pina_AIA2RFAWACV3EAAAGAAFWDL7MB32NGQBAAAAAITRPPOY7UUAH2JDAY7B3SOAJVIBQYCPH6L2TONTSUO3YF3DHBLIZTASCHQA https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec Adhiyatmik Astro: ।। श्री अर्थवेद के अनुसार सोलाह प्रकार की सिध्दि होती है ।।

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Friday, February 12, 2021

।। श्री अर्थवेद के अनुसार सोलाह प्रकार की सिध्दि होती है ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री अर्थवेद के अनुसार सोलाह प्रकार की सिध्दि होती है ।।


हमारे अर्थवेद के अनुसार सोलह प्रकार की सिद्धियाँ का उलेख दिया गया है जो भगवान श्री कृष्ण , भगवान रामचंद्रजी सहित देवी देवताओं और ऋषिमुनियों संत महात्मा और हमारे पूर्वजों ही उनका उपयोग ज्यादातर करते ही रहते थे ।

1. वाक् सिद्धि : –

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये ।

प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं ।






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2. दिव्य दृष्टि सिद्धि : -

दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं ।

कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं ।

इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं ।
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3. प्रज्ञा सिद्धि : –

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! 

ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें ।

वह प्रज्ञावान कहलाता हें! 

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ - साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता है ।
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4. दूरश्रवण सिद्धि :  -

इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता ।
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5. जलगमन सिद्धि :  -

यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं ।

इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं ।

मानों धरती पर गमन कर ही रहा हो ।
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6. वायुगमन सिद्धि :  -

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं ।

एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं ।
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7. अदृश्यकरण सिद्धि :  -

अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना ! 

जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं ।


8. विषोका सिद्धि :  -

इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना ! 

एक स्थान पर अलग रूप हैं ।

दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं ।
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9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :  -

इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं ! 

उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं ।








10. कायाकल्प सिद्धि  :  -

कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन!

समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं ।

लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव तोग्मुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं ।
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11. सम्मोहन सिद्धि  :  -

सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! 

इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु - पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं ।
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12. गुरुत्व सिद्धि  :  -

गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! 

जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं ।

ज्ञान का भंडार होता हैं ।

और देने की क्षमता होती हैं ।

उसे गुरु कहा जाता हैं! 

और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं ।
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13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि :  -

इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! 

श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! 

जिस के कारण से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! 

तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की ।
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14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि  : -

जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं ।

सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं ।

जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! 

इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं ।

और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं ।
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15. इच्छा मृत्यु सिद्धि  : -

इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं।

काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता ।

वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं ।

16. अनुर्मि सिद्धि  :  -

यह अनुर्मि का अर्थ होता ही हैं जिस पर भूख - प्यास, सर्दी – गर्मी और भावना - दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो । 

।। श्रीमद्द देवी भागवत प्रवचन ।।






             
 🐅     नवरात्र, सिर्फ़ नौ रातें नहीं अपितु जीवन की नवीन रात्रियाँ भी हैं। 

जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह व अंधकार का समावेश ही घनघोर रात्रि के समान है । 

जिसमें प्रायः जीव सही मार्ग के अभाव में भटकता रहता है। 

हमारे शास्त्रों में अज्ञान और विकारों को एक विकराल रात्रि के समान ही बताया गया है।

🐅  इन दुर्गुण रूपी रात्रि के समन के लिए व जीवन को एक नई दिशा, उमंग, नया उत्साह देने की साधना और प्रक्रिया का नाम ही नवरात्र है। 

माँ दुर्गा साक्षात ज्ञान का ही स्वरूप हैं। 

ओर नवरात्र में माँ दुर्गा की उपासना का अर्थ ही ज्ञान रूपी दीप का प्रज्ज्वलन कर जीवन के अज्ञान के तिमिर का नाश करना है। 

🐅  नवरात्रि सामान्य साधक के लिए शुद्धि के दिन है तो विशेष साधकों के लिए सिद्धि के दिन हैं। 

नवरात्र के प्रथम दिन माँ शैलपुत्री अर्थात पर्वत राज हिमालय की कन्या के रूप में जन्मी माँ पार्वती का पूजन किया जाता है।

जय माँ अंबे !

