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Friday, November 22, 2024

दान - का - हिसाब और वैदिक मंत्रों, :

दान - का - हिसाब और वैदिक मंत्रों,सकारात्मक दृष्टिकोण दुःख में सुख खोज लेना,श्री सामवेद के अनुसार सपने में सांप देखने का अर्थ का फलजब_ श्री_ कृष्ण_ जी_   को_  ठण्ड_  लगी. !

दान - का - हिसाब और वैदिक मंत्रों, 

एक राज्य में एक राजा का शासन था. वह कीमती वस्त्रों, आभूषणों और मनोरंजन में अत्यधिक धन खर्च कर दिया करता था।



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परन्तु, दान - धर्म में एक दमड़ी खर्च नहीं करता था ।

जब भी कोई ज़रूरतमंद और लाचार व्यक्ति सहायता की आस में उसके दरबार में आता ।

तो उसे खाली हाथ लौटा दिया जाता था ।

इस लिए लोगों ने उसके पास जाना ही छोड़ दिया था।

एक वर्ष राज्य में वर्षा नहीं हुई।

जिससे वहाँ सूखा पड़ गया ।

सूखे से फ़सल नष्ट हो गई ।

चारो ओर त्राहि - त्राहि मच गई।

लोग भूख-प्यास से मरने लगे।

राजा के कानों तक जब प्रजा का हाल पहुँचा।

तो वह कन्नी काटते हुए बोला।

" अब इंद्र देवता रूठ गए हैं।

तो इसमें मेरा क्या दोष है।

मैं भला क्या कर सकता हूँ?”

प्रजा उनके समक्ष सहायता की गुहार लेकर आई। 

" महाराज सहायता करें।

अब आपका ही सहारा है।

राजकोष से थोड़ा धन प्रदान कर दें।

ताकि अन्य देशों से अनाज क्रय कर भूखे मरने से बच सकें।”

राजा उन्हें दुत्कारते हुए बोला।

“जाओ अपनी व्यवस्था स्वयं करो।

आज सूखे से तुम्हारी फ़सल नष्ट हो गई।

कल अतिवृष्टि से हो जायेगी और तुम लोग ऐसे ही हाथ फैलाये मेरे पास आ जाओगे।

तुम लोगों पर यूं ही राजकोष का धन लुटाता रहा।

तो मैं कंगाल हो जाऊंगा।

जाओ यहाँ से।”

दु:खी मन से लोग वापस चले गए।

किंतु.....!

समय बीतने के साथ सूखे का प्रकोप बढ़ता चला गया।

अन्न के एक - एक दाने को  तरसने लगे और वे फिर से राजा के पास पहुँचे।

सहायता की याचना करते हुए वे बोले।




"महाराज....!

हम लाचार हैं.....!

खाने को अन्न का एक दाना नहीं है।

राजकोष से मात्र दस हज़ार रूपये की सहायता प्रदान कर दीजिये।

आजीवन आपके ऋणी रहेंगे।”

“दस हज़ार रूपये....! 

जानते भी हो कि ये कितने होते हैं? 

इस तरह मैं तुम लोगों पर धन नहीं लुटा सकता.” 

राजा बोला.....!

“महाराज....!

राजकोष सगार है और दस हज़ार रूपये एक बूंद...!

एक बूँद दे देने से सागर थोड़े ही खाली हो जायेगा.” 

लोग बोले.....!

“तो इसका अर्थ है कि मैं दोनों हाथों से धन लुटाता फिरूं.” 

राजा तुनककर बोला.....!

“महाराज.....!

हम धन लुटाने को नहीं कह रहे....!

सहायता के लिए कह रहे हैं....!

वैसे भी हजारों रूपये कीमती वस्त्रों....! 

आभूषणों....!

मनोरंजन में प्रतिदिन व्यय होते है.....!

वही रूपये हम निर्धनों के काम आ जायेंगे.”  

“मेरा धन है. मैं जैसे चाहे उपयोग करूं? 

तुम लोग कौन होते हो।

मुझे ज्ञान देने वाले? 

तत्काल मेरी दृष्टि से दूर हो जाओ।

अन्यथा कारागार में डलवा दूंगा।” 

राजा क्रोधित होकर बोला....!

राजा का क्रोध देख लोग चले गए!

दरबारी भी राजा का व्यवहार देख दु:खी थे!

ऐसी आपदा के समय प्रजा अपने राजा से आस न रखे।

तो किससे रखे? 

ये बात वे राजा से कहना चाहते थे।

किंतु उसका क्रोध देख कुछ न कह सके।

राजा ही बोला.....!

" दस हज़ार रूपये मांगने आये थे।

अगर सौ - दो सौ रूपये भी मांगे होते...!

तो दे देता और उसकी क्षतिपूर्ति किसी तरह कर लेता।

किंतु, इन लोगों ने तो बिना सोचे-समझे अपना मुँह खोल दिया।

सच में अब तो नाक में दम हो गया है...!”

अब दरबारी क्या कहते? 

