सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्री यजुर्वेद , श्रीऋग्वेद , श्रीस्कंदपुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा के अनुसार फल ।।
आज श्रीमद्भागवत जी के एक प्रसंग का भक्तिमय चिन्तन करेंगे।
भगवान् श्रीकृष्ण के दो पुत्र हैं--
प्रधुम्न और अनिरूद्ध, बड़े पुत्र प्रधुम्न के दो विवाह हुये तथा अनिरुद्ध के भी दो विवाह हुए।
एक बात यहाँ बड़ी समझने की है ।
क्या?
श्रीकृष्ण के परिवार में कृष्ण पत्नियों में आपस में बड़ा प्रेम है ।
भगवान् से तो बारी-बारी सभी रूठती रहती थीं ।
श्री कृष्ण के विवाह को बीस वर्ष हो गये ।
रूक्मणीजी के चेहरे पर श्रीकृष्ण ने कभी क्रोध नहीं देखा ।
ये विशेषता थी।
संतरी से लेकर महामंत्री तक सभी लोग एक ही बात कहते--
हे प्रभु हमारी रूक्मणीजी जैसी मालकिन तो सब को मिले।
रूक्मणीजी के चेहरे पर क्रोध किसी ने देखा ही नहीं ।
इस लिये मेरे गोविन्द की नजर में भी रूक्मणीजी सर्वाधिक आदरणीय है ।
मेरे कन्हैया रूक्मणीजी से बहुत प्रेम करते हैं ।
बाकी तो समस्त पत्नियां रूठती रहती थीं भगवान् श्रीकृष्ण से।
पुराने जमाने में तो बकायदा नियम था ।
लोग जब मकान रहने का बनवाते थे तो उसमें स्त्रियों के रूठने का कक्ष अलग से बनता था ।
उस कक्ष पे लिखा रहता था कोप-भवन।
लेकिन रूक्मणीजी को प्रभु ने कभी कोप-भवन में जाते नहीं देखा ।
भगवान् की पत्नियों में रूठने में सबसे पहले स्थान में हैं ।
सत्यभामाजी ।
सत्यभामाजी तो बात-बात पर रूठती है ।
क्यों ?
क्योंकि ।
भगवान् का जो खजाना है ना उसमें अस्सी प्रतिशत शेयर अकेली सत्यभामाजी का हैं ।
दोस्तों ।
जो मणि दो क्विंटल सोना नित्य निकालती है ।
वो मणि सत्यभामाजी के पिताजी राजा सत्राजित के यहीं से तो आयी थी।
तो पिताजी के यहां से ऐसी मणि जो दो क्विंटल सोना नित्य देती है तो उनकी बेटी के थोड़े नाज नखरे तो होंगे ही,
इस लिये सत्यभामाजी तो भगवान् से नित्य ही रूठती रहती है ।
मेरे प्रभु ने एक दिन सोचा।
कितनी महान् है रूक्मणी महारानी ।
कितने महान् विचार है रूक्मणीजी के?
कितने बड़े-बड़े रूक्मणी के पुत्र हो गये पर मैंने इस देवी के मुख पर कभी क्रोध नहीं देखा।
ऐसा कोई एक भी नौकर-चाकर नहीं जिससे रूक्मणीजी न मिलती हो ।
हर नौकर से ।
हर सेवक से पूछतीं कोई कष्ट तो नहीं ।
सब ठीक है न ।
इस लिये सब उनके प्रशंसक है ।
आज मेरे कन्हैया ने सोचा कि आज कुछ ऐसी अटपटी बात करूँगा जिससे रूक्मणीजी को क्रोध आ जाये, देखूँ तो सही ।
क्रोध आने पर इनका चेहरा कैसा लगता है?
अब आप ही बताओ ये भी कोई बात होती है ।
लेकिन प्रभु के मन में आ गयी।
आज रूक्मणीजी के महल में भगवान् शांत भाव से बैठे हैं और रूक्मणीजी भगवान् को पंखा झर रहीं हैं ।
कन्हैया ने सोचा ।
क्या बात कोई अटपटी कहूँ कि इनको भी क्रोध आ जाये ।
मेरे गोविन्द ने रूक्मणीजी की ओर देखा ।
रूक्मणीजी बोली---
प्रभु आप आज उदास क्यों हैं?
कन्हैया बोले ।
कोई खास बात नहीं है ।
नहीं ।
कोई बात तो जरूर है ।
मैंने कभी आपके चेहरे पर ये उदासी नहीं देखी ।
आज उदास क्यों है।
आप?
कृष्ण ने कहा---
नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं ।
रूक्मणीजी बोली ।
बात तो जरूर है ।
मुझसे कोई अपराध हो गया?
कोई गलती हो गयी क्या?
बताइये न प्रभु क्या बात है?
कृष्ण बोले--
एक गलती हो तो बतायें।
गलती पर गलती ।
गलती पर गलती करतीं है
आप !
रूक्मणीजी बोली---
क्या गलती हुई प्रभु बताओ न?
राजपुत्रीप्सिता भूपैर्लोकपालविभूतिभि:।
महानुभावै: श्रीमद्धीरूपौदार्य बलोर्जितै:।।
मेरे प्रभु ने रूक्मणीजी से कहा--
सबसे पहली गलती तो आपने ये की ।
कि मुझसे विवाह किया।
इतने बड़े-बड़े सुन्दर राजकुमार तुम्हें पत्नी के रूप में चाहते थे।
आपने उन राजकुमारों को छोड़कर इस ग्वारिया के संग विवाह कर लिया ।
क्या मिला तुम्हें बोलो?
