बेटी के रूप में अपनाया और शुभ-लाभ की बहन घोषित किया।
जब शुभ और लाभ ने अपनी बहन को देखा, तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
उन्होंने तुरंत माता संतोषी से कहा, "बहन, आज से हम आपकी रक्षा करेंगे और आप हमें आशीर्वाद देंगी।
" मां संतोषी ने मुस्कुराते हुए कहा, " मैं तुम्हारी हर प्रार्थना सुनूंगी और तुम्हें जीवन में संतोष का आशीर्वाद दूंगी।"
मां संतोषी को विशेष रूप से संतोष और आनंद की देवी माना गया।
भगवान गणेश ने घोषणा की कि मां संतोषी उनके भक्तों के जीवन में संतोष और सुख लाने का कार्य करेंगी।
जो भी भक्त सच्चे मन से उनकी पूजा करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी।
शुक्रवार को माता संतोषी की पूजा का विधान आरंभ हुआ।
भक्त उन्हें गुड़ और चने का भोग लगाते हैं और खट्टे पदार्थों से परहेज करते हैं।
यह पूजा जीवन में शांति, संतोष और समृद्धि लाने का मार्ग बन गई।
मां संतोषी की यह कथा हमें सिखाती है कि संतोष और सकारात्मक सोच से जीवन की हर कठिनाई का समाधान संभव है।
जो भी व्यक्ति सच्चे मन से मां संतोषी की आराधना करता है, मां उसकी सभी इच्छाएं पूरी करती हैं और उसके जीवन को सुखमय बनाती हैं।
मां संतोषी के जन्म की यह कथा न केवल रोमांचक है, बल्कि भक्ति और प्रेम का अद्भुत उदाहरण भी है।
अगर आप भी अपने जीवन में संतोष, शांति और सुख चाहते हैं, तो मां संतोषी की पूजा करें और उनके आशीर्वाद से अपना जीवन सफल बनाएं..!!
*🙏🏽🙏🏻🙏जय संतोषी मां*🙏🏼🙏🏿🙏🏾
💎एक चुटकी ज़हर रोजाना💎
आरती नामक एक युवती का विवाह हुआ और वह अपने पति और सास के साथ अपने ससुराल में रहने लगी।
कुछ ही दिनों बाद आरती को आभास होने लगा कि उसकी सास के साथ पटरी नहीं बैठ रही है।
सास पुराने ख़यालों की थी और बहू नए विचारों वाली।
आरती और उसकी सास का आये दिन झगडा होने लगा।
दिन बीते, महीने बीते. साल भी बीत गया. न तो सास टीका-टिप्पणी करना छोड़ती और न आरती जवाब देना।
हालात बद से बदतर होने लगे।
आरती को अब अपनी सास से पूरी तरह नफरत हो चुकी थी. आरती के लिए उस समय स्थिति और बुरी हो जाती जब उसे भारतीय परम्पराओं के अनुसार दूसरों के सामने अपनी सास को सम्मान देना पड़ता।
अब वह किसी भी तरह सास से छुटकारा पाने की सोचने लगी.
एक दिन जब आरती का अपनी सास से झगडा हुआ और पति भी अपनी माँ का पक्ष लेने लगा तो वह नाराज़ होकर मायके चली आई।
आरती के पिता आयुर्वेद के डॉक्टर थे. उसने रो - रो कर अपनी व्यथा पिता को सुनाई और बोली –
“आप मुझे कोई जहरीली दवा दे दीजिये जो मैं जाकर उस बुढ़िया को पिला दूँ नहीं तो मैं अब ससुराल नहीं जाऊँगी…”
बेटी का दुःख समझते हुए पिता ने आरती के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा –
“बेटी, अगर तुम अपनी सास को ज़हर खिला कर मार दोगी तो तुम्हें पुलिस पकड़ ले जाएगी और साथ ही मुझे भी क्योंकि वो ज़हर मैं तुम्हें दूंगा. इस लिए ऐसा करना ठीक नहीं होगा.”
लेकिन आरती जिद पर अड़ गई –
आपको मुझे ज़हर देना ही होगा ….
अब मैं किसी भी कीमत पर उसका मुँह देखना नहीं चाहती !”