शांत रहे।

किंतु, मन ही मन सोच रहे थे कि राजा ने प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाया।

कुछ दिन और बीत गए।

किंतु, सूखे का प्रकोप रुका नहीं।

बढ़ता ही गया।

इधर राजा इन सबके प्रति आँखें मूंद अपने भोग-विलास में लगा रहा।

एक दिन एक सन्यासी दरबार में आया और राजा को प्रणाम कर बोला।

" महाराज....!

सुना है आप दानवीर हैं....!

सहायता की गुहार लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”

राजा आश्चर्य में पड़ गया।

सोचने लगा कि ये सन्यासी कहाँ से मेरे दान - पुण्य के बारे में सुनकर आया है।

मैंने तो कभी किसी को दान नहीं दिया।

कहीं दान लेने के लिए ये बात तो नहीं बना रहा।

फिर सन्यासी से पूछा.....!

" क्या चाहिए तुम्हें? 

यदि अपनी सीमा में रहकर मांगोगे...!

तो तुम्हें प्रदान किया जाएगा....!

किंतु, अत्यधिक की आस मत रखना।”

सन्यासी बोला....!

“महाराज! मैं तो एक सन्यासी हूँ।

मुझे अत्यधिक धन का लोभ नहीं।

बस इक्कीस दिनों तक राजकोष से कुछ भिक्षा दे दीजिए।

किंतु....!

भिक्षा लेने का मेरा तरीका है....!

मैं हर दिन पिछले दिन से दुगुनी भिक्षा लेता हूँ....!

आपको भी ऐसा ही करना होगा”

राजा सोचते हुए बोला....!

“पहले ये बताओ कि पहले दिन कितनी भिक्षा लोगे.....!

तब मैं निर्णय करूंगा कि तुम्हें राजकोष से भिक्षा दी जाए या नहीं।

दो - चार रूपये मांगोगे।

तो मिल सकते हैं.....!

दस-बीस रुपये मांगोगे....!

तो कठिनाई होगी....! ”

सन्यासी बोला.....!

“महाराज....!

कहा ना मैं ठहरा सन्यासी....!

अधिक धन का क्या करूंगा? 

आप मुझे पहले दिन मात्र एक रूपया दे देना....! ”

सुनकर राजा बोला....!

“ठीक है...!

मैं तुम्हें पहले दिन एक रुपया और उसके बाद बीस दिनों तक प्रतिदिन पिछले दिन का दुगुना धन देने का वचन देता हूँ.....!”

राजा ने तत्काल कोषाध्यक्ष को बुलवाया और उसे अपना आदेश सुना दिया।

राजकोष से सन्यासी को एक रुपया मिल गया और वह राजा की जयकार करता हुआ चला गया।

उसके बाद प्रतिदिन सन्यासी को राजकोष से धन मिलने लगा।

कुछ दिन बीतने के बाद राजभंडारी ने हिसाब लगाया।

तो पाया कि राजकोष का धन कम हुए जा रहा है और इसका कारण सन्यासी को दिया जाने वाला दान है।

उसने मंत्री को यह जानकारी दी।

मंत्री भी उलझन में पड़ गया।

वह बोला....!

“यह बात हमें पहले विचार करनी चाहिए थी.....!

अब क्या कर सकते हैं....!

ये तो महाराज का आदेश है.....!

हम उनके आदेश का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं?”

राजभंडारी कुछ नहीं बोला.....!

कुछ दिन और बीते और राजकोष से धन की निकासी बढ़ने लगी.....!

तो वह फिर से भागा - भागा मंत्री के पास पहुँचा और बोला....!

“मंत्री जी....!

इस बार मैंने पूरा हिसाब किया है....!

वह हिसाब लेकर ही आपके पास उपस्थित हुआ हूँ.”

मंत्री ने जब हिसाब देखा....!

तो चकित रह गया. उसके माथे पर पसीना आ गया....!

उसने पूछा.....!

“क्या यह हिसाब सही है.”

“ बिल्कुल सही.....!

मैंने कई बार स्वयं गणना की है...!"

राजभंडारी बोला....!

“इतना धन चला गया है और अभी इक्कीस दिन होने में बहुत समय है....!

 इक्कीस दिनों बाद क्या स्थिति बनेगी? 

जरा बताओ तो?”

भंडारी बोला, 

“वह हिसाब तो मैंने नहीं लगाया है....!”

“तो तत्काल हिसाब लगाकर मुझे बताओ.” 

मंत्री ने आदेश दिया.....!

भंडारी हिसाब करने लगा और पूरा हिसाब करके बोला.....!

“मंत्री जी....!

 इक्कीस दिनों में सन्यासी की दान की रकम दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर रूपये होगी.....!”

“क्या?” 

मंत्री बोला....!

“तुमने सही हिसाब तो लगाया है....!

 इतना धन सन्यासी ले जायेगा...!

तो राजकोष खाली हो जायेगा. हमें तत्काल ये जानकारी महाराज को देनी होगी....!”

वे तत्क्षण राजा के पास पहुँचे और पूरा हिसाब उसके सामने रख दिया.....!

राजा ने जब हिसाब देखा,...!

तो उसे चक्कर आ गया.....!

फिर ख़ुद को संभालकर वह बोला....!

“ये सब क्या है?”

मंत्री बोला....!

“सन्यासी को दान देने के कारण राजकोष खाली हो रहा है....!”

राजा बोला....!

" ऐसा कैसे हो सकता है? 

मैंने तो उसे बहुत ही कम धन देने का आदेश दिया था.”

मंत्री बोला....!

“महाराज....!

वह सन्यासी बहुत चतुर निकला...!

अपनी बातों में फंसाकर वह राजकोष से बहुत सारा धन ऐंठने के प्रयास में है.....!”

राजा ने राजभंडारी से पूछा.....!

“फिर से बताओ कितना धन सन्यासी लेने वाला है?”

“दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर“ 

राजभंडारी बोला.....!

“परन्तु मुझे लगता है कि मैंने इतना धन देने का आदेश तो नहीं दिया था....!

मैं ऐसा आदेश दे ही नहीं सकता....!

जब मैंने अकाल पीड़ित प्रजा को दस हजार रुपये नहीं दिए....!

तो भला एक सन्यासी को इतना धन क्यों दूंगा?” 

राजा सोचते हुए बोला.....!

“किंतु सब आपके आदेश अनुसार ही हो रहा है महाराज.....!

चाहे तो आप स्वयं हिसाब कर लीजिये.” 

राजभंडारी बोला. मंत्री ने भी उसका समर्थन किया....!

“अभी इसी समय उस सन्यासी को मेरे समक्ष प्रस्तुत करो....!”

राजा चिल्लाया.....!

तुरंत कुछ सैनिक भेजे गए और वे सन्यासी को लेकर राजा के सामने उपस्थित हुए.....!

सन्यासी को देखते ही राजा उसके चरणों पर गिर पड़ा और बोला....!

“बाबा, आपको दिए वचन से मेरा राजकोष खाली हुआ जा रहा है....!

 इस तरह तो मैं कंगाल हो जाऊँगा.....!

फिर मैं राजपाट कैसे चला पाऊँगा? 

किसी तरह मुझे इस वचन से मुक्त कर दीजिये......!

दया कीजिये.....!”

सन्यासी ने राजा को उठाया और बोला.....!

“ठीक है मैं तुम्हें इस वचन से मुक्त करता हूँ......!

किंतु इसके बदले तुम्हें राज्य की प्रजा को पचास हज़ार रूपये देने होंगे......!

ताकि वे अकाल का सामना कर सकें......!”

राजा बोला.....!

“किंतु बाबा....!

वे लोग जब आये थे.....!

तब दस हजार मांग रहे थे.....!”

“किंतु मैं पचास हजार ही लूँगा.....!

उससे एक ढेला कम नहीं.....!” 

सन्यासी  ने अपना निर्णय सुनाया....!

राजा बहुत गिड़गिड़ाया...!

किंतु सन्यासी अपनी बात अड़ा रहा...!

अंततः  

विवश होकर राजा पचास हजार रूपये देने तैयार हो गया....!

सन्यासी ने अपना वचन वापस ले लिया और चला गया.....!

राजकोष से प्रजा को पचास हजार रूपये दिए गए....!

प्रजा बहुत प्रसन्न हुई और राजा की जय - जयकार करने लगी.....!

दु:खी राजा बहुत दिनों तक भोग - विलास से दूर रहा।

मित्रों"  

जब सीधी उंगली से घी ना निकले,तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है....!

 भला करोगे....!

तो चारों ओर गुणगान होगा..!!

ये  वैदिक शास्त्र के  16 मंत्र  हैं जो......!

1. Gayatri Mantra

            ॐ भूर्भुवः स्वः,
            तत्सवितुर्वरेण्यम् 
            भर्गो देवस्य धीमहि 
            धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

2. Mahamrityunjay

          ॐ त्रम्बकं यजामहे, 
           सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ,
           उर्वारुकमिव बन्धनान्,
           मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् !!

3. Shri Ganesha

              वक्रतुंड महाकाय, 
              सूर्य कोटि समप्रभ 
              निर्विघ्नम कुरू मे देव,
              सर्वकार्येषु सर्वदा !!

4. Shri hari Vishnu

           मङ्गलम् भगवान विष्णुः,
           मङ्गलम् गरुणध्वजः।
           मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः,
           मङ्गलाय तनो हरिः॥

5. Shri Brahma ji

             ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा,
              नमस्ते परमात्ने ।
              निर्गुणाय नमस्तुभ्यं,
              सदुयाय नमो नम:।।

6. Shri Krishna

               वसुदेवसुतं देवं,
               कंसचाणूरमर्दनम्।
               देवकी परमानन्दं,
               कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।

7. Shri Ram

              श्री रामाय रामभद्राय,
               रामचन्द्राय वेधसे ।
               रघुनाथाय नाथाय,
               सीताया पतये नमः !

8. Maa Durga

            ॐ जयंती मंगला काली,
            भद्रकाली कपालिनी ।
            दुर्गा क्षमा शिवा धात्री,
            स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।।

9. Maa Mahalakshmi

            ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो,
            धन धान्यः सुतान्वितः ।
            मनुष्यो मत्प्रसादेन,
            भविष्यति न संशयःॐ ।

10. Maa Saraswathi

            ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं,
             वरदे कामरूपिणि।
             विद्यारम्भं करिष्यामि,
             सिद्धिर्भवतु मे सदा ।।

11. Maa Mahakali

             ॐ क्रीं क्रीं क्रीं,
             हलीं ह्रीं खं स्फोटय,
             क्रीं क्रीं क्रीं फट !!

12. Hanuman ji

          मनोजवं मारुततुल्यवेगं,
          जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
          वातात्मजं वानरयूथमुख्यं,
          श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥

13. Shri Shanidev

             ॐ नीलांजनसमाभासं,
              रविपुत्रं यमाग्रजम ।
              छायामार्तण्डसम्भूतं, 
              तं नमामि शनैश्चरम्।।

14. Shri Kartikeya

        ॐ शारवाना-भावाया नम:,
         ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा ,
         वल्लीईकल्याणा सुंदरा।
          देवसेना मन: कांता,
          कार्तिकेया नामोस्तुते।

15. Kaal Bhairav ji

          ॐ ह्रीं वां बटुकाये,
          क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये,
          कुरु कुरु बटुकाये,
          ह्रीं बटुकाये स्वाहा।

16. Bharat Mata

     नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
     त्वया हिन्दुभूमे सुखद् वर्धितोऽहम्
     महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
     पतत्वेष काथो नमस्ते-नमस्ते।।
   
सकारात्मक दृष्टिकोण *दुःख में सुख खोज लेना....! 

सकारात्मक दृष्टिकोण :





दुःख में सुख खोज लेना....!
हानि में लाभ खोज लेना....!

प्रतिकूलताओं में भी अवसर खोज लेना इस सबको सकारात्मक दृष्टिकोण कहा जाता है। 

जीवन का ऐसा कोई बड़े से बड़ा दुःख नहीं जिससे सुख की परछाईयों को ना देखा जा सके। 

जिन्दगी की ऐसी कोई बाधा नहीं जिससे कुछ प्रेरणा ना ली जा सके ।

रास्ते में पड़े हुए पत्थर को आप मार्ग की बाधा भी मान सकते हैं और चाहें तो उस पत्थर को सीढ़ी बनाकर ऊपर भी चढ़ सकते हैं। 

जीवन का आनन्द वही लोग उठा पाते हैं जिनका सोचने का ढंग सकारात्मक होता है।

इस दुनिया में बहुत लोग ।

इस लिए दु:खी नहीं कि उन्हें किसी चीज की कमी है किन्तु इसलिए दु:खी हैं कि उनके सोचने का ढंग नकारात्मक है। 

सकारात्मक सोचो, सकारात्मक देखो। 

इससे आपको अभाव में भी जीने का आनन्द आ जायेगा।

अगर आपकी खुशी की एकमात्र वजह ये है कि जो चीज आपके पास हैं, वो दूसरों के पास नहीं, तो इसे विकार कहेंगे। 

इस तरह के विकार से जितनी जल्दी छुटकारा पा लिया जाये उतना बढ़िया। 

इससे मिलने वाली प्रसन्नता छणिक होती है। 

नुकसान ज्यादा होता है और उसके बारे में पता बाद में चलता है।

बातें चाहे कितनी बड़ी बड़ी की जाए ।

कितनी ही अच्छी ही क्यों न हों किन्तु याद रखिये संसार आपको आपके कर्मो के द्वारा जानता है। 

अतः बातें भी अच्छी करिए और कार्य भी हमेशा उत्कृष्ट और श्रेष्ठ करें।

*संकीर्णता के दायरे से बाहर निकलें*

 *मानव मानव के बीच संघर्ष लड़ाई का कारण गरीबी, अभाव आदि नहीं, वरन् "तेरे मेरे" का प्रश्न है।* 

अपने लाभ, अपनी समृद्धि, अपने की सार-संभाल सभी को प्रिय लगती है, किंतु दूसरे के साथ वह भाव नहीं। उसकी हानि, अपमान, मृत्यु तक में भी कोई दिलचस्पी नहीं। 

*उल्टा दूसरे से अपना जितना लाभ बन सके इसके लिए सभी को प्रयत्नशील देखा जाता है।*

 *इस व्यापक समस्या का भी एक समाधान है वह यह है कि अपने हृदय को "मेरे-तेरे" के संकीर्ण घेरे से निकालकर "समग्र" के साथ जोड़ा जाए। 

इसके व्यावहारिक मार्ग का प्रथम सूत्र है, "सह अस्तित्व" का मंत्र।* 

स्वयं जिएँ और दूसरों को जीने दें। 

अपनी-अपनी थाली में ही सब बैठकर खाएँ। 

*इसके बाद ही दूसरा मंत्र है-

"दूसरें के जीने के लिए मुझे सहयोग करना होगा।"* 

जिसकी पराकाष्ठा अपने आपको मिटा देने तक रहती है। 

दूसरों के जीने के लिए अपने आपको मिटाने की भावना एक दूसरे के दिल और दिमाग को जोड़ती है, एकाकार करती है *यही व्यक्ति से लेकर विश्व समस्या का मूल समाधान है।

 हम भी अपने हृदय को दूसरों के लिए इसी तरह संवेदनशील बनाकर अपनी और विश्व की समस्याओं के समाधान में योग दे सकते हैं। 

जब परिवार में हम अपने लिए अच्छी माँग न रखकर दूसरों का ध्यान रखेंगे तो क्यों नहीं हमारा परिवार स्वर्गीय बनेगा ? 

इसी तरह पड़ोस, देश, समाज, जाति की यही आवश्यकता है जिसे अनुभव किए बिना मानव और विश्व की समस्या का समाधान न हो सकेगा।

*हृदय की संवेदना का विस्तार ही मनुष्य को भगवान के समकक्ष पहुँचाता है।* 

श्री रामकृष्ण परमहंस की अत्युच्चकोटि की संवेदनशीलता ने उन्हें कालीमय और भगवान बना दिया 

सामान्यतः लोगों में यह संवेदना बीज अधखिला, अधफला ही रहता है।

अपनों के अपनत्व के दायरे में सीमित किए हुए लोग साधारण मनुष्य ही बनकर रह जाते हैं। 

करूणानिधान भगवान ने तो हमें अपने समकक्ष बन सकने के सभी साधन और शक्ति स्रोत दिए हैं, अब हम क्या बनते हैं - 

शैतान, इंसान या भगवान, यह हमारी आकांक्षा, संकल्प एवं प्रयत्न पुरुषार्थ की दिशा तथा स्वरूप पर निर्भर करता है।


 🚩जय श्री कृष्ण🚩

श्री यजुर्वेद और श्री सामवेद के अनुसार सपने में सांप देखने का अर्थ का फल ।


श्री सामवेद के अनुसार सपने में सांप देखने का अर्थ का फल






सपने में सांप दिखाई देना शुभ अशुभ दोनों ही हो सकता है ।

यह निर्भर करता है ।

कि स्वप्न में आपको सांप किस अवस्था में दिखाई दिया। 

कुछ लोग सपने में सांप को मार भी देते हैं ।

और कुछ को सांप सपने में डस लेता है।

राहू का सांप से सम्बन्ध : 〰

जब राहु की आहट जीवन में होती है ।

तो सांप जरूर दिखाई देता है ।

इसका अर्थ है कि राहु आपको फल देने वाला है ।

यह किसी के लिए शुभ होता है और किसी के लिए अशुभ। 

जब तक स्वपन पूरा न हो जाय तबतक तो कुछ कहा नहीं जा सकता।

स्वप्न में सांप का काटना : 〰️

सांप द्वारा यदि आप डस लिए गए हैं या सांप ने काट लिया है ।

तो डसे जाने वाले व्यक्ति के लिए चेतावनी है क्योंकि राहु शनि द्वारा संचालित होता है। 

शनि का आदेश है कि राहु सांप के रूप में दिखाई दे, ये संकेत है कि अचानक होने वाली घटना घटित होने जा रही है।

सपने में सांप को मारना : 〰️

यदि आप सांप को मार रहे हैं या आप सांप को मरा हुआ देख रहे हैं ।

तो इसका अर्थ है ।

आपने राहु के फल को पूरी तरह भोग ही लिया है ।

आपके कष्ट समाप्त हो गए हैं ।

अब राहु आपको परेशान नहीं करेगा।

सपने में सांप को देखना :  〰

सपने में सांप के मात्र दर्शन होना इस बात का प्रमाण है ।

कि राहु की दशा चल रही है या राहु की दशा आने वाली है या फिर राहू गोचर में आप के राशि पर प्रभाव दाल रहा है।

ज्योतिष के अनुसार सपने में सांप का दिखना :

अक्सर जब लग्न के 12वें घर में राहु आता है ।

तो सपने में सांप दिखाई देता है ।

जिनको जीवन में बार बार सांप दिखाई दे ।

उनकी जन्म कुंडली के लग्न में या 12 वें घर में राहु विराजमान है या लग्नेश के साथ राहु विराजमान है अथवा कुंडली मे कालसर्प दोष है।

जब स्वप्न में सांप दिखाई दे तो करें यह उपाय :

चाहे आप स्वप्न में या वास्तविक जीवन में सांप से भयभीत रहते हैं या फिर यदि आपको लग रहा है ।

की सांप के दिखाई देने के आप के स्वप्न का फल बुरा हो सकता है ।

तो श्री शिवजी मंदिर में जाएँ और उनकी पूजा अर्चना करें रुद्राभिषेक करवाएं या शिव मंदिर में जाकर शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करें।

महाभारत ग्रन्थ के शुरुआत में ही सर्प सत्र नाम से अध्याय है ।

उसका पठन और श्रवण मात्र से व्यक्ति को सर्पों से जीवन में किसी प्रकार का भय नहीं रहता।

चन्द्रमा और सूर्य के कहने पर राहू नामक राक्षस का भगवान विष्णु ने सर काट दिया था ।

उस राक्षस के सर का नाम राहू और धड़ का नाम केतु है।

उसी समय से राहू की सूर्य और चंद्रमा से शत्रुता है। 

जो लोग सूर्य और चन्द्रमा की दशा और राहू के अंतर में होते हैं ।

उन्हें भी राहू से भय होता है ।

जिस कारण स्वप्न में सांप दिखाई देते हैं।

ऐसे लोगों को विष्णु की शरण में जाना चाहिए श्री विष्णु का मंत्र है ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
.
इस मन्त्र का मन ही मन पाठ करने से केवल इक्कीस दिनों में आप राहू के बुरे फल को शुभ फल में बदल सकते हैं।

किसी भी शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से आरम्भ कर लगातार 41 दिन भुजंग स्तोत्र का पाठ सर्व प्रकार के सर्प भय से मुक्ति दिलाता है।

नवनाग पूजन उपरांत राहु केतु के वैदिक जप और दशांश हवन से भी सर्प दोषों से मुक्ति मिलती है।

जब_श्री_कृष्ण_जी_को_ठण्ड_लगी






यह सत्य घटना सुनकर आपकी आंखों से जरूर आंसू आ जाएंगे अगर आप कृष्ण प्रेमी हैं तो 😭😭😭🙏

रोनाल्ड निक्सन जो कि एक अंग्रेज थे कृष्ण प्रेरणा से ब्रज में आकर बस गये ! 

उनका कन्हैया से इतना प्रगाढ़ प्रेम था कि वे कन्हैया को अपना छोटा भाई मानने लगे थे ! 

एक दिन उन्होंने हलवा बनाकर ठाकुर जी को भोग लगाया पर्दा हटाकर देखा तो हलवे में छोटी छोटी उँगलियों के निशान थे ! 

जिसे देख कर 'निक्सन' की आखों से अश्रु धारा बहने लगी ! 

क्यूँ कि इससे पहले भी वे कई बार भोग लगा चुके थे पर पहलेकभी ऐसा नहीं हुआ था |

और एक दिन तो ऐसी घटना घटी कि सर्दियों का समय था, निक्सन जी कुटिया के बाहर सोते थे |

ठाकुर जी को अंदर सुलाकर विधिवत रजाई ओढाकर फिर खुद लेटते थे | 

एक दिन निक्सन सो रहे थे ! 

मध्यरात्रि को अचानक उनको ऐसा लगा जैसे किसी ने उन्हें आवाज दी हो...

दादा ! 

ओ दादा !

उन्होंने उठकर देखा जब कोई नहीं दिखा तो सोचने लगे हो सकता हमारा भ्रम हो, थोड़ी देर बाद उनको फिर सुनाई दिया....

दादा ! 

ओ दादा !

उन्होंने अंदर जाकर देखा तो पता चला की वे ठाकुर जी को रजाई ओढ़ाना भूल गये थे | 

वे ठाकुर जी के पास जाकर बैठ गये और बड़े प्यार से बोले...,

 ''आपको भी सर्दी लगती है क्या...?''

निक्सन का इतना कहना था कि ठाकुर जी के श्री विग्रह से आसुओं की अद्भुत धारा बह चली...

ठाकुर जी को इस तरह रोता देख निक्सनजी भी फूट फूट कर रोने लगे !

उस रात्रि ठाकुर जी के प्रेम में वह अंग्रेज भक्त इतना रोया कि उनकी आत्मा उनके पंचभौतिक शरीर को छोड़कर बैकुंठ को चली गयी |

🙏🙏🙏हे ठाकुर जी ! 

हम इस लायक तो नहीं कि ऐसे भाव के साथ आपके लिए रो सकें.....

पर फिर भी इतनी प्रार्थना करते हैं कि......,

''हमारे अंतिम समय में हमे दर्शन भले ही न देना पर…

अंतिम समय तक ऐसा भाव जरूर दे देना जिससे आपके लिए तडपना और व्याकुल होना ही हमारी मृत्यु का कारण बने....''

       🌹जय जय श्री राधे कृष्ण जी🌹
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )

         !!!!! शुभमस्तु !!!
जय जय श्री राधे कृष्णा 
जय द्वारकाधीश

||आजकल की शोक सभाएं/श्रीशंकरजी और श्रीरामजी अर्थात्‌||

श्री ऋग्वेद,  श्री सामवेद और श्री श्रीराम चारित्र मानस के अनुसार  :

आजकल की शोक सभाएं -

शोक सभाएं दुःख बांटने और परिवार को सांत्वना देकर साहस बढाने का एक माध्यम है।

लेकिन आजकल ये सभाएं अपने असली मकसद से भटक चुकी हैं।

ऐसा लगता है।

यह तो बहुत बड़ा लग्न समारोह हो रहा है।







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शोक सभा के आयोजन के लिए बड़े - बड़े मंडप लगाये जाते हैं।


सफेद पर्दे और कालीन बिछाई जाती है या किसी बड़े बैंक्वेट हाॅल में सभा का आयोजन किया जाता है। 

यह दृश्य किसी उत्सव जैसा लगता है।

जिसमें शोक की भावना कम और प्रदर्शन की प्रवृत्ति ज्यादा नजर आती है। 

मृतक का बड़ा फोटो सजाकर स्टेज पर रखा जाता है और पूरे कार्यक्रम में भव्यता का माहौल होता है। 

मृतक के परिवार के लोग सजे - धजे नजर आते हैं। 





उनका आचरण और पहनावा इस बात का संकेत नहीं देता कि वे किसी प्रकार के दुःख में हैं।

समाज में प्रतिष्ठा दिखाने की होड़ मे अब शोक सभा भी इसका हिस्सा बन गई है।

इस दौरान कितने लोग सभा में आये।

इसकी चर्चा भी खूब होती है और परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को इस आधार पर आंका जाता है। 

छोटे और मध्यम वर्गीय परिवार भी इस दिखावे की चपेट में आ गये हैं। 

शोक सभा का आयोजन अब आर्थिक बोझ बनता जा रहा है।

कई परिवार इस बोझ को उठाने में असहज महसूस करते हैं।

लेकिन देखा देखी की होड़ मे इसे करने के लिए मजबूर होते हैं।

खाना, चाय, कॉफी, मिनरल पानी जैसी चीजों पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।

एक तरह देखा जाय तो हम किसी आत्मा की शौक सभा नहीं हम किसी के लग्न समारोह में जा रहे है ऐसा यह आज कल के समय का यह पूरी सभा अब शोक की बजाय एक भव्य आयोजन का रूप ले रहा है ।

शोक सभाओं को सादगीपूर्ण और अर्थपूर्ण बनाना जरूरी है। 

श्री ऋग्वेद,  श्री सामवेद और श्री श्रीराम चारित्र मानस के अनुसार :

|| श्रीशंकरजी और श्रीरामजी अर्थात्‌ ||





*मायाविशिष्ट* 

ईश्वर-और *अज्ञानउपहित* ब्रह्म।

भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।

एक और अर्थ देखे-

भवानी को 'विश्वास' था कि शंकरजी ही ईश्वर हैं, इस विश्वास के कारण उनके मुंह से निकले शब्दों पर उनकी 'श्रद्धा' भी थी।

भले ही वह मति अनुसार गलत लगे।

सीता के वियोग में पागलों की तरह हद से ज्यादा दुखी 'राम' को 'ब्रह्म' कहकर जब शंकर ने दूर से उन्हें प्रणाम किया तो स्वभाविक था कि इस बात को भवानी समझ नहीं पाईं !

ईश्वर के शब्दों को वेद कहते हैं

विश्वास करने वाली बुद्धि जब श्रुति से 'तत्त्वमसि' महावाक्य का श्रवण करती है, तो स्वभाविक है उसे भी यह बात गलत ही लगती है, की एक संसारी मनुष्य को ब्रह्म कैसे कहा गया ?  

लेकिन यह बात वेद वाक्य है जो ईश्वर के मुख से निकली वाणी है, इस लिए झूठ भी नहीं हो सकती, यह श्रद्धा बुद्धि में संशय को जन्म देती है।

संशय का समाधान वास्तविकता को जाने बिना होता नहीं असंभव है? 

 परिक्षण आवश्यक हो जाता है।

 श्रद्धावानं लभते ज्ञानं

यदि भवानी शंकरजी की बात को गलत कहकर हवा में उड़ा देतीं;  की भांग ज्यादा चढ़ गई है ।

इस लिए अनाप सनाप कह रहे होंगे, तो वे राम की परीक्षा नहीं लेतीं है।

इसे श्रद्धा का अभाव कहते हैं। 

लेकिन भवानी श्रद्धा का अवतार हैं; अत: गलत लगने वाली बात पर भी थोड़ी देर के लिये विश्वास करती है, और इसी लिए परिक्षण भी करती हैं। 

और परिक्षण बाद ही सही या गलत का ज्ञान लाभ करती है।

परिक्षण का परिणाम यह होता है कि  संशयात्मिका बुद्धि अपने पिता के हवन कुंड में जलकर राख हो जाती है।
 
और विवेक के रूप मे पुनर्जन्म होता है जो 'रामकथा' सुनने का अधिकारी है। 

श्रीरामायण ही वह कथा है जिसे शंकरजी ने पार्वतीजी को सुनाया।

( श्रीरामचरित्र मानस )

इस कथा के अनुसार ही एक सही सच्चाई वाली सुंदर कहानी भी है

!! अंधा व्यक्ति और लालटेन !! 


दुनिया में तरह - तरह के लोग होते हैं. कुछ तो ऐसे होते हैं ।

जो स्वयं की कमजोरियों को तो नज़रंदाज़ कर जाते हैं किंतु दूसरों की कमजोरियों पर उपहास करने सदा तत्पर रहते हैं।

वास्तविकता का अनुमान लगाये बिना वे दूसरों की कमजोरियों पर हँसते हैं और अपने तीखे शब्दों के बाणों से उन्हें ठेस पहुँचाते हैं।

किंतु जब उन्हें यथार्थ का तमाचा पड़ता है।

तो सिवाय ग्लानि के उनके पास कुछ शेष नहीं बचता.

आज हम आपको एक अंधे व्यक्ति की कहानी बता रहे हैं, जिसे ऐसे ही लोगों के उपहास का पात्र बनना पड़ा.

एक गाँव में एक अंधा व्यक्ति रहता था. वह रात में जब भी बाहर जाता, एक जली हुई लालटेन हमेशा अपने साथ रखता था.

एक रात वह अपने दोस्त के घर से भोजन कर अपने घर वापस आ रहा था. हमेशा की तरह उसके हाथ में एक जली हुई लालटेन थी. कुछ शरारती लड़कों ने जब उसके हाथ में लालटेन देखी ।

तो उस पर हंसने लगे और उस पर व्यंग्य बाण छोड़कर कहने लगे।

“अरे, देखो - देखो अंधा लालटेन लेकर जा रहा है. अंधे को लालटेन का क्या काम?”

उनकी बात सुनकर अंधा व्यक्ति ठिठक गया और नम्रता से बोला।

“सही कहते हो भाईयों. मैं तो अंधा हूँ. देख नहीं सकता. मेरी दुनिया में तो सदा से अंधेरा रहा है. मुझे लालटेन क्या काम? 

मेरी आदत तो अंधेरे में ही जीने की है. लेकिन आप जैसे आँखों वाले लोगों को तो अंधेरे में जीने की आदत नहीं होती।

आप लोगों को अंधेरे में देखने में समस्या हो सकती है. कहीं आप जैसे लोग मुझे अंधेरे में देख ना पायें और धक्का दे दें।

तो मुझ बेचारे का क्या होगा? 


इस लिए ये लालटेन आप जैसे लोगों के लिए लेकर चलता हूँ. ताकि अंधेरे में आप लोग मुझ अंधे को देख सकें.”

अंधे व्यक्ति की बात सुनकर वे लड़के शर्मसार हो गए और उससे क्षमा मांगने लगे. उन्होंने प्रण किया कि भविष्य में बिना सोचे - समझे किसी से कुछ नहीं कहेंगे.

हमें यही तथ्य गुरुदेव प्रतिपल समझाते है की हमारे मन वचन कर्म द्वारा किसी को भी किसी प्रकार की हानि या ठेस ना लगे ।

हमें बक्शाई प्रार्थना मे भी इसी बात पर प्रमुखता दी है गुरुदेव से धर्म एवं गुरुदेव के प्रति हुए दोषों के लीये क्षमा मांगने के साथ ही अन्य सभी के साथ हुए गुनाहो के लीये भी क्षमा व पुनः कर्म दोष ना बने इसके लीये अरदास की गई है एवंम पहले दुसरो का उद्धार करने व अंत मे स्वंय का उद्धार करने के लीये विनती करने का मार्गदर्शन किया है ।

क्योंकि जब शुभ व अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म शेष नहीं रहेंगे व हमारा मन, निजमन व आत्मा अपने पिया परमात्मा से सत्तगुरु रूप मे विरजमान साक्षात् सत्तस्वरूप से मिलेगी तभी तो हमारा कारज होगा!

मेरी गुरुदेव से यही करुण अरदास है की हे गुरुदेव आप सब कुछ बक्सा सकते, कृपा करके ऐसी गहरी समझशक्ति, सहनशक्ति व सद्बुद्धि भी हमें निरंतर बक्शाते रहे ताकि हम सदैव आपके चरण शरण मे बने रहे और हमारा इस लोक से बेदाग व आनंदपूर्वक निस्तारा हो जाये व आपके आनंदलोक मे भी समागम हो जाये!!

सदैव गुरुचरणों मे मग्न व प्रसन्न रहिये।

अभिमान 





एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। 

उसकी छोटी सी दुकान थी। 

उससे जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। 

चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। 

वह लोगों के सामने डींग हांका करता था।

एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। 

संत कह रहे थे, “दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता।यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। 

सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।”

सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा, “मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है। 

मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।”

संत बोले, “यह तुम्हारा भ्रम है। 

हर कोई अपने भाग्य का खाता है।

” इस पर मुखिया ने कहा, “आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए।” 

संत ने कहा, “ठीक है। 

तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ।

”उसने ऐसा ही किया। 

संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने अपना भोजन बना लिया है। 

मुखिया के परिवार वाले कई दिनों तकशोक संतप्त रहे। 

गांव वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए। 

एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। 

गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी। 

एक व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया। 

एक महीने बाद मुखिया छिपता - छिपाता रात के वक्त अपने घर आया। 

घर वालों ने भूत समझ कर दरवाजा नहीं खोला। 

जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही उत्तर दिया, ‘हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। 

अब हम पहले से ज्यादा सुखी हैं।’

उस व्यक्ति का सारा अभिमान चूर - चूर हो गया। 

संसार किसी के लिए भी नही रुकता!!

तभी तो यहाँ सभी के बिना काम चल सकता है संसार सदा से चला आ रहा है और चलता रहेगा। 

जगत को चलाने की हाम भरने वाले बडे बडे सम्राट, मिट्टी हो गए, जगत उनके बिना भी चला है। 

इसलिए अपने बल का, अपने धन का, अपने कार्यों का, अपने ज्ञान का गर्व व्यर्थ है। 

सेवा, समर्पण और भक्ति सर्वोपरी है ।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 

( द्रविड़ ब्राह्मण )

🙏🙏🙏 जय श्री कृष्णा 🙏🙏🙏 

🙏🙏🙏 जय द्वारकाधीश 🙏🙏🙏