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Saturday, January 4, 2025

शनि की ताकात,दृष्टि बदली, बदली सृष्टि, मुक्ति फिर आसान है,सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें ।

शनि की ताकात,दृष्टि बदली, बदली सृष्टि, मुक्ति फिर आसान है,सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें । 

शनि की ताकत कितनी है,

 
क्या ये किसी को भी झुका सकते हैं?




           
शनि की दृष्टि बेहद खतरनाक मानी जाती है। 

साथ ही दंडाधिकारी होने के कारण ये लोगों को दंडित करने में देरी नहीं करते....!

इस लिए हर कोई इनसे भय रखता है। 

लेकिन क्या सच में शनि से डरना चाहिए।

शनि महाराज सूर्य देव के बड़े पुत्र हैं। 

इस लिए इन्हें सूर्य पुत्र कहा जाता है। 

ये अनुराधा नक्षत्र के स्वामी हैं।

शनि देव ऐसे देवता हैं जो हर प्राणी, मनुष्य और यहां तक कि देवताओं के साथ भी उचित न्याय करते हैं।

शनि देव की ताकत कितनी है?
       
स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में वृतांत आता है, जिसमें शनि देव पिता सूर्य से कहते हैं....!

" हे पिता! 

मैं ऐसा पद पाना चाहता हूं ।

जिसे आज तक किसी ने नहीं पाया। 

आपके मंडल से भी मेरा मंडल सात गुना बड़ा हो...!

मुझे आपसे सात गुना अधिक शक्ति प्राप्त हो...!

मेरे वेग का कोई सामना न कर पाए....!

चाहे वह देव, असुर, दानव या सिद्ध साधक ही क्यों न हो। 

आपके लोक से मेरा लोक सात गुना ऊंचा रहे। 

इस के बाद दूसरे वरदान मैं यह चाहता हूं....!

कि मुझे मेरे आराध्य देव भगवान कृष्ण के दर्शन हों और मैं भक्ति, ज्ञान और विज्ञान से पूर्ण हो जाऊं।

शनि की ऐसी बातें सुनकर सूर्य ने प्रसन्न होते हुए कहा- 
पुत्र! मैं भी चाहता हूं कि तुम मुझसे से सात गुना अधिक शक्तिवान हो जाओ और मैं भी तुम्हारे प्रभाव को सहन न कर पाऊं....!

लेकिन इस के लिए तुम्हें काशी में तप करना होगा।

वहां जाकर शिव की तपस्या करो और शिवलिंग की स्थापना करों।

इस से भगवान शिव प्रसन्न होकर अवश्य ही तुम्हें मनवांछित फल देंगे।

सूर्य के कहेनुसार, शनि देव ने ऐसा ही किया।

उन्होंने शिवजी की कठोर तपस्या की और शिवलिंग की स्थापना की। 

यह शिवलिंग वर्तमान में काशी- विश्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध है।

शिव जी शनि की तपस्या से प्रसन्न हुए और उन्होंने शिव से मनोवांछित फलों की प्राप्ति की।

साथ ही शिवजी ने शनि देव को ग्रहों में सर्वोपरि पद प्रदान किया। 

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार शिव से ही शनि को न्याय के देवता का पद मिला है। 

शिवजी से ये आशीर्वाद और वरदान पाकर शनि शक्तिशाली हो गए।

   || जय शनिदेव प्रणाम आपको ||

यदि हम जीवन में दो बातें भूल जाएं तो ईश्वर का वरदहस्त हमारे सर पे होगा...!

एक तो जो हम परमात्मा की कृपा से किसी की सहायता कर पाते और दूसरा....!

प्रारब्धवश दूसरों से हमें जो हानि या असहयोग मिलता मानव से महामानव बनने तक की यात्रा....!

इन्हीं दो बिंदुओं पर निर्भर है....!

क्योंकि सांसारिक अपेक्षाओं और प्रतिशोध के भाव भी यही दो कारक हमारे मन में पैदा करते हैं।

जब हम इनसे ऊपर उठ जाएंगे तो हमारे कर्मों की परिधि और परायणता....!

अपने - पराए के भेद को भुला कर....!

हमको केवल नीतिगत दायित्वों का बोध कराती रहेगी।

और हम एक आदर्श व दोषमुक्त जीवन जी पाएंगे आज अपने प्रभु से जीवन में सेवा का भाव मस्तिष्क में न रखते हुए....!

हृदय में रखने की आवश्यकता है।

दृष्टि बदली, बदली सृष्टि, मुक्ति फिर आसान है:


आनंदित रहने की कला.....!

एक राजा बहुत दिनों से विचार कर रहा था...!

कि वह राजपाट छोड़कर अध्यात्म ( ईश्वर की खोज ) में समय लगाए । 

राजा ने इस बारे में बहुत सोचा और फिर अपने गुरु को अपनी समस्याएँ बताते हुए कहा कि उसे राज्य का कोई योग्य उतराधिकारी नहीं मिल पाया है । 

राजा का बच्चा छोटा है, इस लिए वह राजा बनने के योग्य नहीं है । 

जब भी उसे कोई पात्र इंसान मिलेगा, जिसमें राज्य सँभालने के सारे गुण हों, तो वह राजपाट छोड़कर शेष जीवन अध्यात्म के लिए समर्पित कर देगा ।

गुरु ने कहा.....!

" राज्य की बागड़ोर मेरे हाथों में क्यों नहीं दे देते ? 

क्या तुम्हें मुझसे ज्यादा पात्र, ज्यादा सक्षम कोई इंसान मिल सकता है क्या? "

राजा ने कहा....!

" मेरे राज्य को आप से अच्छी तरह भला कौन संभल सकता है ? 

लीजिए, मैं इसी समय राज्य की बागड़ोर आपके हाथों में सौंप देता हूँ । "

गुरु ने पूछा....!

" अब तुम क्या करोगे ? "

राजा बोला...!

" मैं राज्य के खजाने से थोड़े पैसे ले लूँगा, जिससे मेरा बाकी जीवन चल जाए ।"

गुरु ने कहा....!

" मगर अब खजाना तो मेरा है....!

मैं तुम्हें एक पैसा भी लेने नहीं दूँगा ।"

राजा बोला....!

" फिर ठीक है.....!

"मैं कहीं कोई छोटी - मोटी नौकरी कर लूँगा....!

उससे जो भी मिलेगा गुजारा कर लूँगा । "

गुरु ने कहा....!

"अगर तुम्हें काम ही करना है तो मेरे यहाँ एक नौकरी खाली है । 

क्या तुम मेरे यहाँ नौकरी करना चाहोगे ? "

राजा बोला.....!

