आदि शक्ति परा शक्ति,जया एकादशी व्रत,प्रयाग महात्म्य,वैदिक उत्पत्ति:,
आदि शक्ति परा शक्ति :
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार,आदि परा शक्ति या देवी, सर्वोच्च प्राणी हैं जिन्हें परा ब्रह्म के रूप में पहचाना जाता है।
देवी भागवत महापुराण से पता चलता है कि आदि पराशक्ति पूरे ब्रह्मांड की मूल निर्माता, पर्यवेक्षक और विनाशक हैं।
आदि शक्ति, हिन्दू धर्म में सर्वोच्च देवी हैं।इन्हें महादेवी,आदि पराशक्ति, पराम्बा, परशक्ति, और जगत जननी भी कहा जाता है।
आदि शक्ति को सनातन, निराकार,और परब्रह्म माना जाता है।
आदि शक्ति को ब्रह्मांड की मूल निर्माता माना जाता है।
आदि शक्ति को सृष्टि का पालन - पोषण करने वाली भी माना जाता है।
आदि शक्ति को सृष्टि का विनाश करने वाली भी माना जाता है।
आदि शक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी,और विकार रहित भी बताया गया है।
आदि शक्ति को ललिता त्रिपुरा सुंदरी का रूप भी माना जाता है।
आदि शक्ति को शाक्त संप्रदाय में ब्रह्म - शक्ति के रूप में पूजा जाता है।
आदि शक्ति को वैष्णव संप्रदाय में भगवती श्री महालक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है।
आदि शक्ति को शैव संप्रदाय में माता पार्वती या शाकम्भरी के रूप में पूजा जाता है।
आदि शक्ति को सिख पंथ में निर्गुण माना जाता है।
आदि शक्ति देवी ललिता त्रिपुरा सुंदरी का रूप हैं, जिन्हें देवी मां का पहला और मूल प्रकट रूप माना जाता है।
इस के अलावा, ललिता त्रिपुरा सुंदरी पर्वत हिमालय की बेटी के रूप में पार्वती के रूप में अवतरित होती हैं।
फिर पार्वती का विवाह भगवान शिव से हुआ।
वह भगवान कार्तिकेय और गणेश जी की माता हैं।
विश्वास ही जीवन का आधार है।
विश्वास के अभाव में जीवन धूप में कुम्हलाई लता के समान हो जाता है।
स्वामी विवेकानंद जी कहा करते थे कि सब कुछ चले जाने के बाद भी जिसके बल पर पुनः वह सब कुछ पाया जा सकता है वह आपका "विश्वास" ही है।
स्वयं पर विश्वास, अपने कर्म पर विश्वास और परमात्मा के प्रति विश्वास रखने से सब कुछ फिर से प्राप्त किया जा सकता है।
यदि विश्वास ही नहीं होगा तो जीवन में आनंद और सौंदर्य के पुष्प भी नहीं खिल सकेंगे।
विश्वास न होने पर जीवन,मूल विहीन वृक्ष के समान है।
विश्वास न होने पर जीवन,मूल विहीन वृक्ष के समान है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विश्वास आवश्यक है।
अपने में विश्वास हो, अपनों में विश्वास हो और प्रभु में विश्वास हो तो जीवन शांत, सुखी और आनंदमय बन जाता है।
विश्वास में अद्भुत सामर्थ्य है।
विश्वास के बल पर मनुष्य को ही नहीं अपितु परमात्मा को भी वश में किया जा सकता है..।
|| जया एकादशी व्रत ||
पंचांग के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी मनाई जाती है और इस साल 8 फरवरी 2025 को जया एकादशी का व्रत रखा जा रहा है।
पद्म पुराण और भविष्य पुराण में वर्णन आया है कि माघ मास की एकादशी का इतना महत्व है कि इस दिन व्रत करने मात्र से ही ब्रह्महत्या नष्ट हो जाती है और अग्निष्टोम यज्ञ का भी फल प्राप्त होता है।
“ माघे शन्ति त्रियोगणा ” अर्थात शास्त्रों में ऐसा वर्णन भी आता है कि ब्रह्म, विष्णु, महेश तीनों की साधना का यह पर्व है।
साथ ही गंगा, यमुना और सरस्वती यानी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य तीनों की प्राप्ति का मास है, इसमें एकादशी व्रत अनंत पुण्य की प्राप्ति का मार्ग है।
कुयोनि को त्याग कर स्वर्ग में चले जाते हैं, एकादशी व्रत करने वाले की पितृ पक्ष की दस पीढियां, मातृ पक्ष की दस पीढियां और पत्नी पक्ष की दस पीढियां भी बैकुण्ठ प्राप्त करती हैं।
इस एकादशी व्रत के प्रभाव से संतान, धन और कीर्ति बढ़ती है ऐसी पौराणिक मान्यता है. एकादशी व्रत करने वालों को जया एकादशी व्रत की कथा का श्रवण करना चाहिए तभी इसका फल प्राप्त होता है।
जया एकादशी व्रत कथा:
एक बार देवताओं के राजा इन्द्र, नन्दन वन में भ्रमण कर रहे थे।
गान्धर्व गायन कर रहे थे तथा गन्धर्व कन्यायें नृत्य कर रही थीं।
वहीं पुष्पवती नामक गन्धर्व कन्या ने माल्यवान नामक गन्धर्व को देखा तथा उस पर आसक्त होकर अपने हाव - भाव से उसे रिझाने का प्रयास करने लगी।
माल्यवान भी उस गन्धर्व कन्या पर आसक्त होकर अपने गायन का सुर - ताल भूल गया।
इस से संगीत की लय टूट गयी तथा संगीत का समस्त आनन्द क्षीण हो गया।
सभा में उपस्थित देवगणों को यह अत्यन्त अनुचित लगा।
यह देखकर देवेन्द्र भी रूष्ट हो गये।
क्रोधवश इन्द्र ने पुष्पवती तथा माल्यवान को श्राप दे दिया -
" संगीत की साधना को अपवित्र करने वाले माल्यवान और पुष्पवती!
तुमने देवी सरस्वती का घोर अपमान किया है, अतः तुम्हें मृत्युलोक में जाना होगा।
व तुम अधम पिशाच असंयमी के समान जीवन व्यतीत करोगे। "
देवेन्द्र का श्राप सुनकर वे दोनों अत्यन्त दुखी हुये तथा हिमालय पर्वत पर पिशाच योनि में दुःखपूर्वक जीवन यापन करने लगे।
एक दिन उस पिशाच ने अपनी स्त्री से कहा पिशाच योनि से नरक के दुःख सहना अधिक उत्तम है।
भगवान की कृपा से एक समय माघ के शुक्ल पक्ष की जया एकादशी के दिन इन दोनों ने कुछ भी भोजन नहीं किया तथा न ही कोई पाप कर्म किया।
उस दिन मात्र फल - फूल ग्रहण कर ही दिन व्यतीत किया तथा महान दुःख के साथ पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे।
दूसरे दिन प्रातः काल होते ही प्रभु की कृपा से इनकी पिशाच योनि से मुक्ति हो गयी तथा पुनः अपनी अत्यन्त सुन्दर अप्सरा एवं गन्धर्व की देह धारण करके तथा सुन्दर वस्त्रों एवं आभूषणों से अलङ्कृत होकर दोनों स्वर्ग लोक को चले गये।
माल्यवान ने कहा -
" हे देवताओं के राजा इन्द्र! श्रीहरि की कृपा तथा जया एकादशी के व्रत के पुण्य से हमें पिशाच योनि से मुक्ति प्राप्त हुयी है " इन्द्र ने कहा -"
हे माल्यवान! एकादशी व्रत करने से तथा भगवान श्रीहरि की कृपा से तुम लोग पिशाच योनि को त्यागकर पवित्र हो गये हो, इसी लिये हमारे लिये भी वन्दनीय हो, क्योंकि भगवान शिव तथा भगवान विष्णु के भक्त हम देवताओं के वन्दना करने योग्य हैं, अतः आप दोनों धन्य हैं।
अब आप प्रसन्नतापूर्वक देवलोक में निवास कर सकते हैं।
|| विष्णु भगवान की जय हो ||
|| प्रयाग महात्म्य ||
प्रयाग, जिसे प्रयागराज या इलाहाबाद के नाम से भी जाना जाता है।
हिंदू पौराणिक कथाओं और प्राचीन संस्कृत साहित्य में एक अत्यंत पूजनीय स्थान रखता है।
पवित्र नदियों गंगा ( गंगा ), यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम पर स्थित, इसे अक्सर " तीर्थराज " यानी तीर्थ स्थलों का राजा कहा जाता है।
प्रयाग का महत्व प्राचीन वेदों से लेकर पुराणों और महान महाकाव्यों तक कई संस्कृत ग्रंथों में प्रतिध्वनित होता है।
प्रयागस्य पवेशाद्वै पापं नश्यतिः तत्क्षणात्।
प्रयाग में प्रवेश मात्र से ही समस्त पाप कर्म का नाश हो जाता है।
प्रयाग को ब्रह्मवैवर्त पुराण में तीर्थराज कहा गया है।
सभ्यता के आरंभ से ही यह ऋषियों की तपोभूमि रही है।
यहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था।
इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ माधव रूप में विराजमान हैं।
भगवान के यहाँ बारह स्वरूप विध्यमान हैं।
जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है।
प्रयाग स्थल पवित्रतम नदी गंगा और यमुना के संगम पर स्थित है।
यहीं सरस्वती नदी गुप्त रूप से संगम में मिलती है, अतः ये त्रिवेणी संगम कहलाता है, जहां प्रत्येक बारह वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है।
प्रयाग सोम, वरूण तथा प्रजापति की जन्मस्थली है।
प्रयाग का वर्णन वैदिक तथा बौद्ध शास्त्रों के पौराणिक पात्रों के सन्दर्भ में भी रहा है।
यह महान ऋषि भारद्वाज, ऋषि दुर्वासा तथा ऋषि पन्ना की ज्ञानस्थली थी।
ऋषि भारद्वाज यहां लगभग 5000 ई०पू० में निवास करते हुए 10000 से अधिक शिष्यों को पढ़ाया।
सागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश से छलककर अमृत की बूंद यहां गिरी थी।
इस घटना के पश्चात यहां कुंभ का आयोजन होता चला आ रहा है जिसमें जप, तप, यज्ञ, हवन और सत्संग की धारा बहती है।
वैदिक उत्पत्ति:
ऋग्वेद परिषद में प्रयाग और उससे जुड़ी तीर्थयात्रा प्रथाओं का सबसे पहला उल्लेख है।
इससे पता चलता है कि वैदिक परंपरा के प्रारंभिक चरणों में भी प्रयाग की पवित्रता को मान्यता दी गई थी।
पुराण ( पौराणिक कथाओं और ब्रह्माण्ड विज्ञान से परिपूर्ण प्राचीन हिन्दू ग्रंथ ) प्रयाग के विषय में किंवदंतियों और प्रतीकात्मकता का समृद्ध ताना - बाना प्रस्तुत करते हैं।
मत्स्य पुराणः
प्रयाग को उस स्थान के रूप में चित्रित करता है जहाँ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने महाप्रलय के बाद पहला बलिदान ( यज्ञ ) दिया था, जिससे यह स्थान पवित्र हो गया। यहाँ एक प्रासंगिक श्लोक है:-
प्रयागे तु महादेव यज्ञं यज्ञपतिर्यौ।
तत्रापश्यत् स्वयं ब्रह्मा तीर्थराजं जग्गुरुम् ॥
तत्रापश्यत् स्वयं ब्रह्मा तीर्थराजं जग्गुरुम् ॥
अर्थात् :
प्रयाग में, यज्ञों के स्वामी महेश्वर [ शिव ] ने एक वार यज्ञ किया था।
वहाँ, ब्रह्मा ने स्वयं तीर्थों के राजा, संपूर्ण जगत के गुरु को देखा।
अग्नि पुराण :
अग्नि पुराण और अन्य पुराण प्रयाग के बारे में विस्तार से बताते हैं, इसे एक ऐसा स्थान बताते हैं जहाँ तीर्थ यात्री, पुजारी और विक्रेता एकत्रित होते हैं, यह आध्यात्मिक साधकों , अनुष्ठानिक कार्यों और रोज़मर्रा की ज़िंदगी का जीवंत संगम है।
त्रिवेणी संगम ( तीन नदियों का संगम ) पर अनुष्ठान स्रान को कई पुराणों में मुक्ति और शुद्धि के मार्ग के रूप में वर्णित किया गया है।
प्रतिष्ठित हिंदू महाकाव्यों,रामायण और महाभारत ने भी प्रयाग को अपनी कथाओं में शामिल किया है।
रामायणः
रामायण में प्रयाग का उल्लेख ऋषि भारद्वाज के पौराणिक आश्रम के स्थान के रूप में किया गया है।
इसी आश्रम में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने अपने वनवास के दौरान ऋषि का आशीर्वाद लिया था ।
इसी आश्रम में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने अपने वनवास के दौरान ऋषि का आशीर्वाद लिया था ।
महाभारतः
महाभारत में कई संदर्भों में प्रयाग के महत्व पर प्रकाश डाला गया है।
महाकाव्य में शुभ समय पर प्रयाग में स्नान करने से अपार आध्यात्मिक पुण्य की प्राप्ति का वर्णन है।
तीर्थाणि पुण्यान्यकाशेऽन्तर्दिवि स्थिता ।
तानि सर्वाणि गंगायां प्रयागे च विशेषतः ॥
तानि सर्वाणि गंगायां प्रयागे च विशेषतः ॥
अर्थात् :
यहां तक कि वे पवित्र स्थान जो स्वर्ग में या स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मौजूद हैं, वे गंगा में पाए जा सकते हैं, विशेष रूप से प्रयाग में।
प्रयाग की शक्तिः प्रतीकवाद और महत्व संस्कृत ग्रंथों में प्रयाग का वर्णन गहन प्रतीकात्मकता को उजागर करता है:-
पवित्र और अपवित्र का संगमः प्रयाग एक सीमांत स्थान का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ दिव्य और सांसारिक जुड़ते हैं।
नदियों का संगम विभिन्न मार्गों,परंपराओं और जीवन के पहलुओं के मिलन बिंदु का प्रतीक है।
शुद्धिकरण और नवीनीकरणः त्रिवेणी संगम में स्त्रान का अनुष्ठान पापों के शुद्धिकरण, नकारात्मकता को धोने और आध्यात्मिक नवीनीकरण का प्रतीक है।
लौकिक महत्वः
सरस्वती नदी की गुप्त उपस्थिति पवित्रता की एक और परत जोड़ती है,जो बुद्धि, ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है।
हिंदू परंपरा की चेतना में गहराई से समाया प्रयाग आज भी एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बना हुआ है।
प्राचीन संस्कृतग्रंथ इस पवित्र स्थान का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत करते हैं, जो आस्था, अनुष्ठान और ईश्वर की खोज की शक्ति का एक कालातीत प्रमाण है।
|| तीर्थराज प्रयाग की जय हो ||
आपने नाम सुना होगा कलाई घड़ी, दीवार घड़ी, इलेक्ट्रॉनिक घड़ी और इलेक्ट्रॉनिक क्वार्ट्ज घड़ियां आदि का, लेकिन ' जैविक घड़ी ' का नाम आपने शायद ही सुना होगा।
दरअसल, यह घड़ी आपके भीतर ही होती है।
इस घड़ी के भी 3 प्रकार हैं-
एक है शारीरिक समय चक्र और दूसरा मानसिक समय चक्र और तीसरा आत्मिक समय चक्र।
यहां हम बात करेंगे शारीरिक समय चक्र की जिसे ' जैविक घड़ी ' कहा जाता है।
जौविक घड़ी का नाम सुनकर आप चौंक जाएंगे।
महत्वपूर्ण जानकारी
जैविक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या।
प्रातः 3 से 5 –
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से फेफड़ो में होती है।
थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना ।
इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है।
उन्हें शुद्ध वायु ( आक्सीजन ) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है।
ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है,और सोते रहने वालो का जीवन निस्तेज हो जाता है।
प्रातः 5 से 7 –
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है।
प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल - त्याग एवं स्नान का लेना चाहिए ।
सुबह 7 के बाद जो मल - त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं।
इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।
प्रातः 7 से 9 –
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है।
यह समय भोजन के लिए उपर्युक्त है ।
इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं।
