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Sunday, December 27, 2020

जीवन के सच्चाई की परीक्षा ईश्वर पर विश्वास , अव्यवस्थित दिनचर्या का अर्थ है तनाव भरी रात्रि , प्रति अपने प्यार की चर्चा मत करो , चिंता , जप के लिए आवश्यक विधान ।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। सुंदर कहानी ।।

जीवन के सच्चाई की परीक्षा

  *ईश्वर पर विश्वास* 

एक राजा बहुत दिनों से पुत्र की प्राप्ति के लिए आशा लगाए बैठा था लेकिन पुत्र नहीं हुआ। 

उसके सलाहकारों ने तांत्रिकों से सहयोग लेने को कहा ।

सुझाव मिला कि किसी बच्चे की बलि दे दी जाए तो पुत्र प्राप्ति हो जायेगी ।

राजा ने राज्य में ढिंढोरा पिटवाया कि जो अपना बच्चा देगा,उसे बहुत सारा धन दिया जाएगा ।

एक परिवार में कई बच्चें थे,गरीबी भी थी।

एक ऐसा बच्चा भी था,जो ईश्वर पर आस्था रखता था तथा सन्तों के सत्संग में अधिक समय देता था।

परिवार को लगा कि इसे राजा को दे दिया जाए क्योंकि ये कुछ काम भी नहीं करता है,हमारे किसी काम का भी नहीं है ।

*इसे देने पर राजा प्रसन्न होकर बहुत सारा धन देगा ऐसा ही किया गया। 

बच्चा राजा को दे दिया गया*

राजा के तांत्रिकों द्वारा बच्चे की बलि की तैयारी हो गई ।

राजा को भी बुलाया गया। 

बच्चे से पूछा गया कि तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है ?

बच्चे ने कहा कि ठीक है ! 

मेरे लिए रेत मँगा दिया जाए रेत आ गया ।

बच्चे ने रेत से चार ढेर बनाए। एक - एक करके तीन रेत के ढेरों को तोड़ दिया और चौथे के सामने हाथ जोड़कर बैठ गया उसने कहा कि अब जो करना है करें*

यह सब देखकर तांत्रिक डर गए उन्होंने पूछा कि ये तुमने क्या किया है?

 पहले यह बताओ। 

राजा ने भी पूछा तो बच्चे ने कहा कि....!

पहली ढेरी मेरे माता पिता की है मेरी रक्षा करना उनका कर्त्तव्य था परंतु उन्होंने पैसे के लिए मुझे बेच दिया ।

 इस लिए मैंने ये ढेरी तोड़ी दूसरी मेरे सगे-सम्बन्धियों की थी।

उन्होंने भी मेरे माता-पिता को नहीं समझाया**

 तीसरी आपकी है राजा क्योंकि राज्य की प्रजा की रक्षा करना राजा का ही धर्म होता है परन्तु राजा ही मेरी बलि देना चाह रहा है तो ये ढेरी भी मैंने तोड़ दी


अब सिर्फ अपने सद् गुरु और ईश्वर पर ही मुझे भरोसा है इसलिए यह एक ढेरी मैंने छोड़ दी है*

राजा ने सोचा कि पता नहीं बच्चे की बलि देने के पश्चात भी पुत्र प्राप्त हो या न हो,तो क्यों न इस बच्चे को ही अपना पुत्र बना ले*

इतना समझदार और ईश्वर - भक्त बच्चा है।

इससे अच्छा बच्चा कहाँ मिलेगा ?

राजा ने उस बच्चे को अपना पुत्र बना लिया और राजकुमार घोषित कर दिया*

*जो ईश्वर और सद् गुरु पर विश्वास रखते हैं,उनका बाल भी बाँका नहीं होता है*

हर मुश्किल में एक का ही जो आसरा लेते हैं,उनका कहीं से किसी प्रकार का कोई अहित नहीं होता है...

*जय माता दी*🙏🏼

मां दुर्गा की असीम कृपा आपको और  आपके परिवार पर निरंतर बनी रहे🙏🏼

=====================

अव्यवस्थित दिनचर्या का अर्थ है तनाव भरी रात्रि





अव्यवस्थित दिनचर्या का अर्थ है तनाव भरी रात्रि। 

एक व्यवस्थित दिनचर्या के अभाव में गहरी निद्रा का आनंद ले पाना संभव नहीं है। 

प्रसन्नता राज से नहीं व्यवस्थित काज ( कार्य ) से मिला करती है।

🌇अपने कार्य को समय पर करो और दूसरों के ऊपर मत छोड़ो। 

आज के समय में आदमी जिस प्रकार अशांत, परेशान और हैरान है ।

उसका कारण वह स्वयं ही है।

🌇कार्य को समय पर ना करना और स्वयं ना करना यह आज तनाव और अशांति का प्रमुख कारण है।

इसी वजह से आदमी का दिन का चैन और रात की नींद चली गयी। 

आपका उठना, वैठना, खाना, पीना, कार्य करना सब समय पर हो और सही तरीके से हो तो सफलता भी मिलेगी और विश्राम भी मिलेगा।

जय मुरलीधर!!

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प्रति अपने प्यार की चर्चा मत करो ।

ईश्वर के प्रति अपने प्यार की चर्चा मत करो ।


क्योंकि उस निर्मल प्रेम को कभी जाहिर नहीं करना होता ।

यानि वह कभी भी दिखावे के लिये इस्तेमाल नहीं होता। 

याद रखो जो दिखावे के भाव में आ जाता है ।

वह स्वार्थवश हो कभी भी ईश्वर के स्तर तक नहीं पहुँच पाता। 

अत: सजनों, इस हेतु भाव परिवर्तन की आवश्यकता है ।

यानि प्रभु संग प्रीत का भाव परिवर्तित करो और ईश्वर से कदाचित् स्वार्थसिद्धि हेतु प्रेम मत करो। 

इसके स्थान पर उस प्रभु से तो नि:स्वार्थ भाव से निर्मल व उज्जवल प्रेम करो और फिर उसका आनन्द देखो।
जय श्री कृष्ण....!!!

===============

चिंता 


एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं। 

जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।

राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच - विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया। 

राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।

विवाह के बाद राजकुमारी खुशी -     खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई। 

कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं।

उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं?

संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं ।

अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक - एक रोटी खा लेंगे।

संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। 

राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इस लिए किया था ।

क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं ।

आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।

सच्चा भक्त वही है ।

जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है। 

अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं ।

हम तो इंसान हैं। 

अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।

ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। 

उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है। 

उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं ।

राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं ।

जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं ।

फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। 

सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता ।

संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। 

आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।

अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ हैं। 

उसको ( भगवान ) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं।

कभी आप बहुत परेशान हों, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो तो आप आँखें बंद करके विश्वास के साथ उस परमात्मा को पुकारें जिसने आपको यह सुन्दर मनुष्य जीवन दिया है ।

सच मानिये थोड़ी देर में आपकी समस्या का समाधान मिल जायेगा।

=================

जप के लिए आवश्यक विधान

श्री यजुर्वेद और अग्निपुराण  प्रवचन 


जप के लिए आवश्यक विधान...!

