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Tuesday, December 31, 2024

श्री हनुमानजी की उपासना

श्री हनुमानजी की उपासना 


||ॐ हनुमते नम:||


हनुमान जी को प्रसन्न करना बहुत सरल है।

राह चलते उनका नाम स्मरण करने मात्र से ही सारे संकट दूर हो जाते हैं।

इसी कारण ये जन-जन के देव माने जाते हैं। 

इन की पूजा - अर्चना अति सरल है, इनके मंदिर जगह - जगह स्थित हैं  अतः भक्तों को पहुंचने में कठिनाई भी नहीं आती है। 







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मानव जीवन का सबसे बड़ा दुख भय'' है और जो साधक श्री हनुमान जी का नाम स्मरण कर लेता है वह भय से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

पंचवत्रं महाभीमं पंचदश नयनेर्युतम्
         
हनुमान मन्दिर देश भर में सर्वत्र हैं। 

वे अजर - अमर, कल्पायु- चिरायु, कालजयी, मृत्युंजयी, वत्सल, कल्पतरू, मंगलकर्ता सर्वाभीष्ट प्रदाता है। 

उनकी उपासना, गुणगान, चर्चा, कथा देश-विदेशों में प्रचलित है। 

स्कन्दपुराण ब्रह्मखंड के वर्णनानुसार तथा तुलसीदासजी ने हनुमान चालीसा में उनके हाथ में वज्र, गदा, आयुध कहा है।

वैसे तो कलियुग में 33 कोटी देवी,देवताओं की कल्पना की गयी हैं जिनमें शिव, राम, कृष्ण, दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, पार्वती हनुमान आदि प्रमुख हैं। 

इन में हनुमान की एक मात्रा ऐसे देवता हैं जिनकी पूजा करने से लगभग सभी देवी देवताओं की पूजा का एक साथ फल मिल जाता है। 

हनुमान साधना कलियुग में सबसे सरल और प्रभावी मानी जाती है।

पौराणिक ग्रंथों में हनुमान जी को शिव जी का अंश कहा गया है l

सभी हनुमत भक्त ये बात भली भाती जानते है,हनुमान जी की शक्ति अपरंम्पार है " परंतु कुछ के संज्ञान सायद न हो- 









 जैसे हनुमान जी की एक तीव्र शक्ती जिसे मसानी शक्ती के रुप मे " हनुमान वीर कहा जाता है। 

हनुमान जी वीरो के वीर है ,इस लिये उनका एक नाम " महावीर " नाम से प्रचलित है।

देवताओ की स्मशानी ताकतो को तंत्र मे " वीर " कहा जाता है ।

  || जो सुमिरत हनुमत बलवीरा ||

हमारे जीवन में प्रारब्ध, प्रमुखता दो अवसरों पर दृष्टिगोचर होता है...!

पहला तो हमारे जन्म के संबंधित परिवार का हमें मिलना,और दूसरा, जीवन के अटूट बंधनों से,दूसरे परिवारों का हमसे जुड़ना...!

यदि ये दोनों ही उत्तम हैं तो हमारा जीवन,सुकून और 
सम्मान से गुजरना लगभग निश्चित है...!

यदि प्रथम ठीक मिला,तो जीवन का पूर्वार्ध उत्तम और द्वितीयक रिश्ते अनुकूल मिले, तो उत्तरार्द्ध काल सुखमय व्यतीत होने का अनुमान लगाया जा सकता...!

इन दोनों पर हमारे वर्तमान कर्मों का विशेष ज़ोर नहीं चलता, ये समूची प्रक्रिया प्रायः भाग्य के अधीन है...!  

किन्तु सौभाग्यशाली हैं वो जीवन जो, इन दोनों प्रारब्धों में अनुकूलता पा लेते...!

हमें इनको संरक्षित रखने का संकल्प रखते हुए ही दोषमुक्त जीवन जीना चाहिए...! 

इसी से हम कर्म बंधनों से मुक्त हो सकते...।

जय श्री सीता राम 

तुम्हें गोद में उठाकर चलता था
          
एक भक्त था,वह परमात्मा को बहुत मानता था, बड़े प्रेम और भाव से उनकी सेवा किया करता था।

एक दिन भगवान से कहने लगा- 

मैं आपकी इतनी भक्ति करता हूँ, पर आज तक मुझे आपकी अनुभूति नहीं हुई। 

मैं चाहता हूँ कि आप भले ही मुझे दर्शन ना दें, पर ऐसा कुछ कीजिये कि मुझे ये अनुभव हो कि आप हो।

भगवान ने कहा - 

ठीक है !!

तुम रोज सुबह समुद्र के किनारे सैर पर जाते हो...!

जब तुम रेत पर चलोगे तो तुम्हे दो पैरों की जगह चार पैर दिखाई देंगे। 

दो तुम्हारे पैर होंगे और दो पैरो के निशान मेरे होंगे...!

इस तरह तुम्हे मेरी अनुभूति होगी।

अगले दिन वह सैर पर गया....!

जब वह रेत पर चलने लगा तो उसे अपने पैरों के साथ - साथ दो पैर और भी दिखाई दिये,वह बड़ा खुश हुआ।

अब रोज ऐसा होने लगा।

एक बार उसे व्यापार में घाटा हुआ सब कुछ चला गया, वह रोड़ पर आ गया उसके अपनों ने उसका साथ छोड दिया। 

देखो यही इस दुनिया की प्रॉब्लम है...!

मुसीबत में सब साथ छोड़ देते हैं।

अब वह सैर पर गया तो उसे चार पैरों की जगह दो पैर दिखाई दिये।

उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि बुरे वक्त में भगवान ने भी साथ छोड दिया।

धीरे - धीरे सब कुछ ठीक होने लगा फिर सब लोग उसके पास वापिस आने लगे।

एक दिन जब वह सैर पर गया तो उसने देखा कि चार पैर वापिस दिखाई देने लगे।

उससे अब रहा नहीं गया। 

वह बोला- 

भगवान !! 

जब मेरा बुरा वक्त था....!

तो सब ने मेरा साथ छोड़ दिया था...!

पर मुझे इस बात का गम नहीं था क्योंकि इस दुनिया में ऐसा ही होता है....!

पर आप ने भी उस समय मेरा साथ छोड़ दिया था...!

ऐसा क्यों किया ?

भगवान ने कहा- 

तुमने ये कैसे सोच लिया कि मैं तुम्हारा साथ छोड़ दूँगा !! 

तुम्हारे बुरे वक्त में जो रेत पर तुमने दो पैर के निशान देखे वे तुम्हारे पैरों के नहीं मेरे पैरों के थे...!

उस समय मैं तुम्हे अपनी गोद में उठाकर चलता था और आज जब तुम्हारा बुरा वक्त खत्म हो गया तो मैंने तुम्हे नीचे उतार दिया है।

इस लिए तुम्हे फिर से चार पैर दिखाई दे रहे हैं।

दोस्तो !! 

जब भी अपने काम पर जाओ तो परमात्मा को याद करके जाओ। 

जब भी कोई मुसीबत आये परमात्मा को याद करो, दुःख तुम्हारे पूर्व जन्म के कर्मों के कारण आया है। 

कर्म का फल कटते ही तुम्हारे दुःख का अंत हो जाएगा। 

दुःख के घड़ी में परमात्मा को कोसो नहीं....!

परमात्मा ने तुम्हे दुख नहीं दिया है। 

परमात्मा को याद करोगे तो हो सकता है वे तुम्हारे दुखों से छुटकारा दिला दें।

अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।

🙏जय श्री राम 🙏
पंडा रामा प्रभु राज्यगुरु 

Monday, December 30, 2024

ईश्वर और भगवान

।। ईश्वर और भगवान ।।


ईश्वर को वेद में अजन्मा कहा गया है। 

यथा ऋग्वेद में कहा है कि-

अजो न क्षां दाधारं पृथिवीं, 
तस्तम्भ द्यां मन्त्रेभिः सत्यैः।

अर्थात् ' वह अजन्मा परमेश्वर अपने अबाधित विचारों से समस्त पृथिवी आदि को धारण करता है। '

इसी प्रकार यजुर्वेद में कहा है कि ईश्वर कभी भी नस - नाड़ियों के बन्धन में नहीं आता अर्थात् अजन्मा है।










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अजन्मादि गुणों की पुष्टि के लिए वेद में ईश्वर को निर्विकार कहा गया है क्योंकि विकारादि जन्म की अपेक्षा रखते हैं और ईश्वर को ' अज ' अर्थात् अजन्मा कहा है। 

अतः वह निर्विकार अर्थात् शुद्धस्वरुप है। 

वेद की इसी मान्यता के आधार पर महर्षि पातञ्जलि ने योग दर्शन में लिखा है-

क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविषेश ईश्वरः।

अर्थात् जो अविद्यादि क्लेश, कुशल - अकुशल, इष्ट - अनिष्ट और मिश्रफल दायक कर्मों की वासना से रहित है वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।

अजन्मा होने से ईश्वर अनन्त है क्योंकि जन्म मृत्यु की अपेक्षा रखता है, मृत्यु अर्थात् अन्त और जन्म एक दूसरे की पूर्वापर स्थितियाँ हैं। 

अतः ईश्वर अनन्त अर्थात् अन्त से रहित है। 

वेद में ईश्वर को अनन्त बताते हुए कहा है-

अनन्त विततं पुरुत्रानन्तम् अनन्तवच्चा समन्ते।

अर्थात् 'अनन्त ईश्वर सर्वत्र फैला हुआ है।'

अन्य प्रमाण-
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा।।
(विष्णु पुराण- ६ / ५ / ७४)

अर्थ-
सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य- इन छह का नाम भग है। 

इन छह गुणों से युक्त महान को भगवान कहा जा सकता है।

श्रीराम व श्रीकृष्ण के पास ये सारे ही गुण थे ( भग थे )। 

इस लिए उन्हें भगवान कहकर सम्बोधित किया जाता है। 

वे भगवान् थे, ईश्वर नहीं थे। 

ईश्वर के गुणों को वेद के निम्न मंत्र में स्पष्ट किया गया है-

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।
( यजुर्वेद, अ० - ४० / मं० - ८ )

अर्थात, वह ईश्वर सर्वशक्तिमान, शरीर - रहित, छिद्र - रहित, नस - नाड़ी के बन्धन से रहित, पवित्र, पुण्ययुक्त, अन्तर्यामी, दुष्टों का तिरस्कार करने वाला, स्वतःसिद्ध और सर्वव्यापक है।

वही परमेश्वर ठीक - ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है।

भगवान अनेकों होते हैं।

लेकिन ईश्वर केवल एक ही होता है..!!

जय श्री कृष्ण

पिता अपने बेटे के साथ पांच-सितारा होटल में प्रोग्राम अटेंड करके कार से वापस जा रहे थे। 

रास्ते में ट्रेफिक पुलिस हवलदार ने सीट बैल्ट नहीं लगाने पर रोका और चालान बनाने लगे।

पिता ने सचिवालय में अधिकारी होने का परिचय देते हुए रौब झाड़ना चाहा तो हवलदार जी ने कड़े शब्दों में आगे से सीट बैल्ट लगाने की नसीहत देते हुए छोड़ दिया। 



बेटा चुपचाप सब देख रहा था।

रास्ते में पिता "अरे मैं आइएएस लेवल के पद वाला अधिकारी हूं और कहां वो मामूली हवलदार मुझे सिखा रहा था।

मैं क्या जानता नहीं क्या जरुरी है क्या नहीं, बडे अधिकारियों से बात करना तक नहीं आता, आखिर हम भी जिम्मेदारी वाले बड़े पद पर हैं भई !

" बेटे ने खिड़की से बगल में लहर जैसे चलती गाडियों का काफिला देखा, तभी अचानक तेज ब्रेक लगने और धमाके की आवाज आई।

पिता ने कार रोकी, तो देखा सामने सड़क पर आगे चलती मोटरसाइकिल वाले प्रोढ़ को कोई तेज रफ्तार कार वाला टक्कर मारकर भाग गया था। 

मौके पर एक अकेला पुलिस का हवलदार उसे संभालकर साइड में बैठा रहा था।

खून ज्यादा बह रहा था, हवलदार ने पिता को कहा " खून ज्यादा बह रहा है मैं ड्यूटि से ऑफ होकर घर जा रहा हूं और मेरे पास बाईक नहीं है।

आपकी कार से इसे जल्दी अस्पताल ले चलते हैं, शायद बच जाए। "

बेटा घबराया हुआ चुपचाप देख रहा था। 

पिता ने तुरंत घर पर इमरजेंसी का बहाना बनाया और जल्दी से बेटे को खींचकर कार में बिठाकर चल पड़ा।

बेटा अचंभित सा चुपचाप सोच रहा था कि बड़ा पद वास्तव में कौन सा है !

पिता का प्रशासनिक पद या पुलिस वाले हवलदार का पद जो अभी भी उस घायल की चिंता में वहां बैठा है...!

अगले दिन अखबार के एक कोने में दुर्घटना में घायल को गोद में उठाकर 700 मीटर दूर अस्पताल पहुंचाकर उसकी जान बचाने वाले हवलदार की फोटो सहित खबर व प्रशंसा छपी थी। 

बेटे के होठों पर सुकुन भरी मुस्कुराहट थी, उसे अपना जवाब मिल गया था।

शिक्षा: 

इंसानियत का मतलब सिर्फ खुशियां बांटना नहीं होता…!

बड़े पद का असली मतलब अपने पास आई चुनौतियों का उस समय तक सामना करना होता है।

जब तक उसका समाधान नहीं हो जाता। 

उस समय तक साथ देना होता है जब वो मुसीबत में हो,जब उसे हमारी सबसे ज्यादा ज़रुरत हो…!

इस लिए हमें कभी भी अपने पद का घमंड नहीं करना चाहिए।

हर समय मदद के लिए तैयार होकर अपने पद की गरिमा बनानी चाहिए..!!









   *🙏🏿🙏🏾🙏🏼जय श्री कृष्ण*🙏🙏🏽🙏🏻

इस दुनिया में जो कुछ भी आपके पास है, वह बतौर अमानत ही है और दूसरे की अमानत का भला गुरुर कैसा ? 

बेटा बहु की अमानत है, बेटी दामाद की अमानत है।

शरीर शमशान की अमानत है और जिन्दगी मौत की अमानत है।

अमानत को अपना समझना सरासर बेईमानी ही है। 

याद रखना यहाँ कोई किसी का नहीं। 

तुम चाहो तो लाख पकड़ने की कोशिश कर लो मगर यहाँ आपकी मुट्ठी में कुछ आने वाला नहीं है। 

अमानत की सार - सम्भाल तो करना मगर उसे अपना समझने की भूल मत करना और जो सचमुच तुम्हारा अपना है।

इस दुनियां की चमक - दमक में उसे भी मत भूल जाना।

यह भी सच है कि इस दुनिया में कोई तुम्हारा अपना नहीं मगर दुनिया बनाने वाला जरुर अपना है।

फिर उस अपने से प्रेम न करना बेईमानी नहीं तो और क्या है..!!