कुछ सोचकर पिता बोले –
ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी।
लेकिन मैं तुम्हें जेल जाते हुए भी नहीं देख सकता इस लिए जैसे मैं कहूँ वैसे तुम्हें करना होगा !
मंजूर हो तो बोलो ?
क्या करना होगा ?,
आरती ने पूछा.
पिता ने एक पुडिया में ज़हर का पाउडर बाँधकर आरती के हाथ में देते हुए कहा –
“तुम्हें इस पुडिया में से सिर्फ एक चुटकी ज़हर रोज़ अपनी सास के भोजन में मिलाना है।
कम मात्रा होने से वह एकदम से नहीं मरेगी बल्कि धीरे - धीरे आंतरिक रूप से कमजोर हो कर 5 से 6 महीनों में मर जाएगी.
लोग समझेंगे कि वह स्वाभाविक मौत मर गई।
पिता ने आगे कहा -
लेकिन तुम्हें बेहद सावधान रहना होगा ताकि तुम्हारे पति को बिलकुल भी शक न होने पाए वरना हम दोनों को जेल जाना पड़ेगा !
इसके लिए तुम आज के बाद अपनी सास से बिलकुल भी झगडा नहीं करोगी बल्कि उसकी सेवा करोगी।
यदि वह तुम पर कोई टीका टिप्पणी करती है तो तुम चुप चाप सुन लोगी,बिलकुल भी प्रत्युत्तर नहीं दोगी !
बोलो कर पाओगी ये सब ?
आरती ने सोचा, छ: महीनों की ही तो बात है, फिर तो छुटकारा मिल ही जाएगा. उसने पिता की बात मान ली और ज़हर की पुडिया लेकर ससुराल चली आई.
ससुराल आते ही अगले ही दिन से आरती ने सास के भोजन में एक चुटकी ज़हर रोजाना मिलाना शुरू कर दिया।
साथ ही उसके प्रति अपना बर्ताव भी बदल लिया. अब वह सास के किसी भी ताने का जवाब नहीं देती बल्कि क्रोध को पीकर मुस्कुराते हुए सुन लेती।
रोज़ उसके पैर दबाती और उसकी हर बात का ख़याल रखती।
सास से पूछ - पूछ कर उसकी पसंद का खाना बनाती, उसकी हर आज्ञा का पालन करती।
कुछ हफ्ते बीतते बीतते सास के स्वभाव में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया. बहू की ओर से अपने तानों का प्रत्युत्तर न पाकर उसके ताने अब कम हो चले थे बल्कि वह कभी कभी बहू की सेवा के बदले आशीष भी देने लगी थी।
धीरे - धीरे चार महीने बीत गए. आरती नियमित रूप से सास को रोज़ एक चुटकी ज़हर देती आ रही थी।
किन्तु उस घर का माहौल अब एकदम से बदल चुका था. सास बहू का झगडा पुरानी बात हो चुकी थी. पहले जो सास आरती को गालियाँ देते नहीं थकती थी, अब वही आस - पड़ोस वालों के आगे आरती की तारीफों के पुल बाँधने लगी थी।
बहू को साथ बिठाकर खाना खिलाती और सोने से पहले भी जब तक बहू से चार प्यार भरी बातें न कर ले, उसे नींद नही आती थी।
छठा महीना आते आते आरती को लगने लगा कि उसकी सास उसे बिलकुल अपनी बेटी की तरह मानने लगी हैं।
उसे भी अपनी सास में माँ की छवि नज़र आने लगी थी।
जब वह सोचती कि उसके दिए ज़हर से उसकी सास कुछ ही दिनों में मर जाएगी तो वह परेशान हो जाती थी।
इसी ऊहापोह में एक दिन वह अपने पिता के घर दोबारा जा पहुंची और बोली –
“पिताजी, मुझे उस ज़हर के असर को ख़त्म करने की दवा दीजिये क्योंकि अब मैं अपनी सास को मारना नहीं चाहती … !
वो बहुत अच्छी हैं और अब मैं उन्हें अपनी माँ की तरह चाहने लगी हूँ!
पिता ठठाकर हँस पड़े और बोले –
ज़हर ?
कैसा ज़हर ?
मैंने तो तुम्हें ज़हर के नाम पर हाजमे का चूर्ण दिया था …
हा हा हा !!!
