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Sunday, December 27, 2020

जीवन के सच्चाई की परीक्षा ईश्वर पर विश्वास , अव्यवस्थित दिनचर्या का अर्थ है तनाव भरी रात्रि , प्रति अपने प्यार की चर्चा मत करो , चिंता , जप के लिए आवश्यक विधान ।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। सुंदर कहानी ।।

जीवन के सच्चाई की परीक्षा

  *ईश्वर पर विश्वास* 

एक राजा बहुत दिनों से पुत्र की प्राप्ति के लिए आशा लगाए बैठा था लेकिन पुत्र नहीं हुआ। 

उसके सलाहकारों ने तांत्रिकों से सहयोग लेने को कहा ।

सुझाव मिला कि किसी बच्चे की बलि दे दी जाए तो पुत्र प्राप्ति हो जायेगी ।

राजा ने राज्य में ढिंढोरा पिटवाया कि जो अपना बच्चा देगा,उसे बहुत सारा धन दिया जाएगा ।

एक परिवार में कई बच्चें थे,गरीबी भी थी।

एक ऐसा बच्चा भी था,जो ईश्वर पर आस्था रखता था तथा सन्तों के सत्संग में अधिक समय देता था।

परिवार को लगा कि इसे राजा को दे दिया जाए क्योंकि ये कुछ काम भी नहीं करता है,हमारे किसी काम का भी नहीं है ।

*इसे देने पर राजा प्रसन्न होकर बहुत सारा धन देगा ऐसा ही किया गया। 

बच्चा राजा को दे दिया गया*

राजा के तांत्रिकों द्वारा बच्चे की बलि की तैयारी हो गई ।

राजा को भी बुलाया गया। 

बच्चे से पूछा गया कि तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है ?

बच्चे ने कहा कि ठीक है ! 

मेरे लिए रेत मँगा दिया जाए रेत आ गया ।

बच्चे ने रेत से चार ढेर बनाए। एक - एक करके तीन रेत के ढेरों को तोड़ दिया और चौथे के सामने हाथ जोड़कर बैठ गया उसने कहा कि अब जो करना है करें*

यह सब देखकर तांत्रिक डर गए उन्होंने पूछा कि ये तुमने क्या किया है?

 पहले यह बताओ। 

राजा ने भी पूछा तो बच्चे ने कहा कि....!

पहली ढेरी मेरे माता पिता की है मेरी रक्षा करना उनका कर्त्तव्य था परंतु उन्होंने पैसे के लिए मुझे बेच दिया ।

 इस लिए मैंने ये ढेरी तोड़ी दूसरी मेरे सगे-सम्बन्धियों की थी।

उन्होंने भी मेरे माता-पिता को नहीं समझाया**

 तीसरी आपकी है राजा क्योंकि राज्य की प्रजा की रक्षा करना राजा का ही धर्म होता है परन्तु राजा ही मेरी बलि देना चाह रहा है तो ये ढेरी भी मैंने तोड़ दी


अब सिर्फ अपने सद् गुरु और ईश्वर पर ही मुझे भरोसा है इसलिए यह एक ढेरी मैंने छोड़ दी है*

राजा ने सोचा कि पता नहीं बच्चे की बलि देने के पश्चात भी पुत्र प्राप्त हो या न हो,तो क्यों न इस बच्चे को ही अपना पुत्र बना ले*

इतना समझदार और ईश्वर - भक्त बच्चा है।

इससे अच्छा बच्चा कहाँ मिलेगा ?

राजा ने उस बच्चे को अपना पुत्र बना लिया और राजकुमार घोषित कर दिया*

*जो ईश्वर और सद् गुरु पर विश्वास रखते हैं,उनका बाल भी बाँका नहीं होता है*

हर मुश्किल में एक का ही जो आसरा लेते हैं,उनका कहीं से किसी प्रकार का कोई अहित नहीं होता है...

*जय माता दी*🙏🏼

मां दुर्गा की असीम कृपा आपको और  आपके परिवार पर निरंतर बनी रहे🙏🏼

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अव्यवस्थित दिनचर्या का अर्थ है तनाव भरी रात्रि





अव्यवस्थित दिनचर्या का अर्थ है तनाव भरी रात्रि। 

एक व्यवस्थित दिनचर्या के अभाव में गहरी निद्रा का आनंद ले पाना संभव नहीं है। 

प्रसन्नता राज से नहीं व्यवस्थित काज ( कार्य ) से मिला करती है।

🌇अपने कार्य को समय पर करो और दूसरों के ऊपर मत छोड़ो। 

आज के समय में आदमी जिस प्रकार अशांत, परेशान और हैरान है ।

उसका कारण वह स्वयं ही है।

🌇कार्य को समय पर ना करना और स्वयं ना करना यह आज तनाव और अशांति का प्रमुख कारण है।

इसी वजह से आदमी का दिन का चैन और रात की नींद चली गयी। 

आपका उठना, वैठना, खाना, पीना, कार्य करना सब समय पर हो और सही तरीके से हो तो सफलता भी मिलेगी और विश्राम भी मिलेगा।

जय मुरलीधर!!

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प्रति अपने प्यार की चर्चा मत करो ।

ईश्वर के प्रति अपने प्यार की चर्चा मत करो ।


क्योंकि उस निर्मल प्रेम को कभी जाहिर नहीं करना होता ।

यानि वह कभी भी दिखावे के लिये इस्तेमाल नहीं होता। 

याद रखो जो दिखावे के भाव में आ जाता है ।

वह स्वार्थवश हो कभी भी ईश्वर के स्तर तक नहीं पहुँच पाता। 

अत: सजनों, इस हेतु भाव परिवर्तन की आवश्यकता है ।

यानि प्रभु संग प्रीत का भाव परिवर्तित करो और ईश्वर से कदाचित् स्वार्थसिद्धि हेतु प्रेम मत करो। 

इसके स्थान पर उस प्रभु से तो नि:स्वार्थ भाव से निर्मल व उज्जवल प्रेम करो और फिर उसका आनन्द देखो।
जय श्री कृष्ण....!!!

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चिंता 


एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं। 

जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।

राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच - विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया। 

राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।

विवाह के बाद राजकुमारी खुशी -     खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई। 

कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं।

उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं?

संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं ।

अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक - एक रोटी खा लेंगे।

संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी। 

राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इस लिए किया था ।

क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं ।

आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।

सच्चा भक्त वही है ।

जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है। 

अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं ।

हम तो इंसान हैं। 

अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।

ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। 

उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है। 

उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं ।

राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं ।

जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं ।

फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। 

सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता ।

संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। 

आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।

अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ हैं। 

उसको ( भगवान ) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं।

कभी आप बहुत परेशान हों, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो तो आप आँखें बंद करके विश्वास के साथ उस परमात्मा को पुकारें जिसने आपको यह सुन्दर मनुष्य जीवन दिया है ।

सच मानिये थोड़ी देर में आपकी समस्या का समाधान मिल जायेगा।

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जप के लिए आवश्यक विधान

श्री यजुर्वेद और अग्निपुराण  प्रवचन 


जप के लिए आवश्यक विधान...!

            उपरोक्त बातों को ध्यान में रखने के अतिरिक्त प्रतिदिन की साधना के लिए कुछ बातें नीचे दी जा रही हैं :

1.         समय

2.         स्थान

3.         दिशा

4.         आसन

5.         माला

6.         नामोच्चारण

7.         प्राणायाम

8.         जप

9.         ध्यान

1.    समय:

सबसे उत्तम समय प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त और तीनों समय ( सुबह सूर्योदय के समय, दोपहर 12 बजे के आसपास व सांय सूर्यास्त के समय ) का संध्याकाल है | 

प्रतिदिन निश्चित समय पर जप करने से बहुत लाभ होता है |

2.    स्थान:

प्रतिदिन एक ही स्थान पर बैठना बहुत लाभदायक है | 

अतः अपना साधना - कक्ष अलग रखो | 

यदि स्थानाभाव के कारण अलग कक्ष न रख सकें तो घर का एक कोना ही साधना के लिए रखना चाहिए | 

उस स्थान पर संसार का कोई भी कार्य या वार्तालाप न करो | 

उस कक्ष या कोने को धूप - अगरबत्ती से सुगंधित रखो | 

इष्ट अथवा गुरुदेव की छवि पर सुगंधित पुष्प चढ़ाओ और दीपक करो | 

एक ही छवि पर ध्यान केन्द्रित करो | 

जब आप ऐसे करोगे तो उससे जो शक्तिशाली स्पन्दन उठेंगे, वे उस वातावरण में ओतप्रोत हो जायेंगे |

3.    दिशा

जप पर दिशा का भी प्रभाव पड़ता है | 

जप करते समय आपक मुख उत्तर अथवा पूर्व की ओर हो तो इससे जपयोग में आशातीत सहायता मिलती है |

4.    आसन

आसन के लिए मृगचर्म, कुशासन अथवा कम्बल के आसन का प्रयोग करना चाहिए | 

इससे शरीर की विद्युत - शक्ति सुरक्षित रहती है |

            साधक स्वयं पद्मासन, सुखासन अथवा स्वस्तिकासन पर बैठकर जप करे | 

वही आसन अपने लिए चुनो जिसमें काफी देर तक कष्टरहित होकर बैठ सको | 

स्थिरं सुखासनम् | 

शरीर को किसी भी सरल अवस्था में सुखपूर्वक स्थिर रखने को आसन कहते हैं |

            एक ही आसन में स्थिर बैठे रहने की समयाविधि को अभ्यासपूर्वक बढ़ाते जाओ | 

इस बात का ध्यान रखो कि आपका सिर, ग्रीवा तथा कमर एक सीध में रहें | 

झुककर नहीं बैठो | 

एक ही आसन में देर तक स्थिर होकर बैठने से बहुत लाभ होता है |

5.    माला

मंत्रजाप में माला अत्यंत महत्वपूर्ण है | 

इस लिए समझदार साधक माला को प्राण जैसी प्रिय समझते हैं और गुप्त धन की भाँति उसकी सुरक्षा करते हैं |

            माला को केवल गिनने की एक तरकीब समझकर अशुद्ध अवस्था में भी अपने पास रखना...!

बायें हाथ से माला घुमाना, लोगों को दिखाते फिरना, पैर तक लटकाये रखना, जहाँ - तहाँ रख देना, जिस किसी चीज से बना लेना तथा जिस प्राकार से गूँथ लेना सर्वथा वर्जित है |

जपमाला प्रायः तीन प्रकार की होती हैं::::

 करमाला, वर्णमाला और मणिमाला |

a.                  करमाला

अँगुलियों पर गिनकर जो जप किया जाता है, वह करमाला जाप है | 

यह दो प्रकार से होता है: एक तो अँगुलियों से ही गिनना और दूसरा अँगुलियों के पर्वों पर गिनना | 

शास्त्रतः दूसरा प्रकार ही स्वीकृत है |

            इसका नियम यह है कि चित्र में दर्शाये गये क्रमानुसार अनामिका के मध्य भाग से नीचे की ओर चलो | 

फिर कनिष्ठिका के मूल से अग्रभाग तक और फिर अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग पर होकर तर्जनी के मूल तक जायें | 

इस क्रम से अनामिका के दो, कनिष्ठिका के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा का एक और तर्जनी के तीन पर्व… 

कुल दस संख्या होती है | 

मध्यमा के दो पर्व सुमेरु के रूप में छूट जाते हैं |

      साधारणतः करमाला का यही क्रम है, परन्तु अनुष्ठानभेद से इसमें अन्तर भी पड़ता है | 

जैसे शक्ति के अनुष्ठान में अनामिका के दो पर्व, कनिष्ठिका के तीन, पुनः अनामिका का एक, मध्यमा के तीन पर्व और तर्जनी का एक मूल पर्व - इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है |