            उपरोक्त बातों को ध्यान में रखने के अतिरिक्त प्रतिदिन की साधना के लिए कुछ बातें नीचे दी जा रही हैं :

1.         समय

2.         स्थान

3.         दिशा

4.         आसन

5.         माला

6.         नामोच्चारण

7.         प्राणायाम

8.         जप

9.         ध्यान

1.    समय:

सबसे उत्तम समय प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त और तीनों समय ( सुबह सूर्योदय के समय, दोपहर 12 बजे के आसपास व सांय सूर्यास्त के समय ) का संध्याकाल है | 

प्रतिदिन निश्चित समय पर जप करने से बहुत लाभ होता है |

2.    स्थान:

प्रतिदिन एक ही स्थान पर बैठना बहुत लाभदायक है | 

अतः अपना साधना - कक्ष अलग रखो | 

यदि स्थानाभाव के कारण अलग कक्ष न रख सकें तो घर का एक कोना ही साधना के लिए रखना चाहिए | 

उस स्थान पर संसार का कोई भी कार्य या वार्तालाप न करो | 

उस कक्ष या कोने को धूप - अगरबत्ती से सुगंधित रखो | 

इष्ट अथवा गुरुदेव की छवि पर सुगंधित पुष्प चढ़ाओ और दीपक करो | 

एक ही छवि पर ध्यान केन्द्रित करो | 

जब आप ऐसे करोगे तो उससे जो शक्तिशाली स्पन्दन उठेंगे, वे उस वातावरण में ओतप्रोत हो जायेंगे |

3.    दिशा

जप पर दिशा का भी प्रभाव पड़ता है | 

जप करते समय आपक मुख उत्तर अथवा पूर्व की ओर हो तो इससे जपयोग में आशातीत सहायता मिलती है |

4.    आसन

आसन के लिए मृगचर्म, कुशासन अथवा कम्बल के आसन का प्रयोग करना चाहिए | 

इससे शरीर की विद्युत - शक्ति सुरक्षित रहती है |

            साधक स्वयं पद्मासन, सुखासन अथवा स्वस्तिकासन पर बैठकर जप करे | 

वही आसन अपने लिए चुनो जिसमें काफी देर तक कष्टरहित होकर बैठ सको | 

स्थिरं सुखासनम् | 

शरीर को किसी भी सरल अवस्था में सुखपूर्वक स्थिर रखने को आसन कहते हैं |

            एक ही आसन में स्थिर बैठे रहने की समयाविधि को अभ्यासपूर्वक बढ़ाते जाओ | 

इस बात का ध्यान रखो कि आपका सिर, ग्रीवा तथा कमर एक सीध में रहें | 

झुककर नहीं बैठो | 

एक ही आसन में देर तक स्थिर होकर बैठने से बहुत लाभ होता है |

5.    माला

मंत्रजाप में माला अत्यंत महत्वपूर्ण है | 

इस लिए समझदार साधक माला को प्राण जैसी प्रिय समझते हैं और गुप्त धन की भाँति उसकी सुरक्षा करते हैं |

            माला को केवल गिनने की एक तरकीब समझकर अशुद्ध अवस्था में भी अपने पास रखना...!

बायें हाथ से माला घुमाना, लोगों को दिखाते फिरना, पैर तक लटकाये रखना, जहाँ - तहाँ रख देना, जिस किसी चीज से बना लेना तथा जिस प्राकार से गूँथ लेना सर्वथा वर्जित है |

जपमाला प्रायः तीन प्रकार की होती हैं::::

 करमाला, वर्णमाला और मणिमाला |

a.                  करमाला

अँगुलियों पर गिनकर जो जप किया जाता है, वह करमाला जाप है | 

यह दो प्रकार से होता है: एक तो अँगुलियों से ही गिनना और दूसरा अँगुलियों के पर्वों पर गिनना | 

शास्त्रतः दूसरा प्रकार ही स्वीकृत है |

            इसका नियम यह है कि चित्र में दर्शाये गये क्रमानुसार अनामिका के मध्य भाग से नीचे की ओर चलो | 

फिर कनिष्ठिका के मूल से अग्रभाग तक और फिर अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग पर होकर तर्जनी के मूल तक जायें | 

इस क्रम से अनामिका के दो, कनिष्ठिका के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा का एक और तर्जनी के तीन पर्व… 

कुल दस संख्या होती है | 

मध्यमा के दो पर्व सुमेरु के रूप में छूट जाते हैं |

      साधारणतः करमाला का यही क्रम है, परन्तु अनुष्ठानभेद से इसमें अन्तर भी पड़ता है | 

जैसे शक्ति के अनुष्ठान में अनामिका के दो पर्व, कनिष्ठिका के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा के तीन पर्व और तर्जनी का एक मूल पर्व - इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है |

            श्रीविद्या में इससे भिन्न नियम है | 

मध्यमा का मूल एक, अनामिका का मूल एक, कनिष्ठिका के तीन, अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग एक - एक और तर्जनी के तीन  - इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है |

            करमाला से जप करते समय अँगुलियाँ अलग - अलग नहीं होनी चाहिए | 

थोड़ी - सी हथेली मुड़ी रहनी चाहिए | 

सुमेरु का उल्लंघन और पर्वों की सन्धि ( गाँठ ) का स्पर्श निषिद्ध है | 

यह निश्चित है कि जो इतनी सावधानी रखकर जप रखकर जप करेगा ।

उसका मन अधिकांशतः अन्यत्र नहीं जायेगा |

            हाथ को हृदय के सामने लाकर, अँगुलियों को कुछ टेढ़ी करके वस्त्र से उसे ढककर दाहिने हाथ से ही जप करना चाहिए |

            जप अधिक संख्या में करना हो तो इन दशकों को स्मरण नहीं रखा जा सकता | 

इस लिए उनको स्मरण करके के लिए एक प्रकार की गोली बनानी चाहिए | 

लाक्षा, रक्तचन्दन, सिन्दूर और गौ के सूखे कंडे को चूर्ण करके सबके मिश्रण से गोली तैयार करनी चाहिए | 

अक्षत, अँगुली, अन्न, पुष्प, चन्दन अथवा मिट्टी से उन दशकों का स्मरण रखना निषिद्ध है | 

माला की गिनती भी इनके द्वारा नहीं करनी चाहिए |

a.         वर्णमाला

            वर्णमाला का अर्थ है अक्षरों के द्वारा जप की संख्या गिनना | 

यह प्रायः अन्तर्जप में काम आती है ।

परन्तु बहिर्जप में भी इसका निषेध नहीं है |

            वर्णमाला के द्वारा जप करने का विधान यह है कि पहले वर्णमाला का एक अक्षर बिन्दु लगाकर उच्चारण करो और फिर मंत्र का - अवर्ग के सोलह, क वर्ग से प वर्ग तक पच्चीस और य वर्ग से हकार तक आठ और पुनः एक लकार - इस क्रम से पचास तक की गिनती करते जाओ | 

फिर लकार से लौटकर अकार तक आ जाओ, सौ की संख्या पूरी हो जायेगी |

 ‘क्ष’ को सुमेरू मानते हैं | 

उसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए |

            संस्कृत में ‘त्र’ और ‘ज्ञ’ स्वतंत्र अक्षर नहीं, संयुक्ताक्षर माने जाते हैं | 

इस लिए उनकी गणना नही होती | 

वर्ग भी सात नहीं, आठ माने जाते हैं | 

आठवाँ सकार से प्रारम्भ होता है | 

इनके द्वारा ‘अं’, कं, चं, टं, तं, पं, यं, शं’ यह गणना करके आठ बार और जपना चाहिए - ऐसा करने से जप की संखया 108 हो जाती है |

