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Tuesday, May 27, 2025

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण , श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा।

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण , श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा।

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 


श्रीअयोध्या-माहात्म्य


गोप्रतारतीर्थकी महिमा और श्रीरामके परमधामगमनकी कथा...(भाग 2) 




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ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने शेष वानरोंसे कहा- 'तुम सब लोग मेरे साथ चलो।' 

तदनन्तर रात बीतनेपर जब प्रातःकाल हुआ, तब विशालवक्ष और कमलदलके समान नेत्रोंवाले महाबाहु श्रीराम अपने पुरोहित वशिष्ठजीसे बोले- 'भगवन् । 

प्रज्वलित अग्निहोत्रकी अग्नि आगे चले। 

वाजपेय यज्ञ भी और अतिरात्र यज्ञकी अग्नि आगे-आगे ले जायी जाय।' 

तब महातेजस्वी वशिष्ठजीने अपने मनमें सब बातोंका निश्चय करके विधिपूर्वक महाप्रस्थान-कालोचित कर्म किया। 

तदनन्तर ब्रह्मचर्यपूर्वक रेशमी वस्त्र धारण किये भगवान् श्रीराम दोनों हाथोंमें कुश लेकर महाप्रस्थानको उद्यत हुए। 

वे नगरसे बाहर निकलकर शुभया अशुभ कोई वचन नहीं बोले। 

( भगवान् श्रीरामके वामपार्श्वमें हाथमें कमल लिये लक्ष्मीजी खड़ी हुईं और दाहिने पार्श्वमें विशाल नेत्रोंवाली लज्जा देवी उपस्थित हुईं। 

आगे मूर्तिमान् व्यवसाय उद्योग एवं दृढ़निश्चय ) विद्यमान था। 

धनुष, प्रत्यंचा और बाण आदि नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र पुरुषशरीर धारण करके भगवान्‌के पीछे-पीछे चले। 

ब्राह्मणरूपधारी वेद वामभागमें और गायत्री दक्षिण भागमें स्थित हुई। 

ॐकार, वषट्‌कार सभी श्रीरामचन्द्रजीके साथ चले। 

ऋषि, महात्मा और पर्वत सभी स्वर्गद्वारपर उपस्थित भगवान् श्रीरामके पीछे-पीछे चले। 

अन्तःपुरकी स्त्रियाँ वृद्ध, बालक, दासी और द्वाररक्षक सबको साथ लेकर श्रीरामचन्द्रजीके साथ प्रस्थित हुईं। 

रनिवासकी स्त्रियोंको साथ ले शत्रुघ्नसहित भरत भी चले। 

रघुकुलसे अनुराग रखनेवाले महात्मा ब्राह्मण स्त्री, पुत्र और अग्निहोत्रसहित जाते हुए श्रीरामचन्द्रजीके पीछे-पीछे चले। 

मन्त्री भी सेवक, पुत्र, बन्धु-बान्धव तथा अनुगामियोंसहित श्रीरामचन्द्रजीके पीछे गये। 

भगवान्‌के गुणोंसे सतत प्रसन्न रहनेवाली अयोध्याकी सारी प्रजा हृष्ट-पुष्ट मनुष्योंसे घिरी हुई श्रीरामचन्द्रजीका अनुगमन करनेके लिये घरसे चल दी। 

उस समय वहाँ कोई दीन, भयभीत अथवा दुःखी नहीं था, सभी हर्ष और आनन्दमें मग्न थे। 

अयोध्यामें उस समय कोई अत्यन्त सूक्ष्म प्राणी भी ऐसा नहीं था जो स्वर्गद्वारके समीप खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीके पीछे न गया हो। 

वहाँ से आधा योजन दक्षिण जाकर भगवान् पश्चिमकी ओर मुख करके चलने लगे। 

आगे जाकर रघुनाथजीने पुण्यसलिला सरयूका दर्शन किया। 

उस समय सब देवताओं तथा महात्मा ऋषियोंसे घिरे हुए लोकपितामह ब्रह्माजी श्रीरामचन्द्रजीके समीप आये। 