" कोई भी नौकरी हो, मैं करने को तैयार हूँ । "

गुरु ने कहा.....!

" मेरे यहाँ राजा की नौकरी खाली है । 

मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए यह नौकरी करो और हर महीने राज्य के खजाने से अपनी तनख्वाह लेते रहना । "

एक वर्ष बाद गुरु ने वापस लौटकर देखा कि राजा बहुत खुश था । 

अब तो दोनों ही काम हो रहे थे । 

जिस अध्यात्म के लिए राजपाट छोड़ना चाहता था, वह भी चल रहा था और राज्य सँभालने का काम भी अच्छी तरह चल रहा था । 

अब उसे कोई चिंता नहीं थी ।

इस कहानी से समझ में आएगा की वास्तव में क्या परिवर्तन हुआ ? 

कुछ भी तो नहीं! 

राज्य वही, राजा वही, काम वही; 

दृष्टिकोण बदल गया ।

इसी तरह हम भी जीवन में अपना दृष्टिकोण बदलें । 

मालिक बनकर नहीं, बल्कि यह सोचकर सारे कार्य करें की....! 

" मैं ईश्वर कि नौकरी कर रहा हूँ " 

अब ईश्वर ही जाने । 

सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें । 




फिर हम भी हर समस्या और परिस्थिति में खुशहाल रह पाएँगे और मुक्ति आसान हो जायेगी

भगवान सब को देता है परंतु कैसे?

जब भी कोई मंदिर जाता है, तो वो सीधा भगवान को प्रणाम करके , भगवान मुझे यह दे दो , भगवान मुझे वह दे दो 
 
भगवान मेरा यह काम कर दो । 

भगवान से माँगना शुरू कर देता है , लेकिन किसी को कुछ नही मिलता है ,और जब नही मिलता है तो लोग यह बोलने मे समय नही लगाते है कि अब तो हमारा भगवान पर से भी विश्वास उठ गया है । 

आज मैं आपको बताता हुँ कि भगवान से मांगने पर हमारा मनचाहा क्यों नही मिलता है ? 

मान लीजिये आप एक करोडपति व्यक्ति है , आपके पास इतनी संपत्ति है कि आप एक गाँव का पालन आराम से कर सकते हो । 

आपके पास कोई व्यक्ति आता है और आपको नमस्कार करके डाइरेक्ट आपके सामने अपनी समस्याओं का बखान करने लगता है ,और आपसे सहायता के लिये एक लाख रूपये माँगता है । 

तो क्या आप उसे एक लाख रूपये दे दोगे ? 

नहीं दोगे ? 

भारत का सबसे अमीर अम्बानी परिवार भी किसी के सीधे आकर मांगने पर किसी को 1 लाख रूपये नही देगा , जबकि उनके लिये 1 लाख रूपया 1 रूपये के बराबर है । 

इसके विपरीत कोई व्यक्ति फटे पुराने वस्त्र पहनकर आपके पास आता है, वो आकर के विनम्रता से आपको प्रणाम करता है....!

आपके गुणों कि प्रशंसा निस्वार्थ भाव से करता है....!

आपसे आपका हाल चाल पूछने लगता है....!

जरूरत पडने पर आपके छोटे मोटे काम भी कर देता है....!

लेकिन फिर भी वो बदले मे आपसे कुछ नही चाहता है....!
 
तो ऐसा होने पर आपके हृदय मे उस व्यक्ति के लिये दया का सागर उमडने लगता है....!

आपको उससे प्रेम हो जायेगा , आपको वो व्यक्ति अच्छा लगने लगेगा । 
अब उसका दुःख आपको आपका दुःख लगने लगेगा , आप उस व्यक्ति के कुछ नही चाहते हुये भी उसकी हर प्रकार से सहायता करना प्रारंभ कर दोगे । आप उसे धन भी दोगे , नौकरी भी दोगे , उसकी बेटी का विवाह भी करवाओगे, उसकी सारी जिम्मेदारी आप उसके ना चाहते हुये भी स्वयं के सर पर ले लोगे । 

क्योंकि आप करोडपति होने के नाते हर प्रकार से सक्षम है , उसकी जरूरत पूरी करना आपके लिए बाँये हाथ का खेल है । 

ठीक यही स्थिति भगवान के साथ समझे , उनके लिये इम्पोसिबल कुछ भी नही है , पर वो एक ऐसे व्यक्ति कि तलाश मे रहते है जो उनसे उनकी कोई वस्तु ना चाहकर सिर्फ भगवान को ही चाहता हो , ऐसा होने पर भगवान भक्त कि सारी जिम्मेदारी स्वयं पर ले लेते है । 

इतिहास मे ऐसे कई उदाहरण है , 

भगवान ने नरसी जी कि बेटी का 56 करोड का मायरा भरा । 

भगवान श्री अर्जुन जी के रथ को हाँकने वाले बन गये , तथा पाण्डवों को विजयी बनाया । 

मीरा बाई के जहर के प्याले को अमृत बना दिया । 

भगवान सब कुछ कर सकते है , पर उनकी पूजा उनसे कुछ माँगने के लिये ना करो , सिर्फ उनसे प्रेम करो । 

भगवान ने स्वयं अपने मुख से भगवत गीता मे कहा है :-- 

अनन्याश्चिन्तयन्तो माम ,ये जनाः पर्युपासते 
तेषाम नित्याभियुक्तानाम योगक्षेमं वहाम्यहम" ।। 

अर्थात, अनन्य भाव से मेरे में स्थित हुए जो मेरे भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर प्रेम से चिंतन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्य एकीभाव से मेरे में स्थिति वाले भक्तों का भार मैं स्वयं वहन करता हुँ ।
हरे कृष्ण
पंडारामा प्रभु ( राज्यगुरु )
               🙏🦅🙏

Sunday, December 29, 2024

सूर्य स्तुति , देवी प्रार्थना ,

सूर्य स्तुति , देवी प्रार्थना , 

अथ सूर्य स्तुति पाठ

जो भी साधक हर रोज उगते सूर्य के सामने बैठकर भगवान सूर्य की इस स्तुति का पाठ अर्थ सहित करता है, सूर्य नारायण की कृपा से उसकी सभी इच्छाएं पूरी हो जाती है।


1- श्रणुष्व मुनिशार्दूल सूर्यस्य कवचं शुभम्।
शरीरारोग्दं दिव्यं सव सौभाग्य दायकम्।।

अर्थात- यह सूर्य कवच शरीर को आरोग्य देने वाला है तथा संपूर्ण दिव्य सौभाग्य को देने वाला है।

2- देदीप्यमान मुकुटं स्फुरन्मकर कुण्डलम।
ध्यात्वा सहस्त्रं किरणं स्तोत्र मेततु दीरयेत्।।