*बेटी को सही रास्ता दिखाये,माँ बाप का पूर्ण फर्ज अदा करे..!!
जय श्री कृष्ण
। श्री यजुर्वेद और महाभारत के अनुसार बकासुर वध की कथा ।।
हमारे वेदों पुराणों और महाभारत के अंदर बहुत सुंदर कथा दिया है बकासुर वध की कथा।
लाक्षागृह काण्ड के बाद हिडिम्ब वध और भीम - हिडिम्बा विवाह तत्पश्चात घटोत्कच जन्म आदि घटनाक्रम घटित हुए।
शर्त के अनुसार हिडिम्बा तथा घटोत्कच के चले जाने के पश्चात पाण्डव अपनी माता कुन्ती के साथ किसी सुरक्षित स्थान की खोज में आगे बढ़े।
मार्ग में उनकी भेंट वेद व्यास से हो गई।
वेद व्यास ने उन्हें एकचक्रा नगरी में निवास करने की सलाह दी।
वे एकचक्रा नगरी में एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे तथा भिक्षा माँगकर जीवन यापन करने लगे।
एक दिन कुन्ती और भीम को छोड़कर जब शेष पाण्डव भिक्षा माँगने के लिये चले गये थे....!
तभी अकस्मात उस ब्राह्मण के घर के सदस्य विलाप करने लगे।
कुन्ती के पूछने पर ब्राह्मणी ने बताया....!
“बहन! एकचक्रा नगरी के बाहर बक नाम का एक दैत्य रहता है।
प्रतिदिन उस दैत्य के लिये भोजन लेकर नगर से एक व्यक्ति को भेजा जाता है और बकासुर भोजन के साथ उस व्यक्ति को भी खा जाता है।
आज हमारे घर से एक सदस्य भेजने की बारी है।
" ब्राह्मणी के वचनों को सुनकर कुन्ती ने कहा....!"
“तुम चिन्ता मत करो। "
तुम लोगों ने हमे निवास के लिये स्थान प्रदान करके बहुत कृपा की है।
अब तुम लोगों के कष्ट को दूर करना हमारा कर्तव्य है।
मैं तुम्हारे घर के सदस्य के बदले अपने पुत्र को बकासुर के पास भेज दूँगी।
” इस पर ब्राह्मणी बोली, “
जो मेरे शरणागत हैं ।
"उन्हें मैं विपदा में कैसे डाल सकती हूँ?”
कुन्ती ने कहा ।
“बहन! तुम तनिक भी चिन्ता मत करो।
मेरा पुत्र इतना शक्तिशाली है कि ऐसे दैत्य उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।”
तब कुन्ती ने भीम को बक दैत्य के पास जाने की आज्ञा दी।
बकासुर के भोजन से भरी गाड़ी के साथ भीम वहाँ जा पहुँचे जहाँ बकासुर रहता था और वे उसके द्वार पर जाकर उसको आवाज लगाने लगे।
दैत्य के बाहर आने पर भीम ने उसके भोजन को स्वयं खाना आरम्भ कर दिया।
एक मनुष्य को अपना भोजन खते देखकर बकासुर के क्रोध की सीमा न रही और वह भीमसेन पर टूट पड़ा।
भीम ने उसकी परवाह न करते हुये समस्त भोजन खा डाला। फिर डकार लेते हुये बोले ।
“चलो, अब तुझ से निबटता हूँ।
तूने तो अनेक मनुष्यों का रक्त चूसा है, आज उसका फल तुझे मिलेगा।”
इतना कहकर भीम ने उसे उठा लिया और हवा में घुमाकर वेग के साथ भूमि पर पटक दिया।
पृथ्वी पर गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये।
भीम ने उसके मृत शरीर को एकचक्रा नगर के प्रवेश द्वार पर ला कर लटका दिया।
प्रातःकाल जब एकचक्रा नगर के निवासियों ने बकासुर की लाश को द्वार पर लटकते देखा तो उनकी प्रसन्नता की सीमा न रही।
*जय जय श्री कृष्ण*
श्री राधा अमृत कथा
श्री राधा जी की अँगूठी की
श्री कृष्ण की अनामिका अंगुली में एक अँगूठी नित्य झिलमिल करती रहती है ।