            श्रीविद्या में इससे भिन्न नियम है | 

मध्यमा का मूल एक, अनामिका का मूल एक, कनिष्ठिका के तीन, अनामिका और मध्यमा के अग्रभाग एक - एक और तर्जनी के तीन  - इस प्रकार दस संख्या पूरी होती है |

            करमाला से जप करते समय अँगुलियाँ अलग - अलग नहीं होनी चाहिए | 

थोड़ी - सी हथेली मुड़ी रहनी चाहिए | 

सुमेरु का उल्लंघन और पर्वों की सन्धि ( गाँठ ) का स्पर्श निषिद्ध है | 

यह निश्चित है कि जो इतनी सावधानी रखकर जप रखकर जप करेगा ।

उसका मन अधिकांशतः अन्यत्र नहीं जायेगा |

            हाथ को हृदय के सामने लाकर, अँगुलियों को कुछ टेढ़ी करके वस्त्र से उसे ढककर दाहिने हाथ से ही जप करना चाहिए |

            जप अधिक संख्या में करना हो तो इन दशकों को स्मरण नहीं रखा जा सकता | 

इस लिए उनको स्मरण करके के लिए एक प्रकार की गोली बनानी चाहिए | 

लाक्षा, रक्तचन्दन, सिन्दूर और गौ के सूखे कंडे को चूर्ण करके सबके मिश्रण से गोली तैयार करनी चाहिए | 

अक्षत, अँगुली, अन्न, पुष्प, चन्दन अथवा मिट्टी से उन दशकों का स्मरण रखना निषिद्ध है | 

माला की गिनती भी इनके द्वारा नहीं करनी चाहिए |

a.         वर्णमाला

            वर्णमाला का अर्थ है अक्षरों के द्वारा जप की संख्या गिनना | 

यह प्रायः अन्तर्जप में काम आती है ।

परन्तु बहिर्जप में भी इसका निषेध नहीं है |

            वर्णमाला के द्वारा जप करने का विधान यह है कि पहले वर्णमाला का एक अक्षर बिन्दु लगाकर उच्चारण करो और फिर मंत्र का - अवर्ग के सोलह, क वर्ग से प वर्ग तक पच्चीस और य वर्ग से हकार तक आठ और पुनः एक लकार - इस क्रम से पचास तक की गिनती करते जाओ | 

फिर लकार से लौटकर अकार तक आ जाओ, सौ की संख्या पूरी हो जायेगी |

 ‘क्ष’ को सुमेरू मानते हैं | 

उसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए |

            संस्कृत में ‘त्र’ और ‘ज्ञ’ स्वतंत्र अक्षर नहीं, संयुक्ताक्षर माने जाते हैं | 

इस लिए उनकी गणना नही होती | 

वर्ग भी सात नहीं, आठ माने जाते हैं | 

आठवाँ सकार से प्रारम्भ होता है | 

इनके द्वारा ‘अं’, कं, चं, टं, तं, पं, यं, शं’ यह गणना करके आठ बार और जपना चाहिए - ऐसा करने से जप की संखया 108 हो जाती है |

            ये अक्षर तो माला के मणि हैं | 

इनका सूत्र है कुण्डलिनी शक्ति | 

वह मूलाधार से आज्ञाचक्रपर्यन्त सूत्ररूप से विद्यमान है | 

उसीमें ये सब स्वर - वर्ण मणिरूप से गुँथे हुए हैं | 

इन्हींके द्वारा आरोह और अवरोह क्रम से अर्थात नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे जप करना चाहिए | 

इस प्रकार जो जप होता है, वह सद्यः सिद्धप्रद होता है |

b.         मणिमाला

मणिमाला अर्थात मनके पिरोकर बनायी गयी माला द्वारा जप करना मणिमाला जाप कहा जाता है | 