अर्थात- चमकते हुए मुकुट वाले डोलते हुए मकराकृत कुंडल वाले हजार किरण ( सूर्य ) को ध्यान करके यह स्तोत्र प्रारंभ करें।

3- शिरों में भास्कर: पातु ललाट मेडमित दुति:।
नेत्रे दिनमणि: पातु श्रवणे वासरेश्वर:।।

अर्थात- मेरे सिर की रक्षा भास्कर करें, अपरिमित कांति वाले ललाट की रक्षा करें। नेत्र ( आंखों ) की रक्षा दिनमणि करें तथा कान की रक्षा दिन के ईश्वर करें।

4- ध्राणं धर्मं धृणि: पातु वदनं वेद वाहन:।
जिव्हां में मानद: पातु कण्ठं में सुर वन्दित:।।

अर्थात- मेरी नाक की रक्षा धर्मघृणि, मुख की रक्षा देववंदित, जिव्हा की रक्षा मानद् तथा कंठ की रक्षा देव वंदित करें।

5- सूर्य रक्षात्मकं स्तोत्रं लिखित्वा भूर्ज पत्रके।
दधाति य: करे तस्य वशगा: सर्व सिद्धय:।।

अर्थात- सूर्य रक्षात्मक इस स्तोत्र को भोजपत्र में लिखकर जो हाथ में धारण करता है तो संपूर्ण सिद्धियां उसके वश में होती है।

6- सुस्नातो यो जपेत् सम्यग्योधिते स्वस्थ: मानस:।
सरोग मुक्तो दीर्घायु सुखं पुष्टिं च विदंति।।

अर्थात- स्नान करके जो कोई स्वच्छ चित्त से कवच पाठ करता है वह रोग से मुक्त हो जाता है, दीर्घायु होता है, सुख तथा यश प्राप्त होता है।

अगर इस स्तुति का पाठ कोई साधक लगातार एक माह तक करता है उसके जीवन में समस्या रूपी अंधकार नहीं आ सकता।

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्
 तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्ड आशुग:।

हिरण्यगर्भ: कपिलस्तपनो भास्करो रवि:
अग्निगर्भोऽदिते: पुत्र: शम्भुस्तिमिरनाशन:।।

अदिति के पुत्र, जगत् के उत्पादक, सम्पत्ति एवं प्रकाश के स्त्रष्टा,आकाश में विचरण करने वाले,सबका पोषण करने वाले, सहस्त्रों किरणों से युक्त, अन्धकार नाशक, कल्याणकारी, विश्वकर्मा अथवा विश्वरूपी शिल्प के निर्माता, मृत अण्ड से प्रकट, शीघ्रगामी, ब्रह्मा, कपिल वर्ण वाले,तपने वाले या ताप देने वाले,प्रकाशक, र- वेदत्रयी की ध्वन से युक्त, अपने भीतर अग्निमय तेज को धारण करने वाले,अदिति देवी के पुत्र, कल्याण के उत्पादक, अन्धकार का नाश करने वाले' सूर्य भगवान् को मेरा कोटि -कोटि प्रणाम है।*

   || ॐ आदित्याय नमः ||
               
ज्ञान वृक्ष है तो अनुभव उसकी छाया है।
अब प्रश्‍न उठता है कि वृक्ष बड़ा है या
उसकी छाया तो उसकी छाया ही बड़ी
होती है क्‍योंकि वह स्‍वयं असुरक्षा का
सामना करते हुए हमें सुरक्षा प्रदान करती है।
ज्ञान अहंकार को जन्‍म दे सकता है..!
किन्‍तु अनुभव सदैव विनम्र होता है।
ज्ञान जीवन के गहरे पर्तों में छुपा हुआ
मोती है,अनुभव,जिसकी पलकें खोलता है।
विशुद्ध ज्ञान में अहंकार को चीरने
क्षमता है किन्‍तु एक नये मनुष्‍य के
रूप में परिपक्‍व होने हेतु अनुभव की
प्रक्रिया से गुजरना होता है, और फिर
उस अनुभव की ही क्षमता है जो ज्ञान
को बीज-रूप अपने परिवेश में बिखेर सके।

       || जय श्री कृष्णा  ||
                 🙏🌞🙏

सुबह की प्रार्थना
मेरे प्यारे माताजी जी 

मेरे पैरों में इतनी शक्ति देना कि दौड़ - दौड़ कर आपके दरवाजे आ सकूँ ।
मुझे ऐसी सद्बुद्धि देना कि सुबह - शाम घुटने के बल बैठकर भजन सिमरन कर सकूँ।

मै जब तक रहू आपकी मर्जी।

मेरी अर्जी तो सिर्फ इतनी है कि
जब तक जीऊँ, जिह्वा पर आपका नाम रहे.

मेरे माताजी !
प्रेम से भरी हुई आँखें देना,
श्रद्धा से झुुका हुआ सिर देना,
सहयोग करते हुए हाथ देना
सत्य पथ पर चलते हुए पाँव देना और
सिमरण करता हुआ मन देना।

अपने बच्चों को अपनी कृपादृष्टि देना, सद्बुद्धि देना।

शरीर कभी भी पूरा पवित्र नहीं हो सकता, फिर भी सभी इसकी पवित्रता की कोशिश करते रहते हैं, मन पवित्र हो सकता है मगर अफसोस, कोई कोशिश नहीं करता

🙏🏻 पल पल शुक्राना🙏🏻

प्रातः प्रणाम हमेशा स्वस्थ व प्रसन्न चित रहे 
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

माताजी / परमात्मा प्रेम 



अनाज का कच्चा दाना ज़मीन में डालने से उग आता है और अगर वही दाना पक गया हो तो उगता नहीं बल्कि उस ज़मीन में विलीन हो जाता है!!!

इसी तरह अगर हमारी आत्मा का माताजी / परमात्मा से प्रेम कच्चा है तो वह बार बार जन्म लेती है और यदि वह प्रेम पक्का है तो परमात्मा उसे अपने में विलीन कर लेता है!!!
       
मानव को कभी भी दुनिया के कामों में इतना नहीं उलझ जाना चाहिए कि उसके भजन में रूकावट पड़े या उसका मन शांत न रहे किसी भी वस्तु को भजन के मार्ग में रूकावट न बनने दें क्योंकि दुनिया का कोई भी काम भजन सिमरन से बड़ा नहीं सिमरन का फल हर किस्म की सेवा से बड़ा है इस लिए जो जीव भजन_ सिमरन को अपना दोस्त बना लेता है वह मालिक को भी अपना दोस्त बना लेता है.......!

