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Friday, December 27, 2024

तन की अस्वस्थता उतनी घातक नहीं जितनी कि मन की अस्वस्थता है। / वृंदावन

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। आज का भगवद् चिन्तन ।।
 

तन की अस्वस्थता उतनी घातक नहीं जितनी कि मन की अस्वस्थता है।  / वृंदावन 

           
   🐂       तन की अस्वस्थता उतनी घातक नहीं जितनी कि मन की अस्वस्थता है। 

तन से अस्वस्थ व्यक्ति केवल अपने को व ज्यादा से ज्यादा अपनों को ही दुखी करता है। 

मगर मन से अस्वस्थ व्यक्ति स्वयं को, परिवार को, समाज को और अपने सम्पर्क में आने वाले सभी को कष्ट देता है।


  🐂        तन का रोग मिटाना कदाचित संभव भी है। 

मगर मन का रोग मिटाना असम्भव तो नहीं कठिन जरूर है। 

तन का रोगी तो रोग को स्वीकार कर लेता है।

लेकिन मन का रोगी कभी भी रोग को स्वीकार नहीं करता और जहाँ रोग की स्वीकारोक्ति ही नहीं वहाँ समाधान कैसे सम्भव हो सकता है ?

  🐂        दूसरों की उन्नति से जलन। 

दूसरों की खुशियों से कष्ट, दूसरों के प्रयासों से चिन्ता।

अपनी उपलब्धियों का अहंकार यह सब मानसिक अस्वस्थता के लक्षण हैं। 

भजन।

अध्यात्म और भगवद शरणागति ही इस बीमारी का इलाज है।

जय द्वारकाधीश!
जय श्री राधे कृष्ण !!

|| वृंदावन के वृक्ष को मर्म न जाने कोय ||

     
कहते है कि जो वृदांवन में शरीर को त्यागता है। 

तो उन्हें अगला जन्म श्री वृदांवन में ही होता है।

और अगर कोई मन में ये सोच ले, संकल्प कर ले कि हम वृदावंन जाएगे, और यदि रास्ते में ही मर जाए तो भी उसका अगला जन्म वृदांवन में ही होगा। 

केवल संकल्प मात्र से उसका जन्म श्री धाम में होता है।*
 

*प्रसंग 1 - 

ऐसा ही एक प्रसंग श्री धाम वृन्दावन है, तीन मित्र थे जो युवावस्था में थे तीनों बंग देश के थे। 

तीनों में बडी गहरी मित्रता थी, तीनो में से एक बहुत सम्पन्न परिवार का था पर उसका मन श्रीधाम वृदांवन में अटका था, एक बार संकल्प किया कि हम श्री धाम ही जाएगें और माता - पिता के सामने इच्छा रखी कि आगें का जीवन हम वहीं बिताएगें, वहीं पर भजन करेंगे। 

पर जब वो नहीं माना तो उसके माता - पिता ने कहा -

 ठीक है बेटा! 

 जब तुम वृदांवन पहुँचोंगे तो प्रतिदिन तुम्हें एक पाव चावल मिल जाएगें जिसे तुम पाकर खा लेना और भजन करना।

जब उसके दो मित्रो ने सुना तो वे बोले - 

कि अगर तुम जाओगे तो हम भी तुम्हारे साथ वृदांवन जाएगें। तो वो मित्र बोला - 

कि ठीक है पर तुम लोग क्या खाओगे ? 

 मेरे पिता ने तो ऐसी व्यवस्था कर दी है कि मुझे प्रतिदिन एक पाव चावल मिलेगा पर उससे हम तीनों नहीं खा पाएगें।

तो उनमें से पहला मित्र बोला - 

कि तुम जो चावल बनाओगे उससे जों माड निकलेगा मै उससे जीवन यापन कर लूगाँ।

दूसरे मित्र ने कहा - 

कि तुम जब चावल धोओगे तो उससे जो पानी निकलेगा तो उसे ही मै पी लूगाँ ऐसी उन दोंनों की वृदावंन के प्रति उत्कुण्ठा थी उन्हें अपने खाने-पीने रहने की कोई चिंता नहीं है। 

तो जब ऐसी इच्छा हो तो समझना साक्षात राधारानी जी की कृपा है। तीनेां अभी किशोर अवस्था में थे।

तीनों वृदांवन जाने लगे तो मार्ग में बडा परिश्रम करना पडा और भूख-प्यास से तीनों की मृत्यु हो गई। 

और वो वृदांवन नहीं पहुँच पाए। 

अब जब बहुत दिनों हो गए तीनों की कोई खबर नहीं पहुँची तो घरवालों को बडी चिंता हुई कि उन तीनो में से किसी की भी खबर नहीं मिली। 

तो उन लडको के पिता ढूढते - ढूढते वृदांवन आए, पर उनका कोई पता नहीं चला क्योंकि तीनों रास्ते में ही मर चुके थे।

तो किसी ने बताया कि आप ब्रजमोहन दास जी के पास जाओ वे बडे सिद्ध संत है। 

तो उनके पिता ब्रजमोहन दास जी के पास पहुँचे और बोले - 

कि महाराज ! 

हमारे पुत्र कुछ समय पहले वृदांवन के लिए घर से निकले थे पर अब तो उनकी कोई खबर नहीं है। 

ना वृदांवन में ही किसी को पता है।

तो कुछ देर तक ब्रजमोहन दास जी चुप रहे और बोले - 

कि आप के तीनों बेटे यमुना जी के तट पर, परिक्रमा मार्ग में वृक्ष बनकर तपस्या कर रहे है!

वैराग्य के अनुरूप उन तीनो को नया जन्म वृदांवन में मिला है। 

जब वे श्री धाम वृंदावन में आ रहे थे तभी रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई थी। 

और जो वृदावंन का संकल्प कर लेता है। 

उसका अगला जन्म चाहे पक्षु के रूप या पक्षी के या वृक्ष के रूप में वृदांवन में होता है । 

तो आपके तीनेां बेटे यमुना के किनारे वृक्ष है वहाँ परिक्रमा मार्ग में है। 

और ये भी बता दिया कि कौन - सा किसका बेटा है ।

बोले कि - 

जिसने ये कहा था कि मै चावल खाकर रहूगाँ वो “ बबूल का पेड ” है जिसने ये कहा था कि मै चावल का माड ही पी लूँगा वह “ बेर का वृक्ष ” है।

जिसने ये कहा था कि चावल के धोने के बाद जो पानी बचेगा उसे ही पी लूँगा तो वो बालक अश्वथ का वृक्ष है। 

उन तीनो को ही वृदावंन में जन्म मिल गया उन तीनों का उद्देश्य अभी भी चल रहा है। 

वो अभी भी तप कर रहे है।

पर उनके पिता को यकीन नहीं हुआ तो ब्रजमोहन जी उनको यमुना के किनारे ले गए और कहा कि देखो ये बबूल का वृक्ष है ये बैर का और ये अश्वथ का।

पर उनके पिता के दिल में सकंल्प की कमी थी तो उनको संत की बातों पर यकीन नहीं किया पर मुंह से कुछ नहीं बोले और उसी रात को वृदांवन मे ही सो गए, जब रात में सोए, तब तीनों के तीनों वृक्ष बने बेटे सपने में आए और कहा कि पिताजी जो सूरमा कुंज के संत है श्री ब्रजमोहन दास जी है।

वो बड़े महापुरूष है उनकी दिव्य दृष्टि है उनकी बातों पर संदेह नहीं करना वे झूठ नहीं बोलने है, और ये राधा जी की कृपा है कि हम तीनों वृदांवन में तप कर रहे है ।

तो अब उनको को विश्वास हो गया और ब्रजमोहन दास जी से क्षमा माँगने लगे कि आप हमें माफ कर दो हमें आपकी बात पर सदेंह हो गया था सपने की पूरी बात बता दी तो ब्रज मोहनदास जी ने कहा कि इस में आपकी कोई गलती नहीं है तीनों बडे़ प्रसन्न मन से अपने घर चले गए।

प्रसंग 2- 

 एक संत ब्रजमोहनदास जी के पास आया करते थे श्री रामहरिदास जी, उन्होंने पूछा कि बाबा लोगों के मुंह से हमेशा सुनते आए कि-

वृदांवन के वृक्ष को मर्म ना जाने केाय,।
डाल - डाल और पात - पात श्री राधे राधे होय।।

तो महाराज क्या वास्तव में ये बात सत्य है,

कि वृदावंन का हर वृक्ष राधा - राधा नाम गाता है।

तो ब्रजमोहनदास जी ने कहा - 

क्या तुम ये सुनना या अनुभव करना चाहते हो ? 

तो श्री रामहरिदास जी ने कहा - 

कि बाबा! 

कौन नहीं चाहेगा कि साक्षात अनुभव कर ले। 

और दर्शन भी हो जाए।आपकी कृपा हो जाए, तो हमें तो एक साथ तीनो मिल जायेगे। 

तो ब्रजमोहन दास जी ने दिव्य दृष्टि प्रदान कर दी।

और कहा - 

कि मन में संकल्प करो और देखो और सामने " तमाल का वृक्ष " खड़ा है उसे देखो।

तो रामहरिदास जी ने अपने नेत्र खोले तो क्या देखते है कि उस तमाल के वृक्ष के हर पत्ते पर सुनहरे अक्षरों से राधे - राधे लिखा है उस वृक्ष पर लाखों तो पत्ते है। 

जहाँ जिस पत्ते पर नजर जाती है।

उस पर राधे - राधे लिखा है, और जब पत्ते हिलते तो राधे - राधे की ध्वनि हर पत्ते से निकल रही है।

तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और ब्रजमोहन दास जी के चरणों में गिर पडे और कहा कि बाबा आपकी और राधा जी की कृपा से मैने वृदांवन के वृक्ष का मर्म जान लिया इसको कोई नहीं जान सकता कि वृदांवन के वृक्ष क्या है? 

 ये हम अपने शब्दों में बयान नहीं कर सकते ,ये तो केवल संत ही बता सकता है हम साधारण दृष्टि से देखते है . जहाँ पर हर डाल, हर पात पर, राधे श्याम बसते है।

व्रज की महिमा को कहे, को वरने व्रज धाम.....!
भजहां बसत हर सास में श्री राधे और श्याम।

व्रज रज जाकू मिल गई, वा को चाह ना शेष....!,
व्रज की चाहत में रहे, ब्रह्मा विष्णु महेश।।

वृदांवन की महिमा को कौन अपनी एक जुबान से गा सकता है स्वंय शेष जी अपने सहस्त्र मुखों से वृदांवन की महिमा का गुणगान नहीं कर सकते है। 

जहाँ ब्रज की रज में राधे श्याम बसते है। 

ब्रज की चाहत तो ब्रह्मा महेश विष्णु करते है।

ब्रज के रस कु जो चखे,चखे ना दूसर स्वाद
एक बार राधा कहे,तो रहे ना कुछ ओर याद
जिनके रग - रग में बसे श्री राधे ओर श्याम।

भऐ ऐसे बृजवासिन कु शत - शत नमन प्रणाम।

क्युकि संत को वो वृदांवन दिखता है जो साक्षात गौलोक धाम का खंड है । 

हमें साधारण वृदांवन दिखता है।

क्योकि हमारी दृष्टि मायिक है,हम संसार कि विषयों में डूबे हुए हैं, जब किसी संत कि कृपा होती है तभी वे किसी विरले भक्त हो वह दिव्य दृष्टि देते हैैं जिससे हम उस दिव्य वृंदावन को देख सकते है और अनुभव कर सकते है कि व्रज का हर पत्ता और हर डाल राधा रानी जी के गुणों का बखान करता है।

   || जय श्री राधे कृष्ण जी ||

एक बार भगवान रूद्र ने श्री कृष्ण भगवान से पूछा-

' प्रभु ! 

आपके इस परमानंददायक, रूप की प्राप्ति कैसे हो सकती है ! 

इसका उपाय मुझे बताइए ! '

भगवान ने कहा- 

रूद्र ! 

तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है ! 

किंतु यह विषय बहुत रहस्य का है !

इसे यत्नपूर्वक गुप्त रखने की आवश्यकता है !

देवेश्वर जो दूसरे उपायों का भरोसा छोड़कर एक बार हम दोनों की शरण आ जाता है और गौपीभाव से मेरी उपासना करता है, वही मुझे पा सकता है !

