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Saturday, February 27, 2021

।। श्री ऋग्वेद और श्री रामायण के अनुसार श्रीरामचन्द्रजी 14 साल के वनवास के उलेख , विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार भगवान शिवजी माता पावर्ती के शादी के पहले गणपति था कि नही ? ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश....!!

।। श्री ऋग्वेद और श्री रामायण के अनुसार श्रीरामचन्द्रजी 14 साल के वनवास के उलेख  , विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार भगवान शिवजी माता पावर्ती के शादी के पहले गणपति था कि नही ?   ।।


हमारे ग्रथों पुराणों और वेदों में श्रीराम को 14 वर्ष का वनवान हुआ। 

इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि - मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। 

संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया। 

श्री रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। 

इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।

जाने - माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है ।

जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं ।

जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। 

वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय - काल की जांच - पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। 

आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में...!




पहला पड़ाव...

श्री केवट प्रसंग :

राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। 

इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज ( इलाहाबाद ) से 20 - 22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। 

यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

'सिंगरौर' : 

इलाहाबाद से 22 मील ( लगभग 35.2 किमी ) उत्तर - पश्चिम की ओर स्थित 'सिंगरौर' नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। 

रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। 

यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। 

महाभारत में इसे 'तीर्थस्थल' कहा गया है।

'कुरई' : 

इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है ।

जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। 

गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। 

सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

दूसरा पड़ाव....

श्री चित्रकूट के घाट पर :

कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। 

प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। 

यहां गंगा - जमुना का संगम स्थल है। 

हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। 

प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। 

यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

अद्वितीय सिद्धा पहाड़ :

सतना जिले के बिरसिंहपुर क्षेत्र स्थित सिद्धा पहा़ड़। 

यहाँ पर भगवान श्रीराम ने निशाचरों का नाश करने पहली बार प्रतिज्ञा ली थी।

चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। 

तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। 

भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।




तीसरा पड़ाव; 

श्री अत्रि ऋषि का आश्रम :

चित्रकूट के पास ही सतना ( मध्यप्रदेश ) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। 

महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। 

वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। 

अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। 

अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। 

चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी, छोटी पहाड़ियां, कंदराओं आदि से निकलकर भगवान राम पहुंच गए घने जंगलों में...

चौथा पड़ाव, 

श्री दंडकारण्य :

अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। 

यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। 

'अत्रि - आश्रम' से 'दंडकारण्य' आरंभ हो जाता है। 

छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। 

यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। 

यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। 

दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। 

यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। 

यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है। 

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। 

गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता - रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। 

यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। 

कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। 

ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

पांचवा पड़ाव; 

श्री पंचवटी में राम :

दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। 

मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। 

त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

छठा पड़ाव.. 

श्री सीताहरण का स्थान 'सर्वतीर्थ' :

नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया।

जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

सातवां पड़ाव;

श्री सीता माता की खोज :

सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था ।

वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। 

उसके बाद श्रीराम - लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। 

तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

आठवां पड़ाव...

श्री शबरी का आश्रम :

तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्मण चले सीता की खोज में। 

जटायु और कबंध से मिलने के पश्चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। 

रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। 

शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। 

केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

नवम पड़ाव; 

श्री हनुमान से भेंट :

मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। 

यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। 

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है।

कोडीकरई


श्री हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। 

मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन - वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। 

श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

सुग्रीव गुफा

सुग्रीव अपने भाई बाली से डरकर जिस कंदरा में रहता था ।

उसे सुग्रीव गुफा के नाम से जाना जाता है। 


यह ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित थी।

ग्यारहवां पड़ाव... 

श्री रामेश्वरम :

रामेश्वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है।


श्री रामेश्वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। 

महाकाव्य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। 


रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

रामसेतु

रामसेतु जिसे अंग्रेजी में एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है ।


भारत ( तमिलनाडु ) के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य चूना पत्थर से बनी एक श्रृंखला है। 

भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है ।

कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। 

यह पुल करीब 18 मील ( 30 किलोमीटर ) लंबा है।

बारहवां पड़ाव... 

धनुषकोडी :

वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला ।

जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। 

उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। 

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। 

धनुषकोडी पंबन के दक्षिण - पूर्व में स्थित है। 


धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्नार से करीब 18 मील पश्चिम में है।

तेरहवां पड़ाव...

'नुवारा एलिया' पर्वत श्रृंखला :

वाल्मीकिय - रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 

'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं।

रावण की लंका का रहस्य...

रामायण काल को लेकर अलग - अलग मान्यताएं हैं। 

ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं होने के कारण कुछ लोग जहां इसे नकारते हैं ।

वहीं कुछ इसे सत्य मानते हैं। 

हालांकि इसे आस्था का नाम दिया जाता है ।

लेकिन नासा द्वारा समुद्र में खोजा गया रामसेतु ऐसे लोगों की मान्यता को और पुष्ट करता है।


         !!!!! शुभमस्तु !!!

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।। श्री यजुर्वेद ,  श्री सामवेद , श्री ऋग्वेद  और विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार भगवान शिवजी माता पावर्ती के शादी के पहले गणपति था कि नही ? घर मे शुभारंभ शुभ प्रसगो के अनुसार गनपति के पूजन किया जाता है तो कौनसी सूंड का गणपति पूजन अर्चन के लिए शुभ माना जाता है ? ।।




श्री यजुर्वेद ,  श्री सामवेद , और विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण के अनुसार भगवान श्री शिवजी - माता श्री पार्वतीजी विवाह में ऐसे हुई थी गणेश जी की पूजा ।

श्री यजुर्वेद और श्री विष्णुपुराण सहित के पुराणों में श्री गणेश जी के जन्म से संबंधित कथाएं विभिन्न रूपों में प्राप्त होती हैं। 

विभिन्न पुराणों की कथाओं में गणेशजी की जन्म कथा में कुछ भिन्नता होने के बाद भी यह कहा जाता है ।

कि भगवान श्री शिवजी -माता श्री पार्वतीजी के माध्यम से ही इनका अवतार हुआ है। 

कुछ लोग वेदों एवं पुराणों के विवरण को न समझ पाने के कारण शंका करते हैं कि गणेशजी अगर शिवपुत्र हैं तो फिर अपने ही विवाह में श्री शिवजी - श्री पार्वतीजी ने उनका पूजन कैसे किया?

इस शंका का समाधान तुलसीदासजी करते हैं—

मुनि अनुशासन गनपति हि पूजेहु शंभु भवानि।
कोउ सुनि संशय करै जनि सुर अनादि जिय जानि। 

( विवाह के समय ब्रह्मवेत्ता मुनियों के निर्देश पर श्रीशिवजी - श्रीपार्वतीजी ने गणपति की पूजा संपन्न की। 

कोई व्यक्ति संशय न करें, क्योंकि देवता ( श्रीगणपति ) अनादि होते हैं। )

तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीगणपतिजी किसी के पुत्र नहीं हैं। 

वे अज, अनादि व अनंत हैं। 

भगवान शिव के पुत्र जो गणेश हुए, वह तो उन गणपति के अवतार हैं, जिनका उल्लेख वेदों में पाया जाता है। 

गणेश जी वैदिक देवता हैं, परंतु इनका नाम वेदों में गणेश न होकर ‘गणपति’ या ‘ब्रह्मणस्पति’ है। 

जो वेदों और बहुत पुराणों में ब्रह्मणस्पति हैं, उन्हीं का नाम पुराणों में गणेश है। 

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के मंत्रों में भी गणेश जी के उपर्युक्त नाम देखे जा सकते हैं।

माताश्री जगदम्बा ने महागणपतिजी की आराधना की और उनसे वरदान प्राप्त किया कि आप मेरे पुत्र के रूप में अवतार लें । 

इस लिए भगवान श्रीमहागणपतिजी गणेश के रूप में श्रीशिवजी - श्रीपार्वतीजी के पुत्र होकर अवतरित हुए। 

अत: यह शंका निर्मूल है कि शिव विवाह में गणपति पूजन कैसे हुआ। 

जिस प्रकार भगवान विष्णु अनादि हैं और राम, कृष्ण, वामन आदि अनेक अवतार हैं, उसी प्रकार गणेशजी भी महागणपति के अवतार हैं ।

सनातन धर्म के हिन्दू घर मे शुभारंभ शुभ प्रसगो के अनुसार गनपति के पूजन किया जाता है तो कौनसी सूंड का गणपति पूजन अर्चन के लिए श्री गणेश की दाईं सूंड या बाईं सूंड ...!

श्री ऋग्वेद और श्री विष्णुपुराण के अनुशार शुभ प्रसगो के अनुसार गनपति के पूजन किया जाता है तो कौनसी सूंड का गणपति पूजन अर्चन के लिए श्री गणेश की दाईं सूंड या बाईं सूंड ।

अक्सर श्री गणेश की प्रतिमा लाने से पूर्व या घर में स्थापना से पूर्व यह सवाल सामने आता है ।

कि श्री गणेश की कौन सी सूंड होनी चाहिए दाईं सूंड या बाईं सूंड  यानी किस तरफ सूंड वाले श्री गणेश पूजनीय हैं? 

श्री दाईं सूंड गणपति : 

श्री ऋग्वेद और श्री भविष्यपुराण के अनुसार दाईं सूंड गणपति मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं। 

यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू। 

दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली व दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है। 

जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है।
 
इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को 'जागृत' माना जाता है। 

ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांडांतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है। 

उससे सात्विकता बढ़ती है व दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता।
 
श्री भविष्यपुराण श्री ऋग्वेद के अनुसार दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती ।

क्योंकि तिर्य्‌क ( रज ) लहरियां दक्षिण दिशा से आती हैं। 

दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप - पुण्य का हिसाब रखा जाता है। 

इस लिए यह बाजू अप्रिय है। 

यदि दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें या सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखें तो जैसी अनुभूति मृत्यु के पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्था में होती है ।

वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा करने से होने लगती है। 

विधि विधान से पूजन ना होने पर यह श्री गणेश रुष्ट हो जाते हैं।

 श्री बाईं सूंड गणपति : 

श्री ऋग्वेद श्री सामवेद और विष्णुपुराण के अनुसार श्री गणपति के मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहते हैं। 

वाम यानी बाईं ओर या उत्तर दिशा। 

बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है। 

यह शीतलता प्रदान करती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक है, आनंददायक है।

श्री ऋग्वेद , श्री विष्णुपुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार हर धर में शुभ पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति रखी जाती है। 

इसकी पूजा प्रायिक पद्धति से की जाती है। 

इन  गणेश जी को गृहस्थ जीवन के लिए शुभ माना गया है। 

इन्हें विशेष विधि विधान की जरुरत नहीं लगती। 

यह शीघ्र प्रसन्न होते हैं। 

थोड़े में ही संतुष्ट हो जाते हैं। 

त्रुटियों पर क्षमा करते हैं।


         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
श्री सरस्वति ज्योतिष कार्यालय
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(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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