जैसे-जैसे बूंद से सागर बनता है वैसे ही रोज-रोज के भजन सुमिरन से हमारे कर्म का पहाड़ कट जाता है


 सबसे प्यार माताजी ./ परमात्मा से प्यार है

हर खुशी के साथ प्रातः प्रणाम

🙏🌹 *जय श्री कृष्ण*🌹🙏

शुद्ध - बुद्धि निश्चय ही कामधेनु जैसी है,
 
क्योंकि वह धन-धान्य पैदा करती है;
 
आने वाली आफतों से बचाती है;

 यश और कीर्ति रूपी दूध से मलिनता को धो डालती है और दूसरों को अपने पवित्र संस्कारों से पवित्र करती है।

               
 🙏🌹  ll जय श्री कृष्णा ll🌹🙏

!! हे माताजी / परमेश्वर!!

कोई आवेदन नहीं किया था, 
किसी की सिफारिश नहीं थी,
फिर भी यह स्वस्थ शरीर प्राप्त हुआ।

सिर से लेकर पैर के अंगूठे तक हर क्षण रक्त प्रवाह हो रहा है....
जीभ पर नियमित लार का अभिषेक कर रहा है...

न जाने कौनसा यंत्र लगाया है कि निरंतर हृदय धड़कता है...

पूरे शरीर हर अंग मे बिना रुकावट संदेशवाहन करने वाली प्रणाली 
कैसे चल रही है
कुछ समझ नहीं आता।

हड्डियों और मांस में बहने वाला रक्त कौन सा अद्वितीय आर्किटेक्चर है,
इसका किसी को अंदाजा भी नहीं है।

हजार-हजार मेगापिक्सल वाले दो-दो कैमरे के रूप मे आँखे संसार के दृश्य कैद कर रही है।

दस - दस हजार टेस्ट करने वाली जीभ नाम की टेस्टर कितने प्रकार के स्वाद का परीक्षण कर रही है।

सेंकड़ो  संवेदनाओं का अनुभव कराने वाली त्वचा नाम की सेंसर प्रणाली का विज्ञान जाना ही नहीं जा सकता।

अलग - अलग फ्रीक्वेंसी की आवाज पैदा करने वाली स्वर प्रणाली शरीर मे कंठ के रूप मे है।

उन फ्रीक्वेंसी का कोडिंग-डीकोडिंग करने वाले कान नाम का यंत्र इस शरीर की विशेषता है।

पचहत्तर प्रतिशत पानी से भरा शरीर लाखों रोमकूप होने के बावजूद कहीं भी लीक नहीं होता...

 बिना किसी सहारे मैं सीधा खड़ा रह सकता हूँ..

गाड़ी के टायर चलने पर घिसते हैं, पर पैर के  तलवे जीवन भर चलने के बाद आज तक नहीं घिसे 
अद्भुत ऐसी रचना है।

हे माताजी /  भगवान तू इसका संचालक है तू हीं निर्माता।

स्मृति, शक्ति, शांति ये सब भगवान तू देता है। 

तू ही अंदर बैठ कर शरीर चला रहा है।

अद्भुत है यह सब, अविश्वसनीय।

ऐसे शरीर रूपी मशीन में हमेशा तू ही है,
इसका अनुभव कराने वाला आत्मा माताजी / भगवान तू है। 

यह तेरा खेल मात्र है। 

मै तेरे खेल का निश्छल, निस्वार्थ आनंद का हिस्सा रहूँ!...

ऐसी सद्बुद्धि मुझे दे!!

तू ही यह सब संभालता है इसका अनुभव मुझे हमेशा रहे!!! 

रोज पल-पल कृतज्ञता से तेरा ऋणी होने का स्मरण, चिंतन हो, यही माताजी / परमेश्वर के चरणों में प्रार्थना है।🙏🌹🙏
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण ) जय श्री कृष्णा

Friday, November 22, 2024

दान - का - हिसाब और वैदिक मंत्रों,

दान - का - हिसाब और वैदिक मंत्रों,सकारात्मक दृष्टिकोण दुःख में सुख खोज लेना,श्री सामवेद के अनुसार सपने में सांप देखने का अर्थ का फलजब_ श्री_ कृष्ण_ जी_   को_  ठण्ड_  लगी. !

दान - का - हिसाब और वैदिक मंत्रों, 

एक राज्य में एक राजा का शासन था. वह कीमती वस्त्रों, आभूषणों और मनोरंजन में अत्यधिक धन खर्च कर दिया करता था।



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परन्तु, दान - धर्म में एक दमड़ी खर्च नहीं करता था ।

जब भी कोई ज़रूरतमंद और लाचार व्यक्ति सहायता की आस में उसके दरबार में आता ।

तो उसे खाली हाथ लौटा दिया जाता था ।

इस लिए लोगों ने उसके पास जाना ही छोड़ दिया था।

एक वर्ष राज्य में वर्षा नहीं हुई।

जिससे वहाँ सूखा पड़ गया ।

सूखे से फ़सल नष्ट हो गई ।

चारो ओर त्राहि - त्राहि मच गई।

लोग भूख-प्यास से मरने लगे।

राजा के कानों तक जब प्रजा का हाल पहुँचा।

तो वह कन्नी काटते हुए बोला।

" अब इंद्र देवता रूठ गए हैं।

तो इसमें मेरा क्या दोष है।

मैं भला क्या कर सकता हूँ?”

प्रजा उनके समक्ष सहायता की गुहार लेकर आई। 

" महाराज सहायता करें।

अब आपका ही सहारा है।

राजकोष से थोड़ा धन प्रदान कर दें।

ताकि अन्य देशों से अनाज क्रय कर भूखे मरने से बच सकें।”

राजा उन्हें दुत्कारते हुए बोला।

“जाओ अपनी व्यवस्था स्वयं करो।

आज सूखे से तुम्हारी फ़सल नष्ट हो गई।

कल अतिवृष्टि से हो जायेगी और तुम लोग ऐसे ही हाथ फैलाये मेरे पास आ जाओगे।

तुम लोगों पर यूं ही राजकोष का धन लुटाता रहा।

तो मैं कंगाल हो जाऊंगा।

जाओ यहाँ से।”

दु:खी मन से लोग वापस चले गए।

किंतु.....!

समय बीतने के साथ सूखे का प्रकोप बढ़ता चला गया।

अन्न के एक - एक दाने को  तरसने लगे और वे फिर से राजा के पास पहुँचे।

सहायता की याचना करते हुए वे बोले।



"महाराज....!

हम लाचार हैं.....!

खाने को अन्न का एक दाना नहीं है।

राजकोष से मात्र दस हज़ार रूपये की सहायता प्रदान कर दीजिये।

आजीवन आपके ऋणी रहेंगे।”

“दस हज़ार रूपये....! 

जानते भी हो कि ये कितने होते हैं? 

इस तरह मैं तुम लोगों पर धन नहीं लुटा सकता.” 

राजा बोला.....!

“महाराज....!

राजकोष सगार है और दस हज़ार रूपये एक बूंद...!

एक बूँद दे देने से सागर थोड़े ही खाली हो जायेगा.” 

लोग बोले.....!

“तो इसका अर्थ है कि मैं दोनों हाथों से धन लुटाता फिरूं.” 

राजा तुनककर बोला.....!

“महाराज.....!

हम धन लुटाने को नहीं कह रहे....!

सहायता के लिए कह रहे हैं....!

वैसे भी हजारों रूपये कीमती वस्त्रों....! 

आभूषणों....!

मनोरंजन में प्रतिदिन व्यय होते है.....!

वही रूपये हम निर्धनों के काम आ जायेंगे.”  

“मेरा धन है. मैं जैसे चाहे उपयोग करूं? 

तुम लोग कौन होते हो।

मुझे ज्ञान देने वाले? 

तत्काल मेरी दृष्टि से दूर हो जाओ।

अन्यथा कारागार में डलवा दूंगा।” 

राजा क्रोधित होकर बोला....!

राजा का क्रोध देख लोग चले गए!

दरबारी भी राजा का व्यवहार देख दु:खी थे!

ऐसी आपदा के समय प्रजा अपने राजा से आस न रखे।

तो किससे रखे? 

ये बात वे राजा से कहना चाहते थे।

किंतु उसका क्रोध देख कुछ न कह सके।

राजा ही बोला.....!

" दस हज़ार रूपये मांगने आये थे।

अगर सौ - दो सौ रूपये भी मांगे होते...!

तो दे देता और उसकी क्षतिपूर्ति किसी तरह कर लेता।

किंतु, इन लोगों ने तो बिना सोचे-समझे अपना मुँह खोल दिया।

सच में अब तो नाक में दम हो गया है...!”

अब दरबारी क्या कहते? 

शांत रहे।

किंतु, मन ही मन सोच रहे थे कि राजा ने प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य नहीं निभाया।

कुछ दिन और बीत गए।

किंतु, सूखे का प्रकोप रुका नहीं।

बढ़ता ही गया।

इधर राजा इन सबके प्रति आँखें मूंद अपने भोग-विलास में लगा रहा।

एक दिन एक सन्यासी दरबार में आया और राजा को प्रणाम कर बोला।

" महाराज....!

सुना है आप दानवीर हैं....!

सहायता की गुहार लेकर उपस्थित हुआ हूँ।”

राजा आश्चर्य में पड़ गया।

सोचने लगा कि ये सन्यासी कहाँ से मेरे दान - पुण्य के बारे में सुनकर आया है।

मैंने तो कभी किसी को दान नहीं दिया।

कहीं दान लेने के लिए ये बात तो नहीं बना रहा।

फिर सन्यासी से पूछा.....!

" क्या चाहिए तुम्हें? 

यदि अपनी सीमा में रहकर मांगोगे...!

तो तुम्हें प्रदान किया जाएगा....!

किंतु, अत्यधिक की आस मत रखना।”

सन्यासी बोला....!

“महाराज! मैं तो एक सन्यासी हूँ।

मुझे अत्यधिक धन का लोभ नहीं।

बस इक्कीस दिनों तक राजकोष से कुछ भिक्षा दे दीजिए।

किंतु....!

भिक्षा लेने का मेरा तरीका है....!

मैं हर दिन पिछले दिन से दुगुनी भिक्षा लेता हूँ....!

आपको भी ऐसा ही करना होगा”

राजा सोचते हुए बोला....!

“पहले ये बताओ कि पहले दिन कितनी भिक्षा लोगे.....!

तब मैं निर्णय करूंगा कि तुम्हें राजकोष से भिक्षा दी जाए या नहीं।

दो - चार रूपये मांगोगे।

तो मिल सकते हैं.....!

दस-बीस रुपये मांगोगे....!

तो कठिनाई होगी....! ”

सन्यासी बोला.....!

“महाराज....!

कहा ना मैं ठहरा सन्यासी....!

अधिक धन का क्या करूंगा? 

आप मुझे पहले दिन मात्र एक रूपया दे देना....! ”

सुनकर राजा बोला....!

“ठीक है...!

मैं तुम्हें पहले दिन एक रुपया और उसके बाद बीस दिनों तक प्रतिदिन पिछले दिन का दुगुना धन देने का वचन देता हूँ.....!”

राजा ने तत्काल कोषाध्यक्ष को बुलवाया और उसे अपना आदेश सुना दिया।

राजकोष से सन्यासी को एक रुपया मिल गया और वह राजा की जयकार करता हुआ चला गया।

उसके बाद प्रतिदिन सन्यासी को राजकोष से धन मिलने लगा।

कुछ दिन बीतने के बाद राजभंडारी ने हिसाब लगाया।

तो पाया कि राजकोष का धन कम हुए जा रहा है और इसका कारण सन्यासी को दिया जाने वाला दान है।

उसने मंत्री को यह जानकारी दी।

मंत्री भी उलझन में पड़ गया।

वह बोला....!

“यह बात हमें पहले विचार करनी चाहिए थी.....!

अब क्या कर सकते हैं....!

ये तो महाराज का आदेश है.....!

हम उनके आदेश का उल्लंघन कैसे कर सकते हैं?”

राजभंडारी कुछ नहीं बोला.....!

कुछ दिन और बीते और राजकोष से धन की निकासी बढ़ने लगी.....!

तो वह फिर से भागा - भागा मंत्री के पास पहुँचा और बोला....!

“मंत्री जी....!

इस बार मैंने पूरा हिसाब किया है....!

वह हिसाब लेकर ही आपके पास उपस्थित हुआ हूँ.”

मंत्री ने जब हिसाब देखा....!

तो चकित रह गया. उसके माथे पर पसीना आ गया....!

उसने पूछा.....!

“क्या यह हिसाब सही है.”

“ बिल्कुल सही.....!

मैंने कई बार स्वयं गणना की है...!"

राजभंडारी बोला....!

“इतना धन चला गया है और अभी इक्कीस दिन होने में बहुत समय है....!

 इक्कीस दिनों बाद क्या स्थिति बनेगी? 

जरा बताओ तो?”

भंडारी बोला, 

“वह हिसाब तो मैंने नहीं लगाया है....!”

“तो तत्काल हिसाब लगाकर मुझे बताओ.” 

मंत्री ने आदेश दिया.....!

भंडारी हिसाब करने लगा और पूरा हिसाब करके बोला.....!

“मंत्री जी....!

 इक्कीस दिनों में सन्यासी की दान की रकम दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर रूपये होगी.....!”

“क्या?” 

मंत्री बोला....!

“तुमने सही हिसाब तो लगाया है....!

 इतना धन सन्यासी ले जायेगा...!

तो राजकोष खाली हो जायेगा. हमें तत्काल ये जानकारी महाराज को देनी होगी....!”

वे तत्क्षण राजा के पास पहुँचे और पूरा हिसाब उसके सामने रख दिया.....!

राजा ने जब हिसाब देखा,...!

तो उसे चक्कर आ गया.....!

फिर ख़ुद को संभालकर वह बोला....!

“ये सब क्या है?”

मंत्री बोला....!

“सन्यासी को दान देने के कारण राजकोष खाली हो रहा है....!”

राजा बोला....!

" ऐसा कैसे हो सकता है? 

मैंने तो उसे बहुत ही कम धन देने का आदेश दिया था.”

मंत्री बोला....!

“महाराज....!

वह सन्यासी बहुत चतुर निकला...!

अपनी बातों में फंसाकर वह राजकोष से बहुत सारा धन ऐंठने के प्रयास में है.....!”

राजा ने राजभंडारी से पूछा.....!

“फिर से बताओ कितना धन सन्यासी लेने वाला है?”

“दस लाख अड़तालीस हजार पांच सौ छिहत्तर“ 

राजभंडारी बोला.....!

“परन्तु मुझे लगता है कि मैंने इतना धन देने का आदेश तो नहीं दिया था....!

मैं ऐसा आदेश दे ही नहीं सकता....!

जब मैंने अकाल पीड़ित प्रजा को दस हजार रुपये नहीं दिए....!

तो भला एक सन्यासी को इतना धन क्यों दूंगा?” 

राजा सोचते हुए बोला.....!

“किंतु सब आपके आदेश अनुसार ही हो रहा है महाराज.....!

चाहे तो आप स्वयं हिसाब कर लीजिये.” 

राजभंडारी बोला. मंत्री ने भी उसका समर्थन किया....!

“अभी इसी समय उस सन्यासी को मेरे समक्ष प्रस्तुत करो....!”

राजा चिल्लाया.....!

तुरंत कुछ सैनिक भेजे गए और वे सन्यासी को लेकर राजा के सामने उपस्थित हुए.....!

सन्यासी को देखते ही राजा उसके चरणों पर गिर पड़ा और बोला....!

“बाबा, आपको दिए वचन से मेरा राजकोष खाली हुआ जा रहा है....!

 इस तरह तो मैं कंगाल हो जाऊँगा.....!

फिर मैं राजपाट कैसे चला पाऊँगा? 

किसी तरह मुझे इस वचन से मुक्त कर दीजिये......!

दया कीजिये.....!”

सन्यासी ने राजा को उठाया और बोला.....!

“ठीक है मैं तुम्हें इस वचन से मुक्त करता हूँ......!

किंतु इसके बदले तुम्हें राज्य की प्रजा को पचास हज़ार रूपये देने होंगे......!

ताकि वे अकाल का सामना कर सकें......!”

राजा बोला.....!

“किंतु बाबा....!

वे लोग जब आये थे.....!

तब दस हजार मांग रहे थे.....!”

“किंतु मैं पचास हजार ही लूँगा.....!

उससे एक ढेला कम नहीं.....!” 

सन्यासी  ने अपना निर्णय सुनाया....!

राजा बहुत गिड़गिड़ाया...!

किंतु सन्यासी अपनी बात अड़ा रहा...!

अंततः  

विवश होकर राजा पचास हजार रूपये देने तैयार हो गया....!

सन्यासी ने अपना वचन वापस ले लिया और चला गया.....!

राजकोष से प्रजा को पचास हजार रूपये दिए गए....!

प्रजा बहुत प्रसन्न हुई और राजा की जय - जयकार करने लगी.....!

दु:खी राजा बहुत दिनों तक भोग - विलास से दूर रहा।

मित्रों"  

जब सीधी उंगली से घी ना निकले,तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है....!

 भला करोगे....!

तो चारों ओर गुणगान होगा..!!

ये  वैदिक शास्त्र के  16 मंत्र  हैं जो......!

1. Gayatri Mantra

            ॐ भूर्भुवः स्वः,
            तत्सवितुर्वरेण्यम् 
            भर्गो देवस्य धीमहि 
            धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

2. Mahamrityunjay

          ॐ त्रम्बकं यजामहे, 
           सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ,
           उर्वारुकमिव बन्धनान्,
           मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् !!

3. Shri Ganesha

              वक्रतुंड महाकाय, 
              सूर्य कोटि समप्रभ 
              निर्विघ्नम कुरू मे देव,
              सर्वकार्येषु सर्वदा !!

4. Shri hari Vishnu

           मङ्गलम् भगवान विष्णुः,
           मङ्गलम् गरुणध्वजः।
           मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः,
           मङ्गलाय तनो हरिः॥

5. Shri Brahma ji

             ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा,
              नमस्ते परमात्ने ।
              निर्गुणाय नमस्तुभ्यं,
              सदुयाय नमो नम:।।

6. Shri Krishna

               वसुदेवसुतं देवं,
               कंसचाणूरमर्दनम्।
               देवकी परमानन्दं,
               कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।

7. Shri Ram

              श्री रामाय रामभद्राय,
               रामचन्द्राय वेधसे ।
               रघुनाथाय नाथाय,
               सीताया पतये नमः !

8. Maa Durga

            ॐ जयंती मंगला काली,
            भद्रकाली कपालिनी ।
            दुर्गा क्षमा शिवा धात्री,
            स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।।

9. Maa Mahalakshmi

            ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो,
            धन धान्यः सुतान्वितः ।
            मनुष्यो मत्प्रसादेन,
            भविष्यति न संशयःॐ ।

10. Maa Saraswathi

            ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं,
             वरदे कामरूपिणि।
             विद्यारम्भं करिष्यामि,
             सिद्धिर्भवतु मे सदा ।।

11. Maa Mahakali

             ॐ क्रीं क्रीं क्रीं,
             हलीं ह्रीं खं स्फोटय,
             क्रीं क्रीं क्रीं फट !!

12. Hanuman ji

          मनोजवं मारुततुल्यवेगं,
          जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
          वातात्मजं वानरयूथमुख्यं,
          श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥

13. Shri Shanidev

             ॐ नीलांजनसमाभासं,
              रविपुत्रं यमाग्रजम ।
              छायामार्तण्डसम्भूतं, 
              तं नमामि शनैश्चरम्।।

14. Shri Kartikeya

        ॐ शारवाना-भावाया नम:,
         ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा ,
         वल्लीईकल्याणा सुंदरा।
          देवसेना मन: कांता,
          कार्तिकेया नामोस्तुते।

15. Kaal Bhairav ji

          ॐ ह्रीं वां बटुकाये,
          क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये,
          कुरु कुरु बटुकाये,
          ह्रीं बटुकाये स्वाहा।

16. Bharat Mata

     नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
     त्वया हिन्दुभूमे सुखद् वर्धितोऽहम्
     महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
     पतत्वेष काथो नमस्ते-नमस्ते।।
   
सकारात्मक दृष्टिकोण *दुःख में सुख खोज लेना....! 

सकारात्मक दृष्टिकोण :




दुःख में सुख खोज लेना....!
हानि में लाभ खोज लेना....!

प्रतिकूलताओं में भी अवसर खोज लेना इस सबको सकारात्मक दृष्टिकोण कहा जाता है। 

जीवन का ऐसा कोई बड़े से बड़ा दुःख नहीं जिससे सुख की परछाईयों को ना देखा जा सके। 

जिन्दगी की ऐसी कोई बाधा नहीं जिससे कुछ प्रेरणा ना ली जा सके ।

रास्ते में पड़े हुए पत्थर को आप मार्ग की बाधा भी मान सकते हैं और चाहें तो उस पत्थर को सीढ़ी बनाकर ऊपर भी चढ़ सकते हैं। 

जीवन का आनन्द वही लोग उठा पाते हैं जिनका सोचने का ढंग सकारात्मक होता है।

इस दुनिया में बहुत लोग ।

इस लिए दु:खी नहीं कि उन्हें किसी चीज की कमी है किन्तु इसलिए दु:खी हैं कि उनके सोचने का ढंग नकारात्मक है। 

सकारात्मक सोचो, सकारात्मक देखो। 

इससे आपको अभाव में भी जीने का आनन्द आ जायेगा।

अगर आपकी खुशी की एकमात्र वजह ये है कि जो चीज आपके पास हैं, वो दूसरों के पास नहीं, तो इसे विकार कहेंगे। 

इस तरह के विकार से जितनी जल्दी छुटकारा पा लिया जाये उतना बढ़िया। 

इससे मिलने वाली प्रसन्नता छणिक होती है। 

नुकसान ज्यादा होता है और उसके बारे में पता बाद में चलता है।

बातें चाहे कितनी बड़ी बड़ी की जाए ।

कितनी ही अच्छी ही क्यों न हों किन्तु याद रखिये संसार आपको आपके कर्मो के द्वारा जानता है। 

अतः बातें भी अच्छी करिए और कार्य भी हमेशा उत्कृष्ट और श्रेष्ठ करें।

*संकीर्णता के दायरे से बाहर निकलें*

 *मानव मानव के बीच संघर्ष लड़ाई का कारण गरीबी, अभाव आदि नहीं, वरन् "तेरे मेरे" का प्रश्न है।* 

अपने लाभ, अपनी समृद्धि, अपने की सार-संभाल सभी को प्रिय लगती है, किंतु दूसरे के साथ वह भाव नहीं। उसकी हानि, अपमान, मृत्यु तक में भी कोई दिलचस्पी नहीं। 

*उल्टा दूसरे से अपना जितना लाभ बन सके इसके लिए सभी को प्रयत्नशील देखा जाता है।*

 *इस व्यापक समस्या का भी एक समाधान है वह यह है कि अपने हृदय को "मेरे-तेरे" के संकीर्ण घेरे से निकालकर "समग्र" के साथ जोड़ा जाए। 

इसके व्यावहारिक मार्ग का प्रथम सूत्र है, "सह अस्तित्व" का मंत्र।* 

स्वयं जिएँ और दूसरों को जीने दें। 

अपनी-अपनी थाली में ही सब बैठकर खाएँ। 

*इसके बाद ही दूसरा मंत्र है-

"दूसरें के जीने के लिए मुझे सहयोग करना होगा।"* 

जिसकी पराकाष्ठा अपने आपको मिटा देने तक रहती है। 

दूसरों के जीने के लिए अपने आपको मिटाने की भावना एक दूसरे के दिल और दिमाग को जोड़ती है, एकाकार करती है *यही व्यक्ति से लेकर विश्व समस्या का मूल समाधान है।

 हम भी अपने हृदय को दूसरों के लिए इसी तरह संवेदनशील बनाकर अपनी और विश्व की समस्याओं के समाधान में योग दे सकते हैं। 

जब परिवार में हम अपने लिए अच्छी माँग न रखकर दूसरों का ध्यान रखेंगे तो क्यों नहीं हमारा परिवार स्वर्गीय बनेगा ? 

इसी तरह पड़ोस, देश, समाज, जाति की यही आवश्यकता है जिसे अनुभव किए बिना मानव और विश्व की समस्या का समाधान न हो सकेगा।

*हृदय की संवेदना का विस्तार ही मनुष्य को भगवान के समकक्ष पहुँचाता है।* 

श्री रामकृष्ण परमहंस की अत्युच्चकोटि की संवेदनशीलता ने उन्हें कालीमय और भगवान बना दिया 

सामान्यतः लोगों में यह संवेदना बीज अधखिला, अधफला ही रहता है।

अपनों के अपनत्व के दायरे में सीमित किए हुए लोग साधारण मनुष्य ही बनकर रह जाते हैं। 

करूणानिधान भगवान ने तो हमें अपने समकक्ष बन सकने के सभी साधन और शक्ति स्रोत दिए हैं, अब हम क्या बनते हैं - 

शैतान, इंसान या भगवान, यह हमारी आकांक्षा, संकल्प एवं प्रयत्न पुरुषार्थ की दिशा तथा स्वरूप पर निर्भर करता है।


 🚩जय श्री कृष्ण🚩

श्री यजुर्वेद और श्री सामवेद के अनुसार सपने में सांप देखने का अर्थ का फल ।


श्री सामवेद के अनुसार सपने में सांप देखने का अर्थ का फल


सपने में सांप दिखाई देना शुभ अशुभ दोनों ही हो सकता है ।

यह निर्भर करता है ।

कि स्वप्न में आपको सांप किस अवस्था में दिखाई दिया। 

कुछ लोग सपने में सांप को मार भी देते हैं ।

और कुछ को सांप सपने में डस लेता है।

राहू का सांप से सम्बन्ध : 〰

जब राहु की आहट जीवन में होती है ।

तो सांप जरूर दिखाई देता है ।

इसका अर्थ है कि राहु आपको फल देने वाला है ।

यह किसी के लिए शुभ होता है और किसी के लिए अशुभ। 

जब तक स्वपन पूरा न हो जाय तबतक तो कुछ कहा नहीं जा सकता।

स्वप्न में सांप का काटना : 〰️

सांप द्वारा यदि आप डस लिए गए हैं या सांप ने काट लिया है ।

तो डसे जाने वाले व्यक्ति के लिए चेतावनी है क्योंकि राहु शनि द्वारा संचालित होता है। 