🌿🌼भक्त_की_परीक्षा🌼🌿

🙏एक गाँव के बाहरी हिस्से में एक वृद्ध साधु बाबा छोटी से कुटिया बना कर रहते थे। 

वह ठाकुर जी के परम भक्त थे। 

स्वभाव बहुत ही शान्त और सरल। 

दिन-रात बस एक ही कार्य था ।

बस ठाकुर जी के ध्यान-भजन में खोये रहना। 

ना खाने की चिंता ना पीने की, चिंता रहती थी तो बस एक कि ठाकुर जी की सेवा कमी ना रह जाए। 

भोर से पूर्व ही जाग जाते । 

स्नान और नित्य कर्म से निवृत्त होते ही लग जाते ठाकुर जी की सेवा में। 

उनको स्नान कराते । 

धुले वस्त्र पहनाते । 

चंदन से तिलक करते । 

पुष्पों की माला पहनाते फिर उनका पूजन भजन आदि करते जंगल से लाये गए फलों से ठाकुर जी को भोग लगाते। 

बिलकुल वैरागी थे । 

किसी से विशेष कुछ लेना देना नहीं था। 

फक्कड़ थे किन्तु किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते थे। 

यदि कोई कुछ दे गया तो स्वीकार कर लिया नहीं तो राधे-राधे।

         फक्कड़ होने पर भी एक विशेष गुण उनमे समाहित था ।

उनके द्वार पर यदि कोई भूखा व्यक्ति आ जाए तो वह उसको बिना कुछ खिलाए नहीं जाने देते थे। 

कुछ नहीं होता था तो जंगल से फल लाकर ही दे देते थे किन्तु कभी किसी को भूखा नहीं जाने दिया। 

यही स्थिति ठाकुर जी के प्रति भी थी। 

उनको इस बात की सदैव चिंता सताती रहती थी । 

कि कही ठाकुर जी किसी दिन भूखे ना रह जायें। 

उनके पास कुछ होता तो था नहीं कहीं कोई कुछ दे जाता था तो भोजन बना लेते थे । 

अन्यथा वह अपने पास थोड़ा गुड़ अवश्य रखा करते थे। 

यदि भोजन बनाते थे तो पहले भोजन ठाकुर जी को अर्पित करते फिर स्वयं ग्रहण करते । 

किन्तु यदि कभी भोजन नहीं होता था तो गुड़ से ही काम चला लेते थे।

थोड़ा गुड़ ठाकुर जी को अर्पित करते और फिर थोड़ा खुद खा कर पानी पी लेते थे।

         एक बार वर्षा ऋतु में कई दिन तक लगातार वर्षा होती रही ।

 जंगल में हर और पानी ही पानी भर गया । 

जंगल से फल ला पाना संभव नहीं रहा ।

उनके पास रखा गुड़ भी समाप्त होने वाला था। 

अब बाबा जी को बड़ी चिंता हुई ।

सोचने लगे यदि वर्षा इसी प्रकार होती रही तो मैं जंगल से फल कैसे ला पाऊँगा । 

ठाकुर जी को भोग कैसे लगाऊँगा । 

गुड़ भी समाप्त होने वाला है । 

ठाकुर जी तो भूखे ही रह जायेंगे, और यदि द्वार पर कोई भूखा व्यक्ति आ गया तो उसको क्या खिलाऊँगा। 

यह सोंचकर वह गहरी चिंता में डूब गए ।

उन्होंने एक निश्चय किया कि अब से मैं कुछ नहीं खाऊँगा ।

जो भी मेरे पास है वह ठाकुर जी और आने वालों के लिए रख लेता हूँ। 

ऐसा विचार करके उन्होंने कुछ भी खाना बंद कर दिया और मात्र जल पीकर ही गुजरा करने लगे । 

किन्तु ठाकुर जी को नियमित रूप से भोग देते रहे।

        बाबा जी की भक्ति देखकर ठाकुर जी अत्यन्त प्रसन्न हुए ।

किन्तु उन्होंने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। 

दो दिन बाद ठाकुर जी ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया और उनकी कुटिया में उस समय पहुँचे जब तेज वर्षा हो रही थी। 

वृद्ध ब्राह्मण को कुटिया पर आया देख साधु बाबा बहुत प्रसन्न हुए और उनको प्रेम पूर्वक कुटिया के अंदर ले गए। 

उनको प्रेम से बैठाया कुशल क्षेम पूँछी ।

तब वह ब्राह्मण बड़ी ही दीन वाणी में बोला कि तीन दिन भूखा है । 

शरीर बहुत कमजोर हो गया है ।

यदि कुछ खाने का प्रबन्ध हो जाये तो बहुत कृपा होगी। 

तब साधु बाबा ने ठाकुर जी को मन-ही-मन धन्यवाद दिया ।

कि उनकी प्रेरणा से ही वह कुछ गुड़ बचा पाने में सफल हुए।

वह स्वयं भी तीन दिन से भूखे थे किन्तु उन्होंने यथा संभव गुड़ और जल उस ब्राह्मण को अर्पित करते हुए कहा कि श्रीमान जी इस समय तो इस कंगले के पास मात्र यही साधन उपलब्ध है ।

 कृपया इसको ग्रहण करें। 

बाबा की निष्ठा देख ठाकुर जी अत्यन्त प्रसन्न थे ।

किन्तु उन्होंने अभी और परीक्षा लेने की ठानी ।

वह बोले इसके मेरी भूख भला कैसे मिटेगी ।

यदि कुछ फल आदि का प्रबंध हो तो ठीक रहेगा। 

अब बाबा जी बहुत चिंतित हुए ।

उनके द्वार से कोई भूखा लौटे यह उनको स्वीकार नही था ।

वह स्वयं वृद्ध थे ।

तीन दिन से भूखे थे ।

शरीर भूख से निढ़ाल था ।

किन्तु सामने विकट समस्या थी। 

उन्होंने उन ब्राह्मण से कहा ठीक है श्रीमान जी आप थोड़ा विश्राम कीजिये मैं फलों का प्रबन्ध करता हूँ। 