            ये अक्षर तो माला के मणि हैं | 

इनका सूत्र है कुण्डलिनी शक्ति | 

वह मूलाधार से आज्ञाचक्रपर्यन्त सूत्ररूप से विद्यमान है | 

उसीमें ये सब स्वर - वर्ण मणिरूप से गुँथे हुए हैं | 

इन्हींके द्वारा आरोह और अवरोह क्रम से अर्थात नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे जप करना चाहिए | 

इस प्रकार जो जप होता है, वह सद्यः सिद्धप्रद होता है |

b.         मणिमाला

मणिमाला अर्थात मनके पिरोकर बनायी गयी माला द्वारा जप करना मणिमाला जाप कहा जाता है | 

            जिन्हें अधिक संख्या में जप करना हो, उन्हें तो मणिमामा रखना अनिवार्य है | 

यह माला अनेक वस्तुओं की होती है ।

जैसे कि रुद्राक्ष, तुलसी, शंख, पद्मबीज, मोती, स्फटिक, मणि, रत्न, सुवर्ण, चाँदी, चन्दन, कुशमूल आदि | 

इनमें वैष्णवों के लिए तुलसि और स्मार्त, शाक्त, शैव आदि के लिए रुद्राक्ष सर्वोत्तम माना गया है | 

ब्राह्मण कन्याओं के द्वारा निर्मित सूत से बनायी गयी माला अति उत्तम मानी जाती है |
          
माला बनाने में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि एक चीज की बनायी हुई माला में दूसरी चीज न आये | 

माला के दाने छोटे - बड़े व खंडित न हों |

सब प्रकार के जप में 108 दानों की माला काम आती है | 

शान्तिकर्म में श्वेत, वशीकरण में रक्त, अभिचार प्रयोग में काली और मोक्ष तथा ऐश्वर्य के लिए रेशमी सूत की माला विशेष उपयुक्त है |

माला घुमाते वक्त तर्जनी ( अंगूठे के पासवाली ऊँगली ) से माला के मनकों को कभी स्पर्श नहीं करना चाहिए | 

माला द्वारा जप करते समय अंगूठे तथा मध्यमा ऊँगली द्वारा माला के मनकों को घुमाना चाहिए | 

माला घुमाते समय सुमेरु का उल्लंघन नहीं करना चाहिए | 

माला घुमाते - घुमाते जब सुमेरु आये तब माला को उलटकर दूसरी ओर घुमाना प्रारंभ करना चाहिए |

यदि प्रमादवश माला हाथ गिर जाये तो मंत्र को दो सौ बार जपना चाहिए ।

ऐसा अग्निपुराण में आता है:

प्रामादात्पतिते सूत्रे जप्तव्यं तु शतद्वयम् |

अग्निपुराण: ३.२८.५

यदि माला टूट जाय तो पुनः गूँथकर उसी माला से जप करो | 

यदि दाना टूट जाय या खो जाय तो दूसरी ऐसी ही माला का दाना निकाल कर अपनी माला में डाल लो | 

किन्तु जप सदैव करो अपनी ही माला से क्योंकि हम जिस माला पर जप करते हैं...!

वह माला अत्यंत प्रभावशाली होती है |

माला को सदैव स्वच्छ कपड़े से ढ़ाँककर घुमाना चाहिए | 

गौमुखी में माला रखकर घुमाना सर्वोत्तम व सुविधाजनक है |

ध्यान रहे कि माला शरीर के अशुद्ध माने जाने अंगों का स्पर्श न करे | 

नाभि के नीचे का पूरा शरीर अशुद्ध माना जाता है | 

अतः माला घुमाते वक्त माला नाभि से नीचे नहीं लटकनी चहिए तथा उसे भूमि का स्पर्श भी नहीं होना चहिए |

गुरुमंत्र मिलने के बाद एक बार माला का पूजन अवशय करो | 

कभी गलती से अशुद्धावस्था में या स्त्रियों द्वारा अनजाने में रजस्वलावस्था में माला का स्पर्श हो गया हो तब भी माला का फिर से पूजन कर लो |

माला पूजन की विधि::::

पीपल के नौ पत्ते लाकर एक को बीच में और आठ को अगल - बगल में इस ढ़ंग से रखो कि वह अष्टदल कमल सा मालूम हो | 

बीचवाले पत्र पर माला रखो और जल से उसे धो डालो | फिर पंचगव्य ( दूध, दही, घी, गोबर व गोमूत्र ) से स्नान कराके पुनः शुद्ध जा से माला को धो लो | 

फिर चंदन पुष्प आदि से माला का पूजन करो | 

तदनंतर उसमें अपने इष्टदेवता की प्राण-प्रतिष्ठा करो और माला से प्रार्थना करो कि :

माले माले महामाले सर्वतत्त्वस्वरुपिणी |

चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ||

ॐ त्वं माले सर्वदेवानां सर्वसिद्धिप्रदा मता |

तेन सत्येन मे सिद्धिं देहि मातर्नमोऽस्तु ते |

त्वं मले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव |

शिवं कुरुष्व मे भद्रे यशो वीर्यं च सर्वदा ||

इस प्रकारा माला का पूजन करने से उसमें परमात्म - चेतना का अभिर्भाव हो जाता है | 

फिर माला गौमुखी में रखकर जप कर सकते हैं |

1.         नामोच्चारण::::

जप - साधना के बैठने से पूर्व थोड़ी देर तक ॐ ( प्रणव ) का उच्चारण करने से एकाग्रता में मदद मिलती है | 

हरिनाम का उच्चारण तीन प्रकार से किया जा सकता है :

क.        ह्रस्व::::

 'हरि ॐ ... हरि ॐ ... हरि ॐ ...' 

इस प्रकार का ह्रस्व उच्चारण पापों का नाश करता है |

ख.        दीर्घ::::: 

'हरि ओऽऽऽऽम् ...' 

इस प्रकार थोड़ी ज्यादा देर तक दीर्घ उच्चारण से ऐश्वर्य की प्राप्ति में सफलता मिलती है |

ग.        प्लुत :::::

‘ हरि हरि ओऽऽऽम् ...'  

इस प्रकार ज्यादा लंबे समय के प्लुत उच्चारण से परमात्मा में विश्रांति पायी जा सकती है |

यदि साधक थोड़ी देर तक यह प्रयोग करे तो मन - शांत होने में बड़ी मदद मिलेगी | 

फिर जप में भी उसका मन सहजता से लगने लगेगा |

2.         प्राणायाम : जप करने से पूर्व साधक यदि प्राणायाम करे तो एकाग्रता में वृद्धि होती है ।

किंतु प्राणायाम करने में सावधानी रखनी चाहिए |

कई साधक प्रारंभ में उत्साह - उत्साह में ढ़ेर सारे प्राणायाम करने लगते हैं | 

फलस्वरूप उन्हें गर्मी का एहसास होने लगता है | 

कई बार दुर्बल शरीरवालों को ज्यादा प्राणायाम करने खुश्की भी चढ़ जाती है | 

अतः अपने सामर्थ्य के अनुसार ही प्राणायाम करो |

प्राणायाम का समय 3 मिनट तक बढ़ाया जा सकता है | 

किन्तु बिना अभ्यास के यदि कोई प्रारंभ में ही तीन मिनट की कोशिश करे तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है | 

अतः प्रारंभ में कम समय और कम संखया में ही प्रणायम करो |

यदि त्रिबंधयुक्त प्राणायाम करने के पश्चात् जप करें तो लाभ ज्यादा होता है | 

त्रिबंधयुक्त प्राणायाम की विधि 'योगासन' पुस्तक में बतायी गयी है |

3.         जप: जप करते समय मंत्र का उच्चारण स्पष्ट तथा शुद्ध होना चाहिए |

गौमुखी में माला रखकर ही जप करो |

जप इस प्रकार करो कि पास बैठने वाले की बात तो दूर अपने कान को भी मंत्र के शब्द सुनायी न दें | 

बेशक, यज्ञ में आहुति देते समय मंत्रोच्चार व्यक्त रूप से किया जाता है...!

वह अलग बात है | 

किन्तु इसके अलावा इस प्रकार जोर - जोर से मंत्रोच्चार करने से मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता सिद्ध नहीं हो पाती | 

इस लिए मौन होकर ही जप करना चहिए |

जब तुम देखो कि तुम्हारा मन चंचल हो रहा है...!

तो थोड़ी देर के लिए खूब जल्दी - जल्दी जप करो | 

साधारणतयः सबसे अच्छा तरीका यह है कि न तो बहुत जल्दी और न बहुत धीरे ही जप करना चाहिए |

जप करते - करते जप के अर्थ में तल्लीन होते जाना चाहिए | 

अपनी निर्धारित संख्या में जप पूरा करके ही उठो | 

चाहे कितना ही जरूरी काम क्यों न हो...!

किन्तु नियम अवशय पूरा करो |

जप करते - करते सतर्क रहो |

यह अत्यंत आवश्यक गुण है | 

जब आप जप आरंभ करते हो तब आप एकदम ताजे और सावधान रहते हो, पर कुछ समय पश्चात आपका चित्त चंचल होकर इधर - उधर भागने लगता है | 

निद्रा आपको धर दबोचने लगती है | 

अतः जप करते समय इस बात से सतर्क रहो |

जप करते समय तो आप जप करो ही किन्तु जब कार्य करो तब भी हाथों को कार्य में लगाओ तथा मन को जप में अर्थात मानसिक जप करते रहो |

जहाँ कहीं भी जाओ...!

जप करते रहो लेकिन वह जप निष्काम भाव से ही होना चाहिए |

महिला साधिकाओं के लिए सूचना:::::::::!

महिलाएँ मासिक धर्म के समय केवल मानसिक जप कर सकती हैं | 

इन दिनों में उन्हें ॐ ( प्रणव ) के बिना ही मंत्र जप करना चाहिए | 

किसीका मंत्र 'ॐ राम' है तो मासिक धर्म के पांच दिनों तक या पूर्ण शुद्ध न होने तक केवल 'राम - राम' जप सकती है | 

स्त्रियों का मासिक धर्म जब तक जारी हो , तब तक वे दीक्षा भी नहीं ले सकती | 

अगर अज्ञानवश पांचवें - छठवें दिन भी मासिक धर्म जारी रहने पर दीक्षा ले ली गयी है या इसी प्रकार अनजाने में संतदर्शन या मंदिर में भगवद्दर्शन हो गया हो तो उसके प्रायश्चित के लिए 'ऋषि पंचमी' ( गुरुपंचमी ) का व्रत कर लेना चाहिए |

यदि किसीके घर में सूतक लगा हुआ हो तब जननाशौच ( संतान -  जन्म के समय लगनेवाला अशौच - सूतक ) के समय प्रसूतिका स्त्री ( माता ) 40 दिन तक व पिता 10 दिन तक माला लेकर जप नहीं कर सकता |

इसी प्रकार मरणाशौच ( मृत्यु के समय पर लगनेवाल अशौच सूतक ) में 13 दिन तक माला लेकर जप नहीं किया जा सकता किन्तु मानसिक जप तो प्रत्येक अवस्था में किया जा सकता है |

जप की नियत संख्या पूरी होने के बाद अधिक जप होता है तो बहुत अच्छी बात है | 

जितना अधिक जप उतना अधिक फल |  

अधिकस्य अधिकं फलम् |  

यह सदैव याद रखो |

नीरसता, थकावट आदि दूर करने के लिए ।

जप में एकाग्रता लाने के लिए जप - विधि में थोड़ा परिवर्तन कर लिया जाय तो कोई हानि नहीं | 

कभी ऊँचे स्वर में...!

कभी मंद स्वर में....!

और कभी मानसिक जप भी हो सकता है |

जप की समाप्ति पर तुरंत आसन न छोड़ो, न ही लोगों से मिलो - जुलो अथवा न ही बातचीत करो | 

किसी सांसारिक क्रिया - कलाप में व्यस्त नहीं होना है ।

बल्कि कम - से - कम दस मिनट तक उसी आसन पर शांतिपूर्वक बैठे रहो | 

प्रभि का चिंतन करो | 

प्रभु के प्रेमपयोधि में डुबकी लगाओ | 

तत्पश्चात सादर प्रणाम करने के बाद ही आसन त्याग करो |

प्रभुनाम का स्मरण तो श्वास - प्रतिश्वास के साथ चलना चाहिए | 

नाम - जप का दृढ़ अभ्यास करो |

4.      ध्यान: प्रतिदिन साधक को जप के पश्चात या जप के साथ ध्यान अवश्य करना चाहिए | 

जप करते - करते जप के अर्थ में मन को लीन करते जाओ अथवा मंत्र के देवता या गुरुदेव का ध्यान करो | 

इस अभ्यास से आपकी साधना सुदृढ़ बनेगी और आप शीघ्र ही परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकोगे |

यदि जप करते - करते ध्यान लगने लगे तो फिर जप की चिंता न करो ।

क्योंकि जप का फल ही है ध्यान और मन की शांति | 

अगर मन शांत होता जाता है तो फिर उसी शांति डूबते जाओ | 

जब मन पुनः बहिर्मुख होने लगे, तो जप शुरु कर दो |

जो भी जापक - साधक सदगुरु से प्रदत्त मंत्र का नियत समय, स्थान, आसन व संख्या में एकाग्रता तथा प्रीतिपूर्वक उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर जप करता है ।

तो उसका जप उसे आध्यात्मिकता के शिखर की सैर करवा देता | 

उसकी आध्यात्मिक प्रगति में फिर कोई संदेह नहीं रहता |

मंत्रानुष्ठान
‘श्रीरामचरितमानस’ में आता है कि मंत्रजप भक्ति का पाँचवाँ सोपान है |

मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा |

पंचम भक्ति यह बेद प्राकासा ||

            मंत्र एक ऐसा साधन है जो मानव की सोयी हुई चेतना को, सुषुप्त शक्तियों को जगाकर उसे महान बना देता है |

            जिस प्रकार टेलीफोन के डायल में 10 नम्बर होते हैं | 

यदि हमारे पास कोड व फोन नंबर सही हों तो डायल के इन्हीं 10 नम्बरों को ठीक से घुमाकर हम दुनिया के किसी कोने में स्थित इच्छित व्यक्ति से तुरंत बात कर सकते हैं | 

वैसे ही गुरु - प्रदत्त मंत्र को गुरु के निर्देशानुसार जप करके, अनुष्ठान करके हम विश्वेशवर से भी बात कर सकते हैं |

            मंत्र जपने की विधि, मंत्र के अक्षर, मंत्र का अर्थ, मंत्र - अनुष्ठान की विधि जानकर तदनुसार जप करने से साधक की योग्यताएँ विकसित होती हैं | 

वह महेश्वर से मुलाकात करने की योग्यता भी विकसित कर लेता है | 

किन्तु यदि वह मंत्र का अर्थ नहीं जानता या अनुष्ठान की विधि नहीं जानता या फिर लापरवाही करता है ।

मंत्र के गुंथन का उसे पता नहीं है । 

तो फिर ‘राँग नंबर’ की तरह उसके जप के प्रभाव से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्तियाँ बिखर जायेंगी तथा स्वयं उसको ही हानि पहुंचा सकती हैं | 

जैसे प्राचीन काल में ‘इन्द्र को मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ इस संकल्प की सिद्धि के लिए दैत्यों द्वारा यज्ञ किया गया | 

लेकिन मंत्रोच्चारण करते समय संस्कृत में हृस्व और दीर्घ की गलती से ‘इन्द्र से मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ -

ऐसा बोल दिया गया तो वृत्रासुर पैदा हुआ ।

जो इन्द्र को नहीं मार पाया वरन् इन्द्र के हाथों मारा गया | 

अतः मंत्र और अनुष्ठान की विधि जानना आवश्यक है |

जय माँ अंबे...!!

🙏🙏🙏🙏🙏🌳जय श्री कृष्ण🌳🙏🙏🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Batwara vidhyarthi bhuvan
" Shree Aalbai Niwas "
Maha prabhuji bethak road 
Jam khambhaliya - 361305 (GUJARAT )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

Sunday, October 13, 2013

तीर्थ क्या, क्यों और कैसे ? उत्तर, ब्रह्म पुरान से / श्री शिव महा पुराण प्रवचन

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

तीर्थ क्या, क्यों और कैसे ?  उत्तर, ब्रह्म पुरान से / 

श्री शिव महा पुराण प्रवचन 


*🌻🌹तीर्थ क्या, क्यों और कैसे ?  उत्तर, ब्रह्म पुरान से,,,🌹🌻🙏🏻*




महतां दर्शनं ब्रह्मज्जायते न हि निष्फलं |
द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसन्गाद्वा प्रमादतः ||
अयसः स्पर्शसंस्पर्शो रुक्मत्वायैव जायते।।

ब्रह्म पुराण से

अर्थ – महापुरुषों का दर्शन निष्फल नहीं होता, भले ही वह द्वेष अथवा अज्ञान से ही क्यों न हुआ हो | 

लोहे का पारसमणि से प्रसंग या प्रामद से भी स्पर्श हो जाय तो भी वह उसे सोना ही बनाता है |

सोचने वाली बात है कि गंगा जी का पानी कानपुर में उतना शुद्ध क्यों नहीं है और हरिद्वार, काशी में क्यों उद्धार करने वाला है ? 

आगरा क्यों तीर्थ नहीं है और मथुरा, वृन्दावन क्यों तीर्थ है ? 

क्यों काशी तो महातीर्थ है पर उसके पास का गाजीपुर तीर्थ नहीं है ?

जब आप शास्त्रों और पुराणों की कड़ी से कड़ी मिलायेंगे तो इसका जवाब मिलता है | 

जैसा ब्रह्म पुराण के इस श्लोक में लिखा है, कि पारस से आप लोहा छुलायें तो वो सोना बन जाता है।

इसके और उदाहरण देता हूँ जब आप चुम्बक को लोहे से घिसते हैं तो देखते हैं कि लोहे में भी चुम्बक के गुण उत्पन्न हो गए हैं, यदि आप किसी लोहे में एक ख़ास डायरेक्शन में करंट बहायेंगे तो देखेंगे कि उस लोहे के अन्दर के गुण धर्म बदल गए हैं और उसके अन्दर के अणुओं की दशा भी उसी डायरेक्शन में हो गयी है।

 कहने का तात्पर्य ये है कि जिस चीज के सानिद्ध्य में हम आते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर भी आते हैं या जिस भी चीज को हम ज्यादा देर तक छूते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर आते हैं।

इसी लिए कहा गया है, सत्संग करो, कुसंग मत करो। क्यों ? 

क्योंकि सत्संग करोगे तो कुछ अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और यदि कुसंग करोगे तो वैसे ही गुण धर्म आपके भी धीरे धीरे हो जायेंगे | 

आप जिस चीज के पास रहोगे उसके गुण धर्म को आप अवशोषित करेंगे ही करेंगे।

इसी लिए हमारे यहाँ पैर छूने की परम्परा है। क्योंकि ऐसा माना गया कि जिसके आप पैर छूते हैं उसके कुछ गुण आप अवशोषित करते हैं और इसी लिए बड़ों के, गुरुओं के, ऋषियों के पैर छूने की परम्परा रही।

पहले ये पैर छूने की परम्परा नहीं थी, पहले तो पैर बाकायदा धो कर उसका पानी पी जाते थे, जिसे चरणोदक कहते थे, ताकि ज्यादा से ज्यादा पुण्य मिले, फिर समय के साथ केवल पैर पखारने तक बात रह गयी, ताकि ज्यादा से ज्यादा देर तक पैरों का स्पर्श रहे और वो पानी हमारी त्वचा में अवशोषित हो और अब केवल पैर छूने की ही प्रथा रह गयी है, कहीं कहीं तो अब घुटने छुए जाते हैं या केवल इशारा कर दिया जाता है और हो गया काम…..! 

पर समझने वाली बात है कि हम दूसरों के पुण्य और पाप अवशोषित करते हैं।

पद्म पुराण में लिखा है कि जो स्थावर योनी होती है ( वृक्ष आदि ) उनका उद्धार उनके संसर्ग में आने वाले, उनको स्पर्श करने वाले ऋषि और मुनियों के प्रताप से होता है | 

जो उनकी छाया में तप करते हैं उसका प्रभाव वो पेड़ भी लेते हैं और मुक्त होते हैं।

हमारे यहाँ बताया गया है कि जो लोग ऋषि होते थे, मुनि होते थे, तपस्वी होते थे, उनके सतोगुण का प्रभाव उनके आस पास के वातावरण पर भी पड़ता था, कई आश्रमों का विवरण हैं जहाँ पर हिरन और शेर एक ही जगह पानी पीते थे।

क्योंकि उनका जो तप है उसका प्रभाव उसके आस पास पड़ता था, उस क्षेत्र पर पड़ता था | 

“ जित जित पाव पड़े संतन के ” और जहाँ जहाँ किसी तपस्वी ने कोई महान तप किया या आश्रम बनाया वह जगह तीर्थ स्थान का रूप पा गयी।

लोग उसे तीर्थ कहने लगे। 

चाहे वो भगवान् बुद्ध का तपस्या क्षेत्र हो या भृतहरी का।इसी का प्रभाव है कि काशी एक महातीर्थ है, हरिद्वार एक तीर्थ है जबकि आगरा तीर्थ नहीं है। 

क्योंकि ऐसा माना गया कि उस मिटटी पर, उस जगह पर, उस क्षेत्र पर, जहाँ पर वो ऋषि मुनि विचरे, उस जगह ने उनके पुण्य अवशोषित किये हैं और अब हम उस जगह से, उस मिटटी से उनके पुण्य अवशोषित कर लेते हैं।

जिस जगह पर वो ऋषि मुनि नहाते थे, उस जगह की मिटटी, पत्थर से रगड़ खा कर जो पानी बह रहा है, जो गंगा जी बह रही हैं, उनका पानी भी परम पवित्र हो जाता है और उस पानी में नहा कर हम भी कुछ पुण्य अर्जित करते हैं और इस तरह से वो गंगोत्री, वो हरिद्वार, वो काशी, वो संगम में गंगा जी का पानी और उसमें नहाने वाला उस पुण्य का भागी होता है जो उसमें संचित है।

अब सोचिये, जिन लोगों के केवल छूने भर से, केवल विचरने मात्र से वो जगह, वो स्थान आज तीर्थ है, उसका पुण्य हम हजारों साल बाद भी ले रहे हैं….! 

यदि वैसे ही या उसकी एक छंटाक भर भी पूजा हम, तप, यजन, मनन हम कर लें, तो क्या जरूरत है किसी तीर्थ जाने की ? 

गंगा जी में डुबकी लगाने की ? 

अरे ! मन चंगा तो कठौती में गंगा !!!

हमारे ब्रह्म पुराण और अन्य पुराणों में तीर्थ भी दो प्रकार के बताये गए हैं, स्थानिक तीर्थ और मानसिक तीर्थ और कहा गया है, जिसने मानसिक तीर्थ नहीं किया उसका स्थानिक तीर्थ व्यर्थ है | 

गंगा जी भी आपके पाप नहीं हर सकती, अगर आपने डुबकी मारने के बाद आकर फिर पाप कर्म ही करना है |

मानस तीर्थ,,,,,,

जायन्ते च भ्रियन्ते च जलेप्वेव जलौकसः। न च गच्छअन्ति ते स्वर्गमविशुदहमनोमलाः ।।
चित्तमंतर्गतम दुष्टं तीर्थस्नानंच शुध्यति । शतशोअपि जलैधौतम सुराभाण्डमिवाशुची ।।

सार : अगत्स्य ने लोपामुद्रा से कहा – निष्पापे ! 

मैं मानस सतीर्थो का वर्णन करता हूँ, सुनो । 

इन तीर्थों मैं स्नान करके  मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है।

सत्य, क्षमा, इन्द्रिसंयम, सब प्राणियों के प्रति दया, सरलता, दान, मन का दमन, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियाभाषण, ज्ञान, धृति और तपस्या – 

ये प्रत्येक एक एक तीर्थ है । 

इनमें ब्रहमचर्य परम तीर्थ है । 

मन की परम विशुद्धि तीर्थों का भी तीर्थ है । 

जल में डुबकी मारने का नाम ही स्नान नहीं है; जिसने इंद्री संयम रूप स्नान किया है, वही स्नान है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया है, वही स्नान है ।

‘जो लोभी है, चुगलखोर हैं, निर्दय हैं, दम्भी हैं और विषयों मैं फंसा है, वह सारे तीर्थों में भली भांति स्नान कर लेने पर भी पापी और मलिन ही है । 

शरीर का मैल उतारने से ही मनुष्य निर्मल नहीं होता; मन के मैल को   पर ही भीतर से सुनिर्मल होता है।

जलजंतु जल में ही पैदा होते हैं और जल में ही मरते हैं, परन्तु वे स्वर्ग में नहीं जाते; क्योंकि उनका मन का मैल नहीं धुलता । 

विषयों में अत्यंत राग ही मन का मैल है और विषयों से वैराग्य को ही निर्मलता कहते हैं । 

चित्त अंतर की वस्तु है, उसके दूषित रहने पर केवल तीर्थ स्नान से शुद्धि नहीं होती।

शराब के भाण्ड को चाहे 100 बार जल से धोया जाये, वह अपवित्र ही रहता है; वैसे ही जब तक मन का भाव शुद्ध नहीं है, तब तक उसके लिए दान, यज्ञ, ताप, शौच, तीर्थसेवन और स्वाध्याय – सभी अतीर्थ है । 

जिसकी इन्द्रियां संयम मैं हैं, वह मनुष्य जहाँ रहता  है, वही उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्करादि तीर्थ विध्यमान हैं । 

ध्यान से विशुद्ध हुए, रागद्वेषरुपी मल का नाश करने वाले ज्ञान जल में जो स्नान करता है, वाही परम गति को प्राप्त होता है ।

यहाँ श्लोक केवल सार रूप में  दिया गया है जिसमें  संपूर्ण श्लोक का सार निहित है । 

सम्पूर्ण श्लोक के अध्ययन के लिए नीचे दिए गए सन्दर्भ के अध्ययन का कष्ट करें ।

सन्दर्भ – स्कन्द पुराण – (काशीखण्ड 6)

हर हर महादेव हर....

श्री शिव महा पुराण प्रवचन

महामृत्युंजय मंत्र की उत्पत्ति कैसे हुई :-


महामृत्युञ्जय मन्त्र या महामृत्युंजय मंत्र ( "मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र" ) जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है।

यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है। 

इस मन्त्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है। 

यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष हमारे हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है। 

ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है। 

चिंतन और ध्यान के लिए उपयोग किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है।





कथा : -

*****

पौराणिक कथाओं के अनुसार मृकण्ड नामक एक ऋषि शिवजी के अनन्य भक्त थे ।

वे शिवजी की बोहोत पूजा-अर्चना करते थे।

असल में उन्हें कोई संतान नहीं थी।

मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे । 

विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.।

मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं ।

इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.।

मृकण्ड ने घोर तप किया।

भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे।

इस लिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.।

महादेव प्रसन्न हुए । 

उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं । 

लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.।

भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा । 

ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है ।

इसकी उम्र केवल १२ वर्ष है ।

ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया ।
मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे ।

भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.।

मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी।

मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी ।

उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.।

मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए। 

उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है ।

बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.।

मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए। 
महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.।

“||ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥”

समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए ।

यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की ।

मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था.।

यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए।

उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए.।

इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा । 

यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए।

बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया.।

यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा । 

एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं.।

शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए ।

उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?

यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे। 

उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं । 

आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है.।

भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ । 

तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है ।

तुम इसे नहीं ले जा सकते.।

यम ने कहा - प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है ।

 मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा.।

महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए ।

उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है। 

सोमवार को महामृत्युंजय का पाठ करने से शिवजी की कृपा होती है और कई असाध्य रोगों, मानसिक वेदना से राहत मिलती है.:!

महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ ::-

****

त्र्यंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)

यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय

सुगंधिम = मीठी महक वाला,

 सुगंधित ( कर्मकारक )

पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता

वर्धनम् = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, ( स्वास्थ्य, धन, सुख में ) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है।

आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है।

एक अच्छा माली

उर्वारुकम् = ककड़ी ( कर्मकारक )

इव = जैसे, इस तरह

बन्धनात् = तना ( लौकी का ); ( "तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न /अनुस्वार में परिवर्तित होती है )

मृत्योः = मृत्यु से

मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति देंय

मा = न

अमृतात् = अमरता, मोक्ष ।..........


साधू संतो को मेरा कोटि कोटि वन्दन के साथ प्रणाम....  

प्रिय यजमान मित्रो भाइओ और बहेनो  एवं मेरा ज्योतिष मित्रो भाइओ और बहेनो को मेरा प्रणाम.......