प्रभु ने चेहरा देखा और सोचा ।
अभी तो गुस्सा आया नहीं।
फिर तुम कहोगी--
अजी विवाह मैं तो बिल्कुल नहीं करती लेकिन इस लिये कर लिया कि तुम बड़े भारी वीर हो।
राजभ्यो विभ्यत: सुभ्रू: समुद्रं शरणं गतान्।
बलवद्धि: कृतद्धेषान् प्रायस्त्यक्तनृपासनान्।।
भगवान् कहते हैं---
यहाँ भी गड़बड़ है ।
क्योंकि--
मेरे जैसा डरपोक आदमी दुनियाँ में कोई नहीं है।
बड़े-बड़े राजा लोगों के भय से मैं समुद्र की शरण में रहता हूंँ ।
समुद्र के बीच में वास करता हूँ ।
ऐसे डरपोक व्यक्ति से विवाह करके तुम्हें क्या मिला?
रूक्मणीजी ने कोई जवाब नहीं दिया ।
प्रभु ने कहा--
आप कहेंगी ।
मै तो विवाह बिल्कुल नहीं करती ।
लेकिन इस लिये कर लिया कि आप देवकी नन्दन हो।
प्रभु प्रश्न भी खुद करते हैं और उत्तर भी खुद देते हैं ।
कन्हैया आगे कहते हैं ।
देवीजी यहाँ भी गड़बड़ है ।
कोई कहता है देवकी नन्दन हो।
कोई कहता है यशोदा नन्दन ।
कोई कहता है न यशोदा का है न देवकी का बेटा ।
पता नहीं कहाँ से आ गया?
अब आप बताओ जिसके माता-पिता का भी पता नहीं ।
उससे आपने विवाह किया ।
क्या मिला?
आप कहोगी ।
अजी !
मैं विवाह तो नहीं करती लेकिन इस लिये कर लिया कि आप बड़े सुन्दर हो ।
कहते हैं काहे का सुन्दर?
मेरा तो नाम ही काडिया या कालिया है ।
जन्म से तो काला ही था और कालीनाग से युद्ध किया तबसे और काला हो गया ।
राजा कभी बना नहीं ।
गद्दी कभी मिली नहीं ।
दुनियाँ के लोग मुझसे द्वेष करते हैं ।
दुसरो की छोड़ो आपके बड़े भाई रूक्मी की भी मुझसे बनती नहीं है ।
इतनी बातें कहने के बाद भी रूक्मणीजी को क्रोध नहीं आया तो कन्हैया बोले---
आप कहेंगी ।
अजी मैं तो विवाह बिल्कुल नहीं करती लेकिन इस लिये कर लिया कि आपकी बड़ाई सुनी थी।
कृष्ण बोले---
मेरा गुण कौन गाता है ।
जिसको रहने को मकान नहीं होता ।
पहनने को कपड़े नहीं होते ।
खाने को भोजन नहीं होता।
ये बाबा लोग मेरा कीर्तन करते रहते हैं ।
कोई काम-धंधा तो होता नहीं बस---
"रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीताराम"
झाँझ बजाते हुए कीर्तन करते हैं।
चिमटा बजाकर कीर्तन करते हैं।
ऐसे फकीर संतों की बातों में आकर हमसे विवाह कर लिया ।
क्या मिला तुम्हें?
इतनी बातें कहने पर भी जब रूक्मणीजी को क्रोध नहीं आया तो मालुम है।
भगवान् क्या बोले?
भगवान् ने कहा---
अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है ।
तुम चाहो तो हम शिशुपाल से बात कर लेंगे ।
कल ही तुम्हारा विवाह शिशुपाल से करा देंगे।
ये बात कब कही।
जब रूक्मणीजी के पाँच पुत्र हो चुके।
आजकल की धर्मपत्नी होती तो पति की अक्ल ठिकाने लगा देती।
कहती, शर्म नहीं आती ऐसी मजाक करते हो बुढ़ापे में आकर।
कम से कम दो समय का तो भोजन भी नहीं देती ।
तब ठीक--ठाक हो जाते पतिदेव।
लेकिन इतनी बात सुनकर भी रूक्मणीजी को क्रोध नहीं आया।
बेचारी मूर्छित हो गयीं ।
चँवर कहीं गिर पड़ा और एकदम भयभीत हो गयीं।
भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि रूक्मणीजी मूर्छित हो गयीं ।
भगवान् ने कहा---
अरे ये क्या हुआ?
मैंने तो सोचा था कि ये मुझसे क्रोध में दो-चार बातें कहेंगी ।
ये तो भयभीत होकर मूर्छित हो गयीं ।
मेरे कन्हैया ने चार भुजायें धारण कर लीं ।
दो भुजाओं से रूक्मणीजी को उठाया ।
एक भुजा से उनको पंखा ढुला रहे हैं ।
एक भुजा से पसीना पोंछ रहे हैं।
मेरे गोविन्द के नेत्रों में आँसू आ गये।
मा मा वैदभ्र्यसुयेथा जाने त्वां मत्परायणाम्।
त्वद्वच: श्रोतुकामेन क्ष्वेल्याऽऽचरितमग्डने।।
एक घंटे बाद जब रूक्मणीजी को होश आया तो मेरे गोपाल रूक्मणीजी से बोले- देवी!
