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Wednesday, November 26, 2025

अध्यात्म में रूचि :

|| अध्यात्म में रूचि ||

आज का संदेश विशेष रूप से उन लोगों के लिए है, जो अध्यात्म में रुचि रखते हैं। 

धर्म को समझते हैं। 

जिनका लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है।

संसार में रोज घटनाएं दुर्घटनाएं होती रहती हैं। 

कहीं बैंक डकैती हो गई, कहीं लूट मार, कहीं हत्या, कहीं आगजनी, कहीं धोखाधड़ी इत्यादि।

अब मनुष्य इन्हीं घटनाओं की जानकारी में ही हर रोज लगा रहता है।

ये घटनाएं तो अनादि काल से चल रही हैं, आज भी चल रही हैं, और आगे भी चलती रहेंगी।

इनका रुकना असंभव है। 

इस लिए इनकी ओर ध्यान कम देना चाहिए। 

और जो अपना मुख्य कार्य है, उस ओर अधिक ध्यान देना चाहिए।

मनुष्य का मुख्य कार्य है, इस जन्म मरण के चक्कर से छूटना। 





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इस चक्कर से छूटने पर करोड़ों अरबों खरबों वर्षों तक के लिए सारे दुखों से आपका पीछा छूट जाएगा। 

इतने लंबे समय तक एक भी दुख नहीं आएगा।

और ईश्वर के उत्तम आनन्द को भी आप प्राप्त करेंगे।

लंबे समय तक के लिए ये दोनों कार्य केवल मोक्ष में ही संभव हैं। 

संसार में जीते जी इतने लंबे समय, ये दोनों कार्य संभव नहीं हो सकते।

तो मोक्ष प्राप्ति के लिए क्या करना होगा ? 

अपनी अविद्या राग द्वेष काम क्रोध लोभ ईर्ष्या अभिमान आदि सभी दोषों का नाश करना होगा।" 

इन का नाश कैसे होगा ? 

इस के लिए तीन काम करने होंगे।

एक तो,वेद आदि सत्य शास्त्रों का अध्ययन करना। 

दूसरा,ईश्वर की उपासना भक्ति करना। 

जैसा वेदों में ईश्वर का स्वरूप बताया है, कि ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है। 

सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान न्यायकारी निराकार और आनन्द का भंडार है। 

ऐसे ईश्वर की उपासना करना। 

और तीसरा,जब अपनी योग्यता ऊंची हो जाए, वैराग्य ऊंचा हो जाए, तब संसार के लोगों को भी ये सब बातें बताना। 

स्वयं उत्तम आचरण करना और दूसरों को भी सिखाना। 

निष्काम भाव से वेद प्रचार परोपकार आदि कर्म करना।

ऐसा करने से आपके अविद्या आदि सभी दोषों का पूरी तरह से नाश हो जाएगा। 

और उससे आपका मोक्ष हो जाएगा।

यही मुख्य कार्य है। 

इसी को करने के लिए आप संसार में आए थे। 

इस लिए इसे ही मुख्य रूप से करना चाहिए, और संसार की घटनाओं की ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए।

संसार को संभालने और चलाने के लिए अन्य बहुत सारे लोग हैं, जिन्हें अभी तक ईश्वर या मोक्ष प्राप्ति में रुचि उत्पन्न नहीं हुई। 

वे लोग इन कार्यों में रुचि रखते हैं, वे लोग इन सांसारिक कार्यों को कर लेंगे। 

आप तो अपने मुख्य कार्य को करने का प्रयत्न करें। 

तभी आपका जीवन सफल होगा।

अन्यथा आपके हज़ारों लाखों जन्म बीत जाएंगे, और आप संसार में ही उलझे रहेंगे, और ऐसे ही दुख भोगते रहेंगे।

          || हर हर महादेव हर ||





|| पौराणिक कथा :-||


पुत्र मोह कितना उचित ?

महाराजा चित्रकेतु पुत्र हीन थे । 

महर्षि अंगिरा का उनके यहाँ आना जाना होता था । 

जब भी आते राजा उनसे निवेदन करते, महर्षि पुत्र हीन हूँ , इतना राज्य कौन सम्भालेगा। 

कृपा करो एक पुत्र मिल जाए, एक पुत्र हो जाए । 

ऋषि बहुत देर तक टालते रहे । 

कहते - राजन् ! 

पुत्र वाले भी उतने ही दुखी हैं जितने पुत्रहीन । 

किंतु पुत्र मोह बहुत प्रबल है । 

बहुत आग्रह किया , कहा - ठीक है, परमेश्वर कृपा करेंगे तेरे ऊपर , पुत्र पैदा होगा। 

समय के बाद, एक पुत्र पैदा हुआ । 

थोडा ही बडा हुआ होगा, राज़ा की दूसरी रानी ने उसे ज़हर दे कर मरवा दिया ।

राजा चित्रकेतु शोक में डूबे हुए हैं । 

बाहर नहीं निकल रहे। 

महर्षि को याद कर रहा है। 

उनकी बातों को याद कर रहा है। 

महर्षि बहुत देर तक इस होनी को टालते रहे । 

लेकिन होनी भी उतनी प्रबल । 

संत महात्मा भी होनी को कब तक टालते।

आखर जो प्रारब्ध में होना है वह होकर रहता है। 

संत ही है जो टाल सकता है। 

कि आज का दिन इसको न देखना पड़े तो टालता रहा। 

आज पुन: आए हैं लेकिन देवऋषि नारद को साथ लेकर आए है । 

राजा बहुत परेशान है । 

देवऋषि राज़ा को समझाते हैं कि तेरा पुत्र जहाँ चला गया है वहाँ से लौट कर नहीं आ सकता। 

शोक रहित हो जा। 

तेरे शोक करने से तेरी सुनवाई नहीं होने वाली। 

बहुत समझा रहे हैं राजा को, लेकिन राजा फूट फूट कर रो रहा है। 

ऐसे समय में एक ही शिकायत होती है कि यदि लेना ही था तो दिया क्यों ? 

यह तो आदमी भूल जाता है कि किस प्रकार से आदमी माँग कर लेता है। 

मन्नतें माँग कर, इधर जा उधर जा, मन्नतें माँग माँग कर लिया है पुत्र को लेकिन आज उन्हें ही उलाहना दे रहा है। 

देवर्षि नारद राजा को समझाते हैं कि पुत्र चार प्रकार के होते हैं । 

पिछले जन्म का वैरी, अपना वैर चुकाने के लिए पैदा होता है, उसे शत्रु पुत्र कहा जाता है। 

पिछले जन्म का ऋण दाता। 

अपना ऋण वसूल करने आया है। 

हिसाब किताब पूरा होता है , जीवनभर का दुख दे कर चला जाता है। 

यह दूसरी तरह का पुत्र। 

तीसरे तरह के पुत्र उदासीन पुत्र । 

विवाह से पहले माँ बाप के । 

विवाह होते ही माँ बाप से अलग हो जाते हैं । 

अब मेरी और आपकी निभ नहीं सकती। 

पशुवत पुत्र बन जाते हैं। 

चौथे प्रकार के पुत्र सेवक पुत्र होते हैं। 

माता पिता में परमात्मा को देखने वाले, सेवक पुत्र। 

सेवा करने वाले। 

उनके लिए , माता पिता की सेवा, परमात्मा की सेवा। 

माता पिता की सेवा हर एक की क़िस्मत में नहीं है। 

कोई कोई भाग्यवान है जिसको यह सेवा मिलती है। 

उसकी साधना की यात्रा बहुत तेज गति से आगे चलती है। 

घर बैठे भगवान की उपासना करता है।

राजन तेरा पुत्र शत्रु पुत्र था । 

शत्रुता निभाने आया था, चला गया। 

यह महर्षि अंगीरा इसी को टाल रहे थे। 

पर तू न माना । 

समझाने के बावजूद भी राजा रोए जा रहा है। 

माने शोक से बाहर नहीं निकल पा रहा। 

देवर्षि नारद कहते हैं राजन मैं तुझे तेरे पुत्र के दर्शन करवाता हूँ ।

सारी विधि विधान तोड के तो देवर्षि उसके मरे हुए पुत्र को ले कर आए हैं । 

शुभ्र श्वेत कपड़ों में लिपटा हुआ है। 

राजा के सामने आ कर खडा हो गया। 

देवर्षि कहते हैं क्या देख रहे हो। 

तुम्हारे पिता हैं प्रणाम करो। पुत्र / आत्मा पहचानने से इन्कार कर रहा है। 

कौन पिता किसका पिता? 

देवर्षि क्या कह रहे हो आप ? 

न जाने मेरे कितने जन्म हो चुके हैं । 

कितने पिता ! 

मैं नहीं पहचानता यह कौन है! 

किस किस के पहचानूँ ? 

मेरे आज तक कितने माई बाप हो चुके हुए हैं । 

किसको किसकी पहचान रहती है ? 

मैं इस समय विशुद्ध आत्मा हूँ । 

मेरा माई बाप कोई नहीं । 

मेरा माई बाप परमात्मा है। 

तो शरीर के सम्बंध टूट गए । 

कितनी लाख योनियाँ आदमी भुगत चुका है, उतने ही माँ बाप । 

कभी चिड़िया में मा बाप , कभी कौआ में मा बाप , कभी हिरण में कभी पेड़ पौधों में इत्यादि इत्यादि ।

सुन लिया राजन । 

यह अपने आप बोल रहा है। 

जिसके लिए मैं रो रहा हूँ , जिसके लिए मैं बिलख रहा हूँ वह मुझे पहचानने से इंकार कर रहा है। 

जो पहला आघात था, उससे बाहर निकला। 

जिस शोक सागर में पहले डूबा हुआ था तो परमात्मा ने उसे दूसरे शोक सागर में डाल कर पहले से बाहर निकाला ।  

समझा कि पुत्र मोह केवल मन का भ्रम है। 

सत्य सनातन तो केवल परमात्मा है।

संत महात्मा कहते हैं जो माता पिता अपने पुत्र को पुत्री को इस जन्म में सुसंस्कारी नहीं बनाते, उन्हें मानव जन्म का महत्व नहीं समझाते, उनको संसारी बना कर उनके शत्रु समान व्यवहार करते हैं, तो अगले जन्म में उनके बच्चे शत्रु व वैरी पुत्र पैदा होते हैं उनके घर ।  

अत: संतान का सुख भी अपने ही कर्मों के अनुसार मिलता है, ज़बरदस्ती मन्नत इत्यादि से नही और मिल भी जाये तो कब तक रहे इसका कोई भरोसा नहीं।

      || हर हर महादेव हर ||

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वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी का महत्व व अर्थ समझे!


वशिष्ठका अर्थव्याकरण अनुसार क्या अर्थ होता है श्रेष्ठ श्री जिसने अपने इष्ट देव को बस में कर रखा उनका नाम वशिष्ठ जो संपूर्ण संसार को अपना मित्र मानता हो वही विश्वामित्र।

वसिष्ठ और विश्वामित्र हमारी ही सात्त्विक और राजसिक वृत्तियों के लक्षणों के नाम हैं।

ये दोनों नाम हमारे मानसिक द्वंद्व और शांति के प्रतीक हैं।

वसिष्ठ---

वशवतां वशिनां श्रेष्ठः। 

वशवत् +इष्ठन् । 

( पाणिनिसूत्र- विन्मतोर्लुक 5/3/65 इति 'वत्' प्रत्ययस्य लुक्,यस्येति च सूत्रेण'इकारस्य' लोपः ) यद्वा  वरिष्ठः।

    पृषोदरादित्वात् 'श्' स्थाने 'स्' साधुः।
{अस्य निरुक्तिर्यथा महाभारते 13/93/89 }

वशिष्ठोऽस्मि वरिष्ठोऽस्मि वशे वासगृहेष्वपि।
 वशिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धि माम् ॥

पुनश्च -

य आत्मनि, ब्रह्मणि 'वसन्' सन् ब्रह्मणि,
  आत्मनि सदा तिष्ठति एव स = 'वसिष्ठ:' इति।

भाव - ब्रह्म में रहते हुए स्वयं को ब्रह्म जानकर ब्रह्म में स्थायित्व भाव से स्थिर हो गया है जो,अर्थात् एकाकार हो गया है जो ऐसी एकाकार वृत्ति का नाम 'वसिष्ठ' है। 

यह एक गहन भाव है।

वस्तुतः अन्तर्मुखी वृत्ति को वसिष्ठ कहते हैं।

ब्रह्मरूप प्रभु श्रीराम सहित जीवरूप लक्ष्मण को यानी हमारी जीवात्मा को विद्या देने का नाम वसिष्ठ है।

प्रश्न-

जीवन लाभ क्या है ? 

गुरु वचन से,देवों के पूजन से,पितरों के तर्पण से, माता पिता की सेवा से, ब्राह्मणों के पूजन से, गो,गंगा, गायत्री, गणेश पूजन पंचायतन पूजन से, नवावरण पूजन से, यौगिक क्रिया साधना से, वेदान्त पढ़ने से, दानादि करने से, सत्संगति करने से अथवा नवधा भक्ति करने से और स्वाध्याय करने से वास्तविक ज्ञान धीरे धीरे होने लगता है तब माया का आवरण धीरे धीरे हटने लगता है, उसी समय अन्तर्मुखी वृत्ति तीव्रता से अनूकूल काम करने लगती है। 

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कर्तापन हटने लगता है, साक्षी भाव जागने लगता है, उदासीन अवस्था की प्राप्ति होने लगती है, उसी वृत्ति के उदय होने से सत्त्वगुण के प्रकाश में सबकुछ धीरे धीरे सत्य भासने लगता है।

सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्

अर्थात् सत्त्वाधिक्य से ज्ञान प्राप्त होने लगता है। 

ज्ञानान्मुक्ति:-

ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है,अर्थात चतुर्थ पुरुषार्थ प्राप्त होता है।

उसी वृत्ति को 'वसिष्ठ' कहते हैं, जो ब्रह्म के मार्ग पर ले जाये और ब्रह्म साक्षात्कार कराते ही ब्रह्ममय बना दे। 

वसिष्ठ इस मन्वन्तर के ऋषि हैं।

विश्वामित्र-

विश्वमेव मित्रम् अस्य स - विश्वामित्र:

विश्व अर्थात् संसार ही मित्र है जिसका उसे विश्वामित्र कहते हैं।

संसार का आशय 'चर्पटपंजरिका' में वर्णित है, और मित्र का विलोमार्थी भी होता है। 

यहाँ बाह्यवृत्ति की ओर संकेत है।

एक भिन्न अर्थ है - विश्व और मित्र दो देवताओं का एक साथ हो जाना, और विश्व संचालन में अहर्निश लगे रहना ही विश्व और मित्र दो देवताओं के नाम हैं।

पुनश्च -

ब्रह्मरूप प्रभु श्रीराम को,जीवरूप लक्ष्मण सहित महामाया रूप माँ जगज्जननी से मिलाने का कार्य विश्वामित्र का है। 

यानी हमारी जीवात्मा को माया से आबद्ध कराने का नाम है विश्वामित्र।वस्तुतः बहिर्मुखी वृत्ति को 'विश्वामित्र' कहते हैं। 

यही विश्वामित्र गायत्री के द्रष्टा हैं, जिस गायत्री से ही आन्तरित वृत्तियों ( संस्कारों ) की शुद्धि की जाती है। 

शुद्धि करके अंततः वसिष्ठत्व प्राप्त करने की एक प्रेरणा है।

ये दोनों वृत्तियाँ हम सभी मनुष्यों में पाई जाती हैं।

औसतन ज्यादातर लोगों में 21 वें वर्ष की अवस्था में जाग्रत हो जाती है अथवा कुंडली अनुसार कोई भी अवस्था हो, पूर्वजन्मों के संस्कारों का धीरे धीरे जागरण होना आरम्भ होने लगता है तो प्रायः व्यक्ति स्वतः अपने वास्तविक रूप में आने लगता है।

पूर्व संस्कारोदय से कोई व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है तो कोई बहिर्मुखी हो जाता है, तो कोई उभयमुखी हो जाता है।

विश्वामित्र अर्थात् बाह्य संसार या रजस्तत्त्वगुण वृत्ति है।

इसी के दबाव से मनुष्य अपने तप, धन, उद्भिजविद्या और पद के बल पर एक नया ब्रह्मांड का निर्माण कर देने का अहंकार पाल लेता है।

यह वृत्ति मिथ्या अहंकार को बढ़ावा देती है।

जैसे---

मैं सबकुछ कर सकता हूँ, मेरे तो बड़े बड़े उद्योगपतियों, राजनायिकों और अधिकारियों से सघन परिचय हैं, मेरी प्रसिद्धि बड़ी है। 

मेरी उपलब्धियाँ सर्वाधिक हैं।इस प्रकार मनुष्य अपनी सांसारिक उपलब्धियों को तोते की तरह बोलने लग जाता है। 

सम्मान की प्राप्ति न होने पर वह क्रोधित हो जाता है। 

वह मनुष्य जल्दी शांत होने का नाम नहीं लेता है।

मनुष्य उपर्युक्त सोच विचार वाला और स्वभाव वाला हो जाता है, उसी को निवृत्ति परायण कर्म योगी साधक अपने निष्काम वृत्ति से विश्वामित्र वृत्ति को जीत लेता है। 

यह जीत लेना ही वसिष्ठत्व है।

विश्वामित्र का वसिष्ठ में आना ही ज्ञान है।

वसिष्ठत्व प्राप्त करना ही चतुर्थ पुरुषार्थ पाना है।

          || ऋषि वशिष्ठ जी की जय हो ||

!!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!

जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
श्री सरस्वति ज्योतिष कार्यालय
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Satvara vidhyarthi bhuvn,
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