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Saturday, July 26, 2025

सतयुग त्रेता द्वापर और कलयुग का वर्णन !

 सतयुग त्रेता द्वापर और
      कलयुग का वर्णन !      


सतयुग में भगवान विष्णु ने वराह और नरसिंह अवतार लेकर दो दैत्यों का वध किया है, हिरण्याक्ष और हिरण्य कशिपु। 

दोनों की माता दिति थी और दिति के पुत्रों को दैत्य श्रेणी में रखा गया था। 

असुरों को दैत्यों की श्रेणी में नही रखा जाता लेकिन सभी दैत्यों को असुर श्रेणी में माना गया है।





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असुर संज्ञा भी है जो एक वंश को दर्शाता है और एक विशेषण भी है जो विशेष शक्ति को दर्शाता है। 

प्राचीन काल मे संज्ञा के साथ विशेषण नामों का प्रयोग काफी आम था। 

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों का मूल नाम हिरण्य है जिसका अर्थ है स्वर्ण। 

इनके आगे जुड़े अक्ष और कशिपु विशेषण नाम हैं, जिनके अर्थ हैं आँख और नरम बिस्तर। 

हिरण्याक्ष का अर्थ है स्वर्ण की आँख वाला और हिरण्यकशिपु का अर्थ है भोग विलास में डूबा रहने वाला। 

चूंकि यह सतयुग था तो दैत्यों के नाम मे चार अक्षर थे।

फिर त्रेता आया तो भगवान विष्णु ने श्री राम अवतार लेकर एक राक्षस का वध किया, जिसका नाम था रावण। 

रावण की माता कैकसी राक्षसी वंश से थी इस लिए रावण को भी राक्षस माना गया है। 

वाल्मीकि रामायण में भी रावण को राक्षसराज ( राक्षसों का राजा ) कहा गया है राक्षसानां भयंकृतम्। 

चूंकि यह त्रेता युग था तो राक्षस का नाम भी तीन अक्षरों का था।

फिर द्वापर में भगवान विष्णु ने श्री कृष्ण अवतार लेकर एक मानव का वध किया, जिसका नाम था कंस। 

कंस का जन्म अंधक वृष्णि वंश में हुआ था। 

उसकी माता का नाम पद्मावती था लेकिन उनके कुल का वर्णन प्रमाणिक रूप से नही मिलता। 

हरिवंश पुराण में राजा उग्रेसन का वर्णन करते हुए लिखा गया है, तस्य भार्या पद्मावती नाम।

सभी जगह कंस की माता के रूप में पद्मावती का नाम मिलता है लेकिन उनके वंश का नही। 

कंस शब्द का भी अर्थ संस्कृत शब्दकोश में नही मिलता। 

कुछ जगह इसका अर्थ कटोरे या लोटे का ऊपरी हिस्सा बताया गया है लेकिन नाम के अनुरूप इसका अर्थ ठीक नही बैठता। 

चूंकि यह द्वापर था तो यहां विलेन का नाम दो अक्षरों का था।

अब कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे।  

कल्कि का अर्थ होता है कल्क ( गंदगी ) को दूर करने वाला। 

भागवत पुराण, विष्णु पुराण, कल्कि पुराण के अलावा महाभारत के वन पर्व में भी कलयुग में कल्कि के जन्म का वर्णन मिलता है। 

चूंकि यह कलयुग है इसलिए भगवान कल्कि के हाथों नाश होने वाले राक्षस का नाम एक अक्षर का होगा।

कलयुग में "मैं" शब्द का प्रयोग अहंकार का प्रतीक है, जो मनुष्य को स्वार्थी और लालची बनाता है। 

यह कथन हमें याद दिलाता है कि हमें अपने अहंकार को नियंत्रित करना चाहिए और धर्म और नैतिकता के मार्ग पर चलना चाहिए।


    || विष्णु भगवान की जय हो ||


जयाधीश  जयाजेय जय विश्वगुरो हरे

जन्ममृत्युजरातीत जयानन्त जयाच्युत।


जयाजित जयाशेष जयाव्यक्तस्थिते जय

परमार्थार्थ सर्वज्ञ ज्ञानज्ञेयार्थनि:सृत।।


अधीश! आपकी जय हो।अजेय! आपकी जय हो। विश्वके गुरु हरि! आपकी जय हो। 

जन्म - मृत्यु  तथा जरा से अतीत अनन्त!  आपकी जय हो। 

अजित! आपकी जय हो। अशेष! आपकी जय हो। 

अव्यक्त स्थिति वाले भगवन्! आपकी जय हो। 

परमार्थार्थकी ( उत्तम अभिप्राय की ) पूर्ति में निमित्त! ज्ञान और ज्ञेय के अर्थ के उत्पादक सर्वज्ञ! आपकी जय हो।

      

   || विष्णु भगवान की जय हो ||

श्रावण शिवरात्रि☘ 

🕉🙏🕉

‘शिव’ का अर्थ है - 

कल्‍याणकारी ! 

जिन्होंने संसार के हित में कालकूट विष का पान कर लिया हो। 

इस समष्टि में उनके जैसा उदार व परमार्थी भला और कौन होगा ? 

शिव के शरीर पर राख है, वो जटाजूटधारी हैं, गले में सर्प एवं नरमूंडों की माला है और भूत - प्रेत, पिशाच आदि भी इनके गण हैं। 

अर्थात्, संसार में जिनका सबने तिरस्कार कर दिया हो, भगवान शिव ने उन सबकॊ अपनाया और गले लगाया है। 

ये आशुतोष, औघड़दानी सभी के लिए सुलभ हैं, सुगम हैं और सरल हैं l 

देव हों या असुर सभी को सहज ही करुणा भाव से इच्छित वरदान प्रदान करते हैं। 

शिव के एक हाथ में त्रिशूल और दूसरा हाथ में डमरू है। 

त्रिशूल संहार का प्रतीक है। 

सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करना इसका काम है। 

डमरू ज्ञान का उद्गाता है। 

सृष्टि के कितने ही रहस्यों का उद्घाटन भगवान ने डमरू बजाकर किया है। 

शास्त्रों में कहा गया है - 

"शिवोभूत्वा शिवं यजेत् ...’’ 

