|| जय श्री कृष्णा *भगवान विष्णु के परमभक्त* *शेषनाग जी के रहस्य-*,* श्रीकृष्ण ही मदनमोहन है *,* सत्य को छुपाने का परिणाम ||*
राधा कृष्ण की पहली मुलाकात और कैसे शुरू हुआ इनका प्रेम।
*भगवान विष्णु के परमभक्त*
*शेषनाग जी के रहस्य-*
शेष सहस्रसीस जग कारन।
जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर।
कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥
भावार्थ:-
जो हजार सिर वाले और जगत के कारण ( हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले ) शेषजी हैं,
जिन्होंने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानंदन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें।
हमारे हिन्दू सनातन धर्म में भगवान विष्णु को पालनकर्ता कहा गया है, जगत के पालनकर्ता भगवान विष्णु के दो रूप कहे गए है एक तो उनका सहज एवं सरल स्वभाव है तथा अपने दूसरे रूप में भगवान विष्णु कालस्वरूप शेषनाग के ऊपर बैठे है।
भगवान विष्णु का यह स्वरूप थोड़ा भयामह अवश्य है परन्तु भगवान विष्णु की लीलाएं अपरम्पार है।
भगवान विष्णु अनेक शक्तिशाली शक्तियों के स्वामी है उनके इन्ही में से एक अत्यधिक शक्तिशाली शक्ति है शेषनाग।
आज हम आपको शेषनाग और नागो से जुड़े अनेक ऐसे रहस्यों के बारे में बताने जा रहे है जो सायद ही अपने पहले कभी सुने हो।
नागराज अनन्त को ही शेषनाग कहा गया है।
शेषनाग भगवान विष्णु को अत्यन्त प्रिय है तथा उन्हें उनका भगवत्स्वरूप कहा जाता है. प्रलयकाल के दौरान जब नई सृष्टि का निर्माण होता है तो उसमे जो शेष अवक्त शेष रह जाता है, हिंदू धर्मकोश के अनुसार वे उसी के प्रतीक माने गए हैं।
भविष्य पुराण में इनका वर्णन एक हजार फन वाले सर्प के रूप में किया गया है।
ये जीव तत्व के अधिष्ठाता हैं और ज्ञान व बल नाम के गुणों की इनमें प्रधानता होती है।
इनका आवास पाताल लोक के मूल में माना गया है, प्रलयकाल में इन्हीं के मुखों से भयंकर अग्नि प्रकट होकर पूरे संसार को भस्म करती है।
ये भगवान विष्णु के पलंग के रूप में क्षीर सागर में रहते हैं और अपने हजार मुखों से भगवान का गुणानुवाद करते हैं।
भक्तों के सहायक और जीव को भगवान की शरण में ले जाने वाले भी शेष ही हैं।
क्योंकि इनके बल, पराक्रम और प्रभाव को गंधर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, नाग आदि भी नही जान पाते, इसलिए इन्हें अनंत भी कहा गया है।
ये पंचविष ज्योति सिद्धांत के प्रवर्तक माने गए हैं।
भगवान के निवास शैया, आसन, पादुका, वस्त्र,पाद पीठ, तकिया और छत्र के रूप में शेष यानी अंगीभूत होने के कारण् इन्हें शेष कहा गया है।
लक्ष्मण और बलराम इन्हीं के अवतार हैं जो राम व कृष्ण लीला में भगवान के परम सहायक बने।
हमारे जीवन का हर क्षण अनेको जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों को अपने अंदर समेटे हुए है, तथा सबसे अत्यधिक एवं महत्वपूर्ण दायित्व जो मनुष्य का होता है वह है अपने परिवार तथा समाज के प्रति।
एक वास्तविकता यह भी है की इन जिम्मेदारियों को पूरा करने में हमें अनेको परशानियों का सामना करना पड़ता है और शेषनाग रूपी परेशानियों को अपने कैद में कर भगवान सम्पूर्ण समाज को यही संदेश देना चाहते है की चाहे परिस्थितियां कैसी भी हो परन्तु हमें सदैव अपने परेशनियों को वश में कर सरल एवं प्रसन्न रहना चाहिए।
पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीश्वेतवाराह कल्प में सृष्टि सृजन के आरंभ में ही एकबार किसी कारणवश ब्रह्मा जी को बड़ा क्रोध आया जिनके परिणाम स्वरूप उनके आंसुओं की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिरीं और उनकी परिणति नागों के रूप में हुई।
इन नागों में प्रमुख रूप से अनन्त, कुलिक, वासुकि, तक्षक, काक्रोटम, महापद्य्म,पद्द्य्म, शंखपाल है।
पना पुत्र मानते हुए ब्रह्मा जी ने इन्हें ग्रहों के बराबर ही शक्तिशाली बनाया।
इनमें अनंतनाग सूर्य के, वासुकि चंद्रमा के, तक्षक मंगल के, कर्कोटक बुध के,पद्म बृहस्पति के, महापद्म शुक्र के,कुलिक और शंखपाल शनि ग्रह के रूप हैं !
ये सभी नाग भी सृष्टि संचालन में ग्रहों के समान ही भूमिका निभाते हैं।
इनसे गणेश और रूद्र यज्ञोपवीत के रूप में, महादेव श्रृंगार के रूप में तथा विष्णु जी शैय्या रूप में सेवा लेते हैं।
ये शेषनाग रूप में स्वयं पृथ्वी को अपने फन पर धारण करते हैं. वैदिक ज्योतिष में राहु को काल और केतु को सर्प माना गया है।
अतः नागों की पूजा करने से मनुष्य की जन्म कुंडली में राहु - केतु जन्य सभी दोष तो शांत होते ही हैं, इनकी पूजा से कालसर्प दोष और विषधारी जीवो के दंश का भय नहीं रहता।
परिवार में वंश वृद्धि, सुख - शांति के लिए नए घर का निर्माण करते समय नींव में चांदी का बना नाग - नागिन का जोड़ा रखा जाता है।
|| परमभक्त शेषनाग की जय हो ||
|| श्रीकृष्ण ही मदनमोहन है ||
समस्त शक्तियाँ शक्तिमान के आधीन रहती हैं।
यद्यपि भक्ति भगवान की शक्ति है, तथापि वह इस नियम का पालन नहीं करती।
भगवान श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं वे सर्व शक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ हैं।
परंतु भक्ति इतनी शक्तिमती है कि अपने ही शक्तिमान श्रीकृष्ण को भी वशीभूत कर लेती है।
भगवान की आनंद - शक्ति को ह्लादिनी शक्ति कहते हैं।
ह्लादिनी शक्ति का सारभूत तत्व भक्ति या प्रेम है।
भक्ति की पराकाष्ठा का मूर्तिमान स्वरूप स्वयं श्री राधा हैं ।
श्री कृष्ण मदन मोहन हैं ।
जिसका अर्थ है कामदेव को मोहित करने वाला।
त्रैलोक्य में सबसे रूपवान कामदेव होता है।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक कामदेव हैं।
श्री कृष्ण समस्त ब्रह्माण्डों के समस्त कामदेवों को मोहित कर लेते हैं।
एक बार कामदेव ने श्री कृष्ण की परीक्षा लेने का निश्चय किया।
कामदेव ने वार करने के लिए वह समय चुना जब श्री कृष्ण गोपियों से घिरे हुए उन्हें अपनी रूप माधुरी, मुरली माधुरी, प्रेम माधुरी, लीला माधुरी का पान करा रहे थे।
जैसे ही कामदेव की दृष्टि श्री कृष्ण पर पड़ी, कामदेव को श्रीकृष्ण पर वार करने की विस्मृति हो गई।
उल्टे कामदेव स्वयं मंत्रमुग्ध हो कर चित्रलिखि सी अवस्था में एक टक निहारते रहे। इस प्रकार श्री कृष्ण को नाम मिला मदन मोहन। किंतु श्री राधा तो श्री कृष्ण को भी मोहित कर लेती हैं।
अतः श्री राधा को मदन मोहन मोहिनी कहा जाता है जिसका अर्थ है -
कामदेव को मोहित करने वाले को भी मोहित करने वाली।
राधा मेरी गति मति, राधा पद मेरी रति ।
राधा पति मेरी गति, वारौं कोटि रति पति ।
( ब्रज रस माधुरी - )
|| मदनमोहन जी की जय हो ||
*|| सत्य को छुपाने का परिणाम ||*
कर्ण को भगवान परशुराम से दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य मिला था।
लेकिन परशुराम ने यह शिक्षा केवल क्षत्रियों को देने का वचन लिया था।
कर्ण, जो कि सूतपुत्र ( रथ चालक का बेटा ) थे, ने झूठ बोलकर स्वयं को क्षत्रिय बताया और परशुराम के शिष्य बने।
कर्ण ने परशुराम से हर शस्त्र की शिक्षा अत्यंत निष्ठा और परिश्रम से प्राप्त की।
एक दिन, परशुराम थककर कर्ण की गोद में सो गए।
उसी समय, एक जहरीले कीड़े ने कर्ण की जांघ पर काट लिया।