बुरा मत मानना, मैं बचपन से ही थोड़ा विनोदी स्वभाव का रहा हूंँ।
ना, इसलिये मैंने आपसे पता नहीं कुछ अटपटी बातें कह दीं ।
कभी क्रोध देखा नहीं न आपके चेहरे पर ।
इस लिये आपके चेहरे पर क्रोध देखने की अभिलाषा से कुछ अटपटी बातें आपसे कहीं।
इतनी बातें सुनकर भी आपको बुरा नहीं लगा ।
मन में कोई विचार नहीं आया।
लेकिन रूक्मणीजी ने हाथ जोड़कर जो श्रीकृष्ण की बातों का जवाब दिया वो पढ़ने लायक हैं ।
रूक्मणीजी ने कहा---
आपने गलत कुछ भी नहीं कहा---
आपने तो ये कहा कि मेरा और तुम्हारा मेल नहीं ।
तुमने विवाह क्यों किया?
बिल्कुल सही है ।
कहाँ तो प्रकृति से आबध मैं एक नारी और कहाँ प्रकृति से परे आप पुराण पुरूषोत्तम, मेरा आपका मेल है ही कहाँ?
ये तो कृपा करके आपने मुझे अपना लिया, ये मेरा सौभाग्य है।
दूसरी बात आपने कहीं कि मेरे माता-पिता का पता नहीं।
तुमने विवाह क्यों किया?
रूक्मणीजी कहती है---
मैं आपसे ही पूछती हूँ प्रभु ।
आपके भी कोई माता-पिता होते हैं क्या?
जगत् के पिता, जगत् के गुरू, जगत् के अधीश्वर तो केवल आप हो प्रभु ।
आपके तो कोई माता-पिता होते ही नहीं, और दुनियाँ को माता-पिता मानते हो ।
इसमें मेरा क्या दोष है।
आपने तीसरी बात कहीं---
मैं बड़े-बड़े राजाओं के डर से समुद्र के बीच रहता हूंँ ।
डरपोक हूंँ ।
मेरे गोविन्द से रूक्मणीजी बोली---
जिस ह्रदय में अविधा, अस्मिता, राग, द्वेष, अविनिवेष जैसे शत्रु बैठे हो, उस ह्रदय में आप वास नहीं करते ।
आप तो आत्मा रूपी समुद्र में ही वास करते हैं।
सत्यं भयादिव गुणेभ्य उरूक्रमान्त: शेते समुद्र उपलम्भनमात्र आत्मा।
नित्यं कदिन्द्रिय गणै: कृतविग्रहस्त्वं त्वत्सेवकैर्नृपपदं विधुतं तमाऽन्धम्।।
चौथी बात आपने कहीं---
मैं तो काला हूंँ ।
काले से तुमने विवाह क्यों किया?
रूक्मणीजी बोली --
प्रभु !
आप काले हो तब भी तो कितना कमाल करते हो ।
अगर आप गोरे होते तो भगवान् जाने क्या होता?
ब्रज में एक महान् संत ने गाया है ।
"यदि नंदलाला तुम होते लली, तो गले कटजाते करोड़न के" अरे नंदलाला, ये तो खैर मनाओ कि तुम लाला हो ।
कहीं लाला की जगह तुम लाली होते न, तो तुम्हारे ऊपर करोड़ों गले कट जाते, इतने सुन्दर है।
श्रीकृष्ण, काला थोड़ी है ।
जग का उजारा है।
आपने ये भी कहा कि संत-महात्मा मेरा कीर्तन करते रहते हैं।
रूक्मणीजी कहती है- मुझसे यदि कोई पूछे तो मैं यही कहूँगी की दुनियाँ में सबसे बड़ा कोई धनी है।
तो केवल ये संत हैं ।
जिनके पास में आपके नाम का धन है, ज्ञान का धन है ।
वैराग्य का धन है ।
भक्ति का धन है।
कबीरा सब जग निर्धना, धनवंता नहीं कोय।
धनवंता सोई जानिये, जाके राम-नाम धन होय।।
मींरा की जब विरक्ति हुई, मीरा ने सर्वस्य छोड़ दिया, लोगों ने कहा- मींरा तुमने इतना बड़ा राजपाट छोड़ा, इतने बड़े परिवार को तुमने छोड़ा, क्या मिला तुम्हें महात्मा बनने में?
मींरा कहती है।
जब किसी को रत्न मिल जाता है।
उसे फिर कोई चीज अच्छी नहीं लगती, जो लोग डायमंड के पारखी है।
वे सुवर्ण के आभूषण कम पहनते है।
जिनको हीरा नहीं मिलता, वो सोना पहनकर काम चलाते हैं।
लेकिन जिसको रत्न मिल जाये वो फिर किस चक्कर में पड़े, मींरा ने संत से कहा- सबसे बड़ा रत्न है मेरे पास।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो,
वस्तु अमोलक दिवी मार सतगुरु किरपा कर अपनायो।
चोर न लूटे कबहु न खुटे दिन-दिन बढत सवायो,
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।।
सज्जनों! संसार की जितनी चीज़े है सब बिगड़ने वाली है।
धन को कमाने में तकलीफ, धन खर्च हो जाये तो भी तकलीफ, इन दोनों से ज्यादा तकलीफ धन की रखवाली करने में होती है ।
धन की रक्षा भी तो प्रभु कृपा से हो।
लेकिन राम नाम रत्न तो ऐसा है- न चोर ले सकता है।
न लूट सकता है।
इसको तो जितना खर्चो उतना ही बढ़ता है।
राम के नाम में ये सामर्थ्य है ।
राम नाम का धन जिसके पास हो, उससे बड़ा धनी संसार में कोई और हो सकता है क्या?
