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Thursday, July 10, 2025

गोमुख के अद्धभुत रहस्य , फूल ( अस्थियों ) का गंगा...!

गोमुख के अद्धभुत रहस्य  , फूल ( अस्थियों ) का गंगा...!  

गोमुख के अद्धभुत रहस्य...! 


गोमुख का मार्ग बहुत विकट है। 

सड़क तो क्या कोई पगडंडी भी नहीं है। 

ऊबड़ खाबड़ पड़े हुए पत्थरों पर चलना पड़ता है, वैसे अब कुछ दूर तक मार्ग बन गया है। 

चीड्वासा से हो कर गोमुख पहुंचा जाता है। 




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बर्फ के गलने से गंगा का जल उत्पन्न होता है, यहाँ जल का वेग अति तीव्र होता है। 

जिस ग्लेशियर से गंगा जी निकलीं हैं वह प्रतिवर्ष कम होता जा रहा है। 

गंगा जी के उद्गम स्थान पर बर्फ का ग्लेशियर लगभग १०० फुट ऊंचा और आधा मील चौड़ा था। 




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इसकी लम्बाई का अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि यहाँ बड़े बड़े पर्वत खड़े हैं जो एक तरफ से बद्रीनाथ से जुड़े हैं तो एक तरफ से केदारनाथ से। 

यहाँ से बद्रीनाथ 12 मील के लगभग है जो केदारनाथ की अपेक्षा ज्यादा निकट है। 

यहाँ से केदारनाथ का मार्ग 15 मील है परन्तु इस मार्ग को खोजना अत्यंत कठिन है, परन्तु कोई गुप्त मार्ग यहाँ केदारनाथ के लिए अवश्य है। 




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यहाँ से अदृश्य नगरी सिद्धाश्रम स्तवन तीन -चार मील पर ही स्थित है परन्तु साधारण जनमानस को दिखाई नहीं दे सकता। 

यहाँ जब वृक्ष नाममात्र के दिखलाई देने लगे तो समझ लें कि सिद्धाश्रम निकट ही है। 

नंदवन के निकट जिसके उत्तर में गंगा ग्लेशियर है तो दक्षिणी भाग में शिवलिंग पर्वत, इसकी ऊंचार 21 हजार फीट है, इसके नीचे एक नदी है जो केदारनाथ से आती है। 




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सिद्धाश्रम की ऊंचाई लगभग 13 हजार फीट तथा गोमुख की ऊंचाई 12 हजार 9 सौ फीट है।

नंदवन से होकर जाने पर मार्ग में चौखम्बा पर्वत मिलता है। 

नंदवन से हो कर जाने पर गोमुख और सिद्धाश्रम क्षेत्र सामने ही दिखते हैं। 

यहाँ का मार्ग अत्यंत दुर्गम और पिसलन भरा है चारों तरफ बर्फ ही बर्फ दिखलाई पड़ती है। 




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गोमुख का अर्थ :


भोजपत्र के जंगल से होते हुए गोमुख मिलता है, गोमुख के बारे में किवदंतियां प्रसिद्ध हैं कि गंगा की हिमधारा के ऊपर जो पर्वत है इस सबको संयुक्त रूप से मिलाकर गाय के मुख के समान जो आकृति बनी है, इसे ही गोमुख कहते है। 

कोई कहता है कि जिस स्थान से गंगा जी निकली है वो स्थान गोमुख की भाँति बना हुआ है। 

परन्तु विचार करें कि वेद में पृथ्वी को गो भी कहा गया है। 




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निघुंट में पृथ्वी के 22 पर्यायवाची दिए गए हैं, इसमें गो शब्द भी आता है। 

इस लिए गो नाम पृथ्वी का है, और पृथ्वी का मुख फाड़ कर गंगा जी का उद्गम हुआ है। 

गंगा के ऊपर का भाग आधा मील तक हिम से आच्छादित है। 





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इसे हिम धारा भी कह सकते हैं.परन्तु गंगा का वास्तविक उद्भव स्थान अज्ञात है। 

जहाँ कही भी गंगा जी का उद्गम हुआ होगा वह स्थान अदृश्य है, प्रत्यक्ष नहीं। 

गंगा ग्लेशियर के एक तरफ केदारनाथ दूसरी तरफ बद्रीनाथ है, इतना बड़ा ग्लेशियर पर कहीं भी किसी भी नदी के ऊपर नहीं है। 

बद्रीनाथ की ओर से अलकनंदा और ऋषिगंगा नदी निकलती हैं। 

ऋषिगंगा नदी की एक धारा कुछ दूर जा कर अदृश्य हो जाती है, कहा जाता है कि ये नदी सिद्धाश्रम होते हुए कैलाश क्षेत्र की तरफ निकल जाती है। 

गंगोत्री में केदार - गंगा और रूद्र - गंगा का संगम है। 





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पकोड़ी गंगा भी एक मील बाद गंगा से मिलती है। 

यहाँ से आधे मील की दूरी पर लक्ष्मी वन है जिसे गंगा जी का बागीचा भी कहते हैं। 

गंगरोत्री मंदिर के पास भगीरथ शिला है यहाँ पर महाराज भगीरथ ने तपस्या की थी। 

गौरी कुंड का दृश्य अत्यंत दर्शनीय है। 

यहाँ से बहुत ऊंचाई से गंगा जी कुंड में गिरती है। 

यहाँ भगवान शंकर का वरण करने के लिए पार्वती जी ने घोर तपस्या की थी। 

यह स्थान अत्यंत शांत, रमणीय और आध्यात्मिक है।




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गोमुख जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार अपनी जगह पीछे की ओर जा रहा है। 

वो अब तक 18 किलोमीटर पीछे जा चुका है। 

गंगा गौ मुख रूपी ग्लेशियर से निकलती है। 

इस स्थान पर इन्हें भगीरथी भी कहा जाता है। 

यहां से निकलकर गंगा जब अलकनंदा से मिलती हैं तो वह गंगा कहलाती है। 

उत्तराखंड के उत्तर काशी जिले में हिमालय के शिखरों से निकलने वाली गंगा की उद्गम स्थल गोमुख से गंगोत्री की दूरी लगभग 18 किलोमीटर है। 

गंगोत्री स्थित गौड़ी कुण्ड को देखने से लगता है कि शिव जी ने निश्चित ही अपनी विशाल जटाओं में गंगा को बांध लिया है। 





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गौड़ी कुण्ड के इस दिव्य दृश्य को देख कर दर्शक आनंद विभोर हो जाता है। 

गौमुख को देखने से ऐसा लगता है जैसे देवाधिदेव महादेव ने अपनी स्वर्णिम जटा को गोल में घुमाकर इस गौड़ी कुण्ड में एक लट से गंगा को इस कुण्ड में निचोड़ दिया है। 

यहाँ से पहाड़ों के सीना को चीरती हुई आगे की ओर बढ़ती हैं और यहाँ इसे भागीरथी के नाम से पुकारा जाता है। 

वैसे देवप्रयाग में सात नदियों की धारा मिलकर गंगा बनती है। 

इन सब श्रेष्ठ जीवन दायनी देव नदियों के नाम क्रमश: भागीरथी, जाह्नवी, भीलगंगा, मंदाकिनी, ऋषि गंगा, सरस्वती और अलकनंदा है। 

ये सभी देव नदियां देव प्रयाग में आकर मिलती हैं।     





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गोमुख पर लगातार रिसर्च करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियर का एक टुकड़ा टूटने के कारण गोमुख बंद हो गया है। 

वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसा भी नहीं है कि गोमुख के बंद हो जाने से गंगा में पानी का प्रवाह बंद हो गया हो। 

गोमुख का क्षेत्रफल 28 किलोमीटर में फैला हुआ है। 

ये समुद्रतल से 3,415 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। 

इस में गंगोत्री के अलावा नन्दनवन, सतरंगी और बामक जैसे कई छोटे - छोटे ग्लेशियर स्थित हैं। 

अब गंगा की मुख्य धारा नन्दन वन वाले ग्लेशियर से निकल रही है। 

गोमुख का बंद होना सबको चकित कर रहा है और गंगोत्री पर शोध करने वाले वैज्ञानिक इसकी पड़ताल करने में जुटे हैं।




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वैज्ञानिकों ने पाया है कि गोमुख से निकलने वाली नदी की धारा की दिशा बदल रही है। 

गोमुख एक ग्लेशियर है और पहले इससे सीधे - सीधे भागीरथी निकलती थीं लेकिन अब इसके बाएं तरफ से निकल रही हैं। 

गोमुख में एक झील बन गयी है जिसके कारण ये परिवर्तन आया है। 

इस झील के कारण गंगा लगातार बदली हुई दिशा में बह रही हैं और इसका अंतिम परिणाम गोमुख के नष्ट होने के रूप में हो सकता है।




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फूल ( अस्थियों ) का गंगा...! 

फूल ( अस्थियों ) का गंगा आदि पवित्र नदियों में विसर्जन क्यों ? 


मृतक की अस्थियों ( हड्डियों ) को धार्मिक दृष्टिकोण से 'फूल' कहते हैं। 

इस में अगाध श्रद्धा और आदर प्रकट करने का भाव निहित होता है। 

जहां संतान फल है, वहीं पूर्वजों की अस्थियां 'फूल' कहलाती हैं।




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इन्हें गंगा जैसी पवित्र नदी में विसर्जन करने के दो कारण बताए गए हैं। 

पहला कूर्मपुराण के मतानुसार...!


यावदस्वीनि गंगायां तिष्ठन्ति पुरुषस्य तु ।

तावद् वर्ष सहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥ 31 ॥ 


तीर्थानां परमं तीर्थ नदीनां परमा नदी। 

मोक्षदा सर्वभूतानां महापातकीनामपि ॥ 32 ॥ 





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सर्वत्र सुलभा गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा । 

गंगाद्वारे प्रयागे च गंगासागरसंगमे ॥ 33॥ 


सर्वेषामेव भूतानां पापोपहतचेतसाम् ।

गतिमन्वेषमाणानां नास्ति गंगासमा गतिः ॥ 34 ॥


-कूर्मपुराण 35 31-34


अर्थात् जितने वर्ष तक पुरुष की अस्थियां ( फूल ) गंगा में रहती हैं, उतने हजार वर्षों तक वह स्वर्गलोक में पूजित होता है। 

गंगा को सभी तीर्थों में परम तीर्थ और नदियों में श्रेष्ठ नदी माना गया है, वह सभी प्राणियों, यहां तक कि महापातकियों को भी मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। 

गंगा सर्व - साधारण के लिए सर्वत्र सुलभ होने पर भी हरिद्वार, प्रयाग एवं गंगासागर - इन तीनों स्थानों में दुर्लभ होती है। 

उत्तम गति की इच्छा करने वाले तथा पाप से उपहत चित्त वाले सभी प्राणियों के लिए गंगा के समान और कोई दूसरी गति नहीं है।


मृतक की पंचांग अस्थियों को गंगा में विसर्जित करने के संबंध में शास्त्रकार कहते हैं।


यावदस्थीनि गंगायां तिष्ठिन्ति पुरुषस्य च। 

तावद्वर्ष सहस्राणि ब्रह्मलोके महीयते ॥


-शंखस्मृति 


अर्थात मृतक की अस्थियां जब तक गंगा में रहती हैं, तब तक मृतात्मा शुभ लोकों में निवास करता हुआ हजारों वर्षों तक आनन्दोपभोग करता है।


धार्मिक लोगों में यह भी मान्यता है कि तब तक मृतात्मा की परलोक यात्रा प्रारंभ नहीं होती, जब तक कि उसके फूल गंगा में विसर्जित नहीं कर दिए जाते।





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दूसरा, मृतक की अस्थियों को गंगा आदि पवित्र नदियों में विसर्जन करने की प्रथा के पीछे भी वैज्ञानिक तथ्य छुपा हुआ है। 

चूंकि गंगा नदी से सैकड़ों वर्ग मील भूमि को सींचकर उपजाऊ बनाया जाता है, जिससे उसके निरंतर प्रवाह के कारण भी उपजाऊ शक्ति घटती रहती है। 

ऐसे में गंगा में फास्फोरस की उपलब्धता बनी रहे, इसी लिए उसमें अस्थि विसर्जन करने की परंपरा बनाई गई है, ताकि फास्फोरस से युक्त खाद, पानी द्वारा अधिक पैदावार उत्पन्न की जा सके। 





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उल्लेखनीय है कि फास्फोरस भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक तत्त्व होता है, जो हमारी हड्डियों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 


Wednesday, July 9, 2025

मीरा और कृष्ण का प्रेम !

|| मीरा और कृष्ण का प्रेम ||

मीरा और कृष्ण का प्रेम...!

मीरा का मार्ग था प्रेम का, पर कृष्ण और मीरा के बीच अंतर था पाच हजार साल का। 

फिर यह प्रेम किस प्रकार बन सका।




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प्रेम के लिए न तो समय का कोई अंतर है और न स्थान का। 

प्रेम एकमात्र कीमिया है, जो समय को और स्थान को मिटा देती है। 

जिससे तुम्हें प्रेम नहीं है वह तुम्हारे पास बैठा रहे, शरीर से शरीर छूता हो, तो भी तुम हजारों मील के फासले पर हो। 

और जिससे तुम्हारा प्रेम है वह दूर चांद - तारों पर बैठा हो, तो भी सदा तुम्हारे पास बैठा है। 

प्रेम एकमात्र जीवन का अनुभव है जहां समय और स्पेस, समय और स्थान दोनों व्यर्थ हो जाते हैं।




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प्रेम एकमात्र ऐसा अनुभव है जो स्थान की दूरी में भरोसा नहीं करता और न काल की दूरी में भरोसा करता है, जो दोनों को मिटा देता है। 

परमात्मा की परिभाषा में कहा जाता है कि वह काल और स्थान के पार है, कालातीत। 

प्रेम परमात्मा है-

इसी कारण। 

क्योंकि मनुष्य के अनुभव में अकेला प्रेम ही है जो कालातीत और स्थानातीत है।

उससे ही परमात्मा का जोड़ बैठ सकता है।

इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कृष्ण पाच हजार साल पहले थे। 

प्रेमी अंतराल को मिटा देता है। 

प्रेम की तीव्रता पर निर्भर करता है।





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मीरा के लिए कृष्‍ण समसामयिक थे। 

किसी और को न दिखायी पड़ते हों, मीरा को दिखायी पड़ते थे। 

किसी और को समझ में न आते हों, मीरा उनके सामने ही नाच रही थी।

मीरा उनकी भाव- 

भंगिमा पर नाच रही थी। 

मीरा को उनका इशारा - इरादा  साफ था।

यह थोड़ा हमें जटिल मालूम पड़ेगा, क्योंकि हमारा भरोसा शरीर में है। 

शरीर तो मौजूद नहीं था।




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कृष्णा ने स्वयं कहा है कि जो मुझे प्रेम करेंगे और जो मेरी बात को समझेंगे, कितना ही समय बीत जाए, मैं उन्हें उपलब्ध रहूंगा। 

और जिन्होंने प्रेम नहीं किया, वे  सामने बैठे रहे तो भी उपलब्ध नहीं थे। 

शरीर समय और क्षेत्र से घिरा है। 

लेकिन तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, समय और और क्षेत्र का उस पर कोई संबंध नहीं है।

वह बाहर है। 

वह अतिक्रमण कर गया है। 

वह दोनों के अतीत है।




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जिस कृष्‍ण को मीरा प्रेम कर रही थी, वे देहधारी कृष्ण नहीं थे।

वह देह तो पाच हजार साल पहले जा चुकी।वह तो धूल - धूल में मिल चुकी। 

इस लिए जानकार कहते हैं कि मीरा का प्रेम राधा के प्रेम से भी बड़ा है। 

होना भी चाहिए।

अगर राधा प्रसन्न थी कृष्ण को सामने पाकर, तो यह तो कोई बड़ी बात न थी। 

लेकिन मीरा ने पांच हजार साल बाद भी सामने पाया, यह बड़ी बात थी।





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गोपियों ने कृष्‍ण को मौजूदगी में पाया और प्रेम किया– 

प्रेम करने योग्य थे वे, उनकी तरफ प्रेम सहज ही बह जाता, वैसा उत्सवपूर्ण व्यक्तित्व पृथ्वी पर मुश्किल से होता है-

तो कोई भी प्रेम में पड़ जाता। 

लेकिन कृष्ण गोकुल छोड़कर चले गए द्वारका, तो बिलखने लगीं गोपियां, रोने लगा, पीड़ित होने लगीं।

गोकुल और द्वारका के बीच का फासला भी वह प्रेम पूरा न कर पाया। 

वह फासला बहुत बड़ा न था। 

स्थान की ही दूरी थी, समय की तो कम से कम दूरी न थी।





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मीरा को स्थान की भी दूरी थी,समय की भी दूरी थी; पर उसने दोनों का उल्लंघन कर लिया, वह दोनों के पार हो गयी। 

प्रेम के हिसाब में मीरा बेजोड़ है। 

एक क्षण उसे शक न आया, एक क्षण उसे संदेह न हुआ, एक क्षण को उसने ऐसा व्यवहार न किया कि कृष्ण पता नहीं, हों या न हों। 

वैसी आस्था, वैसी अनन्य श्रद्धा फिर समय की कोई दूरी - दूरी नहीं रह जाती। 

दूरी रही ही नहीं।

आत्मा सदा है। 

जिन्होंने प्रेम का झरोखा देख लिया,उन्हें वह सदा जो आत्मा है, उपलब्ध हो जाती है।

जो अमृत को उपलब्ध हुए हैं - कृष्ण जब भी उन्हें प्रेम करेंगे, तभी उनके निकट आ जाएंगे। 

वे तो सदा उपलब्ध हैं, जब भी तुम प्रेम करोगे, तुम्हारी आख खुल जाती है।


         || कृष्ण प्रेम की दिवानी मीरा ||





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|| गर्भपात महापाप ये दुगुना पाप ||


यत्पापं ब्रह्महत्याया द्विगुणं गर्भपातने।

प्रायश्चितं न तस्यास्त्यागो वीधीयते ।।

         

अर्थात्:- ब्रह्महत्या से जो पाप लगता है ।

उससे दुगुना पाप गर्भपात करने से लगता है।

इस गर्भपात रूपी महापाप का कोई प्रायश्चित नहीं है। 

इसमें तो उस स्त्री का त्याग कर देना ही विधान है ।




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भगवान विशेष कृपा करके ही जीव को मनुष्य शरीर देते हैं।

पर नसबंदी,आप्रेशन,गर्भपात, लूप, गर्भनिरोधक दवाओं आदि के द्वारा उस जीव को मनुष्य शरीर में न आने देना जन्म से पहले ही उस जीव को नष्ट कर देना बडा भारी पाप है।


वह जीव मनुष्य शरीर में आकर न जाने क्या - क्या अच्छे काम करता , समाज की सेवा करता ,अपना उद्धार करता , पर जन्म लेने से पहले ही उसकी हत्या करना घोर अन्याय है , घोर पाप है ।

अपना उद्धार,व कल्याण न करना भी पाप है।

फिर दूसरे को उद्धार का मौका प्राप्त न होने देना कितना बडा पाप है।


ऐसा महापाप करने वाले स्त्री - पुरूष को अगले जन्म में कोई संतान नही होगी।वे संतान के बिना जन्म- जन्मातर तक रोते रहेंगे।


              { पारासर स्मृति 4 / 20 }





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प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के माध्यम से अपना भविष्य स्वयं बनाता है।

यदि वह अच्छे कर्म करता है। 

जैसे सत्य बोलना सेवा करना परोपकार करना योग्य पात्रों को दान देना वैदिक धर्म प्रचार में सहयोग देना इत्यादि, तो ईश्वर उसे सुख फल देता है।


यदि कोई व्यक्ति बुरे काम करता है। 

जैसे झूठ बोलना चोरी करना रिश्वत लेना ब्लैक मेल करना ब्लैक मार्केटिंग करना दूसरों को धोखा देना दूसरों की संपत्ति हड़प लेना इत्यादि, तो ईश्वर उसे इसी जन्म में चिंता तनाव क्रोध लोभ मोह आदि अनेक मानसिक रोग और अगले जन्म में शेर भेड़िया सांप बिच्छू कुत्ता बिल्ली आदि योनियों में अनेक दुख देता है।

तो जो व्यक्ति शुभ कर्मों को करके अपना सुख स्वयं बढ़ाता है, वह स्वयं अपना ही मित्र है। 

और जो पाप कर्म करके स्वयं अपना दुख बढ़ाता है,वह अपना ही शत्रु स्वयं है।


आप भी अपना अपना आत्म निरीक्षण करके देखिए, कि आप किस प्रकार के कर्म कर रहे हैं? 

क्या आप अपने मित्र हैं ? 

या अपने ही शत्रु हैं? 

यदि आप अपने ही शत्रु स्वयं हैं, तो आप बुरे कर्मों को छोड़ कर शुभ कर्मों का आचरण करें, और अपने मित्र स्वयं बनें। 

तभी आपका यह जीवन सफल और आनंदित होगा, तथा अगला जन्म भी उत्तम होगा।


चन्द्रहासोज्जवलकरशैलवरवाहनाम्।

कात्यायनी शुभं दद्यात् देवी दानवघातिनी॥


देवी कात्यायनी आदिशक्ति की षष्ठी स्वरूपा,जो न केवल ऋषि कात्यायन की तपस्या से प्रकट हुईं, अपितु कालातीत करुणा की साक्षात् मूर्ति बनकर सृष्टि में अवतरित हुईं। 

वे कोई साधारण अवतरण नहीं, वरन् पर ब्रह्मस्वरूपिणी - परम करुणामयी; परम सत्ता साधकों के ध्यान की अधिष्ठात्री और आज्ञाचक्र की स्वामिनी हैं,जो चित्त की एकाग्रता और आत्मसाक्षात्कार का द्वार खोलती हैं।




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पराम्बा यह शब्द स्वयं में सम्पूर्णता का संनाद है; वह जो परात्पर, अप्रमेय और सृष्टि - स्थिति - संहार की लीला धारिणी है। 

भगवद्‌पाद शंकराचार्य अपनी सौन्दर्य लहरी में कहते हैं -


त्वदन्यः पाणिभ्यामभयवरदो दैवतगणः

त्वमेका नैवासि प्रकटितवराभीत्यभिनया।


भयात्त्रातुं दातुं फलमपि च वाञ्छासमधिकं

शरण्ये लोकानां तव हि चरणावेव निपुणौ॥





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यह स्तुति माँ के चरणों की अरुणिमा और त्रैलोक्य- चेतन्य को प्रज्वलित करने वाली उनकी महिमा का गान करती है। 

देवी कात्यायनी आत्मबोध की अधिष्ठात्री हैं, जो साधक को आज्ञाचक्र के पथ पर ले जाकर बुद्धि को आत्म- समर्पण हेतु परिष्कृत करती हैं।


अद्वैत वेदान्त के दृष्टिकोण से यह वही अवस्था है, जहाँ चित्तस्य शुद्धिः,ज्ञाननिष्ठा और कर्तृत्व - अकर्तृत्व भ्रांति का लय होता है। 

उनकी उपासना साधक को स्वयं की सुप्त ब्रह्मबुद्धि के जागरण की ओर ले जाती है।






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माँ कात्यायनी का स्मरण केवल देवत्व का आवाहन नहीं, अपितु आत्मा का स्वयं से संनाद है। 

उनके कृपा पात्र साधक के लिए कोई लक्ष्य असाध्य नहीं, क्योंकि उन पर उस चेतना का सान्निध्य होता है, जो स्वयं कर्ता,भोक्ता और साक्षी है। 

उनकी उपासना आत्म-बोध का दिव्य साधन है, जहाँ अज्ञान का लय होता है और सत्य का प्राकट्य। 

माँ पराम्बा कात्यायनी; त्रैलोक्य का मंगल करें, साधकों को आत्म - साक्षात्कार का पथ प्रशस्त करें।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

      || मां कात्यायनी की जय हो ||

Sunday, July 6, 2025

नवरात्रि में नवार्ण मंत्र महत्व : देवता नाराज क्यों हुए ?

नवरात्रि में नवार्ण मंत्र महत्व : देवता नाराज क्यों हुए ?  


!! नवरात्रि में नवार्ण मंत्र महत्व : - !!


माता भगवती जगत् जननी दुर्गा जी की साधना - उपासना के क्रम में, नवार्ण मंत्र एक ऐसा महत्त्वपूर्ण महामंत्र है। 





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नवार्ण अर्थात नौ अक्षरों का इस नौ अक्षर के महामंत्र में नौ ग्रहों को नियंत्रित करने की शक्ति है, जिसके माध्यम से सभी क्षेत्रों में पूर्ण सफलता प्राप्त की जा सकती है और भगवती दुर्गा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है यह महामंत्र शक्ति साधना में सर्वोपरि तथा सभी मंत्रों - स्तोत्रों में से एक महत्त्वपूर्ण महामंत्र है। 

यह माता भगवती दुर्गा जी के तीनों स्वरूपों माता महासरस्वती, माता महालक्ष्मी व माता महाकाली की एक साथ साधना का पूर्ण प्रभावक बीज मंत्र है और साथ ही माता दुर्गा के नौ रूपों का संयुक्त मंत्र है और इसी महामंत्र से नौ ग्रहों को भी शांत किया जा सकता है।





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नवार्ण मंत्र :


|| ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ||


नौ अक्षर वाले इस अद्भुत नवार्ण मंत्र में देवी दुर्गा की नौ शक्तियां समायी हुई है। 

जिसका सम्बन्ध नौ ग्रहों से भी है।


ऐं = सरस्वती का बीज मन्त्र है ।

ह्रीं = महालक्ष्मी का बीज मन्त्र है ।

क्लीं = महाकाली का बीज मन्त्र है ।


इसके साथ नवार्ण मंत्र के प्रथम बीज ” ऐं “ से माता दुर्गा की प्रथम शक्ति माता शैलपुत्री की उपासना की जाती है, जिस में सूर्य ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।






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नवार्ण मंत्र के द्वितीय बीज ” ह्रीं “ से माता दुर्गा की द्वितीय शक्ति माता ब्रह्मचारिणी की उपासना की जाती है, जिस में चन्द्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।


नवार्ण मंत्र के तृतीय बीज ” क्लीं “ से माता दुर्गा की तृतीय शक्ति माता चंद्रघंटा की उपासना की जाती है, जिस में मंगल ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।


नवार्ण मंत्र के चतुर्थ बीज ” चा “ से माता दुर्गा की चतुर्थ शक्ति माता कुष्मांडा की उपासना की जाती है, जिस में बुध ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।







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नवार्ण मंत्र के पंचम बीज ” मुं “ से माता दुर्गा की पंचम शक्ति माँ स्कंदमाता की उपासना की जाती है, जिस में बृहस्पति ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।


नवार्ण मंत्र के षष्ठ बीज ” डा “ से माता दुर्गा की षष्ठ शक्ति माता कात्यायनी की उपासना की जाती है, जिस में शुक्र ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।


नवार्ण मंत्र के सप्तम बीज ” यै “ से माता दुर्गा की सप्तम शक्ति माता कालरात्रि की उपासना की जाती है, जिस में शनि ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।


नवार्ण मंत्र के अष्टम बीज ” वि “ से माता दुर्गा की अष्टम शक्ति माता महागौरी की उपासना की जाती है, जिस में राहु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।


नवार्ण मंत्र के नवम बीज ” चै “ से माता दुर्गा की नवम शक्ति माता सिद्धीदात्री की उपासना की जाती है, जिस में केतु ग्रह को नियंत्रित करने की शक्ति समायी हुई है।






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नवार्ण मंत्र साधना विधी :-


विनियोग:


ll ॐ अस्य श्रीनवार्णमंत्रस्य ब्रम्हाविष्णुरुद्राऋषय:गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छंन्दांसी, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर स्वत्यो देवता: , ऐं बीजम , ह्रीं शक्ति: ,क्लीं कीलकम श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासर स्वत्यो प्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ll


विलोम बीज न्यास:-


ॐ च्चै नम: गूदे ।

ॐ विं नम: मुखे ।

ॐ यै नम: वाम नासा पूटे ।

ॐ डां नम: दक्ष नासा पुटे ।

ॐ मुं नम: वाम कर्णे ।

ॐ चां नम: दक्ष कर्णे ।

ॐ क्लीं नम: वाम नेत्रे ।

ॐ ह्रीं नम: दक्ष नेत्रे ।

ॐ ऐं ह्रीं नम: शिखायाम ॥


( विलोम न्यास से सर्व दुखोकी नाश होता है,संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ दहीने हाथ की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श की जिये )


ब्रम्हारूप न्यास:-


ॐ ब्रम्हा सनातन: पादादी नाभि पर्यन्तं मां पातु ॥

ॐ जनार्दन: नाभेर्विशुद्धी पर्यन्तं नित्यं मां पातु ॥

ॐ रुद्र स्त्रीलोचन: विशुद्धेर्वम्हरंध्रातं मां पातु ॥

ॐ हं स: पादद्वयं मे पातु ॥

ॐ वैनतेय: कर इयं मे पातु ॥

ॐ वृषभश्चक्षुषी मे पातु ॥

ॐ गजानन: सर्वाड्गानी मे पातु ॥

ॐ सर्वानंन्द मयोहरी: परपरौ देहभागौ मे पातु ॥


( ब्रम्हारूपन्यास से सभी मनोकामनाये पूर्ण होती है, संबन्धित मंत्र उच्चारण की साथ दोनों हाथो की उँगलियो से संबन्धित स्थान पे स्पर्श कीजिये )


ध्यान मंत्र:-


खड्गमं चक्रगदेशुषुचापपरिघात्र्छुलं भूशुण्डीम शिर: शड्ख संदधतीं करैस्त्रीनयना सर्वाड्ग भूषावृताम ।

नीलाश्मद्दुतीमास्यपाददशकां सेवे महाकालीकां यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम ॥


माला पूजन:-


जाप आरंभ करने से पूर्व ही इस मंत्र से माला का पुजा की जिये , इस विधि से आपकी माला भी चैतन्य हो जाती है.


“ ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नंम:’’


ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिनी ।

चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥

ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृहनामी दक्षिणे करे । 

जपकाले च सिद्ध्यर्थ प्रसीद मम सिद्धये ॥


ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देही देही सर्वमन्त्रार्थसाधिनी साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय मे स्वाहा।


अब आप चैतन्य माला से नवार्ण मंत्र का जाप करे-


नवार्ण मंत्र :-


ll ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ll


नवार्ण मंत्र की सिद्धि 9 दिनो मे 1, 25 , 000 मंत्र जाप से होती है...!

परंतु आप ऐसे नहीं कर सकते है तो रोज 1 , 3 , 5 , 7 , 11 , 21….! 

इत्यादि माला मंत्र जाप भी कर सकते है...! 

इस विधि से सारी इच्छाये पूर्ण होती है...! 

दुख कम होते है और धन की वसूली भी सहज ही हो जाती है। 

हमे शास्त्र के हिसाब से यह सोलह प्रकार के न्यास देखने मिलती है जैसे ऋष्यादी,कर , हृदयादी , अक्षर , दिड्ग , सारस्वत , प्रथम मातृका , द्वितीय मातृका , तृतीय मातृका , षडदेवी , ब्रम्हरूप , बीज मंत्र , विलोम बीज , षड,सप्तशती , शक्ति जाग्रण न्यास और बाकी के 8 न्यास गुप्त न्यास नाम से जाने जाते है....! 

इन सारे न्यासो का अपना  एक अलग ही महत्व होता है...!

उदाहरण के लिये शक्ति जाग्रण न्यास से माँ सुष्म रूप से साधकोके सामने शीघ्र ही आ जाती है और मंत्र जाप की प्रभाव से प्रत्यक्ष होती है और जब माँ चाहे कि सिभी रूप मे क्यू न आये हमारी कल्याण तो निच्छित  ही कर देती है।

आप नवरात्री एवं अन्य दिनो मे भी इस मंत्र के जाप कर सकते है.मंत्र जाप काली हकीक माला अथवा रुद्राक्ष माला से ही किया करे।







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देवता नाराज क्यों हुए ? 


दिव्या के घर में बाबू नाम का एक बकरा है। 

उसके गले में घंटी बंधी है। 

वह पूरे घर में कहीं भी आजादी से घूम - फिर सकता है। 


घर में कोई भी उसे परेशान नहीं कर सकता। 

किसी ने उसे जरा सा छेडऩे की कोशिश की तो वह तुरंत दौड़कर दिव्या के पास पहुंच जाता है। 

दिव्या जब तक स्कूल से घर नहीं आती, बाबू दरवाजे पर उसका इंतजार करता है। 

जैसे ही उसे दिव्या के आने की आहट मिली, दौड़ते हुए उसके पास पहुंच जाता है। 

फिर वे दोनों एक साथ घर लौटते हैं। 

इसके बाद बाबू को हरी पत्तियां और टमाटर मिलते हैं। 

टमाटर खाते वक्त कई बार बाबू के पूरे मुंह में उसका रस लग जाता है। 

तब दिव्या उसे बाल्टी से पानी डाल - डालकर नहलाती है। 

और बाबू के ऊपर भी पानी पड़ा नहीं कि वह शरीर को झटक कर पानी हटा देता है।

दोनों के लिए यह एक तरह का खेल होता है। 

रोज दिव्या के लौटने के बाद दोपहर का यह खेल चलता है..!


लेकिन उस रोज ऐसा नहीं हुआ। 

दिव्या स्कूल से लौटी तो बाबू उसे लेने नहीं आया। 

घर वालों से पूछा तो उन्होंने बताया कि 

दादा - दादी बाबू को पास के मंदिर तक ले गए हैं। 

थकी - हारी थी, इस लिए जल्दी ही सो गई। 

शाम होते तक जब उसकी आंख खुली तो लगा जैसे बाबू उसके तलवे चाट रहा है। 

वह अक्सर ही उसे उठाने के लिए ऐसा किया करता था।

दिव्या हड़बड़ाकर उठ बैठी। 

लेकिन देखा कि उसके पैरों के पास तो दादा जी बैठे हैं, जो गीले हाथ से उसके तलवे सहला रहे थे। 


उन्होंने दिव्या से कहा कि वह उनके साथ मंदिर चले। 

दोनों मंदिर पहुंचे तो देखा वहां भारी भीड़ के बीच बाबू खड़ा है। 

उसके माथे पर तिलक और गले में माला थी। 

भीड़ ने उसके ऊपर कई बाल्टी पानी डाला था।

सूरज डूबने में थोड़ा ही वक्त था। बलि देने के लिए बाबू को वहां लाया गया था।


गांव वालों की मान्यता थी कि जब तक बकरा शरीर पर डाले गए पानी को झड़ा नहीं देता तब तक बलि नहीं दी जा सकती।

और बाबू तो चुपचाप खड़ा था। 

लोग इसे बुरे साए का प्रभाव मान रहे थे।

दिव्या पहुंची तो लोगों को कुछ आस बंधी। 

बड़े - बुजुर्गों ने बच्ची से आग्रह किया कि वह बाबू को शरीर से पानी झटकने के लिए तैयार करे।

दिव्या से कहा गया कि बाबू ने शरीर से पानी नहीं झड़ाया तो बारिश के देवता नाराज हो जाएंगे। 

उसका मन घबरा रहा था लेकिन उसने बड़ों की बात मान ली। 

बाबू के पास गई। 

उसे सहलाया। 

एक टमाटर खिलाया।

बाबू ने चुपचाप टमाटर खाया लेकिन रस इस बार भी उसके चेहरे पर लग गया। 

दिव्या ने पानी से उसका चेहरा पोंछा। 

बाबू चुपचाप दिव्या को देखे जा रहा था। 

दोनों की आंखें भीगी थीं। 

उनके बीच क्या बात हुई, किसी को समझ नहीं आया। 

लेकिन तभी सबने देखा कि बाबू ने जोर से शरीर हिलाया और पूरा पानी शरीर से झटक दिया। 

भीड़ खुशी से उछल पड़ी। 

बाबू के गलेे सेे घंटी और रस्सी खोलकर दिव्या को दे दी गई। 

फिर उसे मंदिर के पीछे ले जाया गया। 


दो मिनट बाद ही बाबू की चीख सुनाई दी। फिर सब शांत हो गया। 

दादा जी के साथ दिव्या चुपचाप घर लौट आई थी।

उस रात गांव में भोज हुआ। 

लेकिन अगली सुबह पूरा गांव एक बार फिर इकट्ठा था। 

दिव्या की अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए। 

गांव वालों में से किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं था कि आखिर अब कौन से देवता नाराज हुए। 

जिन्होंने उस छोटी सी बच्ची को दुनिया से उठा लिया।

मजबूरी कोई भी हो। 

मासूम बच्चों के भरोसे को तोडऩे का हम में से किसी को हक नहीं। 

बच्चों को समझ पाने की जहां तक बात है, तो लगता है हमारे समाज को अभी से मन से सोचना है कि उनकी भी अपनी दुनिया है..!

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))