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Friday, November 22, 2024

||आजकल की शोक सभाएं,श्रीशंकरजी और श्रीरामजी अर्थात्‌||

श्री ऋग्वेद,  श्री सामवेद और श्री श्रीराम चारित्र मानस के अनुसार  :

आजकल की शोक सभाएं -


शोक सभाएं दुःख बांटने और परिवार को सांत्वना देकर साहस बढाने का एक माध्यम है।


लेकिन आजकल ये सभाएं अपने असली मकसद से भटक चुकी हैं।


ऐसा लगता है।


यह तो बहुत बड़ा लग्न समारोह हो रहा है।


शोक सभा के आयोजन के लिए बड़े - बड़े मंडप लगाये जाते हैं।


सफेद पर्दे और कालीन बिछाई जाती है या किसी बड़े बैंक्वेट हाॅल में सभा का आयोजन किया जाता है। 


यह दृश्य किसी उत्सव जैसा लगता है।


जिसमें शोक की भावना कम और प्रदर्शन की प्रवृत्ति ज्यादा नजर आती है। 


मृतक का बड़ा फोटो सजाकर स्टेज पर रखा जाता है और पूरे कार्यक्रम में भव्यता का माहौल होता है। 


मृतक के परिवार के लोग सजे - धजे नजर आते हैं। 



उनका आचरण और पहनावा इस बात का संकेत नहीं देता कि वे किसी प्रकार के दुःख में हैं।


समाज में प्रतिष्ठा दिखाने की होड़ मे अब शोक सभा भी इसका हिस्सा बन गई है।


इस दौरान कितने लोग सभा में आये।


इसकी चर्चा भी खूब होती है और परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को इस आधार पर आंका जाता है। 


छोटे और मध्यम वर्गीय परिवार भी इस दिखावे की चपेट में आ गये हैं। 


शोक सभा का आयोजन अब आर्थिक बोझ बनता जा रहा है।


कई परिवार इस बोझ को उठाने में असहज महसूस करते हैं।


लेकिन देखा देखी की होड़ मे इसे करने के लिए मजबूर होते हैं।


खाना, चाय, कॉफी, मिनरल पानी जैसी चीजों पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।


एक तरह देखा जाय तो हम किसी आत्मा की शौक सभा नहीं हम किसी के लग्न समारोह में जा रहे है ऐसा यह आज कल के समय का यह पूरी सभा अब शोक की बजाय एक भव्य आयोजन का रूप ले रहा है ।


शोक सभाओं को सादगीपूर्ण और अर्थपूर्ण बनाना जरूरी है। 

श्री ऋग्वेद,  श्री सामवेद और श्री श्रीराम चारित्र मानस के अनुसार 

|| श्रीशंकरजी और श्रीरामजी अर्थात्‌ ||


*मायाविशिष्ट* 

ईश्वर-और *अज्ञानउपहित* ब्रह्म।



भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।

   

एक और अर्थ देखे-

भवानी को 'विश्वास' था कि शंकरजी ही ईश्वर हैं, इस विश्वास के कारण उनके मुंह से निकले शब्दों पर उनकी 'श्रद्धा' भी थी।भले ही वह मति अनुसार गलत लगे।

सीता के वियोग में पागलों की तरह हद से ज्यादा दुखी 'राम' को 'ब्रह्म' कहकर जब शंकर ने दूर से उन्हें प्रणाम किया तो स्वभाविक था कि इस बात को भवानी समझ नहीं पाईं !

    ईश्वर के शब्दों को वेद कहते हैं

    

 विश्वास करने वाली बुद्धि जब श्रुति से 'तत्त्वमसि' महावाक्य का श्रवण करती है, तो स्वभाविक है उसे भी यह बात गलत ही लगती है, की एक संसारी मनुष्य को ब्रह्म कैसे कहा गया ?  

लेकिन यह बात वेद वाक्य है जो ईश्वर के मुख से निकली वाणी है, इस लिए झूठ भी नहीं हो सकती, यह श्रद्धा बुद्धि में संशय को जन्म देती है।

संशय का समाधान वास्तविकता को जाने बिना होता नहीं असंभव है? 

 परिक्षण आवश्यक हो जाता है।

     श्रद्धावानं लभते ज्ञानं

यदि भवानी शंकरजी की बात को गलत कहकर हवा में उड़ा देतीं;  की भांग ज्यादा चढ़ गई है ।

इस लिए अनाप सनाप कह रहे होंगे, तो वे राम की परीक्षा नहीं लेतीं है।

इसे श्रद्धा का अभाव कहते हैं। 

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भवानी श्रद्धा का अवतार हैं; अत: गलत लगने वाली बात पर भी थोड़ी देर के लिये विश्वास करती है, और इसी लिए परिक्षण भी करती हैं। 

और परिक्षण बाद ही सही या गलत का ज्ञान लाभ करती है।

परिक्षण का परिणाम यह होता है कि  संशयात्मिका बुद्धि अपने पिता के हवन कुंड में जलकर राख हो जाती है। 
और विवेक के रूप मे पुनर्जन्म होता है जो 'रामकथा' सुनने का अधिकारी है। 
श्रीरामायण ही वह कथा है जिसे शंकरजी ने पार्वतीजी को सुनाया।

 ( श्रीरामचरित्र मानस )

इस कथा के अनुसार ही एक सही सच्चाई वाली सुंदर कहानी भी है

!! अंधा व्यक्ति और लालटेन !! 


दुनिया में तरह-तरह के लोग होते हैं. कुछ तो ऐसे होते हैं ।

जो स्वयं की कमजोरियों को तो नज़रंदाज़ कर जाते हैं किंतु दूसरों की कमजोरियों पर उपहास करने सदा तत्पर रहते हैं।

वास्तविकता का अनुमान लगाये बिना वे दूसरों की कमजोरियों पर हँसते हैं और अपने तीखे शब्दों के बाणों से उन्हें ठेस पहुँचाते हैं।

किंतु जब उन्हें यथार्थ का तमाचा पड़ता है।

तो सिवाय ग्लानि के उनके पास कुछ शेष नहीं बचता.

आज हम आपको एक अंधे व्यक्ति की कहानी बता रहे हैं, जिसे ऐसे ही लोगों के उपहास का पात्र बनना पड़ा.

एक गाँव में एक अंधा व्यक्ति रहता था. वह रात में जब भी बाहर जाता, एक जली हुई लालटेन हमेशा अपने साथ रखता था.

एक रात वह अपने दोस्त के घर से भोजन कर अपने घर वापस आ रहा था. हमेशा की तरह उसके हाथ में एक जली हुई लालटेन थी. कुछ शरारती लड़कों ने जब उसके हाथ में लालटेन देखी ।

तो उस पर हंसने लगे और उस पर व्यंग्य बाण छोड़कर कहने लगे।

“अरे, देखो - देखो अंधा लालटेन लेकर जा रहा है. अंधे को लालटेन का क्या काम?”

उनकी बात सुनकर अंधा व्यक्ति ठिठक गया और नम्रता से बोला।

“सही कहते हो भाईयों. मैं तो अंधा हूँ. देख नहीं सकता. मेरी दुनिया में तो सदा से अंधेरा रहा है. मुझे लालटेन क्या काम? 

मेरी आदत तो अंधेरे में ही जीने की है. लेकिन आप जैसे आँखों वाले लोगों को तो अंधेरे में जीने की आदत नहीं होती।

आप लोगों को अंधेरे में देखने में समस्या हो सकती है. कहीं आप जैसे लोग मुझे अंधेरे में देख ना पायें और धक्का दे दें।

तो मुझ बेचारे का क्या होगा? 


इस लिए ये लालटेन आप जैसे लोगों के लिए लेकर चलता हूँ. ताकि अंधेरे में आप लोग मुझ अंधे को देख सकें.”

अंधे व्यक्ति की बात सुनकर वे लड़के शर्मसार हो गए और उससे क्षमा मांगने लगे. उन्होंने प्रण किया कि भविष्य में बिना सोचे - समझे किसी से कुछ नहीं कहेंगे.

हमें यही तथ्य गुरुदेव प्रतिपल समझाते है की हमारे मन वचन कर्म द्वारा किसी को भी किसी प्रकार की हानि या ठेस ना लगे ।

हमें बक्शाई प्रार्थना मे भी इसी बात पर प्रमुखता दी है गुरुदेव से धर्म एवं गुरुदेव के प्रति हुए दोषों के लीये क्षमा मांगने के साथ ही अन्य सभी के साथ हुए गुनाहो के लीये भी क्षमा व पुनः कर्म दोष ना बने इसके लीये अरदास की गई है एवंम पहले दुसरो का उद्धार करने व अंत मे स्वंय का उद्धार करने के लीये विनती करने का मार्गदर्शन किया है ।

क्योंकि जब शुभ व अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म शेष नहीं रहेंगे व हमारा मन, निजमन व आत्मा अपने पिया परमात्मा से सत्तगुरु रूप मे विरजमान साक्षात् सत्तस्वरूप से मिलेगी तभी तो हमारा कारज होगा!

मेरी गुरुदेव से यही करुण अरदास है की हे गुरुदेव आप सब कुछ बक्सा सकते, कृपा करके ऐसी गहरी समझशक्ति, सहनशक्ति व सद्बुद्धि भी हमें निरंतर बक्शाते रहे ताकि हम सदैव आपके चरण शरण मे बने रहे और हमारा इस लोक से बेदाग व आनंदपूर्वक निस्तारा हो जाये व आपके आनंदलोक मे भी समागम हो जाये!!

सदैव गुरुचरणों मे मग्न व प्रसन्न रहिये।

अभिमान 



एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। 

उसकी छोटी सी दुकान थी। 

उससे जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। 

चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। 

वह लोगों के सामने डींग हांका करता था।

एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। 

संत कह रहे थे, “दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता।यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। 

सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।”

सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा, “मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है। 

मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।”

संत बोले, “यह तुम्हारा भ्रम है। 

हर कोई अपने भाग्य का खाता है।

” इस पर मुखिया ने कहा, “आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए।” संत ने कहा, “ठीक है। 

तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ।

”उसने ऐसा ही किया। संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने अपना भोजन बना लिया है। 

मुखिया के परिवार वाले कई दिनों तकशोक संतप्त रहे। 

गांव वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए। एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। 

गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी। एक व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया। 

एक महीने बाद मुखिया छिपता-छिपाता रात के वक्त अपने घर आया। घर वालों ने भूत समझ कर दरवाजा नहीं खोला। 

जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही उत्तर दिया, ‘हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। 

अब हम पहले से ज्यादा सुखी हैं।’

 उस व्यक्ति का सारा अभिमान चूर-चूर हो गया। संसार किसी के लिए भी नही रुकता!!

तभी तो यहाँ सभी के बिना काम चल सकता है संसार सदा से चला आ रहा है और चलता रहेगा। 

जगत को चलाने की हाम भरने वाले बडे बडे सम्राट, मिट्टी हो गए, जगत उनके बिना भी चला है। 

इसलिए अपने बल का, अपने धन का, अपने कार्यों का, अपने ज्ञान का गर्व व्यर्थ है। 

सेवा, समर्पण और भक्ति सर्वोपरी है ।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 

( द्रविड़ ब्राह्मण )

🙏🙏🙏 जय श्री कृष्णा 🙏🙏🙏 

🙏🙏🙏 जय द्वारकाधीश 🙏🙏🙏