रूक्मणीजी कहती हैं- संतो के पास आपके नाम का खजाना है।
आपके नाम का भंडार है।
यदि उन संतों के श्री मुख से आपके नाम की महिमा को सुनकर, मैंने आपको अपना पति बनाया और इसे आप मेरी गलती मानते हैं।
तो मैं संसार की माताओं से निवेदन करूँगी कि ऐसी गलती तो सबको करनी चाहिये।
जिस गलती से गोविन्द मिल जाये, जिस गलती से भगवान् मिल जायें वो गलती कोई नासमझ थोड़ी कर सकता है।
समझदार ही करेगा, भगवान् ने कहा- देवी, इन्हीं बातों का तो परिणाम है कि मेरी नजर में तुम्हारे प्रति अद्भुत प्रेम हैं ।
सुनकर रूक्मणीजी के मन को परम आनन्द मिला, प्रसन्नता हुई।
जय काडिया ठाकर
जय श्री कृष्ण!
राधे राधे!!
!! समय की ताकत !!
एक आदमी था,
उसका कुटुंब परिवार में बहुत मान सन्मान से जीता रहता था ।
उसका कुटुंब तो बहुत बड़ा भी नहीं था लेकिन पूर्ण समाज को भी वो उनका कुटुंब की नजर जैसा दिखाता रहता था ।
कुटुंब परिवार वही उनका समाज परिवार था ।
जब तक वो घर परिवार कुटुंब के अंदर तो उसका दो पुत्र था
लेकिन दोनों पुत्रों के घर पर भी तीन तीन पुत्र ( पौता ) उस नव का भी दो दो पुत्र ( पर पौता ) के भी संबंध लग्न का कारोबार भी उनका शर पर ही उठा लिए थे ।
और उसमें भी उसने सोल पौता ( पर पौता ) का तो संबंध लग्न देख चुके थे सिर्फ दो ही पौता का संबंध लग्न करने का बाकी रह चुके थे
और उस सोल पुत्रों का भी पुत्रों के साथ हंसता खेलता रहता था ।
उसका तीन पैठी का पूर्ण परिवार एक ही रसोई से एक ही थाली पर भोजन करते रहते थे ।
उनका घर के अंदर न कोई भाई भाई के बीच लड़ाई झगडे की न कोई स्त्री स्त्री के बीच लड़ाई झगडे इतना शांत सुशील परिवार रहता था ।
शास्त्र का भी नियम ऐसा होता है कि जब तक आपका दादा - दादी , माता - पिता , आपका साथ होगा आपका साथ ही अन्न पानी करेगा तो किसी ग्रह दोष या देव दोष की कुछ असर आपका ऊपर तो कभी नहीं आ शक्ति है ।
जो हमेशा अपने कुटुंब और समाज में सक्रिय रहता था।
उसको सभी जानते थे,
बड़ा मान सम्मान मिलता था।
अचानक किसी कारणवश वह निश्क्रिय रहने लगा,
मिलना - जुलना बंद कर दिया और समाज से दूर हो गया।
कुछ सप्ताह पश्चात् एक बहुत ही ठंडी रात में उस समाज के मुखिया ने उससे मिलने का फैसला किया।
मुखिया उस आदमी के घर गया और पाया कि आदमी घर पर अकेला ही था।
एक बोरसी में जलती हुई लकड़ियों की लौ के सामने बैठा आराम से आग ताप रहा था।
उस आदमी ने आगंतुक मुखिया का बड़ी खामोशी से स्वागत किया।
दोनों चुपचाप बैठे रहे।
केवल आग की लपटों को ऊपर तक उठते हुए ही देखते रहे।
कुछ देर के बाद मुखिया ने बिना कुछ बोले,
उन अंगारों में से एक लकड़ी जिसमें लौ उठ रही थी ( जल रही थी ) उसे उठा कर किनारे पर रख दिया और फिर से शांत बैठ गया।
मेजबान हर चीज़ पर ध्यान दे रहा था।
लंबे समय से अकेला होने के कारण मन ही मन आनंदित भी हो रहा था कि वह आज अपने समाज के मुखिया के साथ है।
लेकिन उसने देखा कि अलग की हुए लकड़ी की आग की लौ धीरे धीरे कम हो रही है।
कुछ देर में आग बिल्कुल बुझ गई।
उसमें कोई ताप नहीं बचा।
उस लकड़ी से आग की चमक जल्द ही बाहर निकल गई।
कुछ समय पूर्व जो उस लकड़ी में उज्ज्वल प्रकाश था और आग की तपन थी,
वह अब एक काले और मृत टुकड़े से ज्यादा कुछ शेष न था।
इस बीच...
दोनों मित्रों ने एक दूसरे का बहुत ही संक्षिप्त अभिवादन किया,
कम से कम शब्द बोले।
जाने से पहले मुखिया ने अलग की हुई बेकार लकड़ी को उठाया और फिर से आग के बीच में रख दिया।
वह लकड़ी फिर से सुलग कर लौ बनकर जलने लगी,
और चारों ओर रोशनी और ताप बिखेरने लगी।
जब आदमी,मुखिया को छोड़ने के लिए दरवाजे तक पहुंचा तो उसने मुखिया से कहा मेरे घर आकर मुलाकात करने के लिए,
आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
आज आपने बिना कुछ बात किए ही एक सुंदर पाठ पढ़ाया है,
कि अकेले व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं होता,
समाज का साथ मिलने पर ही वह चमकता है और रोशनी बिखेरता है।
समाज से अलग होते ही वह लकड़ी की भाँति बुझ जाता है।
शिक्षा:-
मित्रों,
समाज से ही हमारी पहचान बनती है।
इस लिए समाज हमारे लिए सर्वोपरि होना चाहिए।
समाज के प्रति हमारी निष्ठा और समर्पण किसी व्यक्ति के लिए नहीं,
उससे जुड़े विचार के प्रति होनी चाहिए..!!
जय श्री कृष्ण
।। श्री यजुर्वेद , श्रीऋग्वेद , श्रीस्कंदपुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा के अनुसार फल ।।
श्री यजुर्वेद , श्रीऋग्वेद , श्रीस्कंदपुराण और आनंद रामायण के सारकांड की कथा के अनुसार श्रीपंचमुखी हनुमानजी की कथा ।
लंका में महा बलशाली मेघनाद के साथ बड़ा ही भीषण युद्ध चला ।
अंतत: मेघनाद मारा गया ।
रावण जो अब तक मद में चूर था राम सेना, खास तौर पर लक्ष्मण का पराक्रम सुनकर थोड़ा तनाव में आया ।
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रावण को कुछ दुःखी देखकर रावण की मां कैकसी ने उसके पाताल में बसे दो भाइयों अहिरावण और महिरावण की याद दिलाई ।
रावण को याद आया कि यह दोनों तो उसके बचपन के मित्र रहे हैं ।
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लंका का राजा बनने के बाद उनकी सुध ही नहीं रही थी ।
रावण यह भली प्रकार जानता था कि अहिरावण व महिरावण तंत्र - मंत्र के महा पंडित ।
जादू टोने के धनी और मां कामाक्षी के परम भक्त हैं ।
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रावण ने उन्हें बुला भेजा और कहा कि वह अपने छल बल, कौशल से श्री राम व लक्ष्मण का सफाया कर दे ।
यह बात दूतों के जरिए विभीषण को पता लग गयी ।
युद्ध में अहिरावण व महिरावण जैसे परम मायावी के शामिल होने से विभीषण चिंता में पड़ गए ।
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विभीषण को लगा कि भगवान श्री राम और लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी करनी पड़ेगी ।
इसके लिए उन्हें सबसे बेहतर लगा कि इसका जिम्मा परम वीर हनुमान जी को राम - लक्ष्मण को सौंप दिया जाए ।
साथ ही वे अपने भी निगरानी में लगे थे ।
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राम - लक्ष्मण की कुटिया लंका में सुवेल पर्वत पर बनी थी ।
हनुमान जी ने भगवान श्री राम की कुटिया के चारों ओर एक सुरक्षा घेरा खींच दिया ।
कोई जादू टोना तंत्र - मंत्र का असर या मायावी राक्षस इसके भीतर नहीं घुस सकता था ।
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अहिरावण और महिरावण श्री राम और लक्ष्मण को मारने उनकी कुटिया तक पहुंचे पर इस सुरक्षा घेरे के आगे उनकी एक न चली, असफल रहे ।
ऐसे में उन्होंने एक चाल चली ।
महिरावण विभीषण का रूप धर के कुटिया में घुस गया ।
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राम व लक्ष्मण पत्थर की सपाट शिलाओं पर गहरी नींद सो रहे थे ।
दोनों राक्षसों ने बिना आहट के शिला समेत दोनो भाइयों को उठा लिया और अपने निवास पाताल की और लेकर चल दिए ।
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विभीषण लगातार सतर्क थे ।
उन्हें कुछ देर में ही पता चल गया कि कोई अनहोनी घट चुकी है ।
विभीषण को महिरावण पर शक था ।
उन्हें राम - लक्ष्मण की जान की चिंता सताने लगी ।
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विभीषण ने हनुमान जी को महिरावण के बारे में बताते हुए कहा कि वे उसका पीछा करें ।
लंका में अपने रूप में घूमना राम भक्त हनुमान के लिए ठीक न था सो उन्होंने पक्षी का रूप धारण कर लिया और पक्षी का रूप में ही निकुंभला नगर पहुंच गये ।
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निकुंभला नगरी में पक्षी रूप धरे हनुमान जी ने कबूतर और कबूतरी को आपस में बतियाते सुना ।
कबूतर, कबूतरी से कह रहा था कि अब रावण की जीत पक्की है ।
अहिरावण व महिरावण राम - लक्ष्मण को बलि चढा देंगे ।
बस सारा युद्ध समाप्त ।
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कबूतर की बातों से ही बजरंग बली को पता चला कि दोनों राक्षस राम लक्ष्मण को सोते में ही उठाकर कामाक्षी देवी को बलि चढाने पाताल लोक ले गये हैं ।
हनुमान जी वायु वेग से रसातल की और बढे और तुरंत वहां पहुंचे ।
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हनुमान जी को रसातल के प्रवेश द्वार पर एक अद्भुत पहरेदार मिला ।
इसका आधा शरीर वानर का और आधा मछली का था ।
उसने हनुमान जी को पाताल में प्रवेश से रोक दिया ।
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द्वारपाल हनुमान जी से बोला कि मुझ को परास्त किए बिना तुम्हारा भीतर जाना असंभव है ।
दोनों में लड़ाई ठन गयी ।
हनुमान जी की आशा के विपरीत यह बड़ा ही बलशाली और कुशल योद्धा निकला ।
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दोनों ही बड़े बलशाली थे ।
दोनों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ परंतु वह बजरंग बली के आगे न टिक सका ।
आखिर कार हनुमान जी ने उसे हरा तो दिया पर उस द्वारपाल की प्रशंसा करने से नहीं रह सके ।
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हनुमान जी ने उस वीर से पूछा कि हे वीर तुम अपना परिचय दो ।
तुम्हारा स्वरूप भी कुछ ऐसा है कि उससे कौतुहल हो रहा है ।
उस वीर ने उत्तर दिया -
मैं हनुमानजी का पुत्र हूं और एक मछली से पैदा हुआ हूं ।
मेरा नाम है मकरध्वज...!
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हनुमान जी ने यह सुना तो आश्चर्य में पड़ गए ।
वह वीर की बात सुनने लगे...!
मकरध्वज ने कहा -
लंका दहन के बाद हनुमान जी समुद्र में अपनी अग्नि शांत करने पहुंचे...!
उनके शरीर से पसीने के रूप में तेज गिरा...!
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उस समय मेरी मां ने आहार के लिए मुख खोला था...!
वह तेज मेरी माता ने अपने मुख में ले लिया और गर्भवती हो गई..!
उसी से मेरा जन्म हुआ है...!
हनुमान जी ने जब यह सुना तो मकरध्वज को बताया कि वह ही हनुमानजी हैं....!
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मकरध्वज ने हनुमान जी के चरण स्पर्श किए और हनुमान जी ने भी अपने बेटे को गले लगा लिया और वहां आने का पूरा कारण बताया...!
उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि अपने पिता के स्वामी की रक्षा में सहायता करो...!
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मकरध्वज ने हनुमान जी को बताया कि कुछ ही देर में राक्षस बलि के लिए आने वाले हैं...!
बेहतर होगा कि आप रूप बदल कर कामाक्षी कें मंदिर में जा कर बैठ जाएं....!
उनको सारी पूजा झरोखे से करने को कहें...!
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हनुमान जी ने पहले तो मधु मक्खी का वेश धरा और मां कामाक्षी के मंदिर में घुस गये ।
हनुमान जी ने मां कामाक्षी को नमस्कार कर सफलता की कामना की और फिर पूछा -
हे मां क्या आप वास्तव में श्री राम जी और लक्ष्मण जी की बलि चाहती हैं ?
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हनुमान जी के इस प्रश्न पर मां कामाक्षी ने उत्तर दिया कि नहीं।
नही मैं तो ये दो दुष्ट अहिरावण व महिरावण की बलि चाहती हूं ।
यह दोनों मेरे भक्त तो हैं पर अधर्मी और अत्याचारी भी हैं ।
आप अपने प्रयत्न करो....!
सफल रहोगे...!
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मंदिर में पांच दीप जल रहे थे...!
अलग - अलग दिशाओं और स्थान पर मां ने कहा यह दीप अहिरावण ने मेरी प्रसन्नता के लिए जलाये हैं जिस दिन ये एक साथ बुझा दिए जा सकेंगे..!
उसका अंत सुनिश्चित हो सकेगा...!
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इस बीच गाजे - बाजे का शोर सुनाई पड़ने लगा...!
अहिरावण, महिरावण बलि चढाने के लिए आ रहे थे...!
हनुमान जी ने अब मां कामाक्षी का रूप धरा...!
जब अहिरावण और महिरावण मंदिर में प्रवेश करने ही वाले थे कि हनुमान जी का महिला स्वर गूंजा ।
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हनुमान जी बोले -
मैं कामाक्षी देवी हूं और आज मेरी पूजा झरोखे से करो ।
झरोखे से पूजा आरंभ हुई ढेर सारा चढावा मां कामाक्षी को झरोखे से चढाया जाने लगा ।
अंत में बंधक बलि के रूप में राम लक्ष्मण को भी उसी से डाला गया ।
दोनों बंधन में बेहोश थे ।
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हनुमान जी ने तुरंत उन्हें बंधन मुक्त किया ।
अब पाताल लोक से निकलने की बारी थी पर उससे पहले मां कामाक्षी के सामने अहिरावण महिरावण की बलि देकर उनकी इच्छा पूरी करना और दोनों राक्षसों को उनके किए की सज़ा देना शेष था ।
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अब हनुमान जी ने मकरध्वज को कहा कि वह अचेत अवस्था में लेटे हुए भगवान राम और लक्ष्मण का खास ख्याल रखे और उसके साथ मिलकर दोनों राक्षसों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया ।
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पर यह युद्ध आसान न था ।
अहिरावण और महिरावण बडी मुश्किल से मरते तो फिर पाँच पाँच के रूप में जिदां हो जाते ।
इस विकट स्थिति में मकरध्वज ने बताया कि अहिरावण की एक पत्नी नागकन्या है ।
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अहिरावण उसे बलात हर लाया है ।
वह उसे पसंद नहीं करती पर मन मार के उसके साथ है ।
वह अहिरावण के राज जानती होगी ।
उससे उसकी मौत का उपाय पूछा जाये।
आप उसके पास जाएं और सहायता मांगे ।
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मकरध्वज ने राक्षसों को युद्ध में उलझाये रखा और उधर हनुमान अहिरावण की पत्नी के पास पहुंचे ।
नागकन्या से उन्होंने कहा कि यदि तुम अहिरावण के मृत्यु का भेद बता दो तो हम उसे मारकर तुम्हें उसके चंगुल से मुक्ति दिला देंगे ।
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अहिरावण की पत्नी ने कहा -
मेरा नाम चित्रसेना है...!