अपना परिचय आप खुद ही दें।

ये आपका संघर्ष है...!

आपका परिचय कोई और दे।

ये आपकी उन्नति है और आप परिचय के मोहताज नहीं।

ये आपकी उपलब्धि है जीवन में विचारो की खूबसूरती 
आपको जहाँ से भी मिले वहाँ से चुरा लीजिये।

क्योंकि खूबसूरती तो उम्र के साथ साथ ही ढल जाती हैं।

पर विचारो की खूबसूरती तो हमेशा दिलों में बस ही जाती हैं।
                🙏पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 🙏
   *🙏🏽🙏🙏🏼जय श्री कृष्ण*🙏🏾🙏🏿🙏🏻


Sunday, December 29, 2024

सूर्य स्तुति/देवी प्रार्थना ,

सूर्य स्तुति , देवी प्रार्थना , 

अथ सूर्य स्तुति पाठ

जो भी साधक हर रोज उगते सूर्य के सामने बैठकर भगवान सूर्य की इस स्तुति का पाठ अर्थ सहित करता है, सूर्य नारायण की कृपा से उसकी सभी इच्छाएं पूरी हो जाती है।







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1- श्रणुष्व मुनिशार्दूल सूर्यस्य कवचं शुभम्।
शरीरारोग्दं दिव्यं सव सौभाग्य दायकम्।।

अर्थात- यह सूर्य कवच शरीर को आरोग्य देने वाला है तथा संपूर्ण दिव्य सौभाग्य को देने वाला है।

2- देदीप्यमान मुकुटं स्फुरन्मकर कुण्डलम।
ध्यात्वा सहस्त्रं किरणं स्तोत्र मेततु दीरयेत्।।

अर्थात- चमकते हुए मुकुट वाले डोलते हुए मकराकृत कुंडल वाले हजार किरण ( सूर्य ) को ध्यान करके यह स्तोत्र प्रारंभ करें।

3- शिरों में भास्कर: पातु ललाट मेडमित दुति:।
नेत्रे दिनमणि: पातु श्रवणे वासरेश्वर:।।

अर्थात- मेरे सिर की रक्षा भास्कर करें, अपरिमित कांति वाले ललाट की रक्षा करें। नेत्र ( आंखों ) की रक्षा दिनमणि करें तथा कान की रक्षा दिन के ईश्वर करें।

4- ध्राणं धर्मं धृणि: पातु वदनं वेद वाहन:।
जिव्हां में मानद: पातु कण्ठं में सुर वन्दित:।।

अर्थात- मेरी नाक की रक्षा धर्मघृणि, मुख की रक्षा देववंदित, जिव्हा की रक्षा मानद् तथा कंठ की रक्षा देव वंदित करें।

5- सूर्य रक्षात्मकं स्तोत्रं लिखित्वा भूर्ज पत्रके।
दधाति य: करे तस्य वशगा: सर्व सिद्धय:।।

अर्थात- सूर्य रक्षात्मक इस स्तोत्र को भोजपत्र में लिखकर जो हाथ में धारण करता है तो संपूर्ण सिद्धियां उसके वश में होती है।

6- सुस्नातो यो जपेत् सम्यग्योधिते स्वस्थ: मानस:।
सरोग मुक्तो दीर्घायु सुखं पुष्टिं च विदंति।।

अर्थात- स्नान करके जो कोई स्वच्छ चित्त से कवच पाठ करता है वह रोग से मुक्त हो जाता है, दीर्घायु होता है, सुख तथा यश प्राप्त होता है।

अगर इस स्तुति का पाठ कोई साधक लगातार एक माह तक करता है उसके जीवन में समस्या रूपी अंधकार नहीं आ सकता।

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्
 तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्ड आशुग:।

हिरण्यगर्भ: कपिलस्तपनो भास्करो रवि:
अग्निगर्भोऽदिते: पुत्र: शम्भुस्तिमिरनाशन:।।

अदिति के पुत्र, जगत् के उत्पादक, सम्पत्ति एवं प्रकाश के स्त्रष्टा,आकाश में विचरण करने वाले , सबका पोषण करने वाले, सहस्त्रों किरणों से युक्त, अन्धकार नाशक, कल्याणकारी, विश्वकर्मा अथवा विश्वरूपी शिल्प के निर्माता, मृत अण्ड से प्रकट, शीघ्रगामी, ब्रह्मा, कपिल वर्ण वाले,तपने वाले या ताप देने वाले,प्रकाशक, र- वेदत्रयी की ध्वन से युक्त, अपने भीतर अग्निमय तेज को धारण करने वाले,अदिति देवी के पुत्र, कल्याण के उत्पादक, अन्धकार का नाश करने वाले' सूर्य भगवान् को मेरा कोटि - कोटि प्रणाम है।








   || ॐ आदित्याय नमः ||
               
ज्ञान वृक्ष है तो अनुभव उसकी छाया है।
अब प्रश्‍न उठता है कि वृक्ष बड़ा है या
उसकी छाया तो उसकी छाया ही बड़ी
होती है क्‍योंकि वह स्‍वयं असुरक्षा का
सामना करते हुए हमें सुरक्षा प्रदान करती है।
ज्ञान अहंकार को जन्‍म दे सकता है..!
किन्‍तु अनुभव सदैव विनम्र होता है।
ज्ञान जीवन के गहरे पर्तों में छुपा हुआ
मोती है,अनुभव,जिसकी पलकें खोलता है।
विशुद्ध ज्ञान में अहंकार को चीरने
क्षमता है किन्‍तु एक नये मनुष्‍य के
रूप में परिपक्‍व होने हेतु अनुभव की
प्रक्रिया से गुजरना होता है, और फिर
उस अनुभव की ही क्षमता है जो ज्ञान
को बीज-रूप अपने परिवेश में बिखेर सके।

       || जय श्री कृष्णा  ||
                 🙏🌞🙏

सुबह की प्रार्थना
मेरे प्यारे माताजी जी 

मेरे पैरों में इतनी शक्ति देना कि दौड़ - दौड़ कर आपके दरवाजे आ सकूँ ।

मुझे ऐसी सद्बुद्धि देना कि सुबह - शाम घुटने के बल बैठकर भजन सिमरन कर सकूँ।

मै जब तक रहू आपकी मर्जी।

मेरी अर्जी तो सिर्फ इतनी है कि...!

जब तक जीऊँ, जिह्वा पर आपका नाम रहे....!

मेरे माताजी !

प्रेम से भरी हुई आँखें देना,
श्रद्धा से झुुका हुआ सिर देना,
सहयोग करते हुए हाथ देना
सत्य पथ पर चलते हुए पाँव देना और
सिमरण करता हुआ मन देना।

अपने बच्चों को अपनी कृपादृष्टि देना, सद्बुद्धि देना।

शरीर कभी भी पूरा पवित्र नहीं हो सकता, फिर भी सभी इसकी पवित्रता की कोशिश करते रहते हैं, मन पवित्र हो सकता है मगर अफसोस, कोई कोशिश नहीं करता

🙏🏻 पल पल शुक्राना🙏🏻

प्रातः प्रणाम हमेशा स्वस्थ व प्रसन्न चित रहे 
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

माताजी / परमात्मा प्रेम 






अनाज का कच्चा दाना ज़मीन में डालने से उग आता है और अगर वही दाना पक गया हो तो उगता नहीं बल्कि उस ज़मीन में विलीन हो जाता है!!!

इसी तरह अगर हमारी आत्मा का माताजी / परमात्मा से प्रेम कच्चा है तो वह बार बार जन्म लेती है और यदि वह प्रेम पक्का है तो परमात्मा उसे अपने में विलीन कर लेता है!!!
       
मानव को कभी भी दुनिया के कामों में इतना नहीं उलझ जाना चाहिए कि उसके भजन में रूकावट पड़े या उसका मन शांत न रहे किसी भी वस्तु को भजन के मार्ग में रूकावट न बनने दें क्योंकि दुनिया का कोई भी काम भजन सिमरन से बड़ा नहीं सिमरन का फल हर किस्म की सेवा से बड़ा है इस लिए जो जीव भजन_ सिमरन को अपना दोस्त बना लेता है वह मालिक को भी अपना दोस्त बना लेता है.......!

जैसे-जैसे बूंद से सागर बनता है वैसे ही रोज-रोज के भजन सुमिरन से हमारे कर्म का पहाड़ कट जाता है


 सबसे प्यार माताजी ./ परमात्मा से प्यार है

हर खुशी के साथ प्रातः प्रणाम

🙏🌹 *जय श्री कृष्ण*🌹🙏

शुद्ध - बुद्धि निश्चय ही कामधेनु जैसी है,
 
क्योंकि वह धन - धान्य पैदा करती है;
 
आने वाली आफतों से बचाती है;

 यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है और दूसरों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र करती है।

               
 🙏🌹  ll जय श्री कृष्णा ll🌹🙏

!! हे माताजी / परमेश्वर!!

कोई आवेदन नहीं किया था, 
किसी की सिफारिश नहीं थी,
फिर भी यह स्वस्थ शरीर प्राप्त हुआ।

सिर से लेकर पैर के अंगूठे तक हर क्षण रक्त प्रवाह हो रहा है....!

जीभ पर नियमित लार का अभिषेक कर रहा है...!

न जाने कौनसा यंत्र लगाया है कि निरंतर हृदय धड़कता है...!

पूरे शरीर हर अंग मे बिना रुकावट संदेशवाहन करने वाली प्रणाली कैसे चल रही है कुछ समझ नहीं आता।

हड्डियों और मांस में बहने वाला रक्त कौन सा अद्वितीय आर्किटेक्चर है, इसका किसी को अंदाजा भी नहीं है।

हजार - हजार मेगापिक्सल वाले दो-दो कैमरे के रूप मे आँखे संसार के दृश्य कैद कर रही है।

दस - दस हजार टेस्ट करने वाली जीभ नाम की टेस्टर कितने प्रकार के स्वाद का परीक्षण कर रही है।

सेंकड़ो  संवेदनाओं का अनुभव कराने वाली त्वचा नाम की सेंसर प्रणाली का विज्ञान जाना ही नहीं जा सकता।

अलग - अलग फ्रीक्वेंसी की आवाज पैदा करने वाली स्वर प्रणाली शरीर मे कंठ के रूप मे है।

उन फ्रीक्वेंसी का कोडिंग - डीकोडिंग करने वाले कान नाम का यंत्र इस शरीर की विशेषता है।

पचहत्तर प्रतिशत पानी से भरा शरीर लाखों रोमकूप होने के बावजूद कहीं भी लीक नहीं होता...!

बिना किसी सहारे मैं सीधा खड़ा रह सकता हूँ..!

गाड़ी के टायर चलने पर घिसते हैं, पर पैर के तलवे जीवन भर चलने के बाद आज तक नहीं घिसे 
अद्भुत ऐसी रचना है।

हे माताजी /  भगवान तू इसका संचालक है तू हीं निर्माता।

स्मृति, शक्ति, शांति ये सब भगवान तू देता है। 

तू ही अंदर बैठ कर शरीर चला रहा है।

अद्भुत है यह सब, अविश्वसनीय।

ऐसे शरीर रूपी मशीन में हमेशा तू ही है...!

इसका अनुभव कराने वाला आत्मा माताजी / भगवान तू है। 

यह तेरा खेल मात्र है। 

मै तेरे खेल का निश्छल, निस्वार्थ आनंद का हिस्सा रहूँ!...!

ऐसी सद्बुद्धि मुझे दे!!

तू ही यह सब संभालता है इसका अनुभव मुझे हमेशा रहे!!! 

रोज पल - पल कृतज्ञता से तेरा ऋणी होने का स्मरण, चिंतन हो, यही माताजी / परमेश्वर के चरणों में प्रार्थना है।🙏🌹🙏
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण ) जय श्री कृष्णा

Saturday, December 28, 2024

हनुमानजी की भक्ति/श्री रामचरितमानस कथा एक प्रसंग

हनुमानजी की भक्ति / श्री रामचरितमानस कथा एक प्रसंग 

हनुमान जी और माता सीता जी का संवाद |

               

जानकी माता ने कहा कि हनुमान एक बात बताओ बेटा तुम्हारी पूंछ नहीं जली और पूरी लंका जल गई?

श्री हनुमान जी ने कहा कि माता! लंका तो सोने की है और सोना आग में जलता है क्या? 

फिर कैसे जल गया? हनुमान जी बोले-माता ! लंका में साधारण आग नहीं लगी थी।

पावक थी! ( " पावक जरत देखी हनुमंता " )? 

ये पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो, पावक माने तो आग ही है। 

हनुमान जी बोले- ना माता ! 

यह पावक साधारण नहीं थी। 

फिर जो अपराध भगत कर करई। 

राम रोष पावक सो जरई "। 






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यह राम जी के रोष रूपी पावक थी जिसमे सोने की लंका जली। 

तब जानकी माता बोलीं- 

यह तुम्हारी पूंछ कैसे बच गई ? 

हनुमान जी ने कहा कि- 

उस आग में जलाने की शक्ति ही नहीं, बचाने की शक्ति भी बैठी थी। 

मां बोली -बचाने की शक्ति कौन है ? 

हमें पता है, प्रभु ने आपसे कह दिया था। 

" तुम पावक महुं करहु निवासा उस पावक में तो आप बैठी थीं। 

उस पावक से मेरी पूंछ कैसे जलेगी ? 

तब माँ के मुह से निकल पड़ा -


अजर अमर गुणनिधि सुत होहू,

     करहु बहुत रघुनायक छोहू" ।


     || हनुमान जी महाराज की जय हो ||


जय जय श्री राधे
        

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। 

एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका।

आनंद ने साधू की खूब सेवा की। 

दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।

साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की  - 

" भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे। "

साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - 

"अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला । " 

साधू आनंद  की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया ।

दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है । 

पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है । 

साधू आनंद से मिलने गया।

आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया । 

झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया । 

खाने के लिए सूखी रोटी दी । 

दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे । 

साधू कहने लगा - 

" हे भगवान् ! 

ये तूने क्या किया ? "

आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - 

" महाराज आप क्यों दु:खी हो रहे है ?

महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  इन्सान को जिस हाल में रखे,इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए।

समय सदा बदलता रहता है और सुनो ! 

यह भी नहीं रहने वाला। "

साधू मन ही मन सोचने लगा - 

" मैं तो केवल भेष से साधू  हूँ । 

सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद। "

कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है।

मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था,मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया। 

साधू ने आनंद  से कहा - 

" अच्छा हुआ,वो जमाना गुजर गया ।   

भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे। "

यह सुनकर आनंद फिर हँस पड़ा और कहने लगा - 

" महाराज!अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है। "

साधू ने पूछा - 

" क्या यह भी नहीं रहने वाला ? "

आनंद उत्तर दिया - 

" हाँ! 

या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा।

कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा। "

आनंद की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।

साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं,और आनंद का देहांत हो गया है। 

बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं,बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है ।

कह रहा है आसमां यह समा कुछ भी नहीं।

रो रही हैं शबनमें,नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।

जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।

झाड़ उनके कब्र पर,बाकी निशां कुछ भी नहीं।

साधू कहता है - 

" अरे इन्सान!तू किस बात का अभिमान करता है ?

क्यों इतराता है ?

यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है,दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता।

तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ।

लेकिन सुन,न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। 

सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा।

सच्चे इन्सान वे हैं,जो हर हाल में खुश रहते हैं।

मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं। "

साधू कहने लगा - 

" धन्य है आनंद!तेरा सत्संग,और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु!

मैं तो झूठा साधू हूँ,असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है।

अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ,कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं। "

साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद ने अपनी तस्वीर पर लिखवा रखा है - 

"आखिर में यह भी नहीं रहेगा..!! "

   🙏🏿🙏🏼🙏🏾जय जय श्री राधे🙏🏻🙏🙏🏽








|| एक प्रसंग ||


एक आलसी लेकिन भोला भाला युवक था आनंद। 

दिन भर कोई काम नहीं करता बस खाता ही रहता और सोए रहता। 

घर वालों ने कहा चलो जाओ निकलो घर से, कोई काम धाम करते नहीं हो बस पड़े रहते हो। 

वह घर से निकल कर यूं ही भटकते हुए एक आश्रम पहुंचा। 

वहां उसने देखा कि एक गुरुजी हैं उनके शिष्य कोई काम नहीं करते बस मंदिर की पूजा करते हैं। 

उसने मन में सोचा यह बढिया है कोई काम धाम नहीं बस पूजा ही तो करना है। 

गुरुजी के पास जाकर पूछा, क्या मैं यहां रह सकता हूं, गुरुजी बोले हां, हां क्यों नहीं ? 

लेकिन मैं कोई काम नहीं कर सकता हूं गुरुजी।

कोई काम नहीं करना है बस पूजा करना होगी आनंद । 

ठीक है वह तो मैं कर लूंगा। 

अब आनंद महाराज के आश्रम में रहने लगे। 

ना कोई काम ना कोई धाम बस सारा दिन खाते रहो और प्रभु भक्ति में भजन गाते रहो। 

महीना भर हो गया फिर एक दिन आई एकादशी। 

उसने रसोई में जाकर देखा खाने की कोई तैयारी नहीं। 

उसने गुरुजी से पूछा आज खाना नहीं बनेगा क्या गुरुजी ने कहा नहीं आज तो एकादशी है तुम्हारा भी उपवास है । 

उसने कहा नहीं अगर हमने उपवास कर लिया तो कल का दिन ही नहीं देख पाएंगे हम तो हम नहीं कर सकते उपवास।

हमें तो भूख लगती है आपने पहले क्यों नहीं बताया ? 








गुरुजी ने कहा ठीक है तुम ना करो उपवास, पर खाना भी तुम्हारे लिए कोई और नहीं बनाएगा तुम खुद बना लो।

मरता क्या न करता गया रसोई में, गुरुजी फिर आए 

'' देखो अगर तुम खाना बना लो तो राम जी को भोग जरूर लगा लेना और नदी के उस पार जाकर बना लो रसोई। 

ठीक है, लकड़ी, आटा, तेल, घी,सब्जी लेकर आंनद चले गए, जैसा तैसा खाना भी बनाया, खाने लगा तो याद आया गुरुजी ने कहा था कि राम जी को भोग लगाना है। 

लगा भजन गाने आओ मेरे राम जी,भोग लगाओ जी प्रभु राम आइए, श्रीराम आइए मेरे भोजन का भोग लगाइए। 

कोई ना आया, तो बैचैन हो गया कि यहां तो भूख लग रही है और राम जी आ ही नहीं रहे। 

भोला मानस जानता नहीं था कि प्रभु साक्षात तो आएंगे नहीं । 

पर गुरुजी की बात मानना जरूरी है। 

फिर उसने कहा , देखो प्रभु राम जी, मैं समझ गया कि आप क्यों नहीं आ रहे हैं। 

मैंने रूखा सूखा बनाया है और आपको तर माल खाने की आदत है इस लिए नहीं आ रहे हैं।

तो सुनो प्रभु आज वहां भी कुछ नहीं बना है,सबको एकादशी है, खाना हो तो यह भोग ही खालो।

श्रीराम अपने भक्त की सरलता पर बड़े मुस्कुराए और माता सीता के साथ प्रकट हो गए। 

भक्त असमंजस में। 

गुरुजी ने तो कहा था कि राम जी आएंगे पर यहां तो माता सीता भी आईं है और मैंने तो भोजन बस दो लोगों का बनाया हैं। 

चलो कोई बात नहीं आज इन्हें ही खिला देते हैं। 

बोला प्रभु मैं भूखा रह गया लेकिन मुझे आप दोनों को देखकर बड़ा अच्छा लग रहा है लेकिन अगली एकादशी पर ऐसा न करना पहले बता देना कि कितने जन आ रहे हो, और हां थोड़ा जल्दी आ जाना। 