अर्थात्, शिव बनकर ही शिव की उपासना की जाती है, जिसमें कल्याणकारी भावना हो और दूसरों का कल्याण करने के लिए मन में ललक जगे, उसी के लिए शिव उपासना सार्थक है। 

समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत को जिन्होंने भी पीया वे देव, लेकिन विश्व कल्याण के निमित विषपान करने वाले महादेव। 

यही महादेव ही विश्व के संरक्षक व जगत पिता हो सकते हैं। 

जिनके मन में प्राणी मात्र व सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा की चिंता हो, लेकिन क्या कभी हमारे मन में पिता के गुणों की समीक्षा करते हुए उनको जीवन में धारण करने की उमंग जगी ? 

हमने तो केवल पत्र - पुष्प ही चढ़ाया। 

जो हमारे पूज्य हैं, वही हमारे जीवन का आदर्श होना चाहिए, इस बारे में हमने सोचा ही कब ? 

आज समय की पुकार यह है कि इस पर्व को मनाने का नया दृष्टिकोण देना होगा। 

आज श्रावण शिवरात्रि का व्रत करते हुए जीवन में शिवत्व को धारण करने की प्रेरणा जगानी होगी। 

जीवन को सत्यम, शिवम, सुंदरम के रूप में ढालना होगा। 

जो सत्य नहीं, वह शिवम कैसे हो सकता है और जो शिवम नहीं, वह सुंदरम तो हो ही नहीं सकता। 

इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है केवल प्रदर्शन मात्र है। 

संकीर्णता, ईर्ष्या-द्वेष, मिथ्या से भरे अंतःकरण में शिव का अवतरण कैसे हो.? 

अतः आइए हम केवल चित्र के नहीं अपितु चरित्र के उपासक भी बनें, क्योंकि जब चरित्र का आधार शुभ होगा तभी उसमें ज्ञान शोभायमान हो पायेगा और शिव उपासना सार्थक हो पाएगी,,/

आप सभी को श्रावण शिवरात्रि की शुभकामनाएं💐🙏 

🕉 

|| शिवभक्ति-महिमा ||


एक बार नारदमुनि हाथ में वीणा लिये, हरि गुणगान करते श्री शंकरजी के पास पहुँचे और बोले- 'भगवन् ! 

मैंने इतने लोक देखे हैं, परन्तु कान्ति नगरी के श्रीयाल राजा के समान अतिथि वत्सल शिवभक्त किसी को नहीं देखा।' 

इस बात को सुनकर शंकरजी ने कुरूप अघोरी-वेष बना उस राजा के पास जाकर आँखें लाल करके खाने को माँगा और इसी सिलसिले में किसी बहाने उनके लड़के को मरवा दिया। 

रानी और राजा को इससे कुछ भी शोक नहीं हुआ। 

उन्होंने अतिथि सेवा में कोई त्रुटि न आने दी।

भगवान् शंकर यह सब लीला देख-देखकर मन-ही-मन प्रसन्न हो उनके अतिथि-सत्कार की प्रशंसा कर रहे थे।

जब रसोई तैयार हो गयी तो वह यह कहते हुए लौटने लगे कि 'तुम पुत्रहीनों के यहाँ मैं भोजन नहीं करूँगा। 

अब तो अतिथि को रूठे देख राजा और रानी घबराये, उन्होंने इस संकट से बचाने के लिये भगवान् शिव से प्रार्थना की। 

कुरूप मनुष्य तुरन्त शिवजी के रूप में बदल गया और बोला- 

'तुम अपने पुत्र को जोर से पुकारो।' 

उन्होंने वैसा ही किया और शिव की दया से वह मृत पुत्र और भी तेजयुक्त होकर हँसता हुआ उनके सामने उपस्थित हो गया। 

कान्ति नगरी में चारों ओर आनन्द की धारा बह निकली। 

शिव लोक से तत्काल ही एक दिव्य विमान उतरा और राजा, रानी तथा बच्चे को लेकर कैलास को चला गया। 

शिव भक्ति की ऐसी ही महामहिमा है।


तुम बंजर हो जाओगे......! 


यदि बहुत व्यवस्थित ढंग से रहोगे...!

यदि इतना सोच समझकर बोलोगे चलोगे...!

कभी मन की नहीं कहोगे सच को दबाकर झूठ के गाने गाओगे हर वक्त भय में जिओगे और सोचोगे कोई क्या कहेगा...! 

कोई देख लेगा तो जीवन की खिडकी में हवा और प्रकाश कभी नहीं आ सकेगा अंधेरा रहेगा l


दुनिया सिर्फ आपकी एक गलती की तलाश में है...! 

मर्यादा बहुत अच्छी है....! 

लेकिन अति मर्यादा तुमको बंजर बनाती है...! 

इस लिए बनावटी जीवन से बचो जैसे हो वैसे ही अच्छे हो....! 

अपनी पर्सनालिटी का जश्न मनाओ


प्रतिदिन जब सुबह सो कर उठे ईश्वर को प्रणाम करते हुए धन्यवाद दें...! 

कहे मैं दुनिया में सबसे सुंदर व्यक्ति हूं...!

मैं दुनिया में सब से शक्ति शाली व्यक्ति हूं....!

मैं दुनिया में सब से सौभाग्यवान व्यक्ति हूं...! 

अपने दैनिक कर्म को ईमानदारी से करते रहे...!

"भवतु सब्ब मंगलम "


तत्कर्म यन्न बन्धाय

सा विद्या या विमुक्तये।

आयासायापरं कर्म

विद्याsन्या शिल्पनैपुणम्।।


(विष्णुपुराण - १/१९/४१)


अर्थात्  ; कर्म वही है जो बन्धनकारक न हो, विद्या वही है जो मुक्ति कारक हो। 

इस के अतिरिक्त अन्य कर्म प्रयास मात्र है और अन्य विद्या शिल्प - निपुणता मात्र है।


युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥


( श्रीमद्भगवद्गीता - ६ / १७ )


अर्थात्  : यथायोग्य आहार - विहार करनेवालों के लिए...! 

कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वालों के लिए और यथा योग्य सोने...! 

और जगने वालों के लिए ही योग दुखों का नाश करनेवाला होता है।


सोऽयं विधिर्विहितः कर्मणैव

संवर्तते संजय! तत्र कर्म।

तत्र योsन्यत् कर्मणः साधुमन्येत्

मोघं तस्यालपितं दुर्बलस्य।।


( महाभारत, उद्योग पर्व, २९ / ८ )


अर्थात् : हे संजय! ज्ञान का विधान भी कर्म को साथ लेकर ही होता है...! 

अतः ज्ञान में भी कर्म विद्यमान है। 

जो कर्म के स्थान पर कर्मों के त्याग को श्रेष्ठ मानते हैं...! 

वे दुर्बल होते हैं....! 

उनका कथन व्यर्थ ही होता है।


29 जून - श्रीरामचरितमानस


नाथ एक बर मागउँ  

राम कृपा करि देहु ।

जन्म जन्म  प्रभु पद कमल 

कबहुँ घटै जनि नेहु ।।

( उत्तरकांड, दो. 49 ) 

राम राम बंधुओं, राम जी के राज्याभिषेक के बाद एक दिन बशिष्ठ जी आते हैं । 

वे राम जी से कहते हैं कि वेद , पुराण आदि पढ़ने का फल आपकी भक्ति है । 

आप से मैं एक वर माँगता हूँ जिसे आप कृपा करके दें वह यह कि आपके चरणों में मेरा प्रेम जन्म - जन्मांतर कभी भी न कम हो ।

मित्रों, हमारा राम प्रेम तो निरंतर बढ़ ने के बजाय अपनी आवश्यकता अनुरूप घटता बढ़ता रहता है । इसी लिए हमारी यह स्थिति है जब कि इसे अक्षुण्ण रखते हुए  निरंतर बढ़ा ने का प्रयास होना चाहिए ।


विश्वास व संतुष्टि :


सदैव ध्यान रखें विश्वास में जहाँ सृजन करने की शक्ति होती है...! 

वही विनाश करने की भी शक्ति होती है...!


किसी संबंध में चमक केवल अच्छे समय में हाथ मिलाने से नहीं आती बल्कि भंगुर समय में हाथ थामने से आती है....! 

कुछ लोग हमारा जीवन होते हैं कुछ लोग जीवन में होते हैं.....! 

कुछ लोगों से जीवन होता है पर कुछ लोग होते हैं तो ही जीवन होता है ।


अपने व्यस्ततम् जीवन से थोड़ा सा समय निकालें और एकान्त में शान्ति से बैठें थोड़ी देर के लिए संसार को भूल जाएं ?  

फिर सोचें इतने दिनों के जीवन में जो भी हमने पाया है....! 

क्या हम उस से पूर्ण संतुष्ट हैं....! 

यदि हाँ तो हम सौभाग्यशाली हैं....! 

यदि नहीं तो हम और क्या पाकर संतुष्ट हो जायेंगे ? 

क्या इस संसार में कुछ ऐसा है। 

जिसे पाकर हम पूर्ण संतुष्ट हो जायेंगे ? 

इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है। 

कि जिसे पाकर हम पूर्ण संतुष्ट हो जाएं, कारण हम ईश्वर के अंश हैं...! 

और ईश्वर को पाकर ही पूर्ण संतुष्ट हो सकते हैं हरि ॐ !! 


!!!…Soft Attitude Always Create Strong Relations. It's Better to Make Softness in Our Attitude to Make Long & Strong Relation…!!!

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

     || जय शिव शंकर महादेव ||

Thursday, July 17, 2025

श्रीहरिः सखियों के श्याम...!

श्रीहरिः सखियों के श्याम...! 

( कहा करूँ कित जाऊँ सखी री )


एक पर्णकूटी, यमुनातट से हटकर वृक्ष समूह से आवृत - सी। 

उसमें बाँस की खपच्चियों से बना केवल एक ही वातायन छोटा - सा ।

यह अपराह्न से ही वातायन से सिर टिकाकर खड़ी हो जाती। 

संध्यापूर्व से ही प्रतिचि गोरज मंडित हो जाती और धीरे - धीरे वह प्राणहारी वंशी – रव मन – प्राण – देह को झनझना देता है- उसके प्राण नेत्रों में आ समाते। 

गौरजघन - पटल पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता, तब उसमें स्थिर विद्युत सी आभुषणों की चमक काँधने लगती। 

कुछ क्षण ही कुछ ही क्षण, पर वे कुछ क्षण कैसे कठिन; प्रतिक्षा के अंत का उत्साह, उत्सुकता, आवेग तीव्र अभिप्सा बनकर, प्राणघातक हो रोम-रोम में व्याप्त हो जाती। 

वातायन की ताड़ियों से टिका सिर, फटे-फटे नेत्र, दोनों हाथों से वातायन की छड़ियों को दृढ़ता पूर्वक थामें वह थरथर काँपती देह को सम्हालने का यत्न करती.... । 

आह! कितना कठिन है यह देह को सम्हालना.....! 

और तब....! 

तब जैसे प्राची की कोख से अंशुमाली उदित हुए हों...! 





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वह घनश्याम वपु अपनी मंद - मधुर - मादक गति से आगे बढ़ता दृष्टिगोचर होता – देह त्यागकर सम्मुख दौड़ जाने को आतुर प्राणों को जैसे दर्शनौषधि पाकर अवलम्ब मिलता — अवलम्ब पाती वह काँपती — कमनीय देह दर्शन संजीवनी पाकर।

कभी सखाओं से विनोद करते, कभी इधर मुड़कर फिरकी - सी लेकर एक हाथमें मुरली लिये, दुसरा ऊपर उठाये घूम जाते; कभी कालिन्दी की लहरों - सी उमड़कर हुँकार करती समीप आती गायों की पीठ पर थपकी देते, उनके मुख पर अपना गाल रख हाथों से दुलारते। 

कभी वे रतनारे दीर्घ दृग अट्टालिकाओं पर शोभित कुमुदिनियों को धन्य करते आगे बढ़ रहे थे। 

कभी वे प्रवाल अधर वंशी में विविध मूर्च्छनायुक्त स्वर फूँक प्रतिक्षा संतप्त हृदयों को शीतल लेप से जीवन प्रदान करते नंदभवन के द्वार की ओर बढ़ रहे थे।

झरझर झरता नयन — निर्झर उसका वक्षावरण आर्द्र करता रहता। 

धीरे – धीरे वह नील – ज्योति भवन द्वारमें प्रविष्ट हो जाती और वह अवश - सी भूमिपर झर पड़ती। 

यह उसकी नित्यचर्या थी। 

कबसे ? 

यह तो स्वयं उसे भी ज्ञात नहीं! उसे तो लगता है मानो वह युगों से ऐसे ही प्रतिक्षा करती आ रही है। 

ज्येष्ठकी प्यासी धराकी भाँति प्रतिक्षा ही मानो उसकी नियति है और नित्य ही आषाढ़के प्रथम मेघ - सी कुछ बूंदे प्राप्त होती हैं; जिन्हें पाकर उसकी तृषा द्विगुणित हो दावानलका स्वरूप ले लेती है।

कई सखियाँ जल भरने यमुनाकी ओर जा रही थीं। 

'भला इस एकान्त कुटीमें कौन रहता होगा ?'– 

एक सखीने पूछा। 

'कोई साधु बाबा होंगे उन्हीं को तो एकान्त रुचता है। 

संसारी तो सदा समूह के ही आकांक्षी होते हैं। दूसरी ने कहा। 

'मैं देखकर आती हूँ।' 

श्रियाने कहा- 'यदि साधु हुए तो तुम्हें भी बुला लूँगी, प्रणाम करके आ जायेंगे। 

उनके भजन - ध्यान में विध्न करना अच्छा नहीं होता।'

वह कुटीकी ओर बढ़ी। 

धकेलनेपर द्वार खुल गया, प्रथम कक्षमें कोई नहीं था। 

वह अन्दर कक्षकी ओर बढ़ी; भीतर झाँकते हुए वह चौंककर दौड़ पड़ी, उसकी प्रिय सखी बेहाल पड़ी थी।

'इला ! इला!! ए इला, नेत्र खोल बहिन! 

इधर मेरी ओर देख, मैं श्रिया हूँ! 

मैं श्रिया हूँ बहिन!!' 

एकाएक स्मरण आया- उसे वापस जाने में विलम्ब होते देख कहीं अन्य बहिनें भी न आ जाँय वह वैसे ही उठकर बाहर चली आयी।

'क्या हुआ, कोई है कुटियामें ? "

 'नहीं, कोई नहीं।'

गहन निशा में आकर श्रियाने उसे अंक में भर लिया । 

जलपूर्ण पत्र - पूटक उसके सूखे अधरों से लगाते हुए भरे कंठसे बोली — 'जल पी इला!'

उसकी अपनी नयन - वर्षा थमती ही न थी; कितने दिनों बाद मिली यह प्रिय सखी! 

कितना और कहाँ - कहाँ न ढूँढ़ा इसे मैंने ? 

कितनी बार प्रिया जू ने पूछा, श्यामसुन्दरने पूछा ! 

पर कहाँ बताऊँ ? 

काकी तो जैसे बावरी है ! 

पूछनेपर कहती है- 'अटरिया पै सो रही है लाली! साँझको कन्हाईके आयबेको समय होय, तभी उठके आवै।'

बहुत बहुत प्रयत्नों के पश्चात इला के नेत्र खुले; बाल सखी को पहचान गले में बाँहें डाल वह रो पड़ी।

'कहा भयो इला? 

मुख तें कछु बोल बहिन, इन आँसुन के जिह्वा नाय!'

'सखी मोकू विष लाय दे कहूँ ते!'- इला हिचकियोंके मध्य बोली। 

क्यों ? 

किस लिये; मरने को ?' – 

श्रियाने पूछा ।

'मरकर क्या मिलेगा सुनूँ जरा! 

उठकर बैठ और अपनी बात कह।' — 

श्रियाने सहारा देते हुए कहा।

'हाँ बहिन ! 

मरने पर तो यह सुख भी छिन जायेगा।'

इलाने उसाँस लेते हुए कहा- 'यदि उनकी चरन रज मिल जाय!'

'चरन रजकी का कही; चल मैं तुझे ले चलूँ उनके समीप !'

'ना बहिन! यह मुख उन्हें दिखाने योग्य नहीं है, मुझे ऐसे ही रहने दे | 

यदि ला सके, तो उनकी चरन रज और चरण धोवन ला दे!'

'फिर मरनेकी बात कही तू ने ?' 

'ऐस ही निकल पड़ी मुँहसे। 

मैं अनन्त काल तक उस वातयन के सम्मुख अवस्थित रहकर जीवित रह सकती हूँ बहिन! 

तू जा अब ।'

श्रिया बहुत प्रयत्न करके भी इला को मना न सकी, प्रभात से पूर्व वह घर चली गयी। 

रोती - निश्वासें छोड़ती इला स्वयं को ही न समझ सकी! 

तो सखी को क्या समझाती कि उसे क्या हुआ है। 

कभी-कभार गुनगुनाने लगती - ‘मोहे डस गयो री किशन कालो नाग...।' 

कभी रोते-रोते हँसने लग जाती और कभी हँसते-हँसते स्थिर हो जाती पत्थर की तरह। 

रात्रि ऐसे ही व्यतीत होती और प्रातः पूर्व ही दौड़कर वह वातायन से लगकर खड़ी हो जाती। 

उन नवघन सुन्दर के दर्शन का पारितोषिक पाकर नयन मत्त हो जाते; दिन इस नशे की खुमारी में बीत जाता। 

वह कभी उनकी चाल का अनुकरण करती, कभी मुस्कान - माधुरी के स्मरण में तन्मय हो जाती, कभी उनसे बात करती और कभी स्वयं प्रेष्ठ बनकर इला को मनाने लगती। 

भ्रम टूटनेपर विरह - व्याकुल हो — मूर्च्छित हो धरापर गिर पड़ती। 

साँझ पुनः नयनोत्सवका आनन्द संदेश देती।

आज उसके व्याकुल प्राणोंको औषध नहीं मिली। 

उसके आकुल नेत्र गौओं-ग्वालबालों के बीच अपनी निधि खोज रहे थे। 

किंतु अपनी पारसमणि कहीं न पाकर वातायनकी देहरीपर मस्तक टेककर वह फफक पड़ी। 

कितना समय बीता ऐसे ही कैसे कहा जाय ?

किसी ने कंधे पर हाथ रखा तो वह पलट कर उससे लिपट गयी— 

'मैं क्या करूँ श्रिया, मैं क्या करूँ ?' 

रुदन का वेग अदम्य हो उठा। 

स्नेह — सान्त्वनापूर्ण कर सिर — पीठपर घूमता रहा। 

अधीर मनका वेग जब कुछ धीमा हुआ तो रुँधे कंठ से बोली — 'समझाती हूँ मन को! 

कि नित्य दर्शन पा ही ले ऐसा कौन-सा सुकून बल है तेरे पास ? 

किंतु यह हतभागा हठी मन मानता ही नहीं; इसे तो दर्शन चाहिये - ही - चाहिये। 

कह तो बहिन! मैं क्या करूँ ? 

यह अभागा मन न मानता है, न शाँत होता है। 

यमुनामें डूबने गयी; किंतु आशा मरने नहीं देती। 

मरनेपर तो यह इतना सा सुख भी न मिल पायेगा। 

एक समय था जब मैं बड़ी होनेको मरी जाती थी। 

आज.... आज.... लगता है कोई लौटा दे मेरा वह हीरक जटित बालपन। 

पर बहिन! उसे लेकर भी मैं क्या करूँगी! इस जले कपालमें सुख लिखा ही कहा है? 

जहाँपर चर-अचर, छोटे-बड़े, अपने पराये, सभी उन्हें सुख देने, उनपर न्यौछावर होनेके आतुर रहते - क्षण - क्षण प्रयत्नशील रहते, वहीं मैं निरन्तर उन्हें चिढ़ाती। 

कभी इस जली जीभ ने दो मीठे बोल नहीं कहे। 

सदा व्यंग-तिरछा बोलकर दुःखी करती रही।

एक बार भी सेवाकी बात मनमें नहीं आई। 

सदा ही यह चाहिये- वह चाहिये, यह करो- वह करो, ऐसा क्यों किया— ऐसा क्यों नहीं किया करके उन्हें इधर-उधर दौड़ाती डाँटती रही। 

यही नहीं! 

बिना थके — बिना चोट लगे झूठा प्रपंच करके उनकी पीठपर लद जाती कि मुझे उठाकर ले चलो। 

उन्होंने सदा मेरी रुचि रखी बहिन!'

'वे इतने सीधे और भोले कि जैसे मैं नचाती, वैसे ही नाचते! जो कहती, सो ही करते। 

सम्पूर्ण व्रज जिनके चरणों में बिछा पड़ता था, उन्हें मैं थका थका देती। 

तुम सब मुझे समझाती, पर मैं उनपर एकाधिकार जताते न थकती। 

और जब वह सब समझमें आया, तो मानो ग्लानिका पहाड़ टूट पड़ा... मैं क्या करूँ सखी! 

मैं क्या करूँ! 

न जीया जाता है, न मर ही पाती हूँ।'

"श्रिया! कुछ तो बोल बहिन; कुछ तो कह, मेरे संतप्त देह - मनको तेरे स्पर्शसे बड़ी शीतलता मिली। 

कुछ उपाय बता श्रिया कि प्राणौषधि पा सकूँ। 

उनकी कुछ बात कर बहिन.....! 

उनकी चर्चा कर। 

आज नयन अभागे ही रहे! तू श्रवणोंको धन्य कर दे बहिन....!'

'इला!'— कच्चे गले की वह सुपरिचित वाँछित वाणी के कानों में प्रवेश करते ही इला चौंककर सखी से अलग हो गयी; 

उसकी मूँदी आँखें खुल गयीं और सम्मुख श्याम सुन्दर को खड़े देख वह लाजके मारे दोनों हाथोंसे मुँह छिपा अंत:कक्षमें दौड़ गयी। 

द्वार भेड़, वह दीवारसे लगकर थर-थर काँपती हुई नीचे बैठ गयी। 

आह्लाद, ग्लानि और लाजने मिलकर उसे अधमरी कर दिया।

'इला!' – उन्होंने एक हाथसे बंद द्वारको ठेलते हुए पुकारा। 

द्वार खुल गया, क्योंकि उसमें श्रृंखला थी ही नहीं! 

वे भीतर आ उसके सम्मुख बैठ गये।

'इला!' एक हाथ उसके कंधेपर रख, दूसरेसे मुँहपर लगे हाथ अलग करते हुए उन्होंने कहा – 

'बोलेगी नहीं मुझसे? 

अभी तो श्रिया समझकर कितना कुछ बोल रही थी ?"

इलाकी लज्जा की सीमा न थी। 

उसने किसी ओर थाह न पाकर उनकी गोद में मुँह छिपा लिया। 

उन्होंने हँसकर अंक में भरते हुए कहा —

'अच्छा ही हुआ कि मुझे श्रिया समझ कर तू ने हृदय की बात कह तो दी; अन्यथा भला मैं भोला - भाला समझता ही कैसे ? 

मैं तो सदा तुझे प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करता; तेरा रूठना, लड़ना-झगड़ना, सब मुझे अच्छा लगता।

कोई अपनों से ही तो लड़ता है — रूठता है। 

तुझे रूठे से मनाना मुझे बहुत भाता था। 

अभी भी तो यही समझ रहा था कि तू रूठ गयी है, मैं मनाऊँ भी तो कैसे! तू मिल ही नहीं रही थी। 

काकी से, काका से, श्रिया से, प्रियाजू से; सबसे पूछकर हार थका; कोई ठीक - ठीक बताता ही नहीं था। 

मन न जाने कितनी आशंकाओंसे भर गया था कि कहीं सचमुच ही तो नहीं रूठ गयी तू ? 

तुझे क्रोध बहुत आता है; मेरी किसी बात पर चिढ़कर यमुना में तो नहीं जा पड़ी ?

'तू लड़ती है, मैं तुझसे ब्याह नहीं करूँगा।' 

यह कहने पर तू सन्यासिनी बनने की धमकी देती थी! 

सो मुझे भय हुआ कहीं सचमुच तो सन्यासिनी नहीं हो गयी ?

किसीसे कुछ कह भी नहीं पाता, अपनी ही समझ के अनुसार खोजने का प्रयत्न करता। 

आज प्रातः गोचारण को जाते समय श्रिया ने बताया कि तू यहाँ है। 

तूझे पाकर ऐसा लगा मानो प्राण ही पा गया हूँ। 

अब मुझे छोड़कर कहीं ना जाना....।'

दोनों हृदयों में कहीं ठौर न पाकर लज्जा प्राण लेकर भाग छूटी। 

इला ने निश्चिन्त हो अपने प्राणाधार के वक्ष पर सिर टेक नेत्र मूँद लिये।

'मैं...... तु.... म्हा....... री....... ' आनन्दातिरेक में स्वर खो गये।
जय श्री राधे..... श्री राधे 🙏🏽 
 
श्रीहरिः सखियों के श्याम 

( कहा कहूँ कुछ कहत न आवे )

उधो जू! तुम चाहे कुछ कहो, तुम्हारे ये उपदेश हमारी समझ से परे हैं।' 

ललिता जू ने कहा — 'जो उनके मुख नहीं होता तो वे हमारे घर का माखन बरबस चुरा चुराकर कैसे खाते ? 

पाँव नहीं है तो गायों के संग कौन वन – वन भागा फिरता था ? 

आँखें नहीं तो जिन आँखों में काजल आँजा करती थी मैया, वे क्या थी? 

बिना हाथ गोबर्धन उठाया वह हाथ किसके थे ? 

बिना मुख के कैसे बाँसुरी बजायी ? 

आह, यह सब हमारी आंखों के सामने बीता है और तुम उस झुठलाना चाहते हो ? 

उनकी लीलायें, उनका स्वर, उनका रूप सब कुछ हमारे रोम-रोम में बस गया है; वह सब झूठ था ? 

हमारा भ्रम था ? 

नहीं उधोजू! वह नंद यशोदा के पुत्र और हमारे व्रज के नाथ हैं। 

तुम कैसे भी बनाकर कहो यह बात कभी हमारे गले नहीं उतरेगी।

"अरी सखी! यामें ऊधो जू कहा करें बिचारे, इन्हें तो उन चतुर सिरोमणि ने सिखाकर भेजा है। 

ये तो शुक की भाँति सीखा हुआ ही बोल रहे हैं।'—

एक सखी ने कहा।

तुम कहते हो 'गुण-ही-गुण में बरतते हैं, वे गुण रहित है।

श्रुति बोली—' 

तो कहो श्याम सखा ! 

गुण आये ही कहाँ से ? 

भला बिना बीज के कहीं वृक्ष उपजा है? 

क्या उन्हीं के गुणों की परछाहीं माया की आरसी में दिखायी नहीं देती ? 

जल और लहरों की भाँति जगत क्या उनसे कुछ भिन्न है ? 

जिन वेदों की बात समझाने आये हो वे क्या उनके श्यामरूप नहीं ? 

कर्म के मध्य कभी किसी ने पाया? जिसने भी पाया — 

प्रेम से ही पाया है। सूर्य, चन्द्र, धरा, गगन, जल और अग्नी; इन सबकी शक्ति — 

इनका प्रेरक वहीं नहीं है ? 

जगत के सारे गुण नश्वर हैं और तुम्हारे अच्युत वासुदेव इनसे भिन्न है ? 

अरे ओ ज्ञानगंगा में नहावनिहारे महाराज ! 

प्रकट सूर्य को छोड़कर तुम परछाहीं की पूजा करते हो, जैसे हथेली पर धरे आँवले में तुम्हें ब्रह्म ही 

दिखायी देता है ? 

हमें तो उस मदनमोहन रूप के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं सुहाता।'

श्रुति के कहते — कहते ही हमारी आँखों के सामने श्यामसुंदर का वह भुवनमोहन रूप छा गया। 

कहाँ उद्भव और कैसे उनके उपदेश; कुछ भी स्मरण नहीं रहा। 

सखियाँ व्याकुल हो एक स्वर से रुदन करती हुई पुकार उठीं — 

'हा नाथ ! 

हा रमानाथ ! 

यदुनाथ! हमारे स्वामी ! 

ओ नंदनंदन ! 

तुम्हारे बिना – यह देखो तुम्हारी गायें कैसी भटकती फिर रही है ? 

क्यों नहीं इन्हें सम्हालते ? 

हम दुःख सागर में डूबकर बिलख रही है; क्यों नहीं अपने अजानुभुज बढ़ाकर—

हमें अवलम्ब देकर सुखी करते ?

' कोई कह रही थी—' अहा श्यामसुन्दर ! 

तुम तो किसी को दुःखी नहीं देख सकते थे, फिर दर्शन देकर क्षणभर में ही छिप जाना — हमारी प्यास बुझ भी न पायी कि अंतर्धान हो जाना, यह छल विद्या तुम्हें किसने सिखायी ? 

हम तो तुम्हारे प्रेम, रूप और गुणों के आधीन हैं। 

कहो तो, बिना जल के मत्स्य कैसे जी पायेगी ?"

कोई कहती थी— 'अहो, कान्ह जू! अपनी बंसी की मधुमय तान सुनाकर, दर्शन देकर हमें जीवन प्रदान करो । 

तुम्हारे हम–सी बहुत होंगी किंतु श्याम जू! हमारे तो एक तुम ही अवलम्ब हो। 

बहुत होने से ही क्या यों प्रीत तोड़ दोगे ? 

इस प्रकार दूर दूर रहकर हृदय के घावोंपर नमक मत लगाओ।'

कोई कहती......!

सखा सुन श्यामके...!

ताइबो भलो जन को भली सदा निठुराई।

भलौ नहीं मुख मोड़िबौ पाई श्याम ठकुराई।
                     
कहियो प्राननि—प्रान सों।।

'यदि हम मर गयी तो सोचो कितना बड़ा कलंक तुम्हारे माथे लगेगा ? 

इसका भी तुम्हें डर नहीं है? 

अबला-वध के भय से तो बड़े-बड़े बलवान भी काँप जाते हैं।'

कोई कहने लगी- 'अहो श्याम ! 

ऐसे ही मारना था तो गोबर्धन उठाकर हमारी रक्षा क्यों की ? 

नाग से, दावाग्नि से क्यों बचाया हमें ? 

अब उस विरहाग्नि में हँस-हँसकर जला रहे हो । 

प्रियवर! हमारा चित हमारे हाथ में नहीं है, इसी से इतनी निष्ठुरता क्या तुम्हें बरतनी चाहिये ? "
कोई कहती—'

अरे ये सदा के निष्ठुर हैं, इन्हें कोई पाप नहीं लगता। 

ये स्वयं ही पाप — पुण्य के सिरजनहार है, फिर डर काहे का! जानती नहीं, दूध पिलाने आयी उस बेचारी पूतना के प्राण ही ले लिये। 

जब छः दिन के शिशु थे तब ही इनके ऐसे लक्षण थे; अब तो कहने ही क्या ?'

किसीने कहा— 'अरी सखी! 

अब की ही क्या कहती हो, यह तो इनका पुराना स्वभाव है। 

इन्होंने विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने के लिये जाते समय पथ में मिली ताड़का को मार डाला था। 

जब ये मर्यादा पुरुषोत्तम रघुवंशी कुल प्रदीप थे। 

तुम इन्हें नारी वध का डर क्या दिखाती हो, यह तो पहले भी नारी वधकर चुके हैं।'

कोई बोली- 'अरी बहिन! उस समय तो ये पूरी तरह स्त्रीजित स्त्रैण पुरुष थे। 

सीता के कहने में आकर शरणागत-रक्षण करनेवालों में श्रेष्ठ इन धर्मधुरीन शस्त्रधारी ने छलपूर्वक सूपर्णखा के अंग-भंग कर लोकलाज की भी परवाह नहीं की। 

उसका अपराध क्या था कहो तो; वह इनके त्रिलोक विमोहन रूप पर आसक्त हो गई, यही न? 

ऐसे की क्या बात करनी ?"

एक ने कहा- 'अरी बहिनों लोक— लाज गयी चूल्हे में, लोभ हू के पोत ( जहाज ) है ये। 

इनके गुण क्या सुनाऊँ तुम्हें; बलि राजा के समीप भूमि माँगने गये ये हमारे वनमाली। 

उसने अपना वचन निभाया, पर इन्होंने छलपूर्वक उसका सर्वस्व हथिया कर बाँध दिया। 

यही नहीं उसके सिरपर अपना पाँव रख दिया, कहो तो कैसा न्याय किया ?'

दूसरी बोली – 'इन्हें क्या कहे? 

ऐसे चरित्र हैं इनके कि कहा नहीं जाता। 

परशुराम होकर परशु ( कुल्हाड़ा ) कंधे पर धरकर निकले और भूमि क्षत्रियहीन कर दी । 

अपराध एक का और दण्ड इतनों को — रक्त के पाँच कुंड भर दिये, उसी से अपने पितरों का तर्पण किया। इतना ही नहीं सखी! 

उस समय अपनी माता — जननी को भी मारने में नहीं हिचकिचाये। 

इनकी निष्ठुरता की सीमा नहीं है।'

किसी ने कहा- 'अरी हिरण्यकश्यप से इनका भला क्या झगड़ा था ? 

प्रह्लाद ने पिता के सामने बोलकर ढ़िठाई की, पिता ने उसको दंड देकर शिक्षा देनी चाही, इसमें भला क्या बुरा किया था। 

बीच में ही नरसिंह वपुधार के कूद पड़े और नखों से उसे फाड़ डाला, भला किस अपराध में।'

कोई बोली – 'अरे शिशुपाल का ही क्या दोष था ? 

बिचारा विवाह करने भीष्मक के यहाँ गया वर वेश धारण कर— बरात लेकर। 

ये बीच में ही छल करके उसकी दुलहिन को इस प्रकार हर लाये जैसे भूखे के मुख से कोई ग्रास छीन ले। 

ये तो सदा के स्वार्थी है।'

उसी समय कहीं से एक भ्रमर उड़ता हुआ आया और गुंजन करता हुआ श्रीकिशोरी जू के चरणों को कमल समझकर बैठने का उपक्रम करने लगा। 

श्री जू भावाविष्ट-सी बोली- 'नहीं, मेरे पाँव न छुओ। 

तुम चोर हो, कपटी हो, श्यामसुंदर भी तुम्हारे ही समान कपटी हैं। 

क्या तुम उन्हीं के दूत बनकर आये हो ?

क्या तुमने और तुम्हारे स्वामी, दोनों ने ही लज्जा बेच खायी है ? 

यहाँ गोपीनाथ कहलाते थे, यह नाम उन्हें रुचों नहीं; अतः अब कुबरी दासी के दास कहलाकर, उसकी झूठन खाकर यदुकुल को पावन किया।

रे मधुप ! तू कान्ह कुँअर के क्या गुणगान करता है रे, उनके गुण हम भली प्रकार जानती है, तेरी चतुराई यहाँ नहीं चलेगी! अरे, तू भी उनसा ही है, भोली - भाली कलियों को मोहकर उनका रस ले उड़ जाता है, ऐसे ही तेरे नागर नंदकिशोर हैं। 

हमें तेरी बात नहीं सुननी, तू जा यहाँ से। 

तेरे स्वामी त्रिभंगी ठहरे, यहाँ भला उनकी जोड़ी की नारी कहाँ से मिलती ?

मथुरा में बड़े भाग से त्रिवक्रा मिली, अब अच्छी जोड़ी जमी! रूप, गुण और शील, सब प्रकार से वह उनके अनुरूप है।'

"मधुकर! श्यामसुन्दर गुरु; और तू उनका शिष्य ! 

यह जोड़ी भी सब प्रकार से अनुरूप है, तुझे ज्ञान का पाठ पढ़ा—ज्ञान गठरी सिर पर देकर यहाँ भेज दिया, किंतु यहाँ व्रज में कोई तुम्हारा ग्राहक नहीं है, अतः पुनः रावरे पधारो। 

क्या कहते हो कि — तुम और तुम्हारे स्वामी साधु पुरुष हैं ? 

तो तुम्हारे वहाँ के सिद्ध पुरुष कैसे होते होंगे भला? गुण को मिटाकर औगुण को ग्रहण करनेवाले उन मथुरावासियों से निर्गुण होकर ही मोहन क्यों नहीं व्यवहार करते ?"

'अहो मधुप ! जगत में जितने भी काले देखे, सबके सब कपटी और कपट की खान पाये हमने । 

एक श्याम जू के स्पर्श से आजतक तन - मन जल रहे हैं। 

ऊपर से मानो यह पीड़ा थोड़ी थी कि तुम – सा काला भुजंग और भेज दिया। 

तुम दोनों कितने एक समान हो, यह तो आरसी में मुख देखते ही तुम्हें ज्ञात हो जायेगा । 

अरे ओ आलिंद ! 

यह कैसा न्याय है कि हम प्रेमियों के लिये ज्ञान, मुद्रा, वैराग्य और योग की भेंट भेजी, ऐसा करते हुए उनका हृदय तनिक भी काँपा नहीं ?' – 

कहते हुए श्रीकिशोरीजी के साथ समवेत स्वर में सभी सखियाँ बिलखकर रो उठी—

‘हा नाथ! केशव! कृष्ण! मुरारी! तुम तो करुणामय हो, यह कैसी करुणा है तुम्हारी ?'

उनकी व्याकुलता देखकर मुझ से रहा न गया— 'ऊधो जू! तुम्हारे वे यदुनाथ, वासुदेव और देवकीनन्दन यहाँ व्रज में क्या इनके प्राण लेने ही पधारे थे ? 

क्यों नहीं वहीं मथुरामें बने रहें ? 

यहाँ नंदनंदन, यशोदानंदन, गोपाल, गोविंद व्रजवल्लभ, गोपीनाथ होने क्यों आये ? 

जब अन्त में उन्हें मथुरा ही प्यारी थी तो क्यों हमसे नेह बढ़ाया। 

अरे! तुम उनके कितने गुण गाओगे, जो जन्म लेते ही छल - विद्या में पारंगत हो गया। 

उसने हमारे जले पर नौन लगाने भेजा तुम्हें योग लेकर ?' 

'अहा स्याम जू, तुमने भली करी ! 

इन प्रेममूर्तियों को देनेके लिये भला पास था ही क्या ? 

ऊधो, तुम भी बज्र ( पत्थर ) का हृदय लेकर ही आये.... आह ! '

अब उद्धव जी मथुरा वापस जाते - जाते चिंतन कर रहे हैं।—

इन प्रेम स्वरूपाओं के अगाध नेह की, प्रयत्न करने पर भी मुझे थाह न मिली। 

जितना गहरा उतरता था, उतना ही इनके हृदय का प्रेम — सागर अगाध जान पड़ता था। 

नित्य ही मैं भिन्न-भिन्न प्रकार से ज्ञान - योग समझाने का प्रयत्न करता, किंतु इनके प्रेम की विरह की तीव्र धारा में मेरा ज्ञान और मैं दोनों ही बह जाते।

आज श्री जू और चम्पा के उद्गारों ने मुझे सर्वथा निरस्त कर दिया। 

अहो, इनके दर्शन पाकर मैं धन्य हुआ। 

आजतक ज्ञान कर्म की निरस भूमिका बाँधता रहा, इन प्रेममयी के सम्मुख जिन्होंने धर्म और मर्यादा की मेंड़ लाँघ दी। 

इस प्रकार जो टूटकर प्रभु को चाहें, तो उनके सम्मुख जोग, ज्ञान और कर्म हीरे के सामने काँच के समान ही तो होंगे। 

ये गोपिकायें धन्य हैं । 

इतने समय तक मैं ज्ञानमद की व्याधि से पीड़ित मरता रहा ।

विधाता! यदि मैं इनके मार्ग की धूरि बन सकूँ, तो इनके पदस्पर्श का सौभाग्य पा धन्य हो जाऊँ । 

यदि विधाता मुझे इस व्रज में लता, गुल्म अथवा दुर्वा–ही बना दें, तो आते — जाते इनकी परछाँही और पवन के संयोग से इनकी चरण धूलि मुझ पर पड़ जाय; इनकी कृपा से तनिक - सा प्रेम मैं भी पा सकूँ तो मेरा कल्याण हो जाय; किंतु यह भी तो मेरे वश की बात नहीं है। 

यदि श्यामसुंदर प्रसन्न हो जाय तो उनसे यही वर माँग लूँगा। 

प्रभु की महती कृपा है कि संदेश के मिस मुझे यहाँ प्रेम - पाठ पढ़ने पठाया अन्यथा मुझ मूढ़ के भाग्य में प्रेमानंद कहाँ ?
जय श्री राधे....!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु ।
जय श्री राधे.....

श्री राधे
श्री राधे 🙏🏽