भोजन के बीच – बीच में गुनगुना पानी ( अनुकूलता अनुसार ) घूँट - घूँट पिये।
प्रातः 11 से 1 –
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है।
दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न – संध्या ( आराम ) करने की हमारी संस्कृति में विधान है।
इसी लिए भोजन वर्जित है ।
इस समय तरल पदार्थ ले सकते है।
जैसे मट्ठा ( छाछ ) पी सकते है।
दही खा सकते है ।
दोपहर 1 से 3 -
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है।
इस का कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है।
भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए ।
इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार - रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है ।
दोपहर 3 से 5 -
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है 2 - 4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र - त्याग की प्रवृति होती है।
शाम 5 से 7 -
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है ।
इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए ।
शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा।
सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक ( संध्याकाल ) भोजन न करे।
शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है ।
देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है।
रात्री 7 से 9 -
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है ।
अतः प्रातः काल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है ।
आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टी हुई है।
रात्री 9 से 11 -
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है।
इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरूरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है।
इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है ।
इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है ।
यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल ( एसिड ) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं।
इस लिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।
रात्री 11 से 1 -
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है ।
इस समय का जागरण पित्त - विकार, अनिद्रा , नेत्ररोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है ।
इस समय नई कोशिकाएं बनती है ।
रात्री 1 से 3 -
इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है ।
अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है।
इस समय का जागरण यकृत ( लीवर ) व पाचन - तंत्र को बिगाड़ देता है ।
इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं।
अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।
नोट :--
ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है।
अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे।
जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें।
इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है।
कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचन शक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है।
इस लिए ʹ बुफे डिनर ʹ से बचना चाहिए।
पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।
शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें।
इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं।
देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर
भयंकर स्वास्थ्य - संबंधी हानियाँ होती हैं।
अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी ठीक ढंग से चलती है।
आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त - व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है।
हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ मिलेगा।
इस प्रकार थोड़ी - सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देगी।
( यह जानकारी सुश्रुत संहिता से है। )
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )
|| आदि शक्ति देवी मां की जय हो ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )
|| आदि शक्ति देवी मां की जय हो ||