संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण , श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा।
संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
श्रीअयोध्या-माहात्म्य
गोप्रतारतीर्थकी महिमा और श्रीरामके परमधामगमनकी कथा...(भाग 2)
Shiva Ling de 2.25" con latón Sheshnaag Jalaheri de 3.5" (Narmadeshwar) ~I-4898
ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने शेष वानरोंसे कहा- 'तुम सब लोग मेरे साथ चलो।'
तदनन्तर रात बीतनेपर जब प्रातःकाल हुआ, तब विशालवक्ष और कमलदलके समान नेत्रोंवाले महाबाहु श्रीराम अपने पुरोहित वशिष्ठजीसे बोले- 'भगवन् ।
प्रज्वलित अग्निहोत्रकी अग्नि आगे चले।
वाजपेय यज्ञ भी और अतिरात्र यज्ञकी अग्नि आगे-आगे ले जायी जाय।'
तब महातेजस्वी वशिष्ठजीने अपने मनमें सब बातोंका निश्चय करके विधिपूर्वक महाप्रस्थान-कालोचित कर्म किया।
तदनन्तर ब्रह्मचर्यपूर्वक रेशमी वस्त्र धारण किये भगवान् श्रीराम दोनों हाथोंमें कुश लेकर महाप्रस्थानको उद्यत हुए।
वे नगरसे बाहर निकलकर शुभया अशुभ कोई वचन नहीं बोले।
( भगवान् श्रीरामके वामपार्श्वमें हाथमें कमल लिये लक्ष्मीजी खड़ी हुईं और दाहिने पार्श्वमें विशाल नेत्रोंवाली लज्जा देवी उपस्थित हुईं।
आगे मूर्तिमान् व्यवसाय उद्योग एवं दृढ़निश्चय ) विद्यमान था।
धनुष, प्रत्यंचा और बाण आदि नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र पुरुषशरीर धारण करके भगवान्के पीछे-पीछे चले।
ब्राह्मणरूपधारी वेद वामभागमें और गायत्री दक्षिण भागमें स्थित हुई।
ॐकार, वषट्कार सभी श्रीरामचन्द्रजीके साथ चले।
ऋषि, महात्मा और पर्वत सभी स्वर्गद्वारपर उपस्थित भगवान् श्रीरामके पीछे-पीछे चले।
अन्तःपुरकी स्त्रियाँ वृद्ध, बालक, दासी और द्वाररक्षक सबको साथ लेकर श्रीरामचन्द्रजीके साथ प्रस्थित हुईं।
रनिवासकी स्त्रियोंको साथ ले शत्रुघ्नसहित भरत भी चले।
रघुकुलसे अनुराग रखनेवाले महात्मा ब्राह्मण स्त्री, पुत्र और अग्निहोत्रसहित जाते हुए श्रीरामचन्द्रजीके पीछे-पीछे चले।
मन्त्री भी सेवक, पुत्र, बन्धु-बान्धव तथा अनुगामियोंसहित श्रीरामचन्द्रजीके पीछे गये।
भगवान्के गुणोंसे सतत प्रसन्न रहनेवाली अयोध्याकी सारी प्रजा हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे घिरी हुई श्रीरामचन्द्रजीका अनुगमन करनेके लिये घरसे चल दी।
उस समय वहाँ कोई दीन, भयभीत अथवा दुःखी नहीं था, सभी हर्ष और आनन्दमें मग्न थे।
अयोध्यामें उस समय कोई अत्यन्त सूक्ष्म प्राणी भी ऐसा नहीं था जो स्वर्गद्वारके समीप खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीके पीछे न गया हो।
वहाँ से आधा योजन दक्षिण जाकर भगवान् पश्चिमकी ओर मुख करके चलने लगे।
आगे जाकर रघुनाथजीने पुण्यसलिला सरयूका दर्शन किया।
उस समय सब देवताओं तथा महात्मा ऋषियोंसे घिरे हुए लोकपितामह ब्रह्माजी श्रीरामचन्द्रजीके समीप आये।
उनके साथ सौ कोटि दिव्य विमान भी थे।
वे उस समय आकाशको सब ओरसे तेजोमय एवं प्रकाशित कर रहे थे।
वहाँ परम पवित्र सुगन्धित एवं सुखदायिनी वायु चलने लगी।
श्रीरामचन्द्रजीने अपने चरणोंसे सरयूजीके जलका स्पर्श किया।
क्रमशः...