बाबा जी ने ठाकुर जी को प्रणाम किया और चल पड़े भीषण वर्षा में जंगल की ओर फल लाने। 

जंगल में भरा पानी था ।

पानी में अनेकों विषैले जीव इधर-उधर बहते जा रहे थे ।

किन्तु किसी भी बात की चिन्ता किये बिना साधु बाबा, कृष्णा-कृष्णा का जाप करते चलते रहे ।

उनको तो मात्र एक ही चिंता थी की द्वार पर आए ब्राह्मण देव भूखे ना लौट जाये।

जंगल पहुँच कर उन्होंने फल एकत्र किये और वापस चल दिए। 

कुटिया पर पहुँचे तो देखा कि ब्राह्मण देव उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ।

बाबा जी ने वर्षा और भरे हुए पानी के कारण हुए विलम्ब के कारण उनसे क्षमा माँगी और फल उनको अर्पित किए। 

वह वृद्ध ब्राह्मण बोला बाबा जी आप भी तो ग्रहण कीजिये किन्तु वह बाबा जी बोले क्षमा करें श्रीमान जी ।

मैं अपने ठाकुर जी को अर्पित किए बिना कुछ भी ग्रहण नहीं करता ।

यह फल मैं आपके लिए लाया हूँ मैंने इनका भोग ठाकुर जी को नही लगाया है। 

तब वह ब्राह्मण बोला ऐसा क्यों कह रह हैं आपने ठाकुर जी को तो आपने अभी ही फल अर्पित किये हैं। 

बाबा बोले अरे ब्राह्मण देव क्यों परिहास कर रहे हैं ।

मैंने कब अर्पित किये ठाकुर जी को फल। 

तब ब्राह्मण देव बोले अरे यदि मुझे पर विश्वाश नहीं तो जा कर देख लो अपने ठाकुर जी को ।

वह तो तुम्हारे द्वारा दिए फलों को प्रेम पूर्वक खा रहे हैं।

       ब्राह्मण देव की बात सुनकर बाबा जी ने जा कर देखा तो वह सभी फल ठाकुर जी के सम्मुख रखे थे जो उन्होंने ब्राह्मण देव को अर्पित किये थे। 

वह तुरन्त बाहर आए और आकर ब्राह्मण देव के पैरों में पड़ गए और बोले कृपया बताएँ आप कौन हैं ? 

यह सुनकर श्री हरि वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हो गए ।

ठाकुर जी को देख वह वृद्ध बाबा अपनी सुध-बुध खो बैठे बस ठाकुर जी के चरणों से ऐसे लिपटे मानो प्रेम का झरना बह निकला हो, आँखों से अश्रुओं की धारा ऐसे बहे जा रही थी जैसे कुटिया में ही वर्षा होने लगी हो। 

ठाकुर जी ने उनको प्रेम पूर्वक उठाया और बोले तुम मेरे सच्चे भक्त हो ।

मैं तुम्हारी भक्ति तुम्हारी निष्ठा और प्रेम से अभिभूत हूँ ।

मैं तुम्हारी प्रत्येक इच्छा पूर्ण करूँगा ।
कहो क्या चाहते हो। 

किन्तु साधु बाबा की तो मानो वाणी ही मारी गई हो ।

बस अश्रु ही बहे जा रहे थे ।

वाणी मौन थी, बहुत कठिनता से स्वयं को संयत करके बोले-

 "हे नाथ ! 

जिसने आपको पा लिया हो उसको भला और क्या चाहिए।

 अब तो बस इन चरणों में आश्रय दे दीजिये।" 

ऐसा कह कर वह पुनः ठाकुर जी के चरणों में गिर पड़े। 

तब ठाकुर जी बोले मेरा दर्शन व्यर्थ नहीं जाता, माँगो क्या चाहते हो, कहो तो तुमको मुक्ति प्रदान करता हूँ ।

यह सुनते ही बाबा विचलित हो उठे तब बाबा बोले हे हरि, हे नाथ, मुझको यूँ ना छलिये, मैं मुक्ति नहीं चाहता ।

यदि आप देना ही चाहते है, तो जन्मों-जन्मों तक इन चरणों का आश्रय दीजिए।

है नाथ बस यही वरदान दीजिए कि मैं बार - बार इस धरती पर जन्म लूँ और हर जन्म में आपके श्री चरणों के ध्यान में लगा रहूँ, हर जन्म में इसी प्रकार आपको प्राप्त करता रहूँ। 

तब श्री हरि बोले तथास्तु, भगवान् के ऐसा कहते ही साधु बाबा के प्राण श्री हरि में विलीन हो गए।
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      🌹 जय जय श्री कृष्णा जी 🌹
          🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

जय माँ शैलपुत्री !!
         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
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