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Saturday, June 14, 2025

तुला दान क्यों ?

 || तुला दान क्यों ? ||

तुला दान क्यों ?        

तुला दान एक ऐसी दान-प्रथा है जिसमें व्यक्ति अपने वजन के बराबर कोई वस्तु ( जैसे सोना, चांदी, अनाज, या अन्य सामग्री ) दान करता है. यह एक प्राचीन हिंदू अनुष्ठान है जो धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है. तुला दान करने से व्यक्ति के जीवन में सुख, समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।




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कलिकाल में तुलादान के समान कोई दान नहीं है शास्त्रों में सोलह महादानों में पहला महादान तुलादान बताया है। 

पौराणिक काल में सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण ने तुलादान किया। 

रत्न, चांदी, लोहा आदि धातु, घी, लवण ( नमक ), गुड़, चीनी, चंदन, कुमकुम, वस्त्र, सुगंधित  द्रव्य, कपूर, फल व विभिन्न अन्नों से तुलादान किया जाता है। 

आधि - व्याधि, ग्रह - पीड़ा व दरिद्रता के निवारण के लिए तुलादान बहुत श्रेष्ठ माना जाता है।


अपने वजन के बराबर सामग्री तोलकर गोमाता को दान करने से सबसे अधिक पुण्य की प्राप्ति होती है, क्योंकि गो को दिया गया दान ही सर्वश्रेष्ठ है। 

दान लेने की सबसे बड़ी और प्रथम अधिकारी गोमाता है। 

इस लिए हमको वर्ष में कम से कम एक बार तुला दान अवश्य करना चाहिए।


गुड़ का दान करने से पितरों को विशेष संतुष्टि प्राप्त होती है, इससे पितरों की आत्मा को शांति मिलती है,साथ ही,घर में सुख शांति बनी रहती है, ऐसी मान्यता है कि गुड़ का दान करने से घर का क्लेश भी दूर हो जाता है।


शिवपुराण के अनुसार नमक का दान करने से बुरा समय दूर होता है और घर में सुख - समृद्धि आती है।


चोकर आटा, अन्न दान बहुत शुभ माना जाता है, इससे घर में सुख-समृद्धि होती है।


खल दान करने से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो सकता है। 

आपको बीमारी से छुटकारा मिल सकता है।


तेल का दान करने से व्यक्ति के रुके

    हुए कार्य जल्द बनने लग जाते हैं।


घी का दान करते हैं, उनकी शारीरिक कमजोरियां दूर होती हैं और बीमारियों से मुक्ति मिलती है। आपकी उम्र बढ़ती है।


           || श्रेष्ठ दान तुला दान ||




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गरुड़ पुराण में पाँच ऐसे
    मनुष्यों का वर्णन है। 

          

जो मरने के बाद प्रेत

 ( भटकती आत्मा ) बन जाते हैं।


ये कौन होते हैं? पाँच प्रेत

       

1- जो माता-पिता की सेवा नहीं करता

ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद भी चैन नहीं पाता।


2- जो पत्नी को दुःख देता है!

उसका जीवन और मरण दोनों अशांत होता है।


3- जो दूसरों का अन्न छीनता है!

वह आत्मा तृप्त नहीं होती- भूखी भटकती है।


4- जो गुरु का अपमान करता है!

ऐसे व्यक्ति को सद्गति नहीं मिलती।


5- जो मृत्यु के बाद श्राद्ध और पिंडदान नहीं करवाता वह आत्मा प्रेत योनि में फँसी रहती है।




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कथा का सार:-

              

गरुड़ जी ने विष्णु भगवान से पूछा —

कौन लोग मरने के बाद प्रेत बनते हैं ?

भगवान विष्णु ने यह पांच बातें बताईं और कहा:-जो धर्म,सेवा,और कर्तव्य से भागता है,वही प्रेत बनता है।


इस कथा से क्या सीखें ?

      

 माता-पिता की सेवा करें!

पत्नी, गुरु और समाज का सम्मान करें!

अन्न को दूसरों से छीनें नहीं, बाँटें!

मृत्यु के बाद श्राद्ध कर्म जरूर करवाएं!


क्या आप इन बातों का पालन करते हैं ?

     धर्म ही जीवन है!


|| महाकाल ||




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|| क्या हम बदल नही सकते ? ||

       

माना, कि मेरे भीतर बहुत दोष हैं, दुर्गुण हैं, पाप हैं, बुराइयाँ हैं - तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं कभी बदल नहीं सकता । 

अच्छा हो नहीं सकता । 

अगर अजामिल और रत्नाकर जैसे लोग जो दोषों के भंडार थे,उनमें बदलाव आ सकता है तो मुझमें भी आ सकता है । 

अगर मैं अपराधी हूँ तो मेरे धर्म में घोर से घोर अपराधी को, पापी को पावन, पुण्यात्मा - साधु बनाने की व्यवस्था है ।


भगवान श्रीकृष्ण की घोषणा है :-

        

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

 साधुरेव स मन्तव्यःसम्यग्व्यवसितो हि सः ॥


   {गीता अध्याय 9, श्लोक 30}


यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।


हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ दोष थोड़ी बहुत मात्रा में रहते ही हैं । 

कोई भी कर्म पूर्णतः निर्दोष नहीं हो सकता । 

सत् - असत्, अच्छा - बुरा, पुण्य - पाप, गुण - दोष, सद्गुण - दुर्गुण - ये तो अनादि काल से चलते आ रहे हैं । 

भले से भले अच्छे से अच्छे व्यक्ति के भीतर कब बुराई आ जाए, कह नहीं सकते । 

ठीक उसी प्रकार बुरे से बुरे व्यक्ति के भीतर भी अच्छाई हो सकती है, पनप सकती है । 

अक्सर लोगों को, हम सबको अपनी बुराई उतनी जल्दी नहीं दिखती जितनी दूसरों की दिखती है ।


जो निंदा करते हैं, वे हमारे दोष बताते हैं । 

इस से हमें आत्म निरीक्षण करने का,अपने भीतर झांकने का अवसर मिलता है । 

हमें पावन, शुद्ध बनने के लिए, निर्दोष बनने के लिए उनकी निंदा - उनका दोषारोपण बहुत काम आता है।


         || जय श्री कृष्ण ||

पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः।

न चैव तु पृथग्भावमधिकेन ततो विदुः।।


एतदेवं च नैवं च न चोभे नानुभे न च।

स्वकर्मविषयं ब्रूयु: सत्त्वस्था: समदर्शिनः।।


मनुष्य को मिलने वाला सुख दुःख लाभ हानि यश अपयश कीर्ति अपकीर्ति सफलता और असफलता उसके पौरुष अर्थात कर्म और दैव अर्थात भाग्य के संयोग से व्यवहारिक और स्वभावतः फलित होने के  परिणाम स्वरूप होता है पौरुष ( कर्म ) और दैव ( भाग्य ) को कभी भी पृथक पृथक और न्यूनाधिक नही मानना चाहिए अर्थात न तो केवल कर्म और न ही केवल भाग्य फल प्राप्ति का साधन है ।

सब कुछ पूर्व में और पूर्व के जन्मों में  किये गये कर्म अकर्म धर्म अधर्म नीति अनीति न्याय अन्याय यश अपयश और पाप पुण्य के द्वारा अर्जित प्रारब्ध ( संचित कर्म फल ) अनुसार पूर्व निर्धारित फल भोग के अनुसार विधि द्वारा निर्धारित भाग्य और तदनुसार दैव प्रेरित पौरुष ( दैवीय प्रेरणा से कर्म करने का भाव )  के अनुसार अच्छे  बुरे पाप और पुण्यमय कार्य और कर्म करने और तदनुसार कर्म करने में लिप्त होने का भाव और कर्म की सफलता और संपन्नता की मात्रा के अनुसार किसी भी मनुष्य को उसके द्वारा किए गए पौरुष अनुसार  फल के परिमाण ( मात्रा ) और परिणाम की प्राप्ति होती है और उसके आधार पर ही दैव अर्थात ईश्वर मनुष्य  या किसी भी जीव के भाग्य का सृजन करता है और पुनः इस जीवन पौरुष रूपी कर्म और भाग्य वर्तमान जीवन के लिए आचरण स्वभाव और कर्म के भाव का निर्धारण होता है।


श्रीब्रह्माण्डपुराण,पूर्वभाग

  2-अनुषंगपाद,अध्याय-8 श्लोक-63,64

             

     || महाकाल ||


|| पंचमुखी गणेश ||

     

भगवान श्रीगणेश की पूजा का विधान सभी देवी- देवताओं में सबसे पहले है। 

किसी भी देवी - देवता की पूजा करने,या किसी नए कार्य को शुरू करने या शुभ कार्य में सबसे पहले भगवान श्री गणेश की पूजा की जाती है। 

कहा जाता है कि भगवान श्री गणेश दुखों और कष्ट को हर लेते हैं और इनकी पूजा करने से सारी दुख और परेशानी दूर हो जाती है। 

इस लिए किसी कार्य में सबसे पहले गणेशजी की पूजा करने से सभी कार्य अच्छे से संपन्न होता है।


भगवान गणेश के स्वरूपों में पंचमुखी गणेश का भी महत्व होता है। 

पंचमुखी का मतलब होता है पांच मुंह वाले गणेश। 

गणेश जी के पंचमुख को पांच कोश का प्रतीक भी कहा जाता है। 

इन पंचकोश को पांच तरह के शरीर कहा जाता है।


इनमें पहला कोश अन्नमय, दूसरा प्राणमय,तीसरा मनोमय, चौथा विज्ञानमय और पांचवा आनंदमय होता है।


जानते हैं भगवान गणेश के पंचमुखी या पंच कोश के बारे में।अन्नमय कोश- संपूर्ण जड़ जगत धरती, तारे, ग्रह, नक्षत्र आदि। 

ये सभी अन्नमय कोश कहलाते हैं। 

प्राणमय कोश- दूसरे कोश प्राणमय जड़ में प्राण आने से वायु तत्व जागता है और उससे कई तरह के जीव प्रकट होते हैं। 

इस लिए इसे प्राणमय कोश कहा जाता है। 

मनोमय कोश इसे शरीर का तीसरा कोश कहा जाता है, जो प्राणियों के मन में जाग्रत होता है।


जिनमें मन अधिक जानता है नहीं प्राणी मनुष्य बनता है। 

विज्ञानमय कोश- विज्ञानमय कोश बिल्कुल अलग प्रकृति का है। 

जिस सांसारिक माया भ्रम का ज्ञान प्राप्त होता है। 

सत्य के मार्ग चलने वाली बोधि विज्ञानमय कोश में होता है। 

आनंदमय कोश - ईश्वर और जगत के मध्य की कड़ी है आनंदमय कोश। 

कहा जाता है कि इस कोश से ज्ञान प्राप्त करने के बाद मानव समाधि युक्त अधिमानव बन जाता है। 

वहीं जो भी मानव इन पांचों कोशों से मुक्त होता है, वह मुक्त मुनष्य ब्रह्मलीन हो जाता है।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

 || भगवान पंचमुखी गणेश की जय हो ||