सतयुग त्रेता द्वापर और
कलयुग का वर्णन !
सतयुग में भगवान विष्णु ने वराह और नरसिंह अवतार लेकर दो दैत्यों का वध किया है, हिरण्याक्ष और हिरण्य कशिपु।
दोनों की माता दिति थी और दिति के पुत्रों को दैत्य श्रेणी में रखा गया था।
असुरों को दैत्यों की श्रेणी में नही रखा जाता लेकिन सभी दैत्यों को असुर श्रेणी में माना गया है।
Collectible India Lord Shiva Idol Shiv Padmasana Sitting Statue | Gift Item for Home Family and Friends (3.1 Inches)
असुर संज्ञा भी है जो एक वंश को दर्शाता है और एक विशेषण भी है जो विशेष शक्ति को दर्शाता है।
प्राचीन काल मे संज्ञा के साथ विशेषण नामों का प्रयोग काफी आम था।
हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों का मूल नाम हिरण्य है जिसका अर्थ है स्वर्ण।
इनके आगे जुड़े अक्ष और कशिपु विशेषण नाम हैं, जिनके अर्थ हैं आँख और नरम बिस्तर।
हिरण्याक्ष का अर्थ है स्वर्ण की आँख वाला और हिरण्यकशिपु का अर्थ है भोग विलास में डूबा रहने वाला।
चूंकि यह सतयुग था तो दैत्यों के नाम मे चार अक्षर थे।
फिर त्रेता आया तो भगवान विष्णु ने श्री राम अवतार लेकर एक राक्षस का वध किया, जिसका नाम था रावण।
रावण की माता कैकसी राक्षसी वंश से थी इस लिए रावण को भी राक्षस माना गया है।
वाल्मीकि रामायण में भी रावण को राक्षसराज ( राक्षसों का राजा ) कहा गया है राक्षसानां भयंकृतम्।
चूंकि यह त्रेता युग था तो राक्षस का नाम भी तीन अक्षरों का था।
फिर द्वापर में भगवान विष्णु ने श्री कृष्ण अवतार लेकर एक मानव का वध किया, जिसका नाम था कंस।
कंस का जन्म अंधक वृष्णि वंश में हुआ था।
उसकी माता का नाम पद्मावती था लेकिन उनके कुल का वर्णन प्रमाणिक रूप से नही मिलता।
हरिवंश पुराण में राजा उग्रेसन का वर्णन करते हुए लिखा गया है, तस्य भार्या पद्मावती नाम।
सभी जगह कंस की माता के रूप में पद्मावती का नाम मिलता है लेकिन उनके वंश का नही।
कंस शब्द का भी अर्थ संस्कृत शब्दकोश में नही मिलता।
कुछ जगह इसका अर्थ कटोरे या लोटे का ऊपरी हिस्सा बताया गया है लेकिन नाम के अनुरूप इसका अर्थ ठीक नही बैठता।
चूंकि यह द्वापर था तो यहां विलेन का नाम दो अक्षरों का था।
अब कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे।
कल्कि का अर्थ होता है कल्क ( गंदगी ) को दूर करने वाला।
भागवत पुराण, विष्णु पुराण, कल्कि पुराण के अलावा महाभारत के वन पर्व में भी कलयुग में कल्कि के जन्म का वर्णन मिलता है।
चूंकि यह कलयुग है इसलिए भगवान कल्कि के हाथों नाश होने वाले राक्षस का नाम एक अक्षर का होगा।
कलयुग में "मैं" शब्द का प्रयोग अहंकार का प्रतीक है, जो मनुष्य को स्वार्थी और लालची बनाता है।
यह कथन हमें याद दिलाता है कि हमें अपने अहंकार को नियंत्रित करना चाहिए और धर्म और नैतिकता के मार्ग पर चलना चाहिए।
|| विष्णु भगवान की जय हो ||
जयाधीश जयाजेय जय विश्वगुरो हरे
जन्ममृत्युजरातीत जयानन्त जयाच्युत।
जयाजित जयाशेष जयाव्यक्तस्थिते जय
परमार्थार्थ सर्वज्ञ ज्ञानज्ञेयार्थनि:सृत।।
अधीश! आपकी जय हो।अजेय! आपकी जय हो। विश्वके गुरु हरि! आपकी जय हो।
जन्म - मृत्यु तथा जरा से अतीत अनन्त! आपकी जय हो।
अजित! आपकी जय हो। अशेष! आपकी जय हो।
अव्यक्त स्थिति वाले भगवन्! आपकी जय हो।
परमार्थार्थकी ( उत्तम अभिप्राय की ) पूर्ति में निमित्त! ज्ञान और ज्ञेय के अर्थ के उत्पादक सर्वज्ञ! आपकी जय हो।
|| विष्णु भगवान की जय हो ||
श्रावण शिवरात्रि☘
🕉🙏🕉
‘शिव’ का अर्थ है -
कल्याणकारी !
जिन्होंने संसार के हित में कालकूट विष का पान कर लिया हो।
इस समष्टि में उनके जैसा उदार व परमार्थी भला और कौन होगा ?
शिव के शरीर पर राख है, वो जटाजूटधारी हैं, गले में सर्प एवं नरमूंडों की माला है और भूत - प्रेत, पिशाच आदि भी इनके गण हैं।
अर्थात्, संसार में जिनका सबने तिरस्कार कर दिया हो, भगवान शिव ने उन सबकॊ अपनाया और गले लगाया है।
ये आशुतोष, औघड़दानी सभी के लिए सुलभ हैं, सुगम हैं और सरल हैं l
देव हों या असुर सभी को सहज ही करुणा भाव से इच्छित वरदान प्रदान करते हैं।
शिव के एक हाथ में त्रिशूल और दूसरा हाथ में डमरू है।
त्रिशूल संहार का प्रतीक है।
सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करना इसका काम है।
डमरू ज्ञान का उद्गाता है।
सृष्टि के कितने ही रहस्यों का उद्घाटन भगवान ने डमरू बजाकर किया है।
शास्त्रों में कहा गया है -
"शिवोभूत्वा शिवं यजेत् ...’’
अर्थात्, शिव बनकर ही शिव की उपासना की जाती है, जिसमें कल्याणकारी भावना हो और दूसरों का कल्याण करने के लिए मन में ललक जगे, उसी के लिए शिव उपासना सार्थक है।
समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को जिन्होंने भी पीया वे देव, लेकिन विश्व कल्याण के निमित विषपान करने वाले महादेव।
यही महादेव ही विश्व के संरक्षक व जगत पिता हो सकते हैं।
जिनके मन में प्राणी मात्र व सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा की चिंता हो, लेकिन क्या कभी हमारे मन में पिता के गुणों की समीक्षा करते हुए उनको जीवन में धारण करने की उमंग जगी ?
हमने तो केवल पत्र - पुष्प ही चढ़ाया।
जो हमारे पूज्य हैं, वही हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए, इस बारे में हमने सोचा ही कब ?
आज समय की पुकार यह है कि इस पर्व को मनाने का नया दृष्टिकोण देना होगा।
आज श्रावण शिवरात्रि का व्रत करते हुए जीवन में शिवत्व को धारण करने की प्रेरणा जगानी होगी।
जीवन को सत्यम, शिवम, सुंदरम के रूप में ढालना होगा।
जो सत्य नहीं, वह शिवम कैसे हो सकता है और जो शिवम नहीं, वह सुंदरम तो हो ही नहीं सकता।
इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है केवल प्रदर्शन मात्र है।
संकीर्णता, ईर्ष्या-द्वेष, मिथ्या से भरे अंतःकरण में शिव का अवतरण कैसे हो.?
अतः आइए हम केवल चित्र के नहीं अपितु चरित्र के उपासक भी बनें, क्योंकि जब चरित्र का आधार शुभ होगा तभी उसमें ज्ञान शोभायमान हो पायेगा और शिव उपासना सार्थक हो पाएगी,,/
आप सभी को श्रावण शिवरात्रि की शुभकामनाएं💐🙏
🕉
|| शिवभक्ति-महिमा ||
एक बार नारदमुनि हाथ में वीणा लिये, हरि गुणगान करते श्री शंकरजी के पास पहुँचे और बोले- 'भगवन् !
मैंने इतने लोक देखे हैं, परन्तु कान्ति नगरी के श्रीयाल राजा के समान अतिथि वत्सल शिवभक्त किसी को नहीं देखा।'
इस बात को सुनकर शंकरजी ने कुरूप अघोरी-वेष बना उस राजा के पास जाकर आँखें लाल करके खाने को माँगा और इसी सिलसिले में किसी बहाने उनके लड़के को मरवा दिया।
रानी और राजा को इससे कुछ भी शोक नहीं हुआ।
उन्होंने अतिथि सेवा में कोई त्रुटि न आने दी।
भगवान् शंकर यह सब लीला देख-देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उनके अतिथि-सत्कार की प्रशंसा कर रहे थे।
जब रसोई तैयार हो गयी तो वह यह कहते हुए लौटने लगे कि 'तुम पुत्रहीनों के यहाँ मैं भोजन नहीं करूँगा।
अब तो अतिथि को रूठे देख राजा और रानी घबराये, उन्होंने इस संकट से बचाने के लिये भगवान् शिव से प्रार्थना की।
कुरूप मनुष्य तुरन्त शिवजी के रूप में बदल गया और बोला-
'तुम अपने पुत्र को जोर से पुकारो।'
उन्होंने वैसा ही किया और शिव की दया से वह मृत पुत्र और भी तेजयुक्त होकर हँसता हुआ उनके सामने उपस्थित हो गया।
कान्ति नगरी में चारों ओर आनन्द की धारा बह निकली।
शिव लोक से तत्काल ही एक दिव्य विमान उतरा और राजा, रानी तथा बच्चे को लेकर कैलास को चला गया।
शिव भक्ति की ऐसी ही महामहिमा है।
तुम बंजर हो जाओगे......!
यदि बहुत व्यवस्थित ढंग से रहोगे...!
यदि इतना सोच समझकर बोलोगे चलोगे...!
कभी मन की नहीं कहोगे सच को दबाकर झूठ के गाने गाओगे हर वक्त भय में जिओगे और सोचोगे कोई क्या कहेगा...!
कोई देख लेगा तो जीवन की खिडकी में हवा और प्रकाश कभी नहीं आ सकेगा अंधेरा रहेगा l
दुनिया सिर्फ आपकी एक गलती की तलाश में है...!
मर्यादा बहुत अच्छी है....!
लेकिन अति मर्यादा तुमको बंजर बनाती है...!
इस लिए बनावटी जीवन से बचो जैसे हो वैसे ही अच्छे हो....!
अपनी पर्सनालिटी का जश्न मनाओ
प्रतिदिन जब सुबह सो कर उठे ईश्वर को प्रणाम करते हुए धन्यवाद दें...!
कहे मैं दुनिया में सबसे सुंदर व्यक्ति हूं...!
मैं दुनिया में सब से शक्ति शाली व्यक्ति हूं....!
मैं दुनिया में सब से सौभाग्यवान व्यक्ति हूं...!
अपने दैनिक कर्म को ईमानदारी से करते रहे...!
"भवतु सब्ब मंगलम "
तत्कर्म यन्न बन्धाय
सा विद्या या विमुक्तये।
आयासायापरं कर्म
विद्याsन्या शिल्पनैपुणम्।।
(विष्णुपुराण - १/१९/४१)
अर्थात् ; कर्म वही है जो बन्धनकारक न हो, विद्या वही है जो मुक्ति कारक हो।
इस के अतिरिक्त अन्य कर्म प्रयास मात्र है और अन्य विद्या शिल्प - निपुणता मात्र है।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥
( श्रीमद्भगवद्गीता - ६ / १७ )
अर्थात् : यथायोग्य आहार - विहार करनेवालों के लिए...!
कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वालों के लिए और यथा योग्य सोने...!
और जगने वालों के लिए ही योग दुखों का नाश करनेवाला होता है।
सोऽयं विधिर्विहितः कर्मणैव
संवर्तते संजय! तत्र कर्म।
तत्र योsन्यत् कर्मणः साधुमन्येत्
मोघं तस्यालपितं दुर्बलस्य।।
( महाभारत, उद्योग पर्व, २९ / ८ )
अर्थात् : हे संजय! ज्ञान का विधान भी कर्म को साथ लेकर ही होता है...!
अतः ज्ञान में भी कर्म विद्यमान है।
जो कर्म के स्थान पर कर्मों के त्याग को श्रेष्ठ मानते हैं...!
वे दुर्बल होते हैं....!
उनका कथन व्यर्थ ही होता है।
29 जून - श्रीरामचरितमानस
नाथ एक बर मागउँ
राम कृपा करि देहु ।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल
कबहुँ घटै जनि नेहु ।।
( उत्तरकांड, दो. 49 )
राम राम बंधुओं, राम जी के राज्याभिषेक के बाद एक दिन बशिष्ठ जी आते हैं ।
वे राम जी से कहते हैं कि वेद , पुराण आदि पढ़ने का फल आपकी भक्ति है ।
आप से मैं एक वर माँगता हूँ जिसे आप कृपा करके दें वह यह कि आपके चरणों में मेरा प्रेम जन्म - जन्मांतर कभी भी न कम हो ।
मित्रों, हमारा राम प्रेम तो निरंतर बढ़ ने के बजाय अपनी आवश्यकता अनुरूप घटता बढ़ता रहता है । इसी लिए हमारी यह स्थिति है जब कि इसे अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर बढ़ा ने का प्रयास होना चाहिए ।
विश्वास व संतुष्टि :
सदैव ध्यान रखें विश्वास में जहाँ सृजन करने की शक्ति होती है...!
वही विनाश करने की भी शक्ति होती है...!
किसी संबंध में चमक केवल अच्छे समय में हाथ मिलाने से नहीं आती बल्कि भंगुर समय में हाथ थामने से आती है....!
कुछ लोग हमारा जीवन होते हैं कुछ लोग जीवन में होते हैं.....!
कुछ लोगों से जीवन होता है पर कुछ लोग होते हैं तो ही जीवन होता है ।
अपने व्यस्ततम् जीवन से थोड़ा सा समय निकालें और एकान्त में शान्ति से बैठें थोड़ी देर के लिए संसार को भूल जाएं ?
फिर सोचें इतने दिनों के जीवन में जो भी हमने पाया है....!
क्या हम उस से पूर्ण संतुष्ट हैं....!
यदि हाँ तो हम सौभाग्यशाली हैं....!
यदि नहीं तो हम और क्या पाकर संतुष्ट हो जायेंगे ?
क्या इस संसार में कुछ ऐसा है।
जिसे पाकर हम पूर्ण संतुष्ट हो जायेंगे ?
इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है।
कि जिसे पाकर हम पूर्ण संतुष्ट हो जाएं, कारण हम ईश्वर के अंश हैं...!
और ईश्वर को पाकर ही पूर्ण संतुष्ट हो सकते हैं हरि ॐ !!
!!!…Soft Attitude Always Create Strong Relations. It's Better to Make Softness in Our Attitude to Make Long & Strong Relation…!!!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
|| जय शिव शंकर महादेव ||
No comments:
Post a Comment