वो अँगूठी बड़ी अद्भुत है ।
वो नीले रंग का नग की अँगूठी पारदर्शी है ।
उसे थोड़ा पास से देखने से कितनी ही अनंततरंगो से युक्त श्री राधारानी की मुस्कुराती हुई छवि दिखती है।
इस अँगूठी की एक अद्भुत बात और है ।
श्री राधा का जो भी स्वरूप सिंगार पल पल लगता है ।
पल पल सुंदरता को प्राप्त होता .है ।
वो सब उस अँगूठी में दिखता रहता है ।
एक एक पल का सिंगार हाव भाव उस अँगूठी में दिखता रहता है ।
जिसे श्यामसुंदर नित्य निहारते र्है ।
आनंद पाते है ।
वो अद्भुत अँगूठी श्री राधा छवि की श्यामसुंदर ने चित्रा सखी से पायी थी ।
पर एक दिन सब मंजरिया यह योजना बनाती है ।
कि किस तरह यह अँगूठी श्री श्यामसुंदर से ले ली जाए ।
तब सब मंजरियाँ योजना बनाती हैं ।
कि श्री लासिका मंजरी को निकुंज द्वार पर खड़ी कर दी जाए ।
और जैसे ही नीलमणि अंदर प्रवेश करने की कोशिश करे तो अंदर घुसने ना दिया जाए ।
जब तक उनसे उनकी राधा अँगूठी ना मिल जाए ।
तभी लासिका मंजरी निकुंज द्वार पर खड़ी कर दी ।
जैसे ही नीलमणि अंदर निकुंज पर प्रवेश करने लगे तभी लासिका मंजरी बोली ।
" अरे भाई कौन हो तुम कहाँ जा रहे हो ?
यह सुन श्याम के पैरों तले ज़मीन खिसक गयी !
" ऐसे कैसे अंदर जा रहे हो " कौन हो तुम..?
श्यामसुंदर बोले ।
" अरी कैसी बावरी हो गयी मोहे ना जाने तू " मोहे मज़ाक़ पसंद नहीं है । "
अंदर जाने दे नहीं तो मेरी श्यामा विरह में डूब जाएगी ।
मंजरी बोली " हम कैसे मान ले आप ही श्यामसुंदर हो, श्यामसुंदर तो महाप्रेम करुणामय सिंधु है और हमारी राधा के प्राण है ।
और हमने सुना है उनका भेष बना आज कल निकुंज में बहुत श्यामसुंदर घूम रहे है ।
छलिया भेष में घूम रहे ।
तभी श्यामसुंदर ताली मार कर बोले " बस यही सत्यापित करना है किे हम असली है तो रुको । "
अभी मैं अपने सखागण मधुमंगल, श्री दामा को बुलाता हूँ वो यह बता देंगे के हम ही असली श्यामसुंदर है ।
हमारा मित्र मधुमंगल कभी झूठ नहीं बोलेगा ।
वो तो ब्राह्मण है ।
बस मधुमंगल का नाम सुनते ही मंजरी और अंदर निकुंज में बैठी सब मंजरिया ज़ोर से अट्ठास कर हँसने लगी ।
मंजरी बोली ।
" ओह हो वो मधुमंगल जो दो लड्डू के लिए अपना कहा वचन भी झूठा कर दे अरे मधुमंगल ब्राह्मण तो लड्डू का भूखा है । "
लड्डू दो और जो बुलवाना है ।
बुलवा लो ।
हम उन पर भरोसा नहीं करेंगी ।
तभी श्याम बोले चलो अच्छान।
" तो फिर हम श्री राधा रानी की भाई श्री दामा को बुला लाते है । "
अगर वो कहदे हम असली है ।
तब जाने देना अंदर ।
मंजरी बोली -
हाँ अगर राजकुँवर श्री दामा हमारी स्वामिनी के भाई बोले के आप असली हो तब मान लेंगे ।
श्याम सुंदर बोले तब ठीक है ।
" तभी मंजरी बोली "
परंतु यह हम कैसे मान ले के आप असली श्री दामा लेकर आओगे वो भी तो आप नक़ली भेष बना ला सकते हो आपने कितनी बार श्री दामा का नक़ली भेष बनाया है ।
नहीं नहीं हमें भरोसा नहीं
तभी द्वार पर खड़ी लासिका मंजरी बोली,
श्याम बोले चलो ना करो भरोसा मेरे मित्र पर....
" तुम बोलो तो अपनी यशोदा माँ को बुला लाऊँ कि मैं ही असली हूँ। "
लासिका मंजरी बोली ।
" सुन रे तेरी यशोदा माँ बड़ी भोली है उसने पूतना जैसी राक्षिणी को अंदर घुसा के श्याम को ही उसकी गोद में दे दिया था । "
तब तू तो उनको भी बातों में लगा लेगा और बुलवा देगा के तू असली है।
तब श्यामसुंदर बोले यह मानेगी नही और अंदर मेरी राधारानी विरह में होगी ।
तभी श्याम ने अपनी अँगूठी देखी जो पहनी थी ।
वो अँगूठी ऐसी है जिसमे श्री राधा रानी जी के प्रति पल के भाव का, श्रृंगार का दर्शन होता है ।
तब श्याम सुंदर बोले ।
" अच्छा सुन री यह अँगूठी तो एकदम सत्य कहेगी यह अँगूठी तो केवल असली श्याम के पास है । "
यह अँगूठी चित्रा ने मुझे दीं थी यह अँगूठी देख ले जिसमें मेरी स्वामिनी दिखती है ।
लासिका मंजरी बोली ।
" बस यही तो हम चाहते है "
बस श्याम वो अँगूठी मंजरी को दिखाता है ।
मंजरी जब अँगूठी में देखती है ।
तब उन्हें स्वामिनी की live situation दिखती है के वो अत्यंत विरह में है ।
मंजरी तभी वो अँगूठी अपनी चुनरी में बाँधती है और जल्दी जल्दी अंदर भेजती है ।
तभी श्याम चिंता करते है ।
" अब अँगूठी वापस कैसे लूँ पर जैसे ही प्रवेश किया स्वामिनी को विरह म देखा.....! "
स्वामिनी के हृदय पर कमल की माला पड़ी थीं जो विरह से सूख गयी थी ।
श्याम ने जैसे ही महारानी को देखा सब भूल गए अँगूठी को और राधाचरण में गिर गए और दोनो परस्पर प्रेमअश्रु बहाने लगे।
*जय जय श्री कृष्ण*
पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई
पण्डितराज नें पुनः लेखनी चलाई ।
पण्डित अप्पय दीक्षित द्वारा रचित " चित्रमीमांसा " का खंडन करते हुए " चित्रमीमांसाखंडन " नामक ग्रन्थ रच डाला।
बनारस अब भी नहीं पिघला, बनारस के पंडितों ने अब भी स्वीकार नहीं किया पण्डितराज को।
पण्डितराज दुखी थे...!
बनारस का तिरस्कार उन्हें तोड़ रहा था।
आषाढ़ की सन्ध्या थी।
गंगा तट पर बैठे उदास पण्डितराज ने अनायास ही लवंगी से कहा....!
गोदावरी चलोगी लवंगी?
वह मेरी मिट्टी है, वह हमारा तिरस्कार नहीं करेगी।
*लवंगी ने कुछ सोच कर कहा-*
गोदावरी ही क्यों, बनारस क्यों नहीं?
स्वीकार तो बनारस से ही करवाइए पंडित जी।
*पण्डितराज ने थके स्वर में कहा-*
*"अब किससे कहूँ, सब कर के तो हार गया...।"*
*लवंगी मुस्कुरा उठी,*
जिससे कहना चाहिए उससे तो कहा ही नहीं।
गंगा से कहो, वह किसी का तिरस्कार नहीं करती।
गंगा ने स्वीकार किया तो समझो शिव ने स्वीकार किया।
पण्डितराज की आँखे चमक उठीं।
उन्होंने एक बार पुनः झाँका लवंगी की आँखों में, उसमें अब भी वही बीस वर्ष पुराना उत्तर था--
प्रेम किया है पण्डित!
संग कैसे छोड़ दूंगी?
*पण्डितराज उसी क्षण चले, और काशी के विद्वत समाज को चुनौती दी-*
आओ कल गंगा के तट पर, तल में बह रही गंगा को सबसे ऊँचे स्थान पर बुला कर न दिखाया ।
तो पण्डित जगन्नाथ शास्त्री तैलंग अपनी शिखा काट कर उसी गंगा में प्रवाहित कर देगा......
पल भर को हिल गया बनारस ।
पण्डितराज पर अविश्वास करना किसी के लिए सम्भव नहीं था।
जिन्होंने पण्डितराज का तिरस्कार किया था, वे भी उनकी सामर्थ्य जानते थे।
अगले दिन बनारस का समस्त विद्वत समाज दशाश्वमेघ घाट पर एकत्र था।
पण्डितराज घाट की सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठ गए, और गंगलहरी का पाठ प्रारम्भ किया।
लवंगी उनके निकट बैठी थी।
गंगा बावन सीढ़ी नीचे बह रही थीं।
पण्डितराज ज्यों ज्यों श्लोक पढ़ते, गंगा एक एक सीढ़ी ऊपर आतीं।
बनारस की विद्वता आँख फाड़े निहार रही थी।
गंगलहरी के इक्यावन श्लोक पूरे हुए, गंगा इक्यावन सीढ़ी चढ़ कर पण्डितराज के निकट आ गयी थी।
*पण्डितराज ने पुनः देखा लवंगी की आँखों में, अबकी लवंगी बोल पड़ी-*
क्यों अविश्वास करते हो पण्डित?
प्रेम किया है तुमसे...
पण्डितराज ने मुस्कुरा कर बावनवाँ श्लोक पढ़ा।
गंगा ऊपरी सीढ़ी पर चढ़ीं और पण्डितराज - लवंगी को गोद में लिए उतर गई।
बनारस स्तब्ध खड़ा था, पर गंगा ने पण्डितराज और लवंगी को स्वीकार कर लिया था।
तट पर खड़े पण्डित अप्पाजी दीक्षित ने मुह में ही बुदबुदा कर कहा--
क्षमा करना मित्र, तुम्हें हृदय से लगा पाता तो स्वयं को सौभाग्यशाली समझता ।
पर धक्षर्म के लिए तुम्हारा बलिदान आवश्यक था।
बनारस झुकने लगे तो सनातन नहीं बचेगा।
युगों बीत गए।
बनारस है, सनातन है, गंगा है, तो उसकी लहरों में पण्डितराज भी हैं।
हर हर महादेव हर....!!!!
हौं लागी गृह-काज-रसोई, जसुमति विनय कह्यौ
*हुनीपा, करि दै तनक मह्यौ ।*
*हौं लागी गृह-काज-रसोई, जसुमति विनय कह्यौ ॥*
*आरि करत मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यौ ।*
*ब्याकुल मथति मथनियाँ रीती, दधि भुव ढरकि रह्यौ ॥*
*माखन जात जानि नँदरानी, सखी सम्हारि कह्यौ ।*
*'सूरस्याम' मुख निरखि मगन भई, दुहुनि सँकोच सह्यौ ॥*
*भावार्थ*
घर आई एक गोपी से यशोदा जी विनय करती हुई कह रही है - अरी मेहमानिन, जरा मेरा दही तो मथ दो।
मैं अपने घर के काम में एवं रसोई तैयार करने में लगी हुई हूँ।
मेरा मनमोहन हठ में पड़ गया है और इसने मेरा आँचल आकर पकड़ लिया है।
गोपी दही तो मथने लगी, पर उसकी दृष्टि मनमोहन कृष्ण पर ही लगी थी।
परिणाम यह हुआ कि कमोरी से दही ढुलक गया और तन्मय -अवस्था में वह छूछी कमोरी मथती रही।
माखन को जमीन पर लुढ़कता जा रहा देखकर नंदरानी ने आकर गोपी को सँभल जाने का संकेत किया।
पर वह तो कन्हैया के मुख को देखकर उसी के सौंदर्य- सागर में उभ - चुभ हो रही थी।
इस कृत्य से उस गोपी और यशोदा दोनों को बड़ा संकोच हो रहा था।
गोपी को तो इस लिए कि मेरे द्वारा इतना माखन बरबाद हो गया ।
और यशोदा को इस लिए कि मैंने व्यर्थ ही इसे टोंक दिया।
यह तो मेरे ही पूत को देखने में लीन हो गई थी।
जय श्री कृष्ण...!!!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )
!!!!! शुभमस्तु !!!