कीड़े का डंक इतना गहरा था कि कर्ण की त्वचा से खून बहने लगा, लेकिन उन्होंने परशुराम की नींद न खराब करने के लिए एक शब्द भी नहीं कहा।
जब परशुराम की नींद खुली, तो उन्होंने देखा कि कर्ण की जांघ से रक्त बह रहा है।
उन्होंने यह देखकर पूछा, " तुमने मुझे जगाया क्यों नहीं ? " कर्ण ने उत्तर दिया, " गुरुदेव, आपकी सेवा मेरा धर्म है।
मैं आपकी नींद खराब नहीं करना चाहता था। "
परशुराम को यह समझते देर नहीं लगी कि कर्ण कोई क्षत्रिय नहीं है, क्योंकि इतना कष्ट सहने की शक्ति केवल एक सामान्य मनुष्य में हो सकती थी।
उन्होंने कर्ण को शाप दिया कि जब उसे अपने अर्जित ज्ञान की सबसे अधिक आवश्यकता होगी, तब वह सब भूल जाएगा।
शिक्षा
यह कहानी न केवल कर्ण के साहस और गुरु भक्ति को दर्शाती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि सत्य को छुपाने के परिणाम कितने कठोर हो सकते हैं।
कर्ण का जीवन संघर्षों और बलिदानों से भरा हुआ था, लेकिन उनकी दृढ़ता और सम्मान ने उन्हें महाभारत के सबसे प्रेरणादायक पात्रों में से एक बना दिया।
|| भगवान परशुराम जी की जय हो ||
राधा कृष्ण की पहली मुलाकात
और कैसे शुरू हुआ इनका प्रेम।
देवी राधा को पुराणों में श्री कृष्ण की शश्वत जीवनसंगिनी बताया गया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में बताया गया है कि राधा और कृष्ण का प्रेम इस लोक का नहीं बल्कि पारलौक है।
सृष्टि के आरंभ से और सृष्टि के अंत होने के बाद भी दोनों नित्य गोलोक में वास लेकिन लौकिक जगत में श्रीकृष्ण और राधा का प्रेम मानवी रुप में था और इस रुप में इनके मिलन और प्रेम की शुरुआत की बड़ी ही रोचक कथा है।
एक कथा के अनुसार देवी राधा और श्री कृष्ण की पहली मुलाकात उस समय हुई थी जब देवी राधा ग्यारह माह की थी और भगवान श्री कृष्ण सिर्फ एक दिन के थे।
मौका था श्री कृष्ण का जन्मोत्सव।मान्यता है कि देवी राधा भगवान श्री कृष्ण से ग्यारह माह बड़े थी और कृष्ण के जन्मोत्सव पर अपनी माता कीर्ति के साथ नंदगांव आई थी यहां श्री कृष्ण पालने में झूल रहे थे और राधा माता की गोद में थी।
इस तरह दूसरी बार मिले थे भगवान श्री कृष्ण और देवी राधा।
भगवान श्री कृष्ण और देवी राधा की दूसरी मुलाकात लौकिक न होकर अलौकिक थी।
इस संदर्भ में गर्गसंहिता में एक कथा मिलती है।
यह उस समय की बात है जब भगवान श्री कृष्ण नन्हे बालक थे।
उन दिनों एक बार एक बार नंदराय जी बालक श्री कृष्ण को लेकर भांडीर वन से गुजर रहे थे।
उसे समय आचानक एक ज्योति प्रकट हुई जो देवी राधा के रुप में दृश्य हो गई।
देवी राधा के दर्शन पाकर नंदराय जी आनंदित हो गए।
राधा ने कहा कि श्री कृष्ण को उन्हें सौंप दें, नंदराय जी ने श्री कृष्ण को राधा जी की गोद में दे दिया।
श्री कृष्ण बाल रूप त्यागकर किशोर बन गए।
तभी ब्रह्मा जी भी वहां उपस्थित हुए।
ब्रह्मा जी ने कृष्ण का विवाह राधा से करवा दिया।
कुछ समय तक कृष्ण राधा के संग इसी वन में रहे।
फिर देवी राधा ने कृष्ण को उनके बाल रूप में नंदराय जी को सौंप दिया।
पंडारामा प्रभु ( राज्यगुरु )
*|| जय श्री राधे कृष्ण ||*