शेष अगले अंक में जारी
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श्रीमहाभारतम्
।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।
(आस्तीकपर्व)
चतुर्दशोऽध्यायः
जरत्कारु द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण...(दिन 87)
सौतिरुवाच
ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः । महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ।। १ ।।
उग्रश्रवाजी कहते हैं- तदनन्तर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण भार्याकी प्राप्तिके लिये इच्छुक होकर पृथ्वीपर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नीकी उपलब्धि नहीं हुई ।। १ ।।
स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन् । चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ।। २ ।।
एक दिन किसी वनमें जाकर विप्रवर जरत्कारुने पितरोंके वचनका स्मरण करके कन्याकी भिक्षाके लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी - 'कोई भिक्षारूपमें कन्या दे जाय' ।। २ ।।
तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा । न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ।। ३ ।।
इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिनको लेकर मुनिकी सेवामें उपस्थित हो गये और बोले, 'यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।' किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसे नामवाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया ।। ३ ।।
सनाम्नीं चोद्यतां भार्या गृह्णीयामिति तस्य हि । मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः ।। ४ ।।
उन महात्मा जरत्कारुका मन इस बातपर स्थिर हो गया था कि मेरे-जैसे नामवाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ ।। ४ ।।
तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः । किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ।। ५ ।।
ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारुने पूछा- 'नागराज ! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिनका क्या नाम है?' ।। ५ ।।
वासुकिरुवाच
जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम । प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम् । त्वदर्थं रक्षिता पूर्व प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ।। ६ ।।
वासुकिने कहा- जरत्कारो ! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नामसे ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटिप्रदेशवाली कुमारीको पत्नी बनानेके लिये मैंने स्वयं आपकी सेवामें समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! यह बहुत पहलेसे आपहीके लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें ।। ६ ।।
एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम् । स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ७ ।।
ऐसा कहकर वासुकिने वह सुन्दरी कन्या मुनिको पत्नीरूपमें प्रदान की। मुनिने भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उसका पाणिग्रहण किया ।। ७ ।।
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः।। १४ ।।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकिकी बहिनके वरणसे सम्बन्ध रखनेवाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १४ ।।
क्रमशः...
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🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷
पाशुपत योग का विस्तार से निरूपण....(भाग 1)
ऋषि बोले- हे सूतजी ! किस योग से योगियों को अणमादिक सिद्धि और सत्पुरुषों को गुण प्राप्ति होती है सो विस्तार से हमसे कहिये।
सूतजी बोले- अच्छा अब मैं परम दुर्लभ योग को कहूँगा।
आदि में चित्त में पाँच प्रकार से शिव की स्थापना कर स्मरण करना चाहिए।
सोम, सूर्य और अग्नि से युक्त चित्त में पद्मासन की कल्पना करनी चाहिए तथा छब्बीस शक्तियों से युक्त उस कमल के मध्य में उमा सहित शंकर का १६ प्रकार से और आठ प्रकार तथा १२ प्रकार से स्मरण करे इसी से अणुमादिक शक्ति प्राप्त होती है अन्यथा कर्मों से नहीं। अणिमा, लघिमा, महिमा प्राप्ति होती है।
इन अणमादिक शक्तियों से युक्त योगी को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मन उसकी इच्छा से प्रवृत्त होते हैं।
अपनी इच्छा से प्रवृत्त नहीं होते।
ऐसा योगी न जलता है, न मरता है, न छेदा जा सकता है।
वह अपवर्ग नाम वाले परम दुर्लभ पद को प्राप्त होता है।
ऐसा यह पाशुपत योग जानना चाहिए।
ब्रह्म का ही सदा सेवन करना चाहिए।
ब्रह्म ही परम सुख है।
वह हाथ पैर से रहित, जीभ मुख से रहित अत्यन्त सूक्ष्म है, वह बिना आँखों के ही देखता है, बिना कान के सुनता है तथा सबको देखता है, सब को जानता है उसी को महान पुरुष कहते हैं।
जैसे पवन सब जगह विचरण करता है वैसे ही वह सब पुरी ( शरीर ) में रहने से पुरुष कहलाता है।
वही अपने धर्म को त्यागकर माया के वशीभूत हो शुक्र शोणित होकर गर्भ में वास करता है और नौवें महीने में उत्पन्न होकर पाप कर्म रत होकर नर्क के भोगों को भोगता है।
इसी प्रकार जीव अपने कर्मों के फल से नाना प्रकार के भोगों को भोगते हैं।
अकेला ही अपने कर्मों को भोगता है और अकेला ही सबको छोड़कर जाता है।
इस लिये सदैव सुकृत ही करने चाहिए।
जीव के जाने पर उसके पीछे कोई नहीं चलता।
बस उसका किया हुआ कर्म ही उसके पीछे चलता है।
तामस रूपी घोर संसार छः प्रकार का उसको प्राप्त होता है।
मनुष्य के पशुपने को प्राप्त होता है।
पशु से मृगत्व को, मृगत्व से पक्षी भाव को, पक्षी भाव से सर्प आदि योनि को पाता है।
सर्प आदि से स्थावर ( वृक्ष ) आदि की योनि को पाता है।
इस प्रकार यह जीव मनुष्य से लेकर वृक्षों तक की अनेक योनियों में घूमता रहता है।
जैसे कुम्हार का चाक घूमता है वैसे ही घूमता है।
इस लिये संसार के भय से पीड़ित होकर धर्म की आराधना करनी चाहिए।
जिससे वह संसार को तर सकता है।
अतः देवेश तीनों लोकों के नायक रुद्र का ध्यान करके हृदयस्थ वैश्वानर में पंचहुति करनी चाहिए।
पंचाहुति के मन्त्र निम्न प्रकार हैं -
प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा तथा समानाय स्वाहा के द्वारा पाँच आहुति करके पुनः जल पान और भोजन करना चाहिए।
इसके बाद प्रार्थना करे कि सब जगत के स्वामी हे प्रभो !
आप प्रसन्न होइये।
देवताओं में श्रेष्ठ आप ही हो।
हमारा हवन किया हुआ यह अन्न आपका ही स्वरूप है।
इस प्रकार रु करे।
यह योगाचार ब्रह्मा ने कहा है इसे जानना चाहिए।
इसे पढ़े व सुनावे तो परम गति को प्राप्त होता है।
क्रमशः शेष अगले अंक में...
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द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा।
नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है।
यह द्वारका, गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है।
यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है।
यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है।
रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है।
भगवान् शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है।
इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है।
कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान् शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।
एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्।
सर्वान् कामानियाद् धीमान् महापातकनाशनम्॥
इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में पुराणों यह कथा वर्णित है-
सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था।
वह भगवान् शिव का अनन्य भक्त था।
वह निरन्तर उनकी आराधना, पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था।
अपने सारे कार्य वह भगवान् शिव को अर्पित करके करता था।
मन, वचन, कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था।
उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था
उसे भगवान् शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी।
वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे।
एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था।
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उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया।
उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया।
सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान् शिव की पूजा-आराधना करने लगा।
अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा।
दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा।
सुप्रिय उस समय भगवान् शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बंद किए बैठा था।
उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यन्त भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा-
'अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बंद कर इस समय यहाँ कौन- से उपद्रव और षड्यन्त्र करने की बातें सोच रहा है?'
उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई।
अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा।
उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया।
सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।
वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान् शिव से प्रार्थना करने लगा।
उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान् शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे।
उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।
उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया।
इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया।
भगवान् शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु