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Wednesday, May 21, 2025

श्री हरि सखियों के श्याम

श्रीहरि सखियों के श्याम


श्रीहरि सखियों के श्याम


पिछले भाग 18.1 में आया—

 ...............चंद्रावली सखी अपने कुलदेवी की पूजन के लिए पानी लेने के लिए घड़े भरने यमुना तट पर आई थी। श्याम सुंदर ने उनका घड़ा फोड़ दिया। 

अब यशोदा मैया श्यामसुंदर को बरसाने भेजते हैं उनके कुलदेवी से क्षमा मंगवाने के लिए, पूजा करवाने के लिए इस अपराध से क्षमा के लिए।............

अब आगे........



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'अरी इला ! इधर सुन तो। — मैं समीप जाकर खड़ी हुई तो चंद्रावली जीजीने कहा—'बहिन! तनिक जाकर किशोरीजी और सखियोंसे कहना एक नयी सखी देवीकी पूजा करने आयी है। अतः सारी पूजन सामग्री लेकर गिरिराज जू के समीप निकुंज – मंदिरमें पहुंच जाय!' 

फिर कानमें बोली- 'श्यामसुंदरके लिये लहँगा-फरिया भी लेती आना।'

मैंने हँसकर श्यामसुंदरकी ओर देखा और चल पड़ी बरसानेकी ओर।

'राका! सुन बहिन!"

'क्या कहती है जीजी! आज स्याम जू तुम्हारे साथ बंधे हुएसे कैसे चले जा रहे हैं?'

'सो सब बादमें सुन लेना, अभी तो तुम जाकर सब सखियोंको समाचार दे दो कि सब गिरिराज–निकुंजमें पहुँच जायँ।'

 'क्यों सखी! सबका वहाँ क्या काम है? पूजा तो मैं करूँगा और तू करवायेगी। इन सबको वहाँ बुलाकर क्या करोगी?' – श्यामसुंदरने पूछा।

 तुम तो गंवार-के-गंवार ही रहे कान्ह जू ! पूजा कई प्रकारकी होती है- पंचोपचार षोडशोपचार, राजोपचार और महाराजोपचार । तुम जो धूपदीप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्पसे पूजा करते हो वह तो साधारण पूजा है। हमारे यहाँ तो सदा महाराजोपचार पूजा होती है; ऐसी तो तुमने कब कहाँ देखी होगी? अपना भाग्य आज खुल गया समझो!'

'अच्छा सखी! मेरा भाग्य खुलनेसे क्या होगा ?"

'भाग्य खुलनेसे सब इच्छायें पूरी हो जाती हैं।'

 'सच सखी! तब तो तू मुझसे सम्राटोपचार पूजा करा ले; तेरे पाँव

पडूँ सखी।'

'तुम्हारा ऐसा कौन-सा कार्य अटका पड़ा है श्यामसुंदर! जिसके लिये इतनी चिरौरी कर रहे हो ?"

 'सखी! मेरा ब्याह नहीं हो रहा। भद्रका, विशालका, अर्जुनका; मेरे

बहुतसे सखाओंके एक नहीं, कई-कई विवाह हो चुके! किंतु मेरा तो अबतक एकभी विवाह नहीं हुआ। मैया कहती है-गोपियाँ तुझे चोर, लबार कहती है, इसीसे कोई बेटी नहीं देता।' 

'तो ऐसा करना, जब पूजा परिक्रमा करके प्रणाम करो, उस समय अपनी अभिलाषा देवीसे निवेदन कर देना। 

उस समय कोई वहाँ न होगा। जिस छोरीसे विवाह करना हो उसका नाम भी निवेदन कर देना।

'यदि ऐसा हो जाय सखी! तो तेरा उपकार सदा स्मरण रखूँगा।'

'अहा! ऐसे ही तो सयाने हो न, चार दिनमें सब भूलकर मुँह चिढ़ाने लगोगे।'— चंद्रावली हँसकर बोलीं।

'नहीं सखी! जो तू कहे सो ही करूँ।"

'सच ?'

'सच सखी।'




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'तो सुनो श्यामसुंदर! तुम मुझसे ब्याह कर लो।' 

श्यामसुंदर एक बार दुविधामें पड़ ठिठके रह गये, फिर हँसकर बोले—

 'मेरी सगायी तो श्रीकिशोरीजीसे हुई है। किंतु सखी! भद्र दादाके तो सात विवाह हो गये हैं; अब दो-चार यदि मेरे भी हो जायँ तो क्या बुरा है ?'

श्यामसुंदर हमारे यहाँका नियम है कि देवीकी पूजा कोई पुरुष नहीं कर सकता।' — निकुंज-मंदिरमें जाकर चन्द्रावली जू ने कहा।

'तो सखी! यह बात तुझे पहले ज्ञात नहीं थी ? क्यों मुझे इतनी दूर तक दौड़ाया ? — श्याम जू ने निराश खेदयुक्त स्वरमें कहा।

"यह बात नहीं श्याम....!'

