|| माघ महात्म्य ||
*|| माघ महात्म्य पांचवाँ अध्याय ||*
दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन! एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ।
भृगुवंश में ऋषिका नाम की एक ब्राह्मणी थी जो बाल्यकाल में ही विधवा हो गई थी।
वह रेवा नदी के किनारे विन्ध्याचल पर्वत के नीचे तपस्या करने लगी।
वह जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता, सुशील, दानशीलता तथा तप करके देह को सुखाने वाली थी।
वह अग्नि में आहुति देकर उच्छवृत्ति द्वारा छठे काल में भोजन करती थी।
वह वल्कल धारण करती थी और संतोष से अपना जीवन व्यतीत करती थी।
उसने रेवा और कपिल नदी के संगम में साठ वर्ष तक माघ स्नान किया और फिर वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गई ।
माघ स्नान के फल से वह दिव्य चार हजार वर्ष तक विष्णु लोक में वास करके सुंद और उपसुंद दैत्यों का नाश करने के लिए ब्रह्मा द्वारा तिलोत्तमा नाम की अप्सरा के रूप में ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई।
वह अत्यंत रुपवती, गान विद्या में अति प्रवीण तथा मुकुट कुंडल से शोभायमान थी।
उसका रूप, यौवन और सौंदर्य देखकर ब्रह्मा भी चकित हो गये. वह तिलोत्तमा, रेवा नदी के पवित्र जल में स्नान करके वन में बैठी थी।
तब सुंद व उपसुंद के सैनिकों ने चन्द्रमा के समान उस रुपवती को देखकर अपने राजा सुंद और उपसुंद से उसके रुप की शोभा का वर्णन किया और कहने लगे कि कामदेव को लज्जित करने वाली ऎसी परम सुंदरी स्त्री हमने कभी नहीं देखी।
आप भी चलकर देखें तब वह दोनों मदिरा के पात्र रखकर वहाँ पर आए जहाँ पर वह सुंदरी बैठी हुई थी और मदिरा के पान विह्वल होकर काम-क्रीड़ा से पीड़ित हुए और दोनों ही आपस में उस स्त्री - रत्न को प्राप्त करने के लिए विवाद ग्रस्त हुए और फिर आपस में युद्ध करते हुए वहीं समाप्त हो गये ।
उन दोनों का मरा हुआ देखकर उनके सैनिकों ने बड़ा कोलाहल मचाया और तब तिलोत्तमा कालरात्रि के समान उनको पर्वत से गिराती हुई दसों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई आकाश में चली गई और देव कार्य सिद्ध करके ब्रह्मा के सामने आई तो ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से कहा कि हे चन्द्रवती मैंने तुमको सूर्य के रथ पर स्थान दिया।
जब तक आकाश में सूर्य स्थित है नाना प्रकार के भोगों को भोगो।
सो हे राजन! वह ब्राह्मणी अब भी सूर्य के रथ पर माघ मास स्नान के उत्तम भोगों को भोग रही है इस लिए श्रद्धावान पुरुषों को उत्तम गति पाने के लिए यत्न के साथ माघ मास में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।
|| माघ महात्म्य पांचवाँ अध्याय पूर्ण ||
*जब आप किसी भी कार्य, व्यवसाय, परिवार का नेतृत्व करते हैं।
सबसे आवश्यक होता है कि बार बार नवीनता लाते रहें।
जिससे लोगों में ऊर्जा बनी रहे।
कोई भी काम कितना भी रोमांचक हो उसमें
धीरे धीरे बोरियत आने लगती है।
नौकरी पेशा व्यक्ति इसीलिये उदासीन होता है।
उसका सब कुछ निश्चित है।
वह जो पाँच वर्ष पूर्व कर रहा था।
वही आज भी करता है।
उसे कोई असुरक्षा का भाव नहीं है।
वह जल्दी ही बूढ़ा हो जाता है।
अभी कितनी नौकरी बची इसी ख्याल में जीता है।
वास्तव में हम सुरक्षा के लिये चिंतित रहते हैं।
जबकि जीवन का रोमांच असुरक्षा में होता है।
तो कुछ बड़ा करने कि प्रतीक्षा से अच्छा है।
कि कुछ नवीन अप्रत्याशित करना है।
इससे आप में और आपके साथ काम करने वालों में ऊर्जा बनी रहती है।
भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते।।
हे महादेव!आपके जो आठ अभिधान ( नाम ) - भव,शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव,भीम और ईशान हैं।
उनमें प्रत्येक में वेदमन्त्र भी पर्याप्त मात्रा में विचरण करते हैं और वेदानुगामी पुराण भी इन नामों में विचरते हैं;
अर्थात
वेद, पुराण सभी उन आठों नामों का अतिशय प्रतिपादन करते हैं।
अतः परमप्रिय एवं प्रत्यक्ष समस्त जगत के आश्रय आपको मैं साष्टांग प्रणाम करता हूं।
*|| जय गौरीशंकर महादेव ||*
कुंभ में स्नान का महत्व-
*सहस्त्र कार्तिके स्नानं माघे स्नान शतानि च।*
*वैशाखे नर्मदाकोटिः कुंभस्नानेन तत्फलम्।।*
*अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजवेय शतानि च।*
*लक्षं प्रदक्षिणा भूम्याः कुंभस्नानेन तत्फलम्।*
अर्थ:-
कुंभ में किए गए एक स्नान का फल कार्तिक मास में किए गए हजार स्नान, माघ मास में किए गए सौ स्नान व वैशाख मास में नर्मदा में किए गए करोड़ों स्नानों के बराबर होता है।
हजारों अश्वमेघ, सौ वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो पुण्य मिलता है, वह कुंभ में एक स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।
|| तीर्थराज प्रयाग की जय हो ||
अजगर बने अघासुर का*l
वध किया श्री कृष्ण ने....!
*भागवत में श्री कृष्ण द्वारा वृंदावन मे की गई लीलाओं में एक दिन भगवान श्री कृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गायों को चराने वन में गए।
उसी समय वहां अघासुर नाम का भयंकर दैत्य भी आ गया ।
वह पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था।
वह इतना भयंकर था कि देवता भी उससे भयभीत रहते थे और इस बात की बाट देखते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाए।*
*श्री कृष्ण को मारने के लिए अघासुर ने अजगर का रूप धारण कर लिया और मार्ग में लेट गया।
उसका वह अजगर शरीर एक योजन लम्बे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था।
अघासुर का यह रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृंदावन की कोई शोभा है।*
*उसका मुंह किसी गुफा की तरह दिखता था।
बाल-ग्वाल उसे समझ न सके और कौतुकवश उसे देखने लगे।
देखते- देखते वे अजगर के मुंह में ही घुस गए।
लेकिन श्री कृष्ण अघासुर की माया को समझ गए।*
अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्री कृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था।
परन्तु उसी समय श्री कृष्ण ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया कि अजगररुपी अघासुर का गला ही फट गया।
आंखें उलट गईं।
सांस रुककर सारे शरीर में भर गई और उसके प्राण निकल गए।*
इस प्रकार सारे बाल-ग्वाल और गौधन भी सकुशल ही अजगर के मुंह से बाहर निकल आए।
कान्हा ने फिर सबको बचा लिया।
सब मिलकर कान्हा की जय -जयकार करने लगे।*
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )
|| जय श्री कृष्ण जी ||
🙏🕉️🙏