            जिन्हें अधिक संख्या में जप करना हो, उन्हें तो मणिमामा रखना अनिवार्य है | 

यह माला अनेक वस्तुओं की होती है ।

जैसे कि रुद्राक्ष, तुलसी, शंख, पद्मबीज, मोती, स्फटिक, मणि, रत्न, सुवर्ण, चाँदी, चन्दन, कुशमूल आदि | 

इनमें वैष्णवों के लिए तुलसि और स्मार्त, शाक्त, शैव आदि के लिए रुद्राक्ष सर्वोत्तम माना गया है | 

ब्राह्मण कन्याओं के द्वारा निर्मित सूत से बनायी गयी माला अति उत्तम मानी जाती है |
          
माला बनाने में इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि एक चीज की बनायी हुई माला में दूसरी चीज न आये | 

माला के दाने छोटे - बड़े व खंडित न हों |

सब प्रकार के जप में 108 दानों की माला काम आती है | 

शान्तिकर्म में श्वेत, वशीकरण में रक्त, अभिचार प्रयोग में काली और मोक्ष तथा ऐश्वर्य के लिए रेशमी सूत की माला विशेष उपयुक्त है |

माला घुमाते वक्त तर्जनी ( अंगूठे के पासवाली ऊँगली ) से माला के मनकों को कभी स्पर्श नहीं करना चाहिए | 

माला द्वारा जप करते समय अंगूठे तथा मध्यमा ऊँगली द्वारा माला के मनकों को घुमाना चाहिए | 

माला घुमाते समय सुमेरु का उल्लंघन नहीं करना चाहिए | 

माला घुमाते - घुमाते जब सुमेरु आये तब माला को उलटकर दूसरी ओर घुमाना प्रारंभ करना चाहिए |

यदि प्रमादवश माला हाथ गिर जाये तो मंत्र को दो सौ बार जपना चाहिए ।

ऐसा अग्निपुराण में आता है:

प्रामादात्पतिते सूत्रे जप्तव्यं तु शतद्वयम् |

अग्निपुराण: ३.२८.५

यदि माला टूट जाय तो पुनः गूँथकर उसी माला से जप करो | 

यदि दाना टूट जाय या खो जाय तो दूसरी ऐसी ही माला का दाना निकाल कर अपनी माला में डाल लो | 

किन्तु जप सदैव करो अपनी ही माला से क्योंकि हम जिस माला पर जप करते हैं...!

वह माला अत्यंत प्रभावशाली होती है |

माला को सदैव स्वच्छ कपड़े से ढ़ाँककर घुमाना चाहिए | 

गौमुखी में माला रखकर घुमाना सर्वोत्तम व सुविधाजनक है |

ध्यान रहे कि माला शरीर के अशुद्ध माने जाने अंगों का स्पर्श न करे | 

नाभि के नीचे का पूरा शरीर अशुद्ध माना जाता है | 

अतः माला घुमाते वक्त माला नाभि से नीचे नहीं लटकनी चहिए तथा उसे भूमि का स्पर्श भी नहीं होना चहिए |

गुरुमंत्र मिलने के बाद एक बार माला का पूजन अवशय करो | 

कभी गलती से अशुद्धावस्था में या स्त्रियों द्वारा अनजाने में रजस्वलावस्था में माला का स्पर्श हो गया हो तब भी माला का फिर से पूजन कर लो |

माला पूजन की विधि::::

पीपल के नौ पत्ते लाकर एक को बीच में और आठ को अगल - बगल में इस ढ़ंग से रखो कि वह अष्टदल कमल सा मालूम हो | 

बीचवाले पत्र पर माला रखो और जल से उसे धो डालो | फिर पंचगव्य ( दूध, दही, घी, गोबर व गोमूत्र ) से स्नान कराके पुनः शुद्ध जा से माला को धो लो | 

फिर चंदन पुष्प आदि से माला का पूजन करो | 

तदनंतर उसमें अपने इष्टदेवता की प्राण-प्रतिष्ठा करो और माला से प्रार्थना करो कि :