मैं भगवान विष्णु की भक्त हूं...!
मेरे रूप पर अहिरावण मर मिटा और मेरा अपहरण कर यहां कैद किये हुए है ।
पर मैं उसे नहीं चाहती ।
लेकिन मैं अहिरावण का भेद तभी बताउंगी जब मेरी इच्छा पूरी की जायेगी ।
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हनुमान जी ने अहिरावण की पत्नी नागकन्या चित्रसेना से पूछा कि आप अहिरावण की मृत्यु का रहस्य बताने के बदले में क्या चाहती हैं ?
आप मुझसे अपनी शर्त बताएं, मैं उसे जरूर मानूंगा..!
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चित्रसेना ने कहा - दुर्भाग्य से अहिरावण जैसा असुर मुझे हर लाया...!
इससे मेरा जीवन खराब हो गया..!
मैं अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहती हूं ।
आप अगर मेरा विवाह श्री राम से कराने का वचन दें तो मैं अहिरावण के वध का रहस्य बताऊंगी ।
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हनुमान जी सोच में पड़ गए ।
भगवान श्री राम तो एक पत्नी निष्ठ हैं ।
अपनी धर्म पत्नी देवी सीता को मुक्त कराने के लिए असुरों से युद्ध कर रहे हैं ।
वह किसी और से विवाह की बात तो कभी न स्वीकारेंगे ।
मैं कैसे वचन दे सकता हूं ?
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फिर सोचने लगे कि यदि समय पर उचित निर्णय न लिया तो स्वामी के प्राण ही संकट में हैं...!
असमंजस की स्थिति में बेचैन हनुमानजी ने ऐसी राह निकाली कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे...!
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हनुमान जी बोले - तुम्हारी शर्त स्वीकार है पर हमारी भी एक शर्त है....!
यह विवाह तभी होगा जब तुम्हारे साथ भगवान राम जिस पलंग पर आसीन होंगे वह सही सलामत रहना चाहिए...!
यदि वह टूटा तो इसे अपशकुन मांगकर वचन से पीछे हट जाऊंगा...!
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जब महाकाय अहिरावण के बैठने से पलंग नहीं टूटता तो भला श्रीराम के बैठने से कैसे टूटेगा...!
यह सोच कर चित्रसेना तैयार हो गयी...!
उसने अहिरावण समेत सभी राक्षसों के अंत का सारा भेद बता दिया ।
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चित्रसेना ने कहा - दोनों राक्षसों के बचपन की बात है ।
इन दोनों के कुछ शरारती राक्षस मित्रों ने कहीं से एक भ्रामरी को पकड़ लिया ।
मनोरंजन के लिए वे उसे भ्रामरी को बार - बार काटों से छेड रहे थे ।
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भ्रामरी साधारण भ्रामरी न थी ।
वह भी बहुत मायावी थी किंतु किसी कारण वश वह पकड़ में आ गई थी ।
भ्रामरी की पीड़ा सुनकर अहिरावण और महिरावण को दया आ गई और अपने मित्रों से लड़ कर उसे छुड़ा दिया ।
मायावी भ्रामरी का पति भी अपनी पत्नी की पीड़ा सुनकर आया था ।
अपनी पत्नी की मुक्ति से प्रसन्न होकर उस भौंरे ने वचन दिया था कि तुम्हारे उपकार का बदला हम सभी भ्रमर जाति मिलकर चुकाएंगे ।
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ये भौंरे अधिकतर उसके शयन कक्ष के पास रहते हैं. ये सब बड़ी भारी संख्या में हैं ।
दोनों राक्षसों को जब भी मारने का प्रयास हुआ है और ये मरने को हो जाते हैं तब भ्रमर उनके मुख में एक बूंद अमृत का डाल देते हैं ।
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उस अमृत के कारण ये दोनों राक्षस मरकर भी जिंदा हो जाते हैं ।
इनके कई - कई रूप उसी अमृत के कारण हैं ।
इन्हें जितनी बार फिर से जीवन दिया गया उनके उतने नए रूप बन गए हैं ।
इस लिए आपको पहले इन भंवरों को मारना होगा ।
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हनुमान जी रहस्य जानकर लौटे ।
मकरध्वज ने अहिरावण को युद्ध में उलझा रखा था ।
तो हनुमान जी ने भंवरों का खात्मा शुरू किया...!
वे आखिर हनुमान जी के सामने कहां तक टिकते...!
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जब सारे भ्रमर खत्म हो गए और केवल एक बचा तो वह हनुमान जी के चरणों में लोट गया. उसने हनुमान जी से प्राण रक्षा की याचना की. हनुमान जी पसीज गए....!
उन्होंने उसे क्षमा करते हुए एक काम सौंपा...!
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हनुमान जी बोले -
मैं तुम्हें प्राण दान देता हूं पर इस शर्त पर कि तुम यहां से तुरंत चले जाओगे और अहिरावण की पत्नी के पलंग की पाटी में घुसकर जल्दी से जल्दी उसे पूरी तरह खोखला बना दोगे...!
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भंवरा तत्काल चित्रसेना के पलंग की पाटी में घुसने के लिए प्रस्थान कर गया....!
इधर अहिरावण और महिरावण को अपने चमत्कार के लुप्त होने से बहुत अचरज हुआ पर उन्होंने मायावी युद्ध जारी रखा...!
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भ्रमरों को हनुमान जी ने समाप्त कर दिया फिर भी हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों अहिरावण और महिरावण का अंत नहीं हो पा रहा था...!
यह देखकर हनुमान जी कुछ चिंतित हुए ।
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फिर उन्हें कामाक्षी देवी का वचन याद आया।
देवी ने बताया था कि अहिरावण की सिद्धि है कि जब पांचो दीपकों एक साथ बुझेंगे तभी वे नए - नए रूप धारण करने में असमर्थ होंगे और उनका वध हो सकेगा...!
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हनुमान जी ने तत्काल पंचमुखी रूप धारण कर लिया...!
उत्तर दिशा में वराह मुख, दक्षिण दिशा में नरसिंह मुख, पश्चिम में गरुड़ मुख, आकाश की ओर हयग्रीव मुख एवं पूर्व दिशा में हनुमान मुख....!
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उसके बाद हनुमान जी ने अपने पांचों मुख द्वारा एक साथ पांचों दीपक बुझा दिए...!
अब उनके बार बार पैदा होने और लंबे समय तक जिंदा रहने की सारी आशंकायें समाप्त हो गयीं थी ।
हनुमान जी और मकरध्वज के हाथों शीघ्र ही दोनों राक्षस मारे गये
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इसके बाद उन्होंने श्री राम और लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर करने के उपाय किए ।
दोनो भाई होश में आ गए ।
चित्रसेना भी वहां आ गई थी ।
हनुमान जी ने कहा - प्रभु !
अब आप अहिरावण और महिरावण के छल और बंधन से मुक्त हुए ।
पर इसके लिए हमें इस नागकन्या की सहायता लेनी पड़ी थी...!
अहिरावण इसे बल पूर्वक उठा लाया था....!
वह आपसे विवाह करना चाहती है...!
कृपया उससे विवाह कर अपने साथ ले चलें. इससे उसे भी मुक्ति मिलेगी....!
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श्री राम हनुमान जी की बात सुनकर चकराए. इससे पहले कि वह कुछ कह पाते हनुमान जी ने ही कह दिया-
भगवन आप तो मुक्तिदाता हैं...!
अहिरावण को मारने का भेद इसी ने बताया है...!
इसके बिना हम उसे मारकर आपको बचाने में सफल न हो पाते...!
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कृपा निधान इसे भी मुक्ति मिलनी चाहिए...!
परंतु आप चिंता न करें...!
हम सबका जीवन बचाने वाले के प्रति बस इतना कीजिए कि आप बस इस पलंग पर बैठिए बाकी का काम मैं संपन्न करवाता हूं ।
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हनुमान जी इतनी तेजी से सारे कार्य करते जा रहे थे कि इससे श्री राम जी और लक्ष्मण जी दोनों चिंता में पड़ गये ।
वह कोई कदम उठाते कि तब तक हनुमान जी ने भगवान राम की बांह पकड़ ली...!
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हनुमान जी ने भावा वेश में प्रभु श्री राम की बांह पकड़कर चित्रसेना के उस सजे - धजे विशाल पलंग पर बिठा दिया...!
श्री राम कुछ समझ पाते कि तभी पलंग की खोखली पाटी चरमरा कर टूट गयी...!
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पलंग धराशायी हो गया...!
चित्रसेना भी जमीन पर आ गिरी...!
हनुमानजी हंस पड़े और फिर चित्रसेना से बोले -
अब तुम्हारी शर्त तो पूरी हुई नहीं,..!
इस लिए यह विवाह नहीं हो सकता....!
तुम मुक्त हो और हम तुम्हें तुम्हारे लोक भेजने का प्रबंध करते हैं....!
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चित्रसेना समझ गयी कि उसके साथ छल हुआ है....!
उसने कहा कि उसके साथ छल हुआ है...!
मर्यादा पुरुषोत्तम के सेवक उनके सामने किसी के साथ छल करें यह तो बहुत अनुचित है...!
मैं हनुमान को श्राप दूंगी...!
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चित्रसेना हनुमान जी को श्राप देने ही जा हे रही थी कि श्री राम का सम्मोहन भंग हुआ ।
वह इस पूरे नाटक को समझ गये ।
उन्होंने चित्रसेना को समझाया-
मैंने एक पत्नी धर्म से बंधे होने का संकल्प लिया है...!
इस लिए हनुमान जी को यह करना पड़ा ।
उन्हें क्षमा कर दो...!
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क्रुद्ध चित्रसेना तो उनसे विवाह की जिद पकड़े बैठी थी....!
श्री राम ने कहा-
मैं जब द्वापर में श्री कृष्ण अवतार लूंगा तब तुम्हें सत्यभामा के रूप में अपनी पटरानी बनाउंगा....!
इससे वह मान गयी....!
हनुमान जी ने चित्रसेना को उसके पिता के पास पहुंचा दिया ।
चित्रसेना को प्रभु ने अगले जन्म में पत्नी बनाने का वरदान दिया था...!
भगवान विष्णु की पत्नी बनने की चाह में उसने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया...!
श्री राम और लक्ष्मण, मकरध्वज और हनुमान जी सहित वापस लंका में सुवेल पर्वत पर लौट आये...!
!!!!! शुभमस्तु !!!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )