|| काल भैरव जयंती ||
काल भैरव जयंती
हर साल मार्गशीर्ष मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भगवान शिव के रौद्र स्वरूप भगवान काल भैरव की जयंती मनाई जाती है।
इसी पावन तिथि पर भगवान शिव ने अधर्म, अन्याय और अहंकार के विनाश के लिए काल भैरव रूप में अवतार लिया था।
इस कारण इसे काल भैरव अष्टमी, कलाष्टमी या काल भैरव जयंती के नाम से जाना जाता है।
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भैरव बाबा को हिन्दू धर्म में भगवान शिव का एक अत्यंत उग्र और शक्तिशाली स्वरूप माना जाता है।
उन्हें काल भैरव के नाम से भी जाना जाता है।
शिव का स्वरूप भैरव भगवान शिव के पाँचवे अवतार और रौद्र रूप हैं।
भैरव' का अर्थ है:- भय का हरण करने वाला' ( जो डर को समाप्त करता है ) या 'भयंकर' काल के स्वामी उन्हें 'काल भैरव' कहा जाता है...!
जिसका अर्थ है 'समय के स्वामी' उन्हें काशी ( वाराणसी ) का नगर कोतवाल माना जाता है।
वे धर्म और स्थानों ( जैसे शक्तिपीठों ) की रक्षा करते हैं उनका वाहन एक काला कुत्ता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, भैरव की उत्पत्ति भगवान शिव के क्रोध से हुई थी।
एक बार ब्रह्मा, विष्णु और शिव में श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ।
जब ब्रह्मा जी ने अहंकार वश भगवान शिव का अपमान किया...!
तो शिव अत्यंत क्रोधित हुए और उनके तीसरे नेत्र से एक तेजवान, विकराल स्वरूप उत्पन्न हुआ—
यही काल भैरव थे।काल भैरव ने तुरंत अहंकार को नष्ट करने के लिए ब्रह्मा जी के पाँच सिरों में से एक को काट दिया।
इस के बाद, शिव ने भैरव को काशी ( वाराणसी ) भेजा और उन्हें उस पवित्र नगरी का कोतवाल ( रक्षक ) नियुक्त किया।
मान्यता है कि काशी में प्रवेश करने से पहले उनकी आज्ञा लेना आवश्यक है।
भोग:- उन्हें इमरती, जलेबी, उड़द की दाल से बने व्यंजन, पान,और नारियल अर्पित किए जाते हैं।
दीपक उनके समक्ष सरसों के तेल का चौमुखा दीपक जलाना शुभ माना जाता है।
काले कुत्ते को भोजन ( रोटी, गुड़ ) खिलाना बहुत ही शुभ माना जाता है...!
क्योंकि कुत्ता उनका वाहन है।
मूल मंत्र:- ॐ भैरवाय नमः
|| भैरव जयंती की शुभकामनाएं ||
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+++|| धर्म - अधर्म सार ||
हमारे तन्त्रशास्त्र तो दूर की बात,इनके प्रवक्ता तो स्वयं परमपवित्र भगवान् शंकर हैं...!
यदि एक दानव से भी वेदसम्मत युक्तियुक्त वचन हमें सुनाई देगा तो हम वैदिकों का समर्थन तो उस तथ्य पर स्वतः ही है...!
किन्तु वेद विरुद्ध व युक्तिहीन वचन साक्षात् भगवान् से भी सुनाई पड़ेगा तो हम वैदिकों को वह स्वीकार्य नहीं होगा...!
यहॉ तक कि वेद के वचनों को भी ग्रहण करने से पूर्व , पूर्वमीमांसा से हम उनको परखते हैं कि नहीं ?
यामिमां पुष्पितां वाचं वेदवादरताः पार्थ- ये युक्तियुक्त विचार ही तो है और यही हमारी परम्परा भी है ।
तो तब यहॉ विचार ये किया जा सकता है कि क्या स्वयं भगवान् भी कभी वेद विरुद्ध या युक्तिहीन वचन कह सकते हैं ?
यदि ऐसा हो इस संसार में आप्त पुरुष कौन रह जायेगा फिर ?
तो इस का समाधान यही है कि वैदिकों की रक्षार्थ सत् सम्प्रदायों से लेकर असुरों के मोहनार्थ पाखण्ड सम्प्रदायों तक का प्रवर्तन स्वयं भगवान् ने किया है....!
तो वैद्यराजों के औषधिवितरण की भाँति आप्तपुरुष भी लोक कल्याण के लिये अधिकारिभेद से उपदेश भेद प्रदान करते हैं ।
उस उस शास्त्र के उस उस अनुबन्ध चतुष्टय को बिना जाने ही उनके अमुक वचनों पर लट्टू होने वाले लोग कईं बार भगवान् की संहारलीला की चपेट में आ जाते हैं।
तो इस लिये अब धर्मनिर्णय हेतु इस सब समस्याओं का समाधान क्या है ?
तो इसी सुप्रसिद्ध श्लोक के माध्यम से आपको स्मरण कराते हैं कि -
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आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्मं वेद नेतरः।।
{श्रीमनुस्मृतिः 12/106}
अर्थात् ऋषिदृष्ट वेद का और वेदज्ञ मुनियों से उपदिष्ट स्मृतियों का भी जो वेदशास्त्र के अविरोधी तर्क से पर्यालोचन करता है, वही धर्म को जान सकता है, दूसरा नहीं ।
तो तात्पर्य क्या निकला ?
कि स्वशाखासूत्रानुसार प्रतिपादित धर्म के अनुकूल एवं उपयोगी बात तन्त्रशास्त्र में भी होगी तो सहर्ष हम वैदिकों द्वारा मान्य होगी...!
तदन्य बात हम वैदिकों के लिये अग्राह्य हो जायेगी, क्योंकि हम वैदिकों के लिये ग्राह्यता-
अग्राह्यता का विचार ही तो दूसरे शब्दों में हमारे लिये धर्माधर्म का विचार है।
इस कलिकाल में तो ऐसे अनगिनत लोग मिलेंगे....!
जो कहेंगे कि हमको अमुक स्थल पर अमुक दर्शन हुआ....!
अमुक रात को अमुक सपना मिला, यहॉ से ये दीक्षा मिली वो मिला ये सो,अमुक जगह अमुक शास्त्र है,
उसमें ये कहा है सो कहा है...!
अमुक ने ये कहा है, सो कहा है....!
धर्माचार्य भी कब कहॉ कौन किस अंश में कैसा होगा,ये सब भगवान् भरोसे ही होगा...!
सप्तर्षि महाजन भूमण्डल पर विराजमान होंगे नहीं कि उनसे जाकर कोई धर्म अधर्म पूछ ले, तो तब क्या हो ?
तो अब ऐसा मनुप्रोक्त तर्क ही ऋषि है...!
वैदिकों के लिये इन्हीं एकमात्र विश्वसनीय ऋषि के द्वारा मान्य सिद्धान्त ही धर्म है , दूसरा नहीं ।
यही विशुद्ध सनातन वैदिक परम्परा है ।
|| सनातन धर्म की जय हो ||



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