माले माले महामाले सर्वतत्त्वस्वरुपिणी |

चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ||

ॐ त्वं माले सर्वदेवानां सर्वसिद्धिप्रदा मता |

तेन सत्येन मे सिद्धिं देहि मातर्नमोऽस्तु ते |

त्वं मले सर्वदेवानां प्रीतिदा शुभदा भव |

शिवं कुरुष्व मे भद्रे यशो वीर्यं च सर्वदा ||

इस प्रकारा माला का पूजन करने से उसमें परमात्म - चेतना का अभिर्भाव हो जाता है | 

फिर माला गौमुखी में रखकर जप कर सकते हैं |

1.         नामोच्चारण::::

जप - साधना के बैठने से पूर्व थोड़ी देर तक ॐ ( प्रणव ) का उच्चारण करने से एकाग्रता में मदद मिलती है | 

हरिनाम का उच्चारण तीन प्रकार से किया जा सकता है :

क.        ह्रस्व::::

 'हरि ॐ ... हरि ॐ ... हरि ॐ ...' 

इस प्रकार का ह्रस्व उच्चारण पापों का नाश करता है |

ख.        दीर्घ::::: 

'हरि ओऽऽऽऽम् ...' 

इस प्रकार थोड़ी ज्यादा देर तक दीर्घ उच्चारण से ऐश्वर्य की प्राप्ति में सफलता मिलती है |

ग.        प्लुत :::::

‘ हरि हरि ओऽऽऽम् ...'  

इस प्रकार ज्यादा लंबे समय के प्लुत उच्चारण से परमात्मा में विश्रांति पायी जा सकती है |

यदि साधक थोड़ी देर तक यह प्रयोग करे तो मन - शांत होने में बड़ी मदद मिलेगी | 

फिर जप में भी उसका मन सहजता से लगने लगेगा |

2.         प्राणायाम : जप करने से पूर्व साधक यदि प्राणायाम करे तो एकाग्रता में वृद्धि होती है ।

किंतु प्राणायाम करने में सावधानी रखनी चाहिए |

कई साधक प्रारंभ में उत्साह - उत्साह में ढ़ेर सारे प्राणायाम करने लगते हैं | 

फलस्वरूप उन्हें गर्मी का एहसास होने लगता है | 

कई बार दुर्बल शरीरवालों को ज्यादा प्राणायाम करने खुश्की भी चढ़ जाती है | 

अतः अपने सामर्थ्य के अनुसार ही प्राणायाम करो |

प्राणायाम का समय 3 मिनट तक बढ़ाया जा सकता है | 

किन्तु बिना अभ्यास के यदि कोई प्रारंभ में ही तीन मिनट की कोशिश करे तो अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है | 

अतः प्रारंभ में कम समय और कम संखया में ही प्रणायम करो |

यदि त्रिबंधयुक्त प्राणायाम करने के पश्चात् जप करें तो लाभ ज्यादा होता है | 

त्रिबंधयुक्त प्राणायाम की विधि 'योगासन' पुस्तक में बतायी गयी है |

3.         जप: जप करते समय मंत्र का उच्चारण स्पष्ट तथा शुद्ध होना चाहिए |

गौमुखी में माला रखकर ही जप करो |

जप इस प्रकार करो कि पास बैठने वाले की बात तो दूर अपने कान को भी मंत्र के शब्द सुनायी न दें | 

बेशक, यज्ञ में आहुति देते समय मंत्रोच्चार व्यक्त रूप से किया जाता है...!

वह अलग बात है | 

किन्तु इसके अलावा इस प्रकार जोर - जोर से मंत्रोच्चार करने से मन की एकाग्रता और बुद्धि की स्थिरता सिद्ध नहीं हो पाती | 

इस लिए मौन होकर ही जप करना चहिए |

जब तुम देखो कि तुम्हारा मन चंचल हो रहा है...!

तो थोड़ी देर के लिए खूब जल्दी - जल्दी जप करो | 

साधारणतयः सबसे अच्छा तरीका यह है कि न तो बहुत जल्दी और न बहुत धीरे ही जप करना चाहिए |

जप करते - करते जप के अर्थ में तल्लीन होते जाना चाहिए | 

अपनी निर्धारित संख्या में जप पूरा करके ही उठो | 

चाहे कितना ही जरूरी काम क्यों न हो...!

किन्तु नियम अवशय पूरा करो |

जप करते - करते सतर्क रहो |

यह अत्यंत आवश्यक गुण है | 

जब आप जप आरंभ करते हो तब आप एकदम ताजे और सावधान रहते हो, पर कुछ समय पश्चात आपका चित्त चंचल होकर इधर - उधर भागने लगता है | 

निद्रा आपको धर दबोचने लगती है | 

अतः जप करते समय इस बात से सतर्क रहो |

जप करते समय तो आप जप करो ही किन्तु जब कार्य करो तब भी हाथों को कार्य में लगाओ तथा मन को जप में अर्थात मानसिक जप करते रहो |

जहाँ कहीं भी जाओ...!

जप करते रहो लेकिन वह जप निष्काम भाव से ही होना चाहिए |

महिला साधिकाओं के लिए सूचना:::::::::!

महिलाएँ मासिक धर्म के समय केवल मानसिक जप कर सकती हैं | 

इन दिनों में उन्हें ॐ ( प्रणव ) के बिना ही मंत्र जप करना चाहिए | 

किसीका मंत्र 'ॐ राम' है तो मासिक धर्म के पांच दिनों तक या पूर्ण शुद्ध न होने तक केवल 'राम - राम' जप सकती है | 

स्त्रियों का मासिक धर्म जब तक जारी हो , तब तक वे दीक्षा भी नहीं ले सकती | 

अगर अज्ञानवश पांचवें - छठवें दिन भी मासिक धर्म जारी रहने पर दीक्षा ले ली गयी है या इसी प्रकार अनजाने में संतदर्शन या मंदिर में भगवद्दर्शन हो गया हो तो उसके प्रायश्चित के लिए 'ऋषि पंचमी' ( गुरुपंचमी ) का व्रत कर लेना चाहिए |

यदि किसीके घर में सूतक लगा हुआ हो तब जननाशौच ( संतान -  जन्म के समय लगनेवाला अशौच - सूतक ) के समय प्रसूतिका स्त्री ( माता ) 40 दिन तक व पिता 10 दिन तक माला लेकर जप नहीं कर सकता |

इसी प्रकार मरणाशौच ( मृत्यु के समय पर लगनेवाल अशौच सूतक ) में 13 दिन तक माला लेकर जप नहीं किया जा सकता किन्तु मानसिक जप तो प्रत्येक अवस्था में किया जा सकता है |

जप की नियत संख्या पूरी होने के बाद अधिक जप होता है तो बहुत अच्छी बात है | 

जितना अधिक जप उतना अधिक फल |  

अधिकस्य अधिकं फलम् |  

यह सदैव याद रखो |

नीरसता, थकावट आदि दूर करने के लिए ।

जप में एकाग्रता लाने के लिए जप - विधि में थोड़ा परिवर्तन कर लिया जाय तो कोई हानि नहीं | 

कभी ऊँचे स्वर में...!

कभी मंद स्वर में....!

और कभी मानसिक जप भी हो सकता है |

जप की समाप्ति पर तुरंत आसन न छोड़ो, न ही लोगों से मिलो - जुलो अथवा न ही बातचीत करो | 

किसी सांसारिक क्रिया - कलाप में व्यस्त नहीं होना है ।

बल्कि कम - से - कम दस मिनट तक उसी आसन पर शांतिपूर्वक बैठे रहो | 

प्रभि का चिंतन करो | 

प्रभु के प्रेमपयोधि में डुबकी लगाओ | 

तत्पश्चात सादर प्रणाम करने के बाद ही आसन त्याग करो |

प्रभुनाम का स्मरण तो श्वास - प्रतिश्वास के साथ चलना चाहिए | 

नाम - जप का दृढ़ अभ्यास करो |

4.      ध्यान: प्रतिदिन साधक को जप के पश्चात या जप के साथ ध्यान अवश्य करना चाहिए | 

जप करते - करते जप के अर्थ में मन को लीन करते जाओ अथवा मंत्र के देवता या गुरुदेव का ध्यान करो | 

इस अभ्यास से आपकी साधना सुदृढ़ बनेगी और आप शीघ्र ही परमेश्वर का साक्षात्कार कर सकोगे |

यदि जप करते - करते ध्यान लगने लगे तो फिर जप की चिंता न करो ।

क्योंकि जप का फल ही है ध्यान और मन की शांति | 

अगर मन शांत होता जाता है तो फिर उसी शांति डूबते जाओ | 

जब मन पुनः बहिर्मुख होने लगे, तो जप शुरु कर दो |

जो भी जापक - साधक सदगुरु से प्रदत्त मंत्र का नियत समय, स्थान, आसन व संख्या में एकाग्रता तथा प्रीतिपूर्वक उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर जप करता है ।

तो उसका जप उसे आध्यात्मिकता के शिखर की सैर करवा देता | 

उसकी आध्यात्मिक प्रगति में फिर कोई संदेह नहीं रहता |

मंत्रानुष्ठान
‘श्रीरामचरितमानस’ में आता है कि मंत्रजप भक्ति का पाँचवाँ सोपान है |

मंत्रजाप मम दृढ़ विश्वासा |

पंचम भक्ति यह बेद प्राकासा ||

            मंत्र एक ऐसा साधन है जो मानव की सोयी हुई चेतना को, सुषुप्त शक्तियों को जगाकर उसे महान बना देता है |

            जिस प्रकार टेलीफोन के डायल में 10 नम्बर होते हैं | 

यदि हमारे पास कोड व फोन नंबर सही हों तो डायल के इन्हीं 10 नम्बरों को ठीक से घुमाकर हम दुनिया के किसी कोने में स्थित इच्छित व्यक्ति से तुरंत बात कर सकते हैं | 

वैसे ही गुरु - प्रदत्त मंत्र को गुरु के निर्देशानुसार जप करके, अनुष्ठान करके हम विश्वेशवर से भी बात कर सकते हैं |

            मंत्र जपने की विधि, मंत्र के अक्षर, मंत्र का अर्थ, मंत्र - अनुष्ठान की विधि जानकर तदनुसार जप करने से साधक की योग्यताएँ विकसित होती हैं | 

वह महेश्वर से मुलाकात करने की योग्यता भी विकसित कर लेता है | 

किन्तु यदि वह मंत्र का अर्थ नहीं जानता या अनुष्ठान की विधि नहीं जानता या फिर लापरवाही करता है ।

मंत्र के गुंथन का उसे पता नहीं है । 

तो फिर ‘राँग नंबर’ की तरह उसके जप के प्रभाव से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्तियाँ बिखर जायेंगी तथा स्वयं उसको ही हानि पहुंचा सकती हैं | 

जैसे प्राचीन काल में ‘इन्द्र को मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ इस संकल्प की सिद्धि के लिए दैत्यों द्वारा यज्ञ किया गया | 

लेकिन मंत्रोच्चारण करते समय संस्कृत में हृस्व और दीर्घ की गलती से ‘इन्द्र से मारनेवाला पुत्र पैदा हो’ -

ऐसा बोल दिया गया तो वृत्रासुर पैदा हुआ ।

जो इन्द्र को नहीं मार पाया वरन् इन्द्र के हाथों मारा गया | 

अतः मंत्र और अनुष्ठान की विधि जानना आवश्यक है |

जय माँ अंबे...!!

🙏🙏🙏🙏🙏🌳जय श्री कृष्ण🌳🙏🙏🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Batwara vidhyarthi bhuvan
" Shree Aalbai Niwas "
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