राम जी उसकी बात पर बड़े मुदित हुए। 

प्रसाद ग्रहण कर के चले गए।

अगली एकादशी तक यह भोला मानस सब भूल गया।

उसे लगा प्रभु ऐसे ही आते होंगे और प्रसाद ग्रहण करते होंगे। 

फिर एकादशी आई। 

गुरुजी से कहा, मैं चला अपना खाना बनाने पर गुरुजी थोड़ा ज्यादा अनाज लगेगा, वहां दो लोग आते हैं। 

गुरुजी मुस्कुराए, भूख के मारे बावला है। 

ठीक है ले जा और अनाज लेजा। 

अबकी बार उसने तीन लोगों का खाना बनाया। 

फिर गुहार लगाई प्रभु राम आइए, सीताराम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए। 

प्रभु की महिमा भी निराली है। 

भक्त के साथ कौतुक करने में उन्हें भी बड़ा मजा आता है।

इस बार वे अपने भाई लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न और हनुमान जी को लेकर आ गए। 

भक्त को चक्कर आ गए। 

यह क्या हुआ। 

एक का भोजन बनाया तो दो आए आज दो का खाना ज्यादा बनाया तो पूरा खानदान आ गया। 

लगता है आज भी भूखा ही रहना पड़ेगा। 

सबको भोजन लगाया और बैठे - बैठे देखता रहा। 

अनजाने ही उसकी भी एकादशी हो गई। 

फिर अगली एकादशी आने से पहले गुरुजी से कहा, गुरुजी, ये आपके प्रभु राम जी, अकेले क्यों नहीं आते हर बार कितने सारे लोग ले आते हैं ? 

इस बार अनाज ज्यादा देना। 

गुरुजी को लगा, कहीं यह अनाज बेचता तो नहीं है देखना पड़ेगा।

जाकर। 

भंडार में कहा इसे जितना अनाज चाहिए दे दो और छुपकर उसे देखने चल पड़े। 

इस बार आनंद ने सोचा, खाना पहले नहीं बनाऊंगा, पता नहीं कितने लोग आ जाएं। 

पहले बुला लेता हूं फिर बनाता हूं। 

फिर टेर लगाई प्रभु राम आइए , श्री राम आइए, मेरे भोजन का भोग लगाइए। 

सारा राम दरबार मौजूद। 

इस बार तो हनुमान जी भी साथ आए लेकिन यह क्या प्रसाद तो तैयार ही नहीं है। 

भक्त ठहरा भोला भाला, बोला प्रभु इस बार मैंने खाना नहीं बनाया, प्रभु ने पूछा क्यों ? 

बोला, मुझे मिलेगा तो है नहीं फिर क्या फायदा बनाने का, आप ही बना लो और खुद ही खा लो। 

राम जी मुस्कुराए, सीता माता भी गदगद हो गई उसके मासूम जवाब से,लक्ष्मण जी बोले क्या करें प्रभु  प्रभु बोले भक्त की इच्छा है पूरी तो करनी पड़ेगी।

चलो लग जाओ काम से।

लक्ष्मण जी ने लकड़ी उठाई, माता सीता आटा सानने लगीं। 

भक्त एक तरफ बैठकर देखता रहा। माता सीता रसोई बना रही थी तो कई ऋषि - मुनि, यक्ष, गंधर्व प्रसाद लेने आने लगे। 

इधर गुरुजी ने देखा खाना तो बना नहीं भक्त एक कोने में बैठा है। 

पूछा बेटा क्या बात है खाना क्यों नहीं बनाया ? 






बोला, अच्छा किया गुरुजी आप आ गए देखिए कितने लोग आते हैं प्रभु के साथ  गुरुजी बोले, मुझे तो कुछ नहीं दिख रहा तुम्हारे और अनाज के सिवा भक्त ने माथा पकड़ लिया....! 

एक तो इतनी मेहनत करवाते हैं प्रभु, भूखा भी रखते हैं और ऊपर से गुरुजी को दिख भी नहीं रहे यह और बड़ी मुसीबत है। 

प्रभु से कहा, आप गुरुजी को क्यों नहीं दिख रहे हैं ? 

प्रभु बोले : - 

मैं उन्हें नहीं दिख सकता। 

बोला : -

क्यों ......!

वे तो बड़े पंडित हैं, ज्ञानी हैं विद्वान हैं उन्हें तो बहुत कुछ आता है उनको क्यों नहीं दिखते आप ? 

प्रभु बोले , माना कि उनको सब आता है पर वे सरल नहीं हैं तुम्हारी तरह। 

इस लिए उनको नहीं दिख सकता।

आनंद ने गुरुजी से कहा, गुरुजी प्रभु कह रहे हैं आप सरल नहीं है इस लिए आपको नहीं दिखेंगे, गुरुजी रोने लगे वाकई मैंने सब कुछ पाया पर सरलता नहीं पा सका तुम्हारी तरह, और प्रभु तो मन की सरलता से ही मिलते हैं। 

प्रभु प्रकट हो गए और गुरुजी को भी दर्शन दिए। 

इस तरह एक भक्त के कहने पर प्रभु ने रसोई भी बनाई,भक्ति का प्रथम मार्ग सरलता है ! 

यह भक्ति कथा लोकश्रुति पर आधारित है !

|| संत भक्त भगवान की जय हो ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )