सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........जय द्वारकाधीश
तीर्थ क्या, क्यों और कैसे ? उत्तर, ब्रह्म पुरान से /
श्री शिव महा पुराण प्रवचन
*🌻🌹तीर्थ क्या, क्यों और कैसे ? उत्तर, ब्रह्म पुरान से,,,🌹🌻🙏🏻*
महतां दर्शनं ब्रह्मज्जायते न हि निष्फलं |द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसन्गाद्वा प्रमादतः ||अयसः स्पर्शसंस्पर्शो रुक्मत्वायैव जायते।।
ब्रह्म पुराण से
अर्थ – महापुरुषों का दर्शन निष्फल नहीं होता, भले ही वह द्वेष अथवा अज्ञान से ही क्यों न हुआ हो |
लोहे का पारसमणि से प्रसंग या प्रामद से भी स्पर्श हो जाय तो भी वह उसे सोना ही बनाता है |
सोचने वाली बात है कि गंगा जी का पानी कानपुर में उतना शुद्ध क्यों नहीं है और हरिद्वार, काशी में क्यों उद्धार करने वाला है ?
आगरा क्यों तीर्थ नहीं है और मथुरा, वृन्दावन क्यों तीर्थ है ?
क्यों काशी तो महातीर्थ है पर उसके पास का गाजीपुर तीर्थ नहीं है ?
जब आप शास्त्रों और पुराणों की कड़ी से कड़ी मिलायेंगे तो इसका जवाब मिलता है |
जैसा ब्रह्म पुराण के इस श्लोक में लिखा है, कि पारस से आप लोहा छुलायें तो वो सोना बन जाता है।
इसके और उदाहरण देता हूँ जब आप चुम्बक को लोहे से घिसते हैं तो देखते हैं कि लोहे में भी चुम्बक के गुण उत्पन्न हो गए हैं, यदि आप किसी लोहे में एक ख़ास डायरेक्शन में करंट बहायेंगे तो देखेंगे कि उस लोहे के अन्दर के गुण धर्म बदल गए हैं और उसके अन्दर के अणुओं की दशा भी उसी डायरेक्शन में हो गयी है।
कहने का तात्पर्य ये है कि जिस चीज के सानिद्ध्य में हम आते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर भी आते हैं या जिस भी चीज को हम ज्यादा देर तक छूते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर आते हैं।
इसी लिए कहा गया है, सत्संग करो, कुसंग मत करो। क्यों ?
क्योंकि सत्संग करोगे तो कुछ अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और यदि कुसंग करोगे तो वैसे ही गुण धर्म आपके भी धीरे धीरे हो जायेंगे |
आप जिस चीज के पास रहोगे उसके गुण धर्म को आप अवशोषित करेंगे ही करेंगे।
इसी लिए हमारे यहाँ पैर छूने की परम्परा है। क्योंकि ऐसा माना गया कि जिसके आप पैर छूते हैं उसके कुछ गुण आप अवशोषित करते हैं और इसी लिए बड़ों के, गुरुओं के, ऋषियों के पैर छूने की परम्परा रही।
पहले ये पैर छूने की परम्परा नहीं थी, पहले तो पैर बाकायदा धो कर उसका पानी पी जाते थे, जिसे चरणोदक कहते थे, ताकि ज्यादा से ज्यादा पुण्य मिले, फिर समय के साथ केवल पैर पखारने तक बात रह गयी, ताकि ज्यादा से ज्यादा देर तक पैरों का स्पर्श रहे और वो पानी हमारी त्वचा में अवशोषित हो और अब केवल पैर छूने की ही प्रथा रह गयी है, कहीं कहीं तो अब घुटने छुए जाते हैं या केवल इशारा कर दिया जाता है और हो गया काम…..!
पर समझने वाली बात है कि हम दूसरों के पुण्य और पाप अवशोषित करते हैं।
पद्म पुराण में लिखा है कि जो स्थावर योनी होती है ( वृक्ष आदि ) उनका उद्धार उनके संसर्ग में आने वाले, उनको स्पर्श करने वाले ऋषि और मुनियों के प्रताप से होता है |
जो उनकी छाया में तप करते हैं उसका प्रभाव वो पेड़ भी लेते हैं और मुक्त होते हैं।
हमारे यहाँ बताया गया है कि जो लोग ऋषि होते थे, मुनि होते थे, तपस्वी होते थे, उनके सतोगुण का प्रभाव उनके आस पास के वातावरण पर भी पड़ता था, कई आश्रमों का विवरण हैं जहाँ पर हिरन और शेर एक ही जगह पानी पीते थे।
क्योंकि उनका जो तप है उसका प्रभाव उसके आस पास पड़ता था, उस क्षेत्र पर पड़ता था |
“ जित जित पाव पड़े संतन के ” और जहाँ जहाँ किसी तपस्वी ने कोई महान तप किया या आश्रम बनाया वह जगह तीर्थ स्थान का रूप पा गयी।
लोग उसे तीर्थ कहने लगे।
चाहे वो भगवान् बुद्ध का तपस्या क्षेत्र हो या भृतहरी का।इसी का प्रभाव है कि काशी एक महातीर्थ है, हरिद्वार एक तीर्थ है जबकि आगरा तीर्थ नहीं है।
क्योंकि ऐसा माना गया कि उस मिटटी पर, उस जगह पर, उस क्षेत्र पर, जहाँ पर वो ऋषि मुनि विचरे, उस जगह ने उनके पुण्य अवशोषित किये हैं और अब हम उस जगह से, उस मिटटी से उनके पुण्य अवशोषित कर लेते हैं।
जिस जगह पर वो ऋषि मुनि नहाते थे, उस जगह की मिटटी, पत्थर से रगड़ खा कर जो पानी बह रहा है, जो गंगा जी बह रही हैं, उनका पानी भी परम पवित्र हो जाता है और उस पानी में नहा कर हम भी कुछ पुण्य अर्जित करते हैं और इस तरह से वो गंगोत्री, वो हरिद्वार, वो काशी, वो संगम में गंगा जी का पानी और उसमें नहाने वाला उस पुण्य का भागी होता है जो उसमें संचित है।
अब सोचिये, जिन लोगों के केवल छूने भर से, केवल विचरने मात्र से वो जगह, वो स्थान आज तीर्थ है, उसका पुण्य हम हजारों साल बाद भी ले रहे हैं….!
यदि वैसे ही या उसकी एक छंटाक भर भी पूजा हम, तप, यजन, मनन हम कर लें, तो क्या जरूरत है किसी तीर्थ जाने की ?
गंगा जी में डुबकी लगाने की ?
अरे ! मन चंगा तो कठौती में गंगा !!!
हमारे ब्रह्म पुराण और अन्य पुराणों में तीर्थ भी दो प्रकार के बताये गए हैं, स्थानिक तीर्थ और मानसिक तीर्थ और कहा गया है, जिसने मानसिक तीर्थ नहीं किया उसका स्थानिक तीर्थ व्यर्थ है |
गंगा जी भी आपके पाप नहीं हर सकती, अगर आपने डुबकी मारने के बाद आकर फिर पाप कर्म ही करना है |
मानस तीर्थ,,,,,,
जायन्ते च भ्रियन्ते च जलेप्वेव जलौकसः। न च गच्छअन्ति ते स्वर्गमविशुदहमनोमलाः ।।चित्तमंतर्गतम दुष्टं तीर्थस्नानंच शुध्यति । शतशोअपि जलैधौतम सुराभाण्डमिवाशुची ।।
सार : अगत्स्य ने लोपामुद्रा से कहा – निष्पापे !
मैं मानस सतीर्थो का वर्णन करता हूँ, सुनो ।
इन तीर्थों मैं स्नान करके मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है।
सत्य, क्षमा, इन्द्रिसंयम, सब प्राणियों के प्रति दया, सरलता, दान, मन का दमन, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियाभाषण, ज्ञान, धृति और तपस्या –
ये प्रत्येक एक एक तीर्थ है ।
इनमें ब्रहमचर्य परम तीर्थ है ।
मन की परम विशुद्धि तीर्थों का भी तीर्थ है ।
जल में डुबकी मारने का नाम ही स्नान नहीं है; जिसने इंद्री संयम रूप स्नान किया है, वही स्नान है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया है, वही स्नान है ।
‘जो लोभी है, चुगलखोर हैं, निर्दय हैं, दम्भी हैं और विषयों मैं फंसा है, वह सारे तीर्थों में भली भांति स्नान कर लेने पर भी पापी और मलिन ही है ।
शरीर का मैल उतारने से ही मनुष्य निर्मल नहीं होता; मन के मैल को पर ही भीतर से सुनिर्मल होता है।
जलजंतु जल में ही पैदा होते हैं और जल में ही मरते हैं, परन्तु वे स्वर्ग में नहीं जाते; क्योंकि उनका मन का मैल नहीं धुलता ।
विषयों में अत्यंत राग ही मन का मैल है और विषयों से वैराग्य को ही निर्मलता कहते हैं ।
चित्त अंतर की वस्तु है, उसके दूषित रहने पर केवल तीर्थ स्नान से शुद्धि नहीं होती।
शराब के भाण्ड को चाहे 100 बार जल से धोया जाये, वह अपवित्र ही रहता है; वैसे ही जब तक मन का भाव शुद्ध नहीं है, तब तक उसके लिए दान, यज्ञ, ताप, शौच, तीर्थसेवन और स्वाध्याय – सभी अतीर्थ है ।
जिसकी इन्द्रियां संयम मैं हैं, वह मनुष्य जहाँ रहता है, वही उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्करादि तीर्थ विध्यमान हैं ।
ध्यान से विशुद्ध हुए, रागद्वेषरुपी मल का नाश करने वाले ज्ञान जल में जो स्नान करता है, वाही परम गति को प्राप्त होता है ।
यहाँ श्लोक केवल सार रूप में दिया गया है जिसमें संपूर्ण श्लोक का सार निहित है ।
सम्पूर्ण श्लोक के अध्ययन के लिए नीचे दिए गए सन्दर्भ के अध्ययन का कष्ट करें ।
सन्दर्भ – स्कन्द पुराण – (काशीखण्ड 6)
हर हर महादेव हर....
श्री शिव महा पुराण प्रवचन
महामृत्युंजय मंत्र की उत्पत्ति कैसे हुई :-
महामृत्युञ्जय मन्त्र या महामृत्युंजय मंत्र ( "मृत्यु को जीतने वाला महान मंत्र" ) जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है।
यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति हेतु की गयी एक वन्दना है।
इस मन्त्र में शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है।
यह गायत्री मन्त्र के समकक्ष हमारे हिंदू धर्म का सबसे व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है।
ऋषि-मुनियों ने महा मृत्युंजय मंत्र को वेद का ह्रदय कहा है।
चिंतन और ध्यान के लिए उपयोग किए जाने वाले अनेक मंत्रों में गायत्री मंत्र के साथ इस मंत्र का सर्वोच्च स्थान है।
कथा : -
*****
पौराणिक कथाओं के अनुसार मृकण्ड नामक एक ऋषि शिवजी के अनन्य भक्त थे ।
वे शिवजी की बोहोत पूजा-अर्चना करते थे।
असल में उन्हें कोई संतान नहीं थी।
मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे ।
विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.।
मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं ।
इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.।
मृकण्ड ने घोर तप किया।
भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे।
इस लिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.।
महादेव प्रसन्न हुए ।
उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं ।
लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.।
भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा ।
ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है ।
इसकी उम्र केवल १२ वर्ष है ।
ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया ।
मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे ।
भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.।
मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी।
मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी ।
उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.।
मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए।
उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है ।
बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.।
मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए।
महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.।
“||ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥”
समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए ।
यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की ।
मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था.।
यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए।
उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए.।
इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा ।
यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए।
बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया.।
यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा ।
एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं.।
शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए ।
उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?
यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे।
उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं ।
आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है.।
भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ ।
तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है ।
तुम इसे नहीं ले जा सकते.।
यम ने कहा - प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है ।
मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा.।
महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए ।
उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है।
सोमवार को महामृत्युंजय का पाठ करने से शिवजी की कृपा होती है और कई असाध्य रोगों, मानसिक वेदना से राहत मिलती है.:!
महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ ::-
****
त्र्यंबकम् = त्रि-नेत्रों वाला (कर्मकारक)
यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय
सुगंधिम = मीठी महक वाला,
सुगंधित ( कर्मकारक )
पुष्टिः = एक सुपोषित स्थिति, फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता
वर्धनम् = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है, ( स्वास्थ्य, धन, सुख में ) वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है।
आनन्दित करता है और स्वास्थ्य प्रदान करता है।
एक अच्छा माली
उर्वारुकम् = ककड़ी ( कर्मकारक )
इव = जैसे, इस तरह
बन्धनात् = तना ( लौकी का ); ( "तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न /अनुस्वार में परिवर्तित होती है )
मृत्योः = मृत्यु से
मुक्षीय = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति देंय
मा = न
अमृतात् = अमरता, मोक्ष ।..........
साधू संतो को मेरा कोटि कोटि वन्दन के साथ प्रणाम....
प्रिय यजमान मित्रो भाइओ और बहेनो एवं मेरा ज्योतिष मित्रो भाइओ और बहेनो को मेरा प्रणाम.......
भगवान् शिव का 11. माँ ज्योतिलिग़ स्थान तमिलनाडु राज्य के रामनाथपुरम जिले स्थित रामेश्वरम मे है,
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना भगवान श्रीराम ने की थी,
यहाँ किसी मित्रो को शिव पूजन, शिव सकल्प पूजन जाप, शिव अभिषेक पूजन, ग्रह दोष पूजन जाप,
से घर मे शुख शांति शारीर से निरोगी और शुध्ध लक्ष्मीजी की प्राप्ति होती हैं, और हित शत्रुओं पर विजय मिलती है,
तो यहाँ शिव पूजन, शिव सकल्प पूजन जाप, शिव अभिषेक पूजन, करने से सगा – सबंधी, कुटुंब और मित्र सर्कल मे मान सन्मान की प्राप्ति होती है,
भगवान श्रीराम ने लंका पर युद्ध के लिए जाने से पहले उन्होंने यहां भगवान शिव से रावण पर विजय का वरदान मांगा था।
ये रामेश्वरम भारत का चारो धाम मे भी भारत का एक धाम है, भारत की चार पूरी मे भी एक पूरी भी है,
धन्यवाद....आपका अपना-----
पंडित प्रभुलाल पी. वोरिया का
PANDIT PRABHULAL P. VORIYA RAJPUT JADEJA KULL GURU :-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
SHREE SARSWATI JYOTISH KARYALAY
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Shri Albai Nivas ", Near Mahaprabhuji bethak,
Opp. S.t. bus steson , Bethak Road,
Jamkhambhaliya - 361305 Gujarat – India
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