जो एक बार भी हम दोनों की शरण आ जाता है, अथवा अकेली मेरी इस प्रिया राधा जी की अन्नय भाव से उपासना करता है, वह मुझे अवश्य प्राप्त करता है !

इस लिए सर्वथा प्रयत्न करके मेरी इस प्रिया जी की शरण ग्रहण करनी चाहिए !

' रूद्र मेरी प्रिया जी का आश्रय लेकर तुम भी मुझे अपने वश में कर सकते हो ! 

यह बात ही बड़े रहस्य की बात है !

अब तुम मेरी प्रिया जी की शरण लो और युगल मंत्र का जप करते हुए मेरे धाम में निवास करो..!!

🙏🙏🏿🙏🏾जय श्री कृष्ण🙏🏽🙏🏼🙏🏻

महाभारत का युद्ध चल रहा था। 

अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे। 

जैसे ही अर्जुन का बाण छूटता, कर्ण का रथ दूर तक पीछे चला जाता। 

जब कर्ण का बाण छूटता.....! 

तो अर्जुन का रथ सात कदम पीछे चला जाता। 

 श्रीकृष्ण ने अर्जुन की प्रशंसा के स्थान पर....!
 
कर्ण के लिए हर बार कहा...!
 
कितना वीर है यह कर्ण?

जो उनके रथ को सात कदम पीछे धकेल देता है। 

अर्जुन बड़े परेशान हुए। 

असमंजस की स्थिति में पूछ बैठे...!

हे वासुदेव! यह पक्षपात क्यों? 

मेरे पराक्रम की आप प्रशंसा नहीं करते...!
 
एवं मात्र सात कदम पीछे धकेल देने वाले कर्ण को बारम्बार वाहवाही देते है। 

श्रीकृष्ण बोले-

अर्जुन तुम जानते नहीं...!

तुम्हारे रथ में महावीर हनुमान...!
 
एवं स्वयं मैं वासुदेव कृष्ण विराजमान् हैं।

यदि हम दोनों न होते...!
 
तो तुम्हारे रथ का अभी अस्तित्व भी नहीं होता। 

इस रथ को सात कदम भी पीछे हटा देना कर्ण के महाबली होने का परिचायक हैं। 

अर्जुन को यह सुनकर अपनी क्षुद्रता पर ग्लानि हुई।
 
इस तथ्य को अर्जुन और भी अच्छी तरह तब समझ पाए जब युद्ध समाप्त हुआ। 

प्रत्येक दिन अर्जुन जब युद्ध से लौटते...!

श्रीकृष्ण पहले उतरते....!
 
फिर सारथी धर्म के नाते अर्जुन को उतारते।

अंतिम दिन वे बोले-

अर्जुन...!
 
तुम पहले उतरो रथ से व थोड़ी दूर जाओ। 

भगवान के उतरते ही रथ भस्म हो गया। 

अर्जुन आश्चर्यचकित थे।

भगवान बोले-

पार्थ...!

तुम्हारा रथ तो कब का भस्म हो चुका था।

भीष्म, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य व कर्ण के दिव्यास्त्रों से यह नष्ट हो चुका था। मेरे संकल्प ने इसे युद्ध समापन तक जीवित रखा था। 

अपनी श्रेष्ठता के मद में चूर अर्जुन का अभिमान चूर-चूर हो गया था। 

अपना सर्वस्व त्यागकर वे प्रभू के चरणों पर नतमस्तक हो गए।
 
अभिमान का व्यर्थ बोझ उतारकर हल्का महसूस कर रहे थे...!

गीता श्रवण के बाद इससे बढ़कर और क्या उपदेश हो सकता था कि सब भगवान का किया हुआ है। 

हम तो निमित्त मात्र है। 

काश हमारे अंदर का अर्जुन इसे समझ पायें..!!

जय द्वारकाधीश🌹🌹🌹

लक्ष्मी गणेश घर में पधारे...!

सुख संम्पति वर से अंगना हमारे....!

शुभ पल शुभ दिन शुभ दिवाली, रात ये आई दीपो वाली...!

मिट गए दुखो के सारे अंधियारे....!

लक्ष्मी गणेश घर में पधारे....!

सुख संम्पति वर से अंगना हमारे, छम छम लक्ष्मी की बरसाते होगी दिवाली की रात....!

शुभ और लाभ तुम्ही देखो लाये है गणेश जी साथ लक्ष्मी पूजन का दिन है गणपति वंदन का दिन है.....!

जीवन रथ ठेहरा सा लक्ष्मी और गणेश की किरपा के बिन है...!

छम छम लक्ष्मी की बरसाते होगी दिवाली की रात....!

शुभ और लाभ तुम्ही देखो लाये है गणेश जी साथ....!

लेके आरती की थाली मांगू जग की खुशहाली...!

किसी की थाली रह न जाए आज की रात मुरादों से खाली है दिवाली....!

छम छम लक्ष्मी की बरसाते होगी दिवाली की रात....!

शुभ और लाभ तुम्ही देखो लाये है गणेश जी साथ...!

🌹🌹🌹🌹जय श्री लक्ष्मीनारायण🌹🌹🌹🌹

भागवद गीता के पहले अध्याय का सारांश भारत में भागवद गीता केवल एक प्राचीन ग्रन्थ मात्र नहीं है ।

ये भगवान् कृष्ण द्वारा दिए गए ५७४ श्लोकों का संग्रह मात्र नहीं है । 





वरन ये तो एक जीवन पद्धति है | 

यह सिर्फ भारत या उसके नागरिकों तक सीमित नहीं है ।

अपितु ये समूचे मानव मात्र के कल्याण का यन्त्र है ।

यह सारे विश्व की धरोहर है |

यदि हमारा जीवन कोई यन्त्र है तो भागवद गीता उसको चलने का तरीका है | 

जिस तरह बड़ी से बड़ी मशीन भी उसको चलाने की समझ के अभाव में व्यर्थ है ।

उसी प्रकार गीता का हमारे जीवन में महत्व है |

इस लेख में हम सादी सरल भाषा में भागवद गीता के प्रथम अध्याय का सारांश प्रस्तुत कर रहे हैं।

अर्जुन विषादयोग – प्रथम अध्याय

भागवद गीता के प्रथम अध्याय में कुल ४७ श्लोक हैं, इसमें २१ श्लोक अर्जुन द्वारा, २५ संजय के द्वारा और १ धृतराष्ट्र द्वारा कहा गया है।

इस अध्याय को अर्जुन विषाद योग इस लिए कहा जाता है ।

क्यूंकि इस अध्याय में अर्जुन किस प्रकार अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर विचलित हो जाते हैं और कैसे शस्त्रों का त्याग कर देते हैं।

अथ प्रथमोअध्यायः

युद्ध के आरंभ् से पूर्व महर्षि वेदव्यास जी ने धृतराष्ट्र के अतिगुणि, विद्वान और स्वामिभक्त सारथी संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कि जिसके माध्यम से उन्होने युद्ध के अन्त तक का सारा हाल धृतराष्ट्र को सुनाया |

धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा – 

धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित कौरवों और पांडवों ने क्या किया |

संजय ने तब आँखों देखा हाल बताना प्रारम्भ किया |

कुरुक्षेत्र में उपस्थित वीरों का वर्णन –

युवराज दुर्योधन ने दोनों ओर की सेनाओं को देखते हुए आचार्य द्रोण के पास जाकर कहा –

आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र दृष्दयुम्न द्वारा की गयी व्यूह रचना में खड़ी की गयी पाण्डुपुत्रों की विशाल सेना को देखिये।

पांडवों के दल में बड़े बड़े धनुषों वाले, भीम, अर्जुन, सात्यकि, विराट, महाराजा द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज, शैव्य, युधामन्यु, उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र ये सभी महारथी हैं।

इसके उपरांत कौरवों के दल में द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त पुत्र भूरिश्रवा उपस्थित हैं |

दुर्योधन ने कहा जहाँ कौरवों का दल इन कालजयी योद्धाओं की छाया में अजेय है ।

वही पांडवों की सेना भी जीतने में सुगम है | 

अतः आप सभी कौरव सेना के प्रधान सेनापति पितामह भीष्म की सभी प्रकार से रक्षा करें।

महारथियों का शंखनाद !

सर्वप्रथम पितामह भीष्म ने दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न करने हेतु सिंह के समान गर्जना करते हुए उच्च स्वर में शंख बजाया।

इसके पश्चात सभी ओर से शंख , नगाड़े, ढोल, मृदंग इत्यादि एक साथ बज उठे |

श्री कृष्ण ने पाँचजन्य, अर्जुन ने देवदत्त और भीमसेन ने पौंड्रा नामक शंखों का उदघोष किया।

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठर ने अनंतविजय , नकुल ने सुघोष तथा सहदेव ने मणिपुष्प नामक शंख बजाये।

इसी के साथ काशिराज, शिखंडी , विराट ,सात्यकि, द्रुपद , द्रौपदी के पाँचों पुत्रों और अभिमन्यु सभी ने अलग अलग शंख बजाये।

अर्जुन का आग्रह.....!

कपिध्वज अर्जुन ने श्री कृष्ण को सम्बोधित करते हुए आग्रह किया – 

हे...!

अच्युत – 

कृपया मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले चलिए । 

दुर्बुद्धि दुर्योधन का साथ देने जो भी महारथी, वीर और राजागण आये हैं ।

मेरी उन्हें देखने की अभिलाषा है।

अर्जुन का आग्रह सुन श्रीकृष्ण ने रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में लाकर खड़ा कर दिया।

अर्जुन का शोकसंतप्त होना !

इसके बाद पृथापुत्र अर्जुन ने भीष्म और द्रोणाचार्य को देखा।

उन महानुभावों के अतिरिक्त दोनों ही सेनाओं में स्थित....!

ताऊ, चाचा , दादा , परदादा , गुरु , मामा , भाई , पुत्र, पौत्र , मित्र , ससुर और अपने शुभचिंतकों को देखा।

दोनों और अपने बंधु बांधवों, सगे सम्बन्धियों को देखकर अर्जुन ने करुणा से युक्त और शोकसंतप्त होकर भगवान् श्रीकृष्ण से ये कहा।

दुर्बलता का अनुभव और कर्तव्य निर्वहन में संशय

अर्जुन ने कहा – 

इस स्वजन समुदाय को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं ।

मुंह सूख रहा है ।

मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है| हाथ से गांडीव गिर रहा है ।

त्वचा जल रही है और मन भ्रमित हो रहा है।

इस लिए में ठीक से खड़ा रहने में भी असमर्थ हूँ|

हे केशव, मुझे इस युद्ध में स्वजनों को मारकर भी कल्याण नहीं दीखता | 

मैं ऐसी विजय, सुखों और राज्य का अभिलाषी नहीं हूँ ।

ऐसे सुखों का क्या लाभ ।

जिनका उपभोग करने के लिए स्वजन ही न बचें।

हे मधुसूदन ! 

मैं तो इन्हें तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मारना उचित नहीं समझता ।

फिर ये तो केवल पृथ्वी के लिए संग्राम है |

हे जनार्दन.......

क्या में अपने ही ज्येष्ठ पिताश्री के पुत्रों की हत्या कर सकूंगा ।

क्या मुझे इससे पाप नहीं लगेगा। 

अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम स्वयं कैसे सुखी होंगे।

यद्यपि ये पथभ्रमित हैं फिर भी और अपना अच्छा बुरा नहीं सोच रहे ।

फिर भी कुल के नाश के दोष से परिचित होने के बाद भी हम इस युद्ध से हटने का विचार क्यों नहीं करते?

कुल नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं ।

स्त्रियां दूषित हो जाती हैं | 

ऐसे कुलघातियों ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल के लिए नरक में निवास होता है |

हम लोग बुद्धिमान होकर भी ये महान पाप करने को तैयार हो गए

अर्जुन द्वारा धनुष त्याग !

अर्जुन ने कहा मुझ शस्त्ररहित मनुष्य को यदि धृतराष्ट्र पुत्र मार भी डालें तो भी ऐसा मेरे लिए अधिक कल्याणकारक रहेगा।

ऐसा कहकर शोक से उद्विग्न अर्जुन बाण सहित धनुष त्याग कर ।

युद्ध से विमुख हो ।

रथ के पिछले भाग में बैठ गए।

🌺🍀जय श्री कृष्ण🍀🌺
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 
   *🙏🏽🙏🏾🙏🏿जय श्री कृष्ण*🙏🙏🏻🙏🏼