'तो दूसरी क्या बात थी सखी! क्या पहले मैं तुझे नारी दिखा था और यहाँ आकर पुरुष दिखने लगा हूँ?'- श्याम खीजकर बोले।

 'एक उपाय है।' 

चन्द्रावली जू सोचते हुए बोली- 'यदि तुम घाघरा फरिया पहन लो तो नारी वेष हो जायेगा, फिर कुछ दोष न रहेगा।'

 'मैं लुगायी बनूँगा ? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा!'- श्याम खिसियाते हुए बोले ।

'देखो श्यामसुंदर! देवीका कोप उतरेगा तो तुम्हारा जन्मभर ब्याह नहीं होगा। कौन देखनेवाला है यहाँ, तुम जानो कि हम। देवीके वरदान से जिससे चाहो विवाह कर सकोगे। अब तुम्हें जो सोच-विचार करना हो शीघ्र कर लो। मुझे देर हो रही है, मैया डाँटेगी मुझको।'

श्यामसुंदर कुछ क्षण विचार करते रहे फिर बोले- 'अच्छा सखी! जैसा यहाँका नियम हो वैसा कर, पूजामें कोई दोष नहीं रहना चाहिये।'

श्यामसुंदरको लहँगा चोली और फरिया पहनाकर चन्द्रावली जू उन्हें दूसरे कक्षमें ले गयी। वहाँ सब सखियाँ पूजाकी तैयार कर रही थी। इन दोनोंको देखकर सब समीप आ गयी—'अरी सखी! यह साँवरी सखी तो बड़ी सलोनी है, किस गोपकी बेटी है यह? क्या नाम है? कोई पाहुनी है क्या ?'

इस प्रकारके अनेक प्रश्न सुनकर चन्द्रावली जी हँसकर बोली- 

'हाँ सखी! यह पाहुनी है, नाम साँवरी सखी है। आज देवीका पूजन यही करेगी, तुम सब सावधानीसे सहायता करो। इसके पश्चात् साँवरी सखीकी बाँह पकड़कर कहा–

‘चल तुझे श्रीकिशोरी जू के समीप ले चलूँ। देख, तू गाँव की गंवार है। राजा-महाराजाओंसे भला तुझे कब काम पड़ा होगा? 

वहाँ जानेपर भली-भाँति पृथ्वीपर सिर रखकर, फिर चरण छूकर प्रणाम करना। समझी ? 

लट्ठकी भाँति खड़ी मत रह जाना! 

वे हमारी राजकुमारी है।

श्यामसुंदरने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और सकुचाते हुए श्रीकिशोरीजी समीप पहुँचे। 

वेशकी लज्जा और दर्शनके आनन्दसे उनके पाँव डगमगा रहे थे। श्रीकिशोरी जू माला गूँथ रही थी, साँवरी सखीने प्रणाम किया तो चंद्रावली जू से मधुर स्वरमें पूछा- 

'यह कौन है जीजी ?'

'पाहुनी है! नाम साँवरी सखी है।'- चंद्रावली जू ने हँसकर कहा। 

जब साँवरी सखीने प्रणामकर सिर उठाया तो दोनोंकी दृष्टि दौड़कर आलिङ्गनबद्ध होकर अपना आया खो बैठी।

'यह देवीका पूजन करने आयी है बहिन!'- चंद्रावली जूने सचेत करते हुए कहा- 

'पूजाके पश्चात दोनों भली प्रकार देख लेना एक दूसरी को।' 

सब उठकर मंदिरमें गयी। देवी गिरिजाको सबने प्रणाम किया और पूजा आरम्भ कर दी। 

सखियाँ सामग्री ला लाकर रख रही थी। 

ललिता और विशाखा उनमें से क्रमश: प्रथम प्रयुक्त होनेवाली वस्तुको किशोरीजीके समीप सरका देती और किशोरीजी निर्देश देते हुए साँवरी सखीको दे रही थी। 

चन्द्रावलीजी विधि बता रही थी और बहुत सी सखियाँ मंगल गा रही थी। 

एक प्रहर भर पूजा चली, नैवेद्यके पश्चात परिक्रमा और कुसुमाञ्जली अर्पण कर साँवरी सखीने प्रणाम करते हुए नयन मूँद हाथ जोड़े।

'देवीका ध्यान करके अपनी अभिलाषा निवेदन करो।'— चंद्रावलीजीने कहा- 

'जो तुम मन, वचन और कर्मसे एकाग्र होकर प्रार्थना करोगी तो देवी तुरंत इच्छा पूरी करेंगी।'

'अच्छा सखी! अब देवीके सम्मुख नृत्य प्रदर्शित करो।' 

श्यामसुंदरने विवशतापूर्ण दृष्टिसे चन्द्रावलीजीकी ओर देखा ।

'हाँ सखी! यह भी पूजाका ही अंग है, तुम चिंता छोड़ो; वाद्य हम बजा देंगी।' विवश साँवरी सखी उठ खड़ी हुई।

किशोरीजी एक उच्चासनपर विराजित हुई और अन्य सखियाँ उनके दायें बायें बैठ गयी। 

ललिता और विशाखा देवी पर चँवर डुला रही थी। 

आठ-दस सखियाँ वाद्य लिये संकेतकी प्रतिक्षा कर रही थी। 

साँवरी सखीने पाँव ठुमकाकर ताल और गुनगुनाकर राग बताया, वाद्य मुखर हो उठे।

जय जय जय हर प्रिया गौरी।

जय षडवदन गजानन माता जगजननी अति भोरी ॥ 

महिमा अमित अनन्त तिहारी मोरी मति गति कोरी।

आयी सरन जानि जगदम्बा, पुरौ अभिलाषा मोरी ॥

नृत्य-गायनके बीच किसीको तन-मनकी सुध नहीं रही। 

साँवरी सखी जैसे ही पुनः देवीको प्रणाम कर उठी, श्रीकिशोरीजीने लड़खड़ाते पदोंसे उठकर उसे हृदयसे लगा लिया और मुखसे बरबस निकल पड़ा— 'श्यामसुंदर.... !"




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यही दशा साँवरी सखीकी हुई। 

उसके मुखसे भी धीमा उच्छ्वास मुखरित हुआ— 'राधे.... !

' दोनोंके मन एक-दूसरेमें गंगा-यमुनाकी भांति मिलकर अपनी पहचान खो बैठे। 

सखियाँ चित्र लिखी-सी देखती रहीं।

अच्छा सखी! तुम सब राधा बहिनके साथ बैठो, मैं इस पाहुनीको विदा करके आती हूँ ?'

'जीजी!' श्रीकिशोरीजी अनुनय भरे स्वरमें बोली-'भला इतनी शीघ्रता क्या है विदा करने की ?

 कल विदा कर देना, अभी कुछ बात भी नहीं हुई ! 

ऐसा अवसर फिर न जाने कब आये। मैंने तो इतने बरसोंमें आज ही दर्शन किये हैं, आज इसे यही रहने दो न ?"

'बहिन! इसे विलम्ब हो रहा है, देवीकी पूजा करनेको ही आज इसकी मैयाने भेजा है। 

देवीकी कृपा रही तो ऐसे अवसर अब आते ही रहेंगे। 

अपनी मैयाके यह एक ही लाली है, वह बाट तकती होगी। आज जाने दो; अबकी बार उसे जताकर लाऊँगी। यह फिर आ जायेगी।'

 'जीजी! इसका नृत्य, इसका गायन मेरे अंतरमें समा गया है, न जाने क्यों बिछड़ने की बातसे ही हृदय टूटा पड़ता है। 

अच्छा बहिन! जा ही रही हो तो अपने श्रीमुखसे कुछ मधुर बात तो कहो, जिससे प्रान जुड़ायें।'

 'क्या कहूँ सखी।' श्यामसुंदर अपना सखीवेश भूलकर बोल पड़े — 'जो दशा तुम्हारी है, वहीं दशा मेरी भी है। 

तुम्हारे चरणोंको छोड़कर पथपर पद बढ़ते ही नहीं पर....' वाक्य अधूरा छोड़कर उनका गला रूँध गया।

शतशत सखियोंके साथ ही श्रीकिशोरीजीके चकित दृग ऊपर उठे और आनंद विह्वल कंठसे अस्पष्ट वाणी फूटी — श्सुंयामसुंदर....!'

'श्री राधे....!' — वैसी ही गद्गद वाणी कान्ह जू के कंठसे निकली। 

दो क्षण पश्चात् चंद्रावली जू सचेत होकर हँस पड़ी—

'श्याम जू! इतना भी ढाँढ़स नहीं रहा ?' 

उनकी बात सुन सब सखियाँ हँस दी। 

श्री जू के नयन नीचे हो गये और श्यामसुंदर सकुचाकर चंद्रावलीजीका मुख देखने लगे।

जय श्री राधे.........

सखियों के श्याम (भाग 18.2)

(तुव अधीन सदा हौं तो हे श्रीराधे प्राणाधार)

पिछले भाग 18.1 में आया—

 ...............चंद्रावली सखी अपने कुलदेवी की पूजन के लिए पानी लेने के लिए घड़े भरने यमुना तट पर आई थी। 

श्याम सुंदर ने उनका घड़ा फोड़ दिया। 

अब यशोदा मैया श्यामसुंदर को बरसाने भेजते हैं उनके कुलदेवी से क्षमा मंगवाने के लिए, पूजा करवाने के लिए इस अपराध से क्षमा के लिए।............

अब आगे........ 

'अरी इला ! 

इधर सुन तो। — मैं समीप जाकर खड़ी हुई तो चंद्रावली जीजीने कहा—'बहिन! तनिक जाकर किशोरीजी और सखियोंसे कहना एक नयी सखी देवीकी पूजा करने आयी है। 

अतः सारी पूजन सामग्री लेकर गिरिराज जू के समीप निकुंज – मंदिरमें पहुंच जाय!' 

फिर कानमें बोली- 'श्यामसुंदरके लिये लहँगा-फरिया भी लेती आना।'

मैंने हँसकर श्यामसुंदरकी ओर देखा और चल पड़ी बरसानेकी ओर।

'राका! सुन बहिन!"

'क्या कहती है जीजी! आज स्याम जू तुम्हारे साथ बंधे हुएसे कैसे चले जा रहे हैं?'

'सो सब बादमें सुन लेना, अभी तो तुम जाकर सब सखियोंको समाचार दे दो कि सब गिरिराज–निकुंजमें पहुँच जायँ।'

 'क्यों सखी! सबका वहाँ क्या काम है? पूजा तो मैं करूँगा और तू करवायेगी। 

इन सबको वहाँ बुलाकर क्या करोगी?' – श्यामसुंदरने पूछा।

 तुम तो गंवार-के-गंवार ही रहे कान्ह जू ! पूजा कई प्रकारकी होती है- पंचोपचार षोडशोपचार, राजोपचार और महाराजोपचार । 

तुम जो धूपदीप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्पसे पूजा करते हो वह तो साधारण पूजा है। 

हमारे यहाँ तो सदा महाराजोपचार पूजा होती है; ऐसी तो तुमने कब कहाँ देखी होगी? 

अपना भाग्य आज खुल गया समझो!'

'अच्छा सखी! मेरा भाग्य खुलनेसे क्या होगा ?"

'भाग्य खुलनेसे सब इच्छायें पूरी हो जाती हैं।'

 'सच सखी! तब तो तू मुझसे सम्राटोपचार पूजा करा ले; तेरे पाँव

पडूँ सखी।'

'तुम्हारा ऐसा कौन-सा कार्य अटका पड़ा है श्यामसुंदर! जिसके लिये इतनी चिरौरी कर रहे हो ?"

 'सखी! मेरा ब्याह नहीं हो रहा। भद्रका, विशालका, अर्जुनका; मेरे

बहुतसे सखाओंके एक नहीं, कई-कई विवाह हो चुके! किंतु मेरा तो अबतक एकभी विवाह नहीं हुआ। 
मैया कहती है-गोपियाँ तुझे चोर, लबार कहती है, इसीसे कोई बेटी नहीं देता।' 

'तो ऐसा करना, जब पूजा परिक्रमा करके प्रणाम करो, उस समय अपनी अभिलाषा देवीसे निवेदन कर देना। 

उस समय कोई वहाँ न होगा। जिस छोरीसे विवाह करना हो उसका नाम भी निवेदन कर देना।

'यदि ऐसा हो जाय सखी! तो तेरा उपकार सदा स्मरण रखूँगा।'

'अहा! ऐसे ही तो सयाने हो न, चार दिनमें सब भूलकर मुँह चिढ़ाने लगोगे।'— चंद्रावली हँसकर बोलीं।

'नहीं सखी! जो तू कहे सो ही करूँ।"

'सच ?'

'सच सखी।'
श्रीहरिः

सखियों के श्याम (भाग 18.2)

(तुव अधीन सदा हौं तो हे श्रीराधे प्राणाधार)

पिछले भाग 18.1 में आया—

 ...............चंद्रावली सखी अपने कुलदेवी की पूजन के लिए पानी लेने के लिए घड़े भरने यमुना तट पर आई थी। श्याम सुंदर ने उनका घड़ा फोड़ दिया। 

अब यशोदा मैया श्यामसुंदर को बरसाने भेजते हैं उनके कुलदेवी से क्षमा मंगवाने के लिए, पूजा करवाने के लिए इस अपराध से क्षमा के लिए।............

अब आगे........

'अरी इला ! इधर सुन तो। — मैं समीप जाकर खड़ी हुई तो चंद्रावली जीजीने कहा—'बहिन! तनिक जाकर किशोरीजी और सखियोंसे कहना एक नयी सखी देवीकी पूजा करने आयी है। 

अतः सारी पूजन सामग्री लेकर गिरिराज जू के समीप निकुंज – मंदिरमें पहुंच जाय!' 

फिर कानमें बोली- 'श्यामसुंदरके लिये लहँगा-फरिया भी लेती आना।'

मैंने हँसकर श्यामसुंदरकी ओर देखा और चल पड़ी बरसानेकी ओर।

'राका! सुन बहिन!"

'क्या कहती है जीजी! आज स्याम जू तुम्हारे साथ बंधे हुएसे कैसे चले जा रहे हैं?'

'सो सब बादमें सुन लेना, अभी तो तुम जाकर सब सखियोंको समाचार दे दो कि सब गिरिराज–निकुंजमें पहुँच जायँ।'

 'क्यों सखी! सबका वहाँ क्या काम है? 

पूजा तो मैं करूँगा और तू करवायेगी। 

इन सबको वहाँ बुलाकर क्या करोगी?' – श्यामसुंदरने पूछा।

तुम तो गंवार-के-गंवार ही रहे कान्ह जू ! 

पूजा कई प्रकारकी होती है- पंचोपचार षोडशोपचार, राजोपचार और महाराजोपचार । 

तुम जो धूपदीप, नैवेद्य, अक्षत, पुष्पसे पूजा करते हो वह तो साधारण पूजा है। 

हमारे यहाँ तो सदा महाराजोपचार पूजा होती है; ऐसी तो तुमने कब कहाँ देखी होगी? 

अपना भाग्य आज खुल गया समझो!'

'अच्छा सखी! मेरा भाग्य खुलनेसे क्या होगा ?"

'भाग्य खुलनेसे सब इच्छायें पूरी हो जाती हैं।'

 'सच सखी! तब तो तू मुझसे सम्राटोपचार पूजा करा ले; तेरे पाँव

पडूँ सखी।'

'तुम्हारा ऐसा कौन-सा कार्य अटका पड़ा है श्यामसुंदर! जिसके लिये इतनी चिरौरी कर रहे हो ?"

 'सखी! मेरा ब्याह नहीं हो रहा। भद्रका, विशालका, अर्जुनका; मेरे

बहुतसे सखाओंके एक नहीं, कई-कई विवाह हो चुके! किंतु मेरा तो अबतक एकभी विवाह नहीं हुआ। 
मैया कहती है-गोपियाँ तुझे चोर, लबार कहती है, इसीसे कोई बेटी नहीं देता।' 

'तो ऐसा करना, जब पूजा परिक्रमा करके प्रणाम करो, उस समय अपनी अभिलाषा देवीसे निवेदन कर देना। 

उस समय कोई वहाँ न होगा। जिस छोरीसे विवाह करना हो उसका नाम भी निवेदन कर देना।

'यदि ऐसा हो जाय सखी! तो तेरा उपकार सदा स्मरण रखूँगा।'

'अहा! ऐसे ही तो सयाने हो न, चार दिनमें सब भूलकर मुँह चिढ़ाने लगोगे।'— चंद्रावली हँसकर बोलीं।

'नहीं सखी! जो तू कहे सो ही करूँ।"

'सच ?'

'सच सखी।'

'तो सुनो श्यामसुंदर! तुम मुझसे ब्याह कर लो।' 

श्यामसुंदर एक बार दुविधामें पड़ ठिठके रह गये, फिर हँसकर बोले—

 'मेरी सगायी तो श्रीकिशोरीजीसे हुई है। किंतु सखी! भद्र दादाके तो सात विवाह हो गये हैं; अब दो-चार यदि मेरे भी हो जायँ तो क्या बुरा है ?'

श्यामसुंदर हमारे यहाँका नियम है कि देवीकी पूजा कोई पुरुष नहीं कर सकता।' — निकुंज-मंदिरमें जाकर चन्द्रावली जू ने कहा।

'तो सखी! यह बात तुझे पहले ज्ञात नहीं थी ? क्यों मुझे इतनी दूर तक दौड़ाया ? — श्याम जू ने निराश खेदयुक्त स्वरमें कहा।

"यह बात नहीं श्याम....!'

'तो दूसरी क्या बात थी सखी! क्या पहले मैं तुझे नारी दिखा था और यहाँ आकर पुरुष दिखने लगा हूँ?'- श्याम खीजकर बोले।

 'एक उपाय है।' 

चन्द्रावली जू सोचते हुए बोली- 'यदि तुम घाघरा फरिया पहन लो तो नारी वेष हो जायेगा, फिर कुछ दोष न रहेगा।'

 'मैं लुगायी बनूँगा ? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा!'- श्याम खिसियाते हुए बोले ।

'देखो श्यामसुंदर! देवीका कोप उतरेगा तो तुम्हारा जन्मभर ब्याह नहीं होगा। 

कौन देखनेवाला है यहाँ, तुम जानो कि हम।  

देवीके वरदान से जिससे चाहो विवाह कर सकोगे। अब तुम्हें जो सोच-विचार करना हो शीघ्र कर लो। 

मुझे देर हो रही है, मैया डाँटेगी मुझको।'

श्यामसुंदर कुछ क्षण विचार करते रहे फिर बोले- 'अच्छा सखी! जैसा यहाँका नियम हो वैसा कर, पूजामें कोई दोष नहीं रहना चाहिये।'

श्यामसुंदरको लहँगा चोली और फरिया पहनाकर चन्द्रावली जू उन्हें दूसरे कक्षमें ले गयी। 

वहाँ सब सखियाँ पूजाकी तैयार कर रही थी। इन दोनोंको देखकर सब समीप आ गयी—'अरी सखी! यह साँवरी सखी तो बड़ी सलोनी है, किस गोपकी बेटी है यह? 

क्या नाम है? कोई पाहुनी है क्या ?'

इस प्रकारके अनेक प्रश्न सुनकर चन्द्रावली जी हँसकर बोली- 

'हाँ सखी! यह पाहुनी है, नाम साँवरी सखी है। 

आज देवीका पूजन यही करेगी, तुम सब सावधानीसे सहायता करो। इसके पश्चात् साँवरी सखीकी बाँह पकड़कर कहा–

‘चल तुझे श्रीकिशोरी जू के समीप ले चलूँ। देख, तू गाँव की गंवार है। 

राजा - महाराजाओंसे भला तुझे कब काम पड़ा होगा? 

वहाँ जानेपर भली-भाँति पृथ्वीपर सिर रखकर, फिर चरण छूकर प्रणाम करना। समझी ? 

लट्ठकी भाँति खड़ी मत रह जाना! 

वे हमारी राजकुमारी है।

श्यामसुंदरने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और सकुचाते हुए श्रीकिशोरीजी समीप पहुँचे। 

वेशकी लज्जा और दर्शनके आनन्दसे उनके पाँव डगमगा रहे थे। 

श्रीकिशोरी जू माला गूँथ रही थी, साँवरी सखीने प्रणाम किया तो चंद्रावली जू से मधुर स्वरमें पूछा- 

'यह कौन है जीजी ?'

'पाहुनी है! नाम साँवरी सखी है।'- चंद्रावली जू ने हँसकर कहा। 

जब साँवरी सखीने प्रणामकर सिर उठाया तो दोनोंकी दृष्टि दौड़कर आलिङ्गनबद्ध होकर अपना आया खो बैठी।

'यह देवीका पूजन करने आयी है बहिन!'- चंद्रावली जूने सचेत करते हुए कहा- 

'पूजाके पश्चात दोनों भली प्रकार देख लेना एक दूसरी को।' 

सब उठकर मंदिरमें गयी। देवी गिरिजाको सबने प्रणाम किया और पूजा आरम्भ कर दी। 

सखियाँ सामग्री ला लाकर रख रही थी। 

ललिता और विशाखा उनमें से क्रमश: प्रथम प्रयुक्त होनेवाली वस्तुको किशोरीजीके समीप सरका देती और किशोरीजी निर्देश देते हुए साँवरी सखीको दे रही थी। 

चन्द्रावलीजी विधि बता रही थी और बहुत सी सखियाँ मंगल गा रही थी। 

एक प्रहर भर पूजा चली, नैवेद्यके पश्चात परिक्रमा और कुसुमाञ्जली अर्पण कर साँवरी सखीने प्रणाम करते हुए नयन मूँद हाथ जोड़े।

'देवीका ध्यान करके अपनी अभिलाषा निवेदन करो।'— चंद्रावलीजीने कहा- 

'जो तुम मन, वचन और कर्मसे एकाग्र होकर प्रार्थना करोगी तो देवी तुरंत इच्छा पूरी करेंगी।'

'अच्छा सखी! अब देवीके सम्मुख नृत्य प्रदर्शित करो।' 

श्यामसुंदरने विवशतापूर्ण दृष्टिसे चन्द्रावलीजीकी ओर देखा ।

'हाँ सखी! यह भी पूजाका ही अंग है, तुम चिंता छोड़ो; वाद्य हम बजा देंगी।' विवश साँवरी सखी उठ खड़ी हुई।

किशोरीजी एक उच्चासनपर विराजित हुई और अन्य सखियाँ उनके दायें बायें बैठ गयी। 

ललिता और विशाखा देवी पर चँवर डुला रही थी। 

आठ - दस सखियाँ वाद्य लिये संकेतकी प्रतिक्षा कर रही थी। 

साँवरी सखीने पाँव ठुमकाकर ताल और गुनगुनाकर राग बताया, वाद्य मुखर हो उठे।

जय जय जय हर प्रिया गौरी।

जय षडवदन गजानन माता जगजननी अति भोरी ॥ 

महिमा अमित अनन्त तिहारी मोरी मति गति कोरी।

आयी सरन जानि जगदम्बा, पुरौ अभिलाषा मोरी ॥

नृत्य-गायनके बीच किसीको तन-मनकी सुध नहीं रही। 

साँवरी सखी जैसे ही पुनः देवीको प्रणाम कर उठी, श्रीकिशोरीजीने लड़खड़ाते पदोंसे उठकर उसे हृदयसे लगा लिया और मुखसे बरबस निकल पड़ा— 'श्यामसुंदर.... !"

यही दशा साँवरी सखीकी हुई। उसके मुखसे भी धीमा उच्छ्वास मुखरित हुआ— 'राधे.... !' दोनोंके मन एक-दूसरेमें गंगा-यमुनाकी भांति मिलकर अपनी पहचान खो बैठे। 

सखियाँ चित्र लिखी-सी देखती रहीं।

अच्छा सखी! तुम सब राधा बहिनके साथ बैठो, मैं इस पाहुनीको विदा करके आती हूँ ?'

'जीजी!' श्रीकिशोरीजी अनुनय भरे स्वरमें बोली-'भला इतनी शीघ्रता क्या है विदा करने की ? 

कल विदा कर देना, अभी कुछ बात भी नहीं हुई ! ऐसा अवसर फिर न जाने कब आये। 

मैंने तो इतने बरसोंमें आज ही दर्शन किये हैं, आज इसे यही रहने दो न ?"

'बहिन! इसे विलम्ब हो रहा है, देवीकी पूजा करनेको ही आज इसकी मैयाने भेजा है। 

देवीकी कृपा रही तो ऐसे अवसर अब आते ही रहेंगे। 

अपनी मैयाके यह एक ही लाली है, वह बाट तकती होगी। 

आज जाने दो; अबकी बार उसे जताकर लाऊँगी। यह फिर आ जायेगी।'

 'जीजी! इसका नृत्य, इसका गायन मेरे अंतरमें समा गया है, न जाने क्यों बिछड़ने की बातसे ही हृदय टूटा पड़ता है। 

अच्छा बहिन! जा ही रही हो तो अपने श्रीमुखसे कुछ मधुर बात तो कहो, जिससे प्रान जुड़ायें।'

 'क्या कहूँ सखी।' श्यामसुंदर अपना सखीवेश भूलकर बोल पड़े — 'जो दशा तुम्हारी है, वहीं दशा मेरी भी है। तुम्हारे चरणोंको छोड़कर पथपर पद बढ़ते ही नहीं पर....'   वाक्य अधूरा छोड़कर उनका गला रूँध गया।

शतशत सखियोंके साथ ही श्रीकिशोरीजीके चकित दृग ऊपर उठे और आनंद विह्वल कंठसे अस्पष्ट वाणी फूटी — श्सुंयामसुंदर....!'

'श्री राधे....!' — वैसी ही गद्गद वाणी कान्ह जू के कंठसे निकली। 

दो क्षण पश्चात् चंद्रावली जू सचेत होकर हँस पड़ी—

'श्याम जू! इतना भी ढाँढ़स नहीं रहा ?' 

उनकी बात सुन सब सखियाँ हँस दी। 

श्री जू के नयन नीचे हो गये और श्यामसुंदर सकुचाकर चंद्रावलीजीका मुख देखने लगे।

जय श्री राधे.........

श्री राधे 🙏🏽

'तो सुनो श्यामसुंदर! तुम मुझसे ब्याह कर लो।' 

श्यामसुंदर एक बार दुविधामें पड़ ठिठके रह गये, फिर हँसकर बोले—

 'मेरी सगायी तो श्रीकिशोरीजीसे हुई है। किंतु सखी! भद्र दादाके तो सात विवाह हो गये हैं; अब दो-चार यदि मेरे भी हो जायँ तो क्या बुरा है ?'

श्यामसुंदर हमारे यहाँका नियम है कि देवीकी पूजा कोई पुरुष नहीं कर सकता।' — निकुंज-मंदिरमें जाकर चन्द्रावली जू ने कहा।

'तो सखी! यह बात तुझे पहले ज्ञात नहीं थी ? क्यों मुझे इतनी दूर तक दौड़ाया ? — श्याम जू ने निराश खेदयुक्त स्वरमें कहा।

"यह बात नहीं श्याम....!'

'तो दूसरी क्या बात थी सखी! क्या पहले मैं तुझे नारी दिखा था और यहाँ आकर पुरुष दिखने लगा हूँ?'- श्याम खीजकर बोले।

 'एक उपाय है।' 

चन्द्रावली जू सोचते हुए बोली- 'यदि तुम घाघरा फरिया पहन लो तो नारी वेष हो जायेगा, फिर कुछ दोष न रहेगा।'

 'मैं लुगायी बनूँगा ? नहीं, यह मुझसे नहीं होगा!'- श्याम खिसियाते हुए बोले ।

'देखो श्यामसुंदर! देवीका कोप उतरेगा तो तुम्हारा जन्मभर ब्याह नहीं होगा। कौन देखनेवाला है यहाँ, तुम जानो कि हम।  

देवीके वरदान से जिससे चाहो विवाह कर सकोगे। अब तुम्हें जो सोच-विचार करना हो शीघ्र कर लो। मुझे देर हो रही है, मैया डाँटेगी मुझको।'

श्यामसुंदर कुछ क्षण विचार करते रहे फिर बोले- 'अच्छा सखी! जैसा यहाँका नियम हो वैसा कर, पूजामें कोई दोष नहीं रहना चाहिये।'

श्यामसुंदरको लहँगा चोली और फरिया पहनाकर चन्द्रावली जू उन्हें दूसरे कक्षमें ले गयी। वहाँ सब सखियाँ पूजाकी तैयार कर रही थी। 

इन दोनोंको देखकर सब समीप आ गयी—'अरी सखी! यह साँवरी सखी तो बड़ी सलोनी है, किस गोपकी बेटी है यह? क्या नाम है? 



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कोई पाहुनी है क्या ?'

इस प्रकारके अनेक प्रश्न सुनकर चन्द्रावली जी हँसकर बोली- 

'हाँ सखी! यह पाहुनी है, नाम साँवरी सखी है। आज देवीका पूजन यही करेगी, तुम सब सावधानीसे सहायता करो। इसके पश्चात् साँवरी सखीकी बाँह पकड़कर कहा–

‘चल तुझे श्रीकिशोरी जू के समीप ले चलूँ। देख, तू गाँव की गंवार है। राजा-महाराजाओंसे भला तुझे कब काम पड़ा होगा? 

वहाँ जानेपर भली-भाँति पृथ्वीपर सिर रखकर, फिर चरण छूकर प्रणाम करना। समझी ? 

लट्ठकी भाँति खड़ी मत रह जाना! 

वे हमारी राजकुमारी है।

श्यामसुंदरने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और सकुचाते हुए श्रीकिशोरीजी समीप पहुँचे। 

वेशकी लज्जा और दर्शनके आनन्दसे उनके पाँव डगमगा रहे थे। 

श्रीकिशोरी जू माला गूँथ रही थी, साँवरी सखीने प्रणाम किया तो चंद्रावली जू से मधुर स्वरमें पूछा- 

'यह कौन है जीजी ?'

'पाहुनी है! नाम साँवरी सखी है।'- चंद्रावली जू ने हँसकर कहा। 

जब साँवरी सखीने प्रणामकर सिर उठाया तो दोनोंकी दृष्टि दौड़कर आलिङ्गनबद्ध होकर अपना आया खो बैठी।

'यह देवीका पूजन करने आयी है बहिन!'- चंद्रावली जूने सचेत करते हुए कहा- 

'पूजाके पश्चात दोनों भली प्रकार देख लेना एक दूसरी को।' 

सब उठकर मंदिरमें गयी। 

देवी गिरिजाको सबने प्रणाम किया और पूजा आरम्भ कर दी। 

सखियाँ सामग्री ला लाकर रख रही थी। 

ललिता और विशाखा उनमें से क्रमश: प्रथम प्रयुक्त होनेवाली वस्तुको किशोरीजीके समीप सरका देती और किशोरीजी निर्देश देते हुए साँवरी सखीको दे रही थी। 

चन्द्रावलीजी विधि बता रही थी और बहुत सी सखियाँ मंगल गा रही थी। 

एक प्रहर भर पूजा चली, नैवेद्यके पश्चात परिक्रमा और कुसुमाञ्जली अर्पण कर साँवरी सखीने प्रणाम करते हुए नयन मूँद हाथ जोड़े।

'देवीका ध्यान करके अपनी अभिलाषा निवेदन करो।'— चंद्रावलीजीने कहा- 

'जो तुम मन, वचन और कर्मसे एकाग्र होकर प्रार्थना करोगी तो देवी तुरंत इच्छा पूरी करेंगी।'

'अच्छा सखी! अब देवीके सम्मुख नृत्य प्रदर्शित करो।' 

श्यामसुंदरने विवशतापूर्ण दृष्टिसे चन्द्रावलीजीकी ओर देखा ।

'हाँ सखी! 

यह भी पूजाका ही अंग है, तुम चिंता छोड़ो; वाद्य हम बजा देंगी।' विवश साँवरी सखी उठ खड़ी हुई।

किशोरीजी एक उच्चासनपर विराजित हुई और अन्य सखियाँ उनके दायें बायें बैठ गयी। 

ललिता और विशाखा देवी पर चँवर डुला रही थी। 

आठ-दस सखियाँ वाद्य लिये संकेतकी प्रतिक्षा कर रही थी। साँवरी सखीने पाँव ठुमकाकर ताल और गुनगुनाकर राग बताया, वाद्य मुखर हो उठे।

जय जय जय हर प्रिया गौरी।

जय षडवदन गजानन माता जगजननी अति भोरी ॥ 

महिमा अमित अनन्त तिहारी मोरी मति गति कोरी।

आयी सरन जानि जगदम्बा, पुरौ अभिलाषा मोरी ॥

नृत्य-गायनके बीच किसीको तन-मनकी सुध नहीं रही। 

साँवरी सखी जैसे ही पुनः देवीको प्रणाम कर उठी, श्रीकिशोरीजीने लड़खड़ाते पदोंसे उठकर उसे हृदयसे लगा लिया और मुखसे बरबस निकल पड़ा— 'श्यामसुंदर.... !"

यही दशा साँवरी सखीकी हुई। उसके मुखसे भी धीमा उच्छ्वास मुखरित हुआ— 'राधे.... !' दोनोंके मन एक-दूसरेमें गंगा-यमुनाकी भांति मिलकर अपनी पहचान खो बैठे। 

सखियाँ चित्र लिखी-सी देखती रहीं।

अच्छा सखी! तुम सब राधा बहिनके साथ बैठो, मैं इस पाहुनीको विदा करके आती हूँ ?'

'जीजी!' श्रीकिशोरीजी अनुनय भरे स्वरमें बोली-'भला इतनी शीघ्रता क्या है विदा करने की ? 

कल विदा कर देना, अभी कुछ बात भी नहीं हुई ! 

ऐसा अवसर फिर न जाने कब आये। 

मैंने तो इतने बरसोंमें आज ही दर्शन किये हैं, आज इसे यही रहने दो न ?"

'बहिन! इसे विलम्ब हो रहा है, देवीकी पूजा करनेको ही आज इसकी मैयाने भेजा है। 

देवीकी कृपा रही तो ऐसे अवसर अब आते ही रहेंगे। 

अपनी मैयाके यह एक ही लाली है, वह बाट तकती होगी। आज जाने दो; अबकी बार उसे जताकर लाऊँगी। यह फिर आ जायेगी।'

 'जीजी! इसका नृत्य, इसका गायन मेरे अंतरमें समा गया है, न जाने क्यों बिछड़ने की बातसे ही हृदय टूटा पड़ता है। 

अच्छा बहिन! जा ही रही हो तो अपने श्रीमुखसे कुछ मधुर बात तो कहो, जिससे प्रान जुड़ायें।'

 'क्या कहूँ सखी।' श्यामसुंदर अपना सखीवेश भूलकर बोल पड़े — 'जो दशा तुम्हारी है, वहीं दशा मेरी भी है। 

तुम्हारे चरणोंको छोड़कर पथपर पद बढ़ते ही नहीं पर....'   वाक्य अधूरा छोड़कर उनका गला रूँध गया।

शतशत सखियोंके साथ ही श्रीकिशोरीजीके चकित दृग ऊपर उठे और आनंद विह्वल कंठसे अस्पष्ट वाणी फूटी — श्सुंयामसुंदर....!'

'श्री राधे....!' — वैसी ही गद्गद वाणी कान्ह जू के कंठसे निकली। 

दो क्षण पश्चात् चंद्रावली जू सचेत होकर हँस पड़ी—

'श्याम जू! इतना भी ढाँढ़स नहीं रहा ?' 

उनकी बात सुन सब सखियाँ हँस दी। 

श्री जू के नयन नीचे हो गये और श्यामसुंदर सकुचाकर चंद्रावलीजीका मुख देखने लगे।

जय श्री राधे.........

श्री राधे 🙏🏽
श्रीहरिः

सखियों के श्याम (भाग 18.2)

(तुव अधीन सदा हौं तो हे श्रीराधे प्राणाधार)

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 
( द्रविण ब्राह्मण )

श्री राधे 🙏🏽