शनि का आदेश है कि राहु सांप के रूप में दिखाई दे, ये संकेत है कि अचानक होने वाली घटना घटित होने जा रही है।

सपने में सांप को मारना : 〰️

यदि आप सांप को मार रहे हैं या आप सांप को मरा हुआ देख रहे हैं ।

तो इसका अर्थ है ।

आपने राहु के फल को पूरी तरह भोग ही लिया है ।

आपके कष्ट समाप्त हो गए हैं ।

अब राहु आपको परेशान नहीं करेगा।

सपने में सांप को देखना :  〰

सपने में सांप के मात्र दर्शन होना इस बात का प्रमाण है ।

कि राहु की दशा चल रही है या राहु की दशा आने वाली है या फिर राहू गोचर में आप के राशि पर प्रभाव दाल रहा है।

ज्योतिष के अनुसार सपने में सांप का दिखना :

अक्सर जब लग्न के 12वें घर में राहु आता है ।

तो सपने में सांप दिखाई देता है ।

जिनको जीवन में बार बार सांप दिखाई दे ।

उनकी जन्म कुंडली के लग्न में या 12वें घर में राहु विराजमान है या लग्नेश के साथ राहु विराजमान है अथवा कुंडली मे कालसर्प दोष है।

जब स्वप्न में सांप दिखाई दे तो करें यह उपाय :

चाहे आप स्वप्न में या वास्तविक जीवन में सांप से भयभीत रहते हैं या फिर यदि आपको लग रहा है ।

की सांप के दिखाई देने के आप के स्वप्न का फल बुरा हो सकता है ।

तो श्री शिवजी मंदिर में जाएँ और उनकी पूजा अर्चना करें रुद्राभिषेक करवाएं या शिव मंदिर में जाकर शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करें।

महाभारत ग्रन्थ के शुरुआत में ही सर्प सत्र नाम से अध्याय है ।

उसका पठन और श्रवण मात्र से व्यक्ति को सर्पों से जीवन में किसी प्रकार का भय नहीं रहता।

चन्द्रमा और सूर्य के कहने पर राहू नामक राक्षस का भगवान विष्णु ने सर काट दिया था ।

उस राक्षस के सर का नाम राहू और धड़ का नाम केतु है।

उसी समय से राहू की सूर्य और चंद्रमा से शत्रुता है। 

जो लोग सूर्य और चन्द्रमा की दशा और राहू के अंतर में होते हैं ।

उन्हें भी राहू से भय होता है ।

जिस कारण स्वप्न में सांप दिखाई देते हैं।

ऐसे लोगों को विष्णु की शरण में जाना चाहिए श्री विष्णु का मंत्र है ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
.
इस मन्त्र का मन ही मन पाठ करने से केवल इक्कीस दिनों में आप राहू के बुरे फल को शुभ फल में बदल सकते हैं।

किसी भी शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से आरम्भ कर लगातार 41 दिन भुजंग स्तोत्र का पाठ सर्व प्रकार के सर्प भय से मुक्ति दिलाता है।

नवनाग पूजन उपरांत राहु केतु के वैदिक जप और दशांश हवन से भी सर्प दोषों से मुक्ति मिलती है।

जब_श्री_कृष्ण_जी_को_ठण्ड_लगी




यह सत्य घटना सुनकर आपकी आंखों से जरूर आंसू आ जाएंगे अगर आप कृष्ण प्रेमी हैं तो 😭😭😭🙏

रोनाल्ड निक्सन जो कि एक अंग्रेज थे कृष्ण प्रेरणा से ब्रज में आकर बस गये ! 

उनका कन्हैया से इतना प्रगाढ़ प्रेम था कि वे कन्हैया को अपना छोटा भाई मानने लगे थे ! 

एक दिन उन्होंने हलवा बनाकर ठाकुर जी को भोग लगाया पर्दा हटाकर देखा तो हलवे में छोटी छोटी उँगलियों के निशान थे ! 

जिसे देख कर 'निक्सन' की आखों से अश्रु धारा बहने लगी ! 

क्यूँ कि इससे पहले भी वे कई बार भोग लगा चुके थे पर पहलेकभी ऐसा नहीं हुआ था |

और एक दिन तो ऐसी घटना घटी कि सर्दियों का समय था, निक्सन जी कुटिया के बाहर सोते थे |

ठाकुर जी को अंदर सुलाकर विधिवत रजाई ओढाकर फिर खुद लेटते थे | 

एक दिन निक्सन सो रहे थे ! 

मध्यरात्रि को अचानक उनको ऐसा लगा जैसे किसी ने उन्हें आवाज दी हो...

दादा ! 

ओ दादा !

उन्होंने उठकर देखा जब कोई नहीं दिखा तो सोचने लगे हो सकता हमारा भ्रम हो, थोड़ी देर बाद उनको फिर सुनाई दिया....

दादा ! 

ओ दादा !

उन्होंने अंदर जाकर देखा तो पता चला की वे ठाकुर जी को रजाई ओढ़ाना भूल गये थे | 

वे ठाकुर जी के पास जाकर बैठ गये और बड़े प्यार से बोले...,

 ''आपको भी सर्दी लगती है क्या...?''

निक्सन का इतना कहना था कि ठाकुर जी के श्री विग्रह से आसुओं की अद्भुत धारा बह चली...

ठाकुर जी को इस तरह रोता देख निक्सनजी भी फूट फूट कर रोने लगे !

उस रात्रि ठाकुर जी के प्रेम में वह अंग्रेज भक्त इतना रोया कि उनकी आत्मा उनके पंचभौतिक शरीर को छोड़कर बैकुंठ को चली गयी |

🙏🙏🙏हे ठाकुर जी ! 

हम इस लायक तो नहीं कि ऐसे भाव के साथ आपके लिए रो सकें.....

पर फिर भी इतनी प्रार्थना करते हैं कि......,

''हमारे अंतिम समय में हमे दर्शन भले ही न देना पर…

अंतिम समय तक ऐसा भाव जरूर दे देना जिससे आपके लिए तडपना और व्याकुल होना ही हमारी मृत्यु का कारण बने....''

       🌹जय जय श्री राधे कृष्ण जी🌹
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )

         !!!!! शुभमस्तु !!!
जय जय श्री राधे कृष्णा 
जय द्वारकाधीश