कार्तिक मास महात्मय :
कार्तिक मास महात्मय प्रथम अध्याय :
भगवान नारायण के शयन और प्रबोधन से चातुर्मास्य का प्रारम्भ और समापन होता है उत्तरायण को देवकाल और दक्षिणायन को आसुरिकाल माना जाता है....!
दक्षिणायन में सत्गुणों के क्षरण से बचने और बचाने के लिए हमारे शास्त्रों में व्रत और तप का विधान है...!
सूर्य का कर्क राशि पर आगमन दक्षिणायन का प्रारम्भ माना जाता है और कातिक मास इस अवधि में ही होता है पुराण आदि शास्त्रों में कार्तिक मास का विशेष महत्व है....!
यूँ तो हर मास का अलग अलग महत्व है परन्तु व्रत, तप की दृष्टि से कार्तिक मास की महता अधिक है..!
वैदिक शास्त्रों में भगवान विष्णु और विष्णु तीर्थ के ही समान कर्तिक् मास को श्रेष्ट और दुर्लभ कहा गया है शास्त्रों में ये मास परम कल्याणकारी कहा गया है।
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सूर्य भगवान जब तुला राशि पर आते है तो कार्तिक मास का प्रारम्भ होता है इस मास का माहत्म्य पद्मपुराण तथा स्कन्दपुराण में विस्तार पूर्वक मिलता है।
कलियुग में कार्तिक मास को मोक्ष के साधन के रूप में दर्शाया गया है इस मास को धर्म,अर्थ काम और मोक्ष को देने वाला बताया गया है...!
नारायण भगवान ने स्वयं इसे ब्रम्हा को, ब्रम्हा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को कार्तिक मास के सर्वगुण सम्पन्न माहात्म्य के संदर्भ में बताया है।
इस संसार में प्रतेयक मनुष्य सुख शांति और परम आनंद की कामना करता है....!
परन्तु प्रश्न यह है की दुखों से मुक्ति कैसे मिले?
इसके लिए हमारे वैदिक शास्त्रों में कई प्रकार उपाय बताए गए है परन्तु कार्तिक मास की महिमा अत्यंत उच्च बताई गयी है।
इस मास का महात्म्य पढ़ने सुनने से भी कोटि यज्ञ का फल सहज मिल जाता है....!
इसी लिये हम आज से सनातन प्रेमी पाठकगण के लिये प्रतिदिन कार्तिक माहात्म्य के एक अध्याय का प्रेषण करेंगे...!
कार्तिक माहात्म्य पहला अध्याय :
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मैं सिमरूँ माता शारदा, बैठे जिह्वा आये।
कार्तिक मास की कथा, लिखे ‘कमल’ हर्षाये।।
नैमिषारण्य तीर्थ में श्रीसूतजी ने अठ्ठासी हजार शौनकादि ऋषियों से कहा – अब मैं आपको कार्तिक मास की कथा विस्तारपूर्वक सुनाता हूँ....!
जिसका श्रवण करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त समय में वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति होती है।
सूतजी ने कहा – श्रीकृष्ण जी से अनुमति लेकर देवर्षि नारद के चले जाने के पश्चात सत्यभामा प्रसन्न हो कर भगवान कृष्ण से बोली – हे प्रभु! मैं धन्य हुई, मेरा जन्म सफल हुआ...!
मुझ जैसी त्रौलोक्य सुन्दरी के जन्मदाता भी धन्य हैं...!
जो आपकी सोलह हजार स्त्रियों के बीच में आपकी परम प्यारी पत्नी बनी...!
मैंने आपके साथ नारद जी को वह कल्पवृक्ष आदिपुरुष विधि पूर्वक दान में दिया....!
परन्तु वही कल्पवृक्ष मेरे घर लहराया करता है. यह बात मृत्युलोक में किसी स्त्री को ज्ञात नहीं है....!
हे त्रिलोकीनाथ! मैं आपसे कुछ पूछने की इच्छुक हूँ....!
आप मुझे कृपया कार्तिक माहात्म्य की कथा विस्तारपूर्वक सुनाइये जिसको सुनकर मेरा हित हो और जिसके करने से कल्पपर्यन्त भी आप मुझसे विमुख न हों।
सूतजी आगे बोले – सत्यभामा के ऎसे वचन सुनकर श्रीकृष्ण ने हँसते हुए सत्यभामा का हाथ पकड़ा और अपने सेवकों को वहीं सुकने के लिए कहकर विलासयुक्त अपनी पत्नी को कल्पवृक्ष के नीचे ले गये फिर हंसकर बोले – हे प्रिये! सोलह हजार रानियों में से तुम मुझे प्राणों के समान प्यारी हो...!
तुम्हारे लिए मैंने इन्द्र एवं देवताओं से विरोध किया था...!
हे कान्ते! जो बात तुमने मुझसे पूछी है, उसे सुनो।
एक दिन मैंने ( श्रीकृष्ण ) तुम्हारी ( सत्यभामा ) इच्छापूर्ति के लिए गरुड़ पर सवार होकर इन्द्रलोक जाकर कल्पवृक्ष मांगा....!
इन्द्र द्वारा मना किये जाने पर इन्द्र एवं गरुड़ में घोर संग्राम हुआ और गौ लोक में भी गरुड़ जी गौओं से युद्ध किया....!
गरुड़ की चोंच की चोट से उनके कान एवं पूंछ कटकर गिरने लगे जिससे तीन वस्तुएँ उत्पन्न हुई....!
कान से तम्बाकू, पूँछ से गोभी और रक्त से मेहंदी बनी. इन तीनों का प्रयोग करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता तब गौओं ने भी क्रोधित होकर गरुड़ पर वार किया जिससे उनके तीन पंख टूटकर गिर गये....!
इनके पहले पंख से नीलकण्ठ, दूसरे से मोर और तीसरे से चकवा - चकवी उत्पन्न हुए...!
हे प्रिये! इन तीनों का दर्शन करने मात्र से ही शुभ फल प्राप्त हो जाता है।
यह सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो!
कृपया मुझे मेरे पूर्व जन्मों के विषय में बताइए कि मैंने पूर्व जन्म में कौन - कौन से दान, व्रत व जप नहीं किए हैं...!
मेरा स्वभाव कैसा था...!
मेरे जन्मदाता कौन थे और मुझे मृत्युलोक में जन्म क्यों लेना पड़ा....!
मैंने ऎसा कौन सा पुण्य कर्म किया था जिससे मैं आपकी अर्द्धांगिनी हुई?
श्रीकृष्ण ने कहा – हे प्रिये! अब मै तुम्हारे द्वारा पूर्व जन्म में किये गये पुण्य कर्मों को विस्तारपूर्वक कहता हूँ....!
उसे सुनो. पूर्व समय में सतयुग के अन्त में मायापुरी में अत्रिगोत्र में वेद - वेदान्त का ज्ञाता देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण निवास करता था....!
वह प्रतिदिन अतिथियों की सेवा, हवन और सूर्य भगवान का पूजन किया करता था....!
वह सूर्य के समान तेजस्वी था. वृद्धावस्था में उसे गुणवती नामक कन्या की प्राप्ति हुई....!
उस पुत्रहीन ब्राह्मण ने अपनी कन्या का विवाह अपने ही चन्द्र नामक शिष्य के साथ कर दिया....!
वह चन्द्र को अपने पुत्र के समान मानता था और चन्द्र भी उसे अपने पिता की भाँति सम्मान देता था।
एक दिन वे दोनों कुश व समिधा लेने के लिए जंगल में गये....!
जब वे हिमालय की तलहटी में भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें एक राक्षस आता हुआ दिखाई दिया...!
उस राक्षस को देखकर भय के कारण उनके अंग शिथिल हो गये और वे वहाँ से भागने में भी असमर्थ हो गये तब उस काल के समान राक्षस ने उन दोनों को मार डाला...!
चूंकि वे धर्मात्मा थे इसलिए मेरे पार्षद उन्हें मेरे वैकुण्ठ धाम में मेरे पास ले आये....!
उन दोनों द्वारा आजीवन सूर्य भगवान की पूजा किये जाने के कारण मैं दोनों पर अति प्रसन्न हुआ।
गणेश जी, शिवजी, सूर्य व देवी – इन सबकी पूजा करने वाले मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है....!
मैं एक होता हुआ भी काल और कर्मों के भेद से पांच प्रकार का होता हूँ....!
जैसे – एक देवदत्त, पिता, भ्राता, आदि नामों से पुकारा जाता है...!
जब वे दोनों विमान पर आरुढ़ होकर सूर्य के समान तेजस्वी, रूपवान, चन्दन की माला धारण किये हुए मेरे भवन में आये तो वे दिव्य भोगों को भोगने लगे।
शेष जारी...
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कार्तिक मास माहात्म्य कथा अध्याय-2
✍एस्ट्रो•पंडारामा राज्यगुरु प्रभु वोरीया 📿वैदिक कर्मकाण्ड़ शास्त्र,वैदिक ज्यॊतिष शास्त्र,रूद्राक्ष-रत्न
🥫माई रिचार्य आयुर्वॆदा सलाहकार
भगवान श्रीकृष्ण ने आगे कहा हे प्रिये! जब गुणवती को राक्षस द्वारा अपने पति और पिता के मारे जाने का समाचार मिला तो वह विलाप करने लगी, कहने लगी हा नाथ! हा पिता!
मुझे त्यागकर तुम कहां चले गये?
अब मैं अकेली स्त्री क्या करूं?
अब मेरे भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था कौन करेगा।
मैं कुछ भी नहीं कर सकती, मुझ विधवा की रक्षा कौन करेगा, मैं कहां जाऊं?
मेरे पास तो रहने के लिए भी कोई जगह नहीं है।
इस प्रकार विलाप करते हुए गुणवती धरती पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई।
बहुत देर बाद जब उसे होश आया तो वह फिर से करुण विलाप करते हुए शोक सागर में डूब गई।
जब कुछ समय के बाद जब वह संभली तो उसे ध्यान आया कि पिता और पति की मुझे क्रिया करनी चाहिए जिससे उनकी गति हो सके।
इस के बाद उसने अपने घर का सारा सामान बेच दिया और उससे प्राप्त धन से पिता और पति का श्राद्ध आदि कर्म किया।
बाद में वह उसी नगर में रहते हुए आठों पहर भगवान विष्णु की भक्ति करने लगी।
उसने नियमपूर्वक सभी एकादशियों का व्रत और कार्तिक महीने में उपवास और व्रत किये।
हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं।
इस व्रत को नियम पूर्वक करने से मुक्ति, भुक्ति, पुत्र और सम्पत्ति प्राप्त होती है।
कार्तिक मास में जब सूर्य तुला राशि पर आता है तब ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करने और व्रत व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं क्योंकि यदि उन्होंने पाप भी किये हों तो भी कार्तिक स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष मिल जाता है।
कार्तिक के महीने में स्नान, जागरण, दीपदान और तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु के समान माने गए हैं।
कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वस्तिक बनाने वाले और भगवान विष्णु की पूजा करने वाले मनुष्य इस जन्म - मरण के चक्कर से छुटकारा पा लाते हैं।
यह सुनकर गुणवती भी हर साल श्रद्धापूर्वक कार्तिक का व्रत और भगवान विष्णु की पूजा करने लगी।
हे प्रिये! एक बार उसे ज्वर हो गया और वह बहुत कमजोर हो गई फिर भी वह किसी प्रकार गंगा स्नान के लिए चली गई।
वह गंगा तक तो पहुंच गई लेकिन ठंड के कारण वह बुरी तरह से कांप रही थी...!
इस कारण वह शिथिल हो गई तब मेरे ( भगवान विष्णु ) दूत उसे मेरे धाम में ले आये।
बाद में जब मैंने कृष्ण का अवतार लिया तो मेरे गण भी मेरे साथ इस पृथ्वी पर आये जो इस समय यादव हैं।
तुम्हारे पिता पूर्वजन्म में देवशर्मा थे तो इस समय सत्राजित हैं।
पूर्वजन्म में चन्द्र शर्मा जो तुम्हारा पति था, वह डाकू है और हे देवि! तू ही वह गुणवती है।
कार्तिक व्रत के प्रभाव के कारण ही तू मेरी अर्द्धांगिनी हुई है।
पूर्व जन्म में तुमने मेरे मन्दिर के द्वार पर तुलसी का पौधा लगाया था।
इस समय वह तेरे महलों के आंगन में कल्पवृक्ष के रुप में विद्यमान है।
उस जन्म में जो तुमने दीपदान किया था उसी कारण तुम्हारी देह इतनी सुन्दर है और तुम्हारे घर में साक्षात लक्ष्मी का वास है।
चूंकि तुमने पूर्वजन्म में अपने सभी व्रतों का फल पतिस्वरुप विष्णु को अर्पित किया था उसी के प्रभाव से इस जन्म में तुम मेरी प्रिय पत्नी हुई हो।
पूर्वजन्म में तुमने नियम पूर्वक जो कार्तिक मास का व्रत किया था उसी के कारण मेरा और तुम्हारा कभी वियोग नहीं होगा।
इस प्रकार कार्तिक मास में व्रत आदि करने वाले मनुष्य मुझे तुम्हारे समान प्रिय हैं।
दूसरे जप तप, यज्ञ, दान आदि करने से प्राप्त फल कार्तिक मास में किये गये व्रत के फल से बहुत थोड़ा होता है और कार्तिक मास के व्रतों का सोलहवां भाग भी नहीं होता है।
इस प्रकार सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से अपने पूर्वजन्म के पुण्य का प्रभाव सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं।
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कार्तिक मास माहात्म्य कथा: अध्याय 3
✍एस्ट्रो•पंडारामा राज्यगुरु प्रभु वोरीया 📿वैदिक कर्मकाण्ड़ शास्त्र ,वैदिक ज्यॊतिष शास्त्र ,रूद्राक्ष-रत्न
🥫माई रिचार्य आयुर्वॆदा सलाहकार
श्रीकृष्ण भगवान के चरणों मे शीश झुकावो |
श्रद्धा भाव से पुजो हरि, मनवांछित फल पाओ||
सत्यभामा ने कहा: हे प्रभो! आप तो सभी काल में व्यापक हैं और सभी काल आपके आगे एक समान हैं....!
फिर यह कार्तिक मास ही सभी मासों में श्रेष्ठ क्यों है?
आप सब तिथियों में एकादशी और सभी मासों में कार्तिक मास को ही अपना प्रिय क्यों कहते हैं?
इसका कारण बताइए।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे भामिनी! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है।
मैं तुम्हें इसका उत्तर देता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।
इसी प्रकार एक बार महाराज बेन के पुत्र राजा पृथु ने प्रश्न के उत्तर में देवर्षि नारद से प्रश्न किया था और जिसका उत्तर देते हुए....!
नारद जी ने उसे कार्तिक मास की महिमा बताते हुए कहा:
हे राजन! एक समय शंख नाम का एक राक्षस बहुत बलवान एवं अत्याचारी हो गया था।
उसके अत्याचारों से तीनों लोकों में त्राहि - त्राहि मच गई।
उस शंखासुर ने स्वर्ग में निवास करने वाले देवताओं पर विजय प्राप्त कर इन्द्रादि देवताओं एवं लोकपालों के अधिकारों को छीन लिया।
उससे भयभीत होकर समस्त देवता अपने परिवार के सदस्यों के साथ सुमेरु पर्वत की गुफाओं में बहुत दिनो तक छिपे रहे।
तत्पश्चात वे निश्चिंत होकर सुमेरु पर्वत की गुफाओं में ही रहने लगे।
उधर जब शंखासुर को इस बात का पता चला कि देवता आनन्दपूर्वक सुमेरु पर्वत की गुफाओं में निवास कर रहे हैं...!
तो उसने सोचा कि ऎसी कोई दिव्य शक्ति अवश्य है जिसके प्रभाव से अधिकारहीन यह देवता अभी भी बलवान हैं।
सोचते - सोचते वह इस निर्णय पर पहुंचा कि वेदमन्त्रों के बल के कारण ही देवता बलवान हो रहे हैं।
यदि इनसे वेद छीन लिये जाएँ तो वे बलहीन हो जाएंगे। ऎसा विचारकर शंखासुर ब्रह्माजी के सत्यलोक से शीघ्र ही वेदों को हर लाया।
उसके द्वारा ले जाये जाते हुए भय से उसके चंगुल से निकल भागे और जल में समा गये।
शंखासुर ने वेदमंत्रों तथा बीज मंत्रों को ढूंढते हुए सागर में प्रवेश किया परन्तु न तो उसको वेद मंत्र मिले और ना ही बीज मंत्र।
जब शंखासुर सागर से निराश होकर वापिस लौटा तो उस समय ब्रह्माजी पूजा की सामग्री लेकर सभी देवताओं के साथ भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे और भगवान को गहरी निद्रा से जगाने के लिए गाने-बजाने लगे और धूप - गन्ध आदि से बारम्बार उनका पूजन करने लगे।
धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित किये जाने पर भगवान की निद्रा टूटी और वह देवताओं सहित ब्रह्माजी को अपना पूजन करते हुए देखकर बहुत प्रसन्न हुए..!
तथा कहने लगे: मैं आप लोगों के इस कीर्तन एवं मंगलाचरण से बहुत प्रसन्न हूँ।
आप अपना अभीष्ट वरदान मांगिए, मैं अवश्य प्रदान करुंगा।
जो मनुष्य आश्विन शुक्ल की एकादशी से देवोत्थान एकादशी तक ब्रह्ममुहूर्त में उठकर मेरी पूजा करेंगे उन्हें तुम्हारी ही भाँति मेरे प्रसन्न होने के कारण सुख की प्राप्ति होगी।
आप लोग जो पाद्य, अर्ध्य, आचमन और जल आदि सामग्री मेरे लिए लाए हैं वे अनन्त गुणों वाली होकर आपका कल्याण करेगी।
शंखासुर द्वारा हरे गये सम्पूर्ण वेद जल में स्थित हैं।
मैं सागर पुत्र शंखासुर का वध कर के उन वेदों को अभी लाए देता हूँ।
आज से मंत्र - बीज और वेदों सहित मैं प्रतिवर्ष कार्तिक मास में जल में विश्राम किया करुंगा।
अब मैं मत्स्य का रुप धारण करके जल में जाता हूँ।
तुम सब देवता भी मुनीश्वरों सहित मेरे साथ जल में आओ।
इस कार्तिक मास में जो श्रेष्ठ मनुष्य प्रात:काल स्नान करते हैं वे सब यज्ञ के अवभृथ - स्नान द्वारा भली - भाँति नहा लेते हैं।
हे देवेन्द्र! कार्तिक मास में व्रत करने वालों को सब प्रकार से धन, पुत्र - पुत्री आदि देते रहना और उनकी सभी आपत्तियों से रक्षा करना।
हे धनपति कुबेर! मेरी आज्ञा के अनुसार तुम उनके धन - धान्य की वृद्धि करना क्योंकि इस प्रकार का आचरण करने वाला मनुष्य मेरा रूप धारण कर के जीवनमुक्त हो जाता है।
जो मनुष्य जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त विधिपूर्वक इस उत्तम व्रत को करता है, वह आप लोगों का भी पूजनीय है।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को तुम लोगों ने मुझे जगाया है इस लिए यह तिथि मेरे लिए अत्यन्त प्रीतिदायिनी और माननीय है।
हे देवताओ! यह दोनों व्रत नियमपूर्वक करने से मनुष्य मेरा सान्निध्य प्राप्त कर लेते हैं।
इन व्रतों को करने से जो फल मिलता है वह अन्य किसी व्रत से नहीं मिलता।
अत: प्रत्येक मनुष्य को सुखी और निरोग रहने के लिए कार्तिक माहात्म्य और एकादशी की कथा सुनते हुए उपर्युक्त नियमों का पालन करना चाहिए।
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कार्तिक माह महात्म्य – दूसरा अध्याय :
सिमर चरण गुरुदेव के, लिखूं शब्द अनूप।
कृपा करें भगवान, सतचितआनन्द स्वरूप।।
भगवान श्रीकृष्ण आगे बोले – हे प्रिये! जब गुणवती को राक्षस द्वारा अपने पति एवं पिता के मारे जाने का समाचार मिला तो वह विलाप करने लगी – हा नाथ! हा पिता! मुझको त्यागकर तुम कहां चले गये?
मैं अकेली स्त्री, तुम्हारे बिना अब क्या करूँ?
अब मेरे भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था कौन करेगा. घर में प्रेमपूर्वक मेरा पालन - पोषण कौन करेगा? मैं कुछ भी नहीं कर सकती, मुझ विधवा की कौन रक्षा करेगा, मैं कहां जाऊँ?
मेरे पास तो अब कोई ठिकाना भी नहीं रहा. इस प्रकार विलाप करते हुए गुणवती चक्कर खाकर धरती पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई...!
बहुत देर बाद जब उसे होश आया तो वह पहले की ही भाँति करुण विलाप करते हुए शोक सागर में डूब गई....!
कुछ समय के पश्चात जब वह संभली तो उसे ध्यान आया कि पिता और पति की मृत्यु के बाद मुझे उनकी क्रिया करनी चाहिए....!
जिससे उनकी गति हो सके इस लिए उसने अपने घर का सारा सामान बेच दिया और उससे प्राप्त धन से उसने अपने पिता एवं पति का श्राद्ध आदि कर्म किया....!
तत्पश्चात वह उसी नगर में रहते हुए आठों पहर भगवान विष्णु की भक्ति करने लगी...!
उसने मृत्युपर्यन्त तक नियमपूर्वक सभी एकादशियों का व्रत और कार्तिक महीने में उपवास एवं व्रत किये।
हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं....!
इन से मुक्ति,भुक्ति, पुत्र तथा सम्पत्ति प्राप्त होती है...!
कार्तिक मास में जब तुला राशि पर सूर्य आता है तब ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करने व व्रत व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं...!
क्योंकि यदि उन्होंने पाप भी किये हों तो भी स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है....!
कार्तिक में स्नान, जागरण, दीपदान तथा तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु के समान है....!
कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वस्तिक बनाने वाले तथा भगवान विष्णु की पूजा करने वाले मनुष्य जन्म - मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं।
यह सुनकर गुणवती भी प्रतिवर्ष श्रद्धापूर्वक कार्तिक का व्रत और भगवान विष्णू की पूजा करने लगी....!
हे प्रिये! एक बार उसे ज्वर हो गया और वह बहुत कमजोर भी हो गई फिर भी वह किसी प्रकार गंगा स्नान के लिए चली गई....!
गंगा तक तो वह पहुंच गई परन्तु शीत के कारण वह बुरी तरह से कांप रही थी...!
इस कारण वह शिथिल हो गई तब मेरे ( भगवान विष्णु ) दूत उसे मेरे धाम में ले आये. तत्पश्चात ब्रह्मा आदि देवताओं की प्रार्थना पर जब मैंने कृष्ण का अवतार लिया तो मेरे गण भी मेरे साथ इस पृथ्वी पर आये जो इस समय यादव हैं...!
तुम्हारे पिता पूर्वजन्म में देवशर्मा थे तो इस समय सत्राजित हैं....!
पूर्वजन्म में चन्द्र शर्मा जो तुम्हारा पति था...!
वह डाकू है और हे देवि! तू ही वह गुणवती है....!
कार्तिक व्रत के प्रभाव के कारण ही तू मेरी अर्द्धांगिनी हुई है।
पूर्व जन्म में तुमने मेरे मन्दिर के द्वार पर तुलसी का पौधा लगाया था....!
इस समय वह तेरे महलों के आंगन में कल्पवृक्ष के रुप में विद्यमान है....!
उस जन्म में जो तुमने दीपदान किया था उसी कारण तुम्हारी देह इतनी सुन्दर है और तुम्हारे घर में साक्षात लक्ष्मी का वास है।
चूंकि तुमने पूर्वजन्म में अपने सभी व्रतों का फल पतिस्वरुप विष्णु को अर्पित किया था उसी के प्रभाव से इस जन्म में तुम मेरी प्रिय पत्नी हुई हो पूर्वजन्म में तुमने नियमपूर्वक जो कार्तिक मास का व्रत किया था उसी के कारण मेरा और तुम्हारा कभी वियोग नहीं होगा....!
इस प्रकार कार्तिक मास में व्रत आदि करने वाले मनुष्य मुझे तुम्हारे समान प्रिय हैं....!
दूसरे जप तप, यज्ञ, दान आदि करने से प्राप्त फल कार्तिक मास में किये गये व्रत के फल से बहुत थोड़ा होता है....!
अर्थात कार्तिक मास के व्रतों का सोलहवां भाग भी नहीं होता है।
इस प्रकार सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से अपने पूर्वजन्म के पुण्य का प्रभाव सुनकर बहुत प्रसन्न हुई।
जय श्री कृष्णा🌷🙏