भगवान् शिव का 11. माँ ज्योतिलिग़ स्थान तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले स्थित रामेश्वरम मे है,

इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना भगवान श्रीराम ने की थी, 

यहाँ किसी मित्रो को शिव पूजन, शिव सकल्प पूजन जाप, शिव अभिषेक पूजन, ग्रह दोष पूजन जाप, 

से घर मे शुख शांति शारीर से निरोगी और शुध्ध लक्ष्मीजी की प्राप्ति होती हैं, और हित शत्रुओं पर विजय मिलती है, 


और यहाँ रामेश्वरम के पास धनुशकोटी मे भी भगवान श्रीराम ने विभिष्ण को राज्याभिषेक का तिलक पूजन किया था,  

तो यहाँ शिव पूजन, शिव सकल्प पूजन जाप, शिव अभिषेक पूजन, करने से सगा – सबंधी, कुटुंब और मित्र सर्कल मे मान सन्मान की प्राप्ति होती है,   

भगवान श्रीराम ने लंका पर युद्ध के लिए जाने से पहले उन्होंने यहां भगवान शिव से रावण पर विजय का वरदान मांगा था। 

ये रामेश्वरम भारत का चारो धाम मे भी भारत का एक धाम है,  भारत की चार पूरी मे भी एक पूरी भी है, 
धन्यवाद....आपका अपना-----
पंडित प्रभुलाल पी. वोरिया का 
PANDIT PRABHULAL P. VORIYA RAJPUT JADEJA KULL GURU :-
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SHREE SARSWATI JYOTISH KARYALAY
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राधे ........राधे ..... राधे .....राधे..... राधे .....राधे..... राधे .....राधे..... राधे .....राधे.....

Saturday, January 7, 2012

अंगद चरित्र / भक्त के वश में भगवान / सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए, क्योंकि...?

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश.

।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।

अंगद चरित्र / भक्त के वश में भगवान / सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए, क्योंकि...?  

ग्रन्थ - अंगद चरित्र

संदर्भ - साधना ( छलाँग ) सेतुबन्ध।

इस सेतुबन्ध के माध्यम से साधना के इन विविध पक्षों को प्रकट किया गया है। 


अधिकांश बन्दर तो पत्थरों के सेतु के द्वारा और जलचरों के पुल से समुद्र को पार करके अपने जीवन के चरम लक्ष्य को पाने में समर्थ हो जाते हैं। 

पर ऐसा नहीं कि छलाँग लगानेवाले पात्र न हों।

गोस्वामीजी कहते हैं कि कुछ बन्दर आकाश से भी छलाँग लगाकर जाने लगे -

सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।

इसका सीधा तात्पर्य यह है कि साधना का क्रमिक विकास ही वह सेतु है और सीधा छलाँग लगाकर जाना " क्रम - विकास " न होकर, ईश्वर की कृपा के द्वारा ही संम्पन्न होता है। 

भगवान ने बन्दरों से पूछा - 

पिछली बार तो केवल हनुमानजी ही छलाँग लगाकर पार गये थे पर इस बार तो छलाँग लगानेवाले बन्दरों की संख्याँ काफी अधिक दिखाई दे रही है। 

यह अन्तर क्यों पड़ा ?

बन्दर बोले कि महाराज ! 

इसमें न तो हनुमानजी की विशेषता है, न हम लोगों की कमी है। 

बन्दर तो आकाश में उड़ता नहीं। 

उसे पक्षी की तरह उड़ने की शक्ति नहीं मिली है। 

बन्दर तो तभी उड़ेंगे, जब उसे पंख मिल जायेंगे।

जब आपने हनुमानजी का पक्ष ले लिया ; 

उनसे कहा कि सीताजी के पास जाओ तो उन्हें आपकी " कृपा का पक्ष " मिल गया और वे उड़कर पार हो गये।

आज आपकी कृपा का पक्ष हम लोगों को भी मिला है तो हम भी छलाँग लगा रहे हैं।

गोस्वामीजी लिखते हैं -
राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भये पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा।।

रामकृपा का बल पाकर लगा, मानों पंख मिल गये हों।

ईश्वर जब पक्ष लेकर कृपापक्ष प्रदान करते हैं तो व्यक्ति में ऐसी क्षमता भी आ जाती है कि वह क्षणभर में ही चरम सत्य का साक्षात्कार कर अभिमान की सीमा को पार कर लेता है।

।।श्रीगुरु चरण सरोज रज निज मन मुकुर सुधारी।।

🙏🙏🙏

*!!!!भक्त के वश में भगवान!!!!*



एक पंडित था, वो रोज घर घर जा के भगवत गीता का पाठ करता था |

एक दिन उसे एक चोर ने पकड़ लिया और उसे कहा तेरे पास जो कुछ भी है मुझे दे दो , तब वो पंडित जी बोला की बेटा मेरे पास कुछ भी नहीं है। 

तुम एक काम करना मैं यहीं पड़ोस के घर में जाके भगवत गीता का पाठ करता हूँ, वो यजमान बहुत दानी लोग हैं, जब मैं कथा सुना रहा होऊंगा तुम उनके घर में चोरी कर लेना! चोर मान गया।

अगले दिन जब पंडित जी कथा सुना रहे थे तब वो चोर भी वहां आ गया, 

तब पंडित जी बोले की यहाँ से मीलों दूर एक गाँव है 

वृन्दावन, वहां पे एक लड़का आता है जिसका नाम कान्हा है,वो हीरों- जवाहरातों से लदा रहता है।

अगर कोई लूटना चाहता है 

तो उसको लूटो, 

वह रोज रात को इस पीपल के पेड़ के नीचे आता है,

जिसके आस पास बहुत सी झाडिया हैं ।

चोर ने ये सुना और ख़ुशी ख़ुशी वहां से चला गया!

वह चोर अपने घर गया और अपनी पत्नी से बोला 

आज मैं एक कान्हा नाम के बच्चे को
लूटने जा रहा हूँ ।

मुझे रास्ते में खाने के लिए कुछ बांध कर दे दो ,पत्नी ने कुछ सत्तू उसको दे दिया और कहा की बस यही है जो कुछ भी है।

चोर वहां से ये संकल्प लेकर चला कि 

अब तो 

मैं उस 

कान्हा को लूट के ही आऊंगा।

वो पैदल ही टूटे चप्पल में वहां से चल पड़ा। 

रास्ते में बस कान्हा का नाम लेते हुए, वो अगले दिन शाम को वहां पहुंचा जो जगह उसे
पंडित जी ने बताई थी!

अब वहां पहुँच कर उसने सोचा कि अगर में यहीं सामने खड़ा हो गया तो बच्चा मुझे देख कर भाग जायेगा तो मेरा यहाँ आना बेकार हो जायेगा इस लिए उसने सोचा क्यूँ न पास वाली झाड़ियों में ही छुप जाऊँ।

वो जैसे ही झाड़ियों में घुसा, झाड़ियों के कांटे उसे चुभने लगे!

उस समय उसके मुंह से एक ही आवाज आयी…

*कान्हा - कान्हा* 

उसका शरीर लहूलुहान हो गया पर मुंह से सिर्फ यही निकला कि 

कान्हा आ जाओ! कान्हा आ जाओ!

अपने भक्त की ऐसी दशा देख के कान्हा जी चल पड़े, तभी रुक्मणी जी बोली कि प्रभु कहाँ जा रहे हो वो आपको लूट लेगा!

प्रभु बोले कि कोई बात नहीं अपने ऐसे भक्तों के लिए तो मैं लुट जाना तो क्या मिट जाना भी पसंद करूँगा 

और ठाकुर जी बच्चे का रूप बना के आधी रात को वहां आए ।

वो जैसे ही पेड़ के पास पहुंचे चोर एक दम से बहार आ गया और उन्हें पकड़ लिया और बोला कि 

ओ कान्हा तूने मुझे बहुत दुःखी किया है। 

अब ये चाकू देख रहा है न, अब चुपचाप अपने सारे गहने मुझे दे दे…

कान्हा जी ने हँसते हुए उसे सब कुछ दे दिया!

वो चोर खुशी ख़ुशी अगले दिन अपने गाँव में वापिस पहुंचा और सबसे पहले उसी जगह गया 

जहाँ वो पंडित जी कथा सुना रहे थे और जितने भी गहने वो चोरी करके लाया था उनका आधा उसने पंडित जी के चरणों में रख दिया!


पंडित ने पूछा कि ये क्या है? 

तो उसने कहा आपने ही मुझे उस कान्हा का पता दिया था,
मैं उसको लूट के आया हूँ और ये आपका हिस्सा है । 

पंडित ने सुना और उन्हें यकीन ही नहीं हुआ!

वो बोले कि मैं इतने सालों से पंडिताई कर रहा हूँ। 

वो मुझे आज तक नहीं मिला, 
तुझ जैसे पापी को कान्हा कहाँ से मिल सकता है!

चोर के बार बार कहने पर पंडित जी बोले कि चल मैं भी चलता हूँ 
तेरे साथ वहां पर, मुझे भी दिखा कि कान्हा कैसा दिखता है और वो दोनों चल दिए!

चोर ने पंडित जी को कहा कि आओ मेरे साथ यहाँ कांटों की झाड़ियों में छुप जाओ।दोनों का शरीर लहू लुहान हो गया और मुंह से बस एक ही आवाज निकली

*कान्हा - कान्हा* 

आ जाओ!

ठीक मध्य रात्रि कान्हा जी बच्चे के रूप में फिर वहीँ आये और दोनों झाड़ियों से बहार निकल आये!

पंडित जी कि आँखों में आंसू थे वो फूट फूट के रोने लग गये ।

जाकर चोर के चरणों में गिर गये और बोले कि हम जिसे आज तक देखने के लिए तरसते रहे तथा जो आज तक लोगों को लूटता आया है, तुमने उसे ही लूट लिया तुम धन्य हो।

आज तुम्हारी वजह से मुझे कान्हा के दर्शन हुए हैं, तुम धन्य हो……!!

ऐसा है हमारे कान्हा का प्यार, अपने सच्चे भक्तों के लिए ।

जो उन्हें सच्चे दिल से पुकारते हैं, तो वो भागे भागे चले आते हैं…..!!

*प्रेम से कहिये श्री कृष्णा ~ हे राधे ! जय जय श्री राधे कृष्णा —–*

*मेरो तो गिरधर-गोपाल, दूसरो न कोई !!!*

            🙏🙏🙏

सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए, क्योंकि...?
સુંદરકાંડનો પાઠ કરવો જોઈએ, પણ કેમ…?

अक्सर शुभ अवसरों पर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के सुंदरकांड का पाठ करने का महत्व माना गया है। 

ज्यादा परेशानी हो, कोई काम नहीं बन रहा हो, आत्मविश्वास की कमी हो या कोई और समस्या कई ज्योतिषी और संत भी लोगों को ऐसी स्थिति में सुंदरकांड का पाठ करने की राय देते हैं। 

आखिर रामचरितमानस के सारे छह कांड छोड़कर केवल सुंदरकांड का ही पाठ क्यों किया जाता है?



वास्तव में रामचरितमानस के सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। 

 संपूर्ण रामचरितमानस भगवान राम के गुणों और उनकी पुरुषार्थ से भरे हैं। 

सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है जो भक्त की विजय का कांड है। 

मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ाने वाला कांड है। 

हनुमान जो कि जाति से वानर थे, वे समुद्र को लांघकर लंका पहुंच गए और वहां सीता की खोज की। 

लंका को जलाया और सीता का संदेश लेकर लौट आए। 

यह एक आम आदमी की जीत का कांड है, जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है। 

इसमें जीवन में सफलता के महत्वपूर्ण सूत्र भी हैं। 

इस लिए पूरी रामायण में सुंदरकांड को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है।
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

हरे  कृष्णा....  हरे  कृष्णा....... हरे  कृष्णा......  कृष्णा   कृष्णा   कृष्णा................  हरे....  हरे.....  हरे ......


सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश.
सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए, क्योंकि...?
સુંદરકાંડનો પાઠ કરવો જોઈએ, પણ કેમ…?

હંમેશા શુભ પ્રસંગે ગોસ્વામી તુલસીદાસ દ્વારા લખવામાં આવેલા રામચરિતમાનસના સુંદરકાંડના પાઠ કરવાનું મહત્વ છે. 

વધારે મુશ્કેલી હોય, કોઇ કામ પાર ન પડતું હોય, આત્મવિશ્વાસની ઉણપ હોય કે અન્ય કોઇ સમસ્યા હોય ત્યારે જ્યોતિષીઓ અને સંતો સુંદરકાંડના પાઠ કરવાની સલાહ આપે છે. 

આખરે રામચરિતમાનસના અન્ય છ કાંડ છોડીને માત્ર સુંદરકાંડના પાઠ કરવાનું જ શા માટે કહેવામાં આવે છે ?

વાસ્તવમાં રામચરિતમાનસના સુંદરકાંડની કથા બધાથી અલગ છે. સંપૂર્ણ રામચરિતમાનસ ભગવાન રામના ગુણો અને તેમના પુરુષાર્થથી ભરેલું છે. 

એકમાત્ર સુંદરકાંડ એવો અધ્યાય છે જેમાં ભક્તનો વિજય થાય છે. 

મનોવૈજ્ઞાનિક દ્રષ્ટિથી જોવામાં આવે તો આ કાંડ આત્મવિશ્વાસ અને ઇચ્છાશક્તિને વધારે તેવો કાંડ છે.

હનુમાનજી, જેઓ જાતિએ વાનર હતા, તેઓ સમુદ્રને પાર કરીને લંકા પહોંચી ગયા અને ત્યાં સીતાની શોધ કરી. લંકાને સળગાવી અને સીતાનો સંદેશ લઇને પરત ફર્યા. 

આ એક સામાન્ય મનુષ્યની જીતનો કાંડ છે, 

જે પોતાની ઇચ્છાશક્તિના બળ ઉપર આટલો મોટો ચમત્કાર કરી શકતો હતો. 

આ કાંડમાં જીવનની સફળતાના મહત્વપૂર્ણ સૂત્રો પણ છે. 

 માટે સમગ્ર રામાયણમાં સુંદરકાંડને સહુથી શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે. 

આ કાંડ વ્યક્તિના આત્મવિશ્વાસમાં પણ વધારો કરે છે. 

આ સુંદરકાંડથી એક બીજો બોધ એ છે કે હનુમાન વાનર જાતિના હતા તેમ છતાં જો ભક્તિના બળથી તેઓ મહાન પૂજનીય દેવતા બની શકતા હોય તો પછી મનુષ્ય ચોક્કસપણે દેવતા બની શકે તેવો બોધ છુપાયેલો છે.  
પંડિત પ્રભુલાલ પી. વોરિયા રાજપૂત જાડેજા કુલગુરુ :-
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-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :- 
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
શ્રી સતવારા વિધાર્થી ભુવન સામે
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નોધ : આ મારો શોખ નથી આ મારી જોબ છે કૃપા કરી મફત સેવા માટે કષ્ટ ના દેશો ... જય દ્વારકાધીશ...