उनके साथ सौ कोटि दिव्य विमान भी थे। 

वे उस समय आकाशको सब ओरसे तेजोमय एवं प्रकाशित कर रहे थे। 

वहाँ परम पवित्र सुगन्धित एवं सुखदायिनी वायु चलने लगी। 

श्रीरामचन्द्रजीने अपने चरणोंसे सरयूजीके जलका स्पर्श किया। 


क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी





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श्रीमहाभारतम् 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


(आस्तीकपर्व)


चतुर्दशोऽध्यायः 


जरत्कारु द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण...(दिन 87)


सौतिरुवाच


ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः । महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत ।। १ ।।


उग्रश्रवाजी कहते हैं- तदनन्तर वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण भार्याकी प्राप्तिके लिये इच्छुक होकर पृथ्वीपर सब ओर विचरने लगे; किंतु उन्हें पत्नीकी उपलब्धि नहीं हुई ।। १ ।।


स कदाचिद् वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन् । चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव ।। २ ।।


एक दिन किसी वनमें जाकर विप्रवर जरत्कारुने पितरोंके वचनका स्मरण करके कन्याकी भिक्षाके लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी - 'कोई भिक्षारूपमें कन्या दे जाय' ।। २ ।।


तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा । न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् ।। ३ ।। 


इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिनको लेकर मुनिकी सेवामें उपस्थित हो गये और बोले, 'यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।' किंतु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे-जैसे नामवाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया ।। ३ ।।


सनाम्नीं चोद्यतां भार्या गृह्णीयामिति तस्य हि । मनो निविष्टमभवज्जरत्कारोर्महात्मनः ।। ४ ।।


उन महात्मा जरत्कारुका मन इस बातपर स्थिर हो गया था कि मेरे-जैसे नामवाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसीको पत्नीरूपमें ग्रहण करूँ ।। ४ ।।


तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः । किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम ।। ५ ।।


ऐसा निश्चय करके परम बुद्धिमान् एवं महान् तपस्वी जरत्कारुने पूछा- 'नागराज ! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिनका क्या नाम है?' ।। ५ ।।


वासुकिरुवाच


जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम । प्रतिगृह्णीष्व भार्यार्थे मया दत्तां सुमध्यमाम् । त्वदर्थं रक्षिता पूर्व प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम ।। ६ ।।


वासुकिने कहा- जरत्कारो ! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नामसे ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटिप्रदेशवाली कुमारीको पत्नी बनानेके लिये मैंने स्वयं आपकी सेवामें समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ ! यह बहुत पहलेसे आपहीके लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें ।। ६ ।।


एवमुक्त्वा ततः प्रादाद् भार्यार्थे वरवर्णिनीम् । स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा ।। ७ ।।


ऐसा कहकर वासुकिने वह सुन्दरी कन्या मुनिको पत्नीरूपमें प्रदान की। मुनिने भी शास्त्रीय विधिके अनुसार उसका पाणिग्रहण किया ।। ७ ।।


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि वासुकिस्वसृवरणे चतुर्दशोऽध्यायः।। १४ ।।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें वासुकिकी बहिनके वरणसे सम्बन्ध रखनेवाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १४ ।।


क्रमशः...




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🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷


पाशुपत योग का विस्तार से निरूपण....(भाग 1)

    

ऋषि बोले- हे सूतजी ! किस योग से योगियों को अणमादिक सिद्धि और सत्पुरुषों को गुण प्राप्ति होती है सो विस्तार से हमसे कहिये।


सूतजी बोले- अच्छा अब मैं परम दुर्लभ योग को कहूँगा। 

आदि में चित्त में पाँच प्रकार से शिव की स्थापना कर स्मरण करना चाहिए। 

सोम, सूर्य और अग्नि से युक्त चित्त में पद्मासन की कल्पना करनी चाहिए तथा छब्बीस शक्तियों से युक्त उस कमल के मध्य में उमा सहित शंकर का १६ प्रकार से और आठ प्रकार तथा १२ प्रकार से स्मरण करे इसी से अणुमादिक शक्ति प्राप्त होती है अन्यथा कर्मों से नहीं। अणिमा, लघिमा, महिमा प्राप्ति होती है। 

इन अणमादिक शक्तियों से युक्त योगी को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मन उसकी इच्छा से प्रवृत्त होते हैं। 

अपनी इच्छा से प्रवृत्त नहीं होते। 

ऐसा योगी न जलता है, न मरता है, न छेदा जा सकता है। 

वह अपवर्ग नाम वाले परम दुर्लभ पद को प्राप्त होता है। 

ऐसा यह पाशुपत योग जानना चाहिए।


ब्रह्म का ही सदा सेवन करना चाहिए। 

ब्रह्म ही परम सुख है। 

वह हाथ पैर से रहित, जीभ मुख से रहित अत्यन्त सूक्ष्म है, वह बिना आँखों के ही देखता है, बिना कान के सुनता है तथा सबको देखता है, सब को जानता है उसी को महान पुरुष कहते हैं। 

जैसे पवन सब जगह विचरण करता है वैसे ही वह सब पुरी ( शरीर ) में रहने से पुरुष कहलाता है। 

वही अपने धर्म को त्यागकर माया के वशीभूत हो शुक्र शोणित होकर गर्भ में वास करता है और नौवें महीने में उत्पन्न होकर पाप कर्म रत होकर नर्क के भोगों को भोगता है। 

इसी प्रकार जीव अपने कर्मों के फल से नाना प्रकार के भोगों को भोगते हैं। 

अकेला ही अपने कर्मों को भोगता है और अकेला ही सबको छोड़कर जाता है। 

इस लिये सदैव सुकृत ही करने चाहिए।


जीव के जाने पर उसके पीछे कोई नहीं चलता। 

बस उसका किया हुआ कर्म ही उसके पीछे चलता है। 

तामस रूपी घोर संसार छः प्रकार का उसको प्राप्त होता है। 

मनुष्य के पशुपने को प्राप्त होता है। 

पशु से मृगत्व को, मृगत्व से पक्षी भाव को, पक्षी भाव से सर्प आदि योनि को पाता है। 

सर्प आदि से स्थावर ( वृक्ष ) आदि की योनि को पाता है। 

इस प्रकार यह जीव मनुष्य से लेकर वृक्षों तक की अनेक योनियों में घूमता रहता है।


जैसे कुम्हार का चाक घूमता है वैसे ही घूमता है। 

इस लिये संसार के भय से पीड़ित होकर धर्म की आराधना करनी चाहिए। 

जिससे वह संसार को तर सकता है।


अतः देवेश तीनों लोकों के नायक रुद्र का ध्यान करके हृदयस्थ वैश्वानर में पंचहुति करनी चाहिए।


पंचाहुति के मन्त्र निम्न प्रकार हैं - 

प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा तथा समानाय स्वाहा के द्वारा पाँच आहुति करके पुनः जल पान और भोजन करना चाहिए। 

इसके बाद प्रार्थना करे कि सब जगत के स्वामी हे प्रभो ! 

आप प्रसन्न होइये।


देवताओं में श्रेष्ठ आप ही हो। 

हमारा हवन किया हुआ यह अन्न आपका ही स्वरूप है। 

इस प्रकार रु करे। 

यह योगाचार ब्रह्मा ने कहा है इसे जानना चाहिए। 

इसे पढ़े व सुनावे तो परम गति को प्राप्त होता है।


क्रमशः शेष अगले अंक में...




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द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा।


नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। 

यह द्वारका, गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है। 

यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। 

हिन्दू धर्म  के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। 

यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। 

रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है। 


भगवान्‌ शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। 

इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। 

कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।


एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्‌। 

सर्वान्‌ कामानियाद् धीमान्‌ महापातकनाशनम्‌॥


इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में पुराणों यह कथा वर्णित है-


सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था। 

वह भगवान्‌ शिव का अनन्य भक्त था। 

वह निरन्तर उनकी आराधना, पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था। 

अपने सारे कार्य वह भगवान्‌ शिव को अर्पित करके करता था। 

मन, वचन, कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। 

उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था


उसे भगवान्‌ शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। 

वह निरन्तर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। 

एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था। 




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उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया। 

उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया। 

सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान्‌ शिव की पूजा-आराधना करने लगा।


अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। 

दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा। 

सुप्रिय उस समय भगवान्‌ शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बंद किए बैठा था।


उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यन्त भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा- 

'अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बंद कर इस समय यहाँ कौन- से उपद्रव और षड्यन्त्र करने की बातें सोच रहा है?' 


उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। 

अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा। 

उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया। 

सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।


वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान्‌ शिव से प्रार्थना करने लगा। 

उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान्‌ शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे। 


उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।


उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया। 

इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। 

भगवान्‌ शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।  

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु



महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई ? , सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा , एक ऐसा मंदिर जिसे इंसानों ने नहीं बल्कि भूतों ने बनाया था ?

महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई ? , सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा , एक ऐसा मंदिर जिसे इंसानों ने नहीं बल्कि भूतों ने बनाया था ?


महामृत्युंजय मंत्र की रचना कैसे हुई?


शिवजी के अनन्य भक्त मृकण्ड ऋषि संतानहीन होने के कारण दुखी थे. विधाता ने उन्हें संतान योग नहीं दिया था.


मृकण्ड ने सोचा कि महादेव संसार के सारे विधान बदल सकते हैं. इसलिए क्यों न भोलेनाथ को प्रसन्नकर यह विधान बदलवाया जाए.




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मृकण्ड ने घोर तप किया. भोलेनाथ मृकण्ड के तप का कारण जानते थे इसलिए उन्होंने शीघ्र दर्शन न दिया लेकिन भक्त की भक्ति के आगे भोले झुक ही जाते हैं.


महादेव प्रसन्न हुए. उन्होंने ऋषि को कहा कि मैं विधान को बदलकर तुम्हें पुत्र का वरदान दे रहा हूं लेकिन इस वरदान के साथ हर्ष के साथ विषाद भी होगा.


भोलेनाथ के वरदान से मृकण्ड को पुत्र हुआ जिसका नाम मार्कण्डेय पड़ा. ज्योतिषियों ने मृकण्ड को बताया कि यह विलक्ष्ण बालक अल्पायु है. इसकी उम्र केवल 12 वर्ष है.


ऋषि का हर्ष विषाद में बदल गया. मृकण्ड ने अपनी पत्नी को आश्वत किया- जिस ईश्वर की कृपा से संतान हुई है वही भोले इसकी रक्षा करेंगे. भाग्य को बदल देना उनके लिए सरल कार्य है.


मार्कण्डेय बड़े होने लगे तो पिता ने उन्हें शिवमंत्र की दीक्षा दी. मार्कण्डेय की माता बालक के उम्र बढ़ने से चिंतित रहती थी. उन्होंने मार्कण्डेय को अल्पायु होने की बात बता दी.


मार्कण्डेय ने निश्चय किया कि माता-पिता के सुख के लिए उसी सदाशिव भगवान से दीर्घायु होने का वरदान लेंगे जिन्होंने जीवन दिया है. बारह वर्ष पूरे होने को आए थे.


मार्कण्डेय ने शिवजी की आराधना के लिए महामृत्युंजय मंत्र की रचना की और शिव मंदिर में बैठकर इसका अखंड जाप करने लगे.


“ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥”


समय पूरा होने पर यमदूत उन्हें लेने आए. यमदूतों ने देखा कि बालक महाकाल की आराधना कर रहा है तो उन्होंने थोड़ी देर प्रतीक्षा की. मार्केण्डेय ने अखंड जप का संकल्प लिया था.


यमदूतों का मार्केण्डेय को छूने का साहस न हुआ और लौट गए. उन्होंने यमराज को बताया कि वे बालक तक पहुंचने का साहस नहीं कर पाए.


इस पर यमराज ने कहा कि मृकण्ड के पुत्र को मैं स्वयं लेकर आऊंगा. यमराज मार्कण्डेय के पास पहुंच गए.


बालक मार्कण्डेय ने यमराज को देखा तो जोर-जोर से महामृत्युंजय मंत्र का जाप करते हुए शिवलिंग से लिपट गया.


यमराज ने बालक को शिवलिंग से खींचकर ले जाने की चेष्टा की तभी जोरदार हुंकार से मंदिर कांपने लगा. एक प्रचण्ड प्रकाश से यमराज की आंखें चुंधिया गईं.


शिवलिंग से स्वयं महाकाल प्रकट हो गए. उन्होंने हाथों में त्रिशूल लेकर यमराज को सावधान किया और पूछा तुमने मेरी साधना में लीन भक्त को खींचने का साहस कैसे किया?


यमराज महाकाल के प्रचंड रूप से कांपने लगे. उन्होंने कहा- प्रभु मैं आप का सेवक हूं. आपने ही जीवों से प्राण हरने का निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है.


भगवान चंद्रशेखर का क्रोध कुछ शांत हुआ तो बोले- मैं अपने भक्त की स्तुति से प्रसन्न हूं और मैंने इसे दीर्घायु होने का वरदान दिया है. तुम इसे नहीं ले जा सकते.


यम ने कहा- प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है. मैं आपके भक्त मार्कण्डेय द्वारा रचित महामृत्युंजय का पाठ करने वाले को त्रास नहीं दूंगा.


महाकाल की कृपा से मार्केण्डेय दीर्घायु हो गए. उनके द्वारा रचित महामृत्युंजय मंत्र काल को भी परास्त करता है. सोमवार को महामृत्युंजय का पाठ करने से शिवजी की कृपा होती है और कई असाध्य रोगों, मानसिक वेदना से राहत मिलती है।

                  ॐ नम: शिवाय




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सावित्री-सत्यवान की पौराणिक कथा :


महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमे अनेकों पौराणिक, धार्मिक कथा-कहानियों का संग्रह है। 

ऐसी ही एक कहानी है सावित्री और सत्यवान की, जिसका सर्वप्रथम वर्णन महाभारत के वनपर्व में मिलता है।  


जब वन में गए युधिष्ठर, मार्कण्डेय मुनि से पूछते है की क्या कोई अन्य नारी भी द्रोपदी की जैसे पतिव्रता हुई है जो पैदा तो राजकुल में हुई है पर पतिव्रत धर्म निभाने के लिए जंगल-जंगल भटक रही है। 

तब मार्कण्डेय मुनि, युधिष्ठर को कहते है की पहले भी सावित्री नाम की एक नारी इससे भी कठिन पतिव्रत धर्म का पालन कर चुकी है और मुनि, युधिष्ठर को यह कथा सुनाते है।


मद्रदेश के अश्वपतिनाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा था। 

जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई। 

तब महाराज उसके विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। 

उन्होंने सावित्री से कहा बेटी अब तू विवाह के योग्य हो गयी है। 

इसलिए स्वयं ही अपने योग्य वर चुनकर उससे विवाह कर लें।


धर्मशास्त्र में ऐसी आज्ञा है कि विवाह योग्य हो जाने पर जो पिता कन्यादान नहीं करता, वह पिता निंदनीय है। 

ऋतुकाल में जो स्त्री से समागम नहीं करता वह पति निंदा का पात्र है। 

पति के मर जाने पर उस विधवा माता का जो पालन नहीं करता । 

वह पुत्र निंदनीय है।


तब सावित्री शीघ्र ही वर की खोज करने के लिए चल दी। 

वह राजर्षियों के रमणीय तपोवन में गई। 

कुछ दिन तक वह वर की तलाश में घुमती रही। 

एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि बातें कर रहे थे। 

उसी समय मंत्रियों के सहित सावित्री समस्त वापस लौटी। 

तब राजा की सभा में नारदजी भी उपस्थित थे। 


नारदजी ने जब राजकुमारी के बारे में राजा से पूछा तो राजा ने कहा कि वे अपने वर की तलाश में गई हैं। 

जब राजकुमारी दरबार पहुंची तो और राजा ने उनसे वर के चुनाव के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने शाल्वदेश के राजा के पुत्र जो जंगल में पले-बढ़े हैं उन्हें पति रूप में स्वीकार किया है।


उनका नाम सत्यवान है। 

तब नारदमुनि बोले राजेन्द्र ये तो बहुत खेद की बात है क्योंकि इस वर में एक दोष है तब राजा ने पूछा वो क्या तो उन्होंने कहा जो वर सावित्री ने चुना है उसकी आयु कम है। 

वह सिर्फ एक वर्ष के बाद मरने वाला है।


उसके बाद वह अपना देहत्याग देगा। तब सावित्री ने कहा पिताजी कन्यादान एकबार ही किया जाता है जिसे मैंने एक बार वरण कर लिया है। 

मैं उसी से विवाह करूंगी आप उसे कन्यादान कर दें। 

उसके बाद सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया।


सत्यवान व सावित्री के विवाह को बहुत समय बीत गया। 

जिस दिन सत्यवान मरने वाला था वह करीब था। 

सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी। 

उसके दिल में नारदजी का वचन सदा ही बना रहता था। 


जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है। 

उसने तीन दिन व्रत धारण किया। 

जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गया तो सावित्री ने उससे कहा कि मैं भी साथ चलुंगी। 


तब सत्यवान ने सावित्री से कहा तुम व्रत के कारण कमजोर हो रही हो। 

जंगल का रास्ता बहुत कठिन और परेशानियों भरा है। इसलिए आप यहीं रहें। 

लेकिन सावित्री नहीं मानी उसने जिद पकड़ ली और सत्यवान के साथ जंगल की ओर चल दी।


सत्यवान जब लकड़ी काटने लगा तो अचानक उसकी तबीयत बिगडऩे लगी। 

वह सावित्री से बोला मैं स्वस्थ महसूस नही कर रहा हूं सावित्री मुझमें यहा बैठने की भी हिम्मत नहीं है। 


तब सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख लिया। 

फिर वह नारदजी की बात याद करके दिन व समय का विचार करने लगी। 

इतने में ही उसे वहां एक बहुत भयानक पुरुष दिखाई दिया। 

जिसके हाथ में पाश था। 

वे यमराज थे। 

उन्होंने सावित्री से कहा तू पतिव्रता स्त्री है। 

इसलिए मैं तुझसे संभाषण कर लूंगा।


सावित्री ने कहा आप कौन है तब यमराज ने कहा मैं यमराज हूं। 

इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। 


सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी वहां जाऊंगी। 

तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता तू मनचाहा वर मांग ले।


तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली। यमराज ने कहा तथास्तु लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी। 

तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए।


उसके बाद तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों। 

यमराज ने फिर कहा सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो। 

तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों। 


यमराज ने कहा तथास्तु। 

यमराज फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढऩे लगे। 

सावित्री ने फिर भी हार नहीं मानी तब यमराज ने कहा तुम वापस लौट जाओ तो सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊं । 


आपने ही मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र उत्पन्न करने का आर्शीवाद दिया है। 

तब यमराज ने सत्यवान को पुन: जीवित कर दिया। 

उसके बाद सावित्री सत्यवान के शव के पास पहुंची और थोड़ी ही देर में सत्यवान के शव में चेतना आ गई



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एक ऐसा मंदिर जिसे इंसानों ने नहीं बल्कि भूतों ने बनाया था ?


भगवान शिव का प्राचीन मंदिर। 

मुस्लिम शासकों ने इसे तोड़ने के लिए गोले तक दागे, लेकिन ग्वालियर चंबल अंचल के बीहड़ों में बना सिहोनिया का ककनमठ मंदिर आज भी लटकते हुए पत्थरों से बना हुआ है । 

चंबल के बीहड़ में बना ये मंदिर 10 किलोमीटर दूर से ही दिखाई देता है. जैसे-जैसे इस मंदिर के नजदीक जाते हैं इसका एक एक पत्थर लटकते हुए भी दिखाई देने लगता है. जितना नजदीक जाएंगे मन में उतनी ही दहशत लगने लगती है. लेकिन किसी की मजाल है, जो इसके लटकते हुए पत्थरों को भी हिला सके. आस-पास बने कई छोटे-छोटे मंदिर नष्ट हो गए हैं, लेकिन इस मंदिर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. मंदिर के बारे में कमाल की बात तो यह है कि जिन पत्थरों से यह मंदिर बना है, आस-पास के इलाके में ये पत्थर नहीं मिलता है।


इस मंदिर को लेकर कई तरह की किवदंतियां हैं. पूरे अंचल में एक किवदंती सबसे ज्यादा मशहूर है कि मंदिर का निर्माण भूतों ने किया था. लेकिन मंदिर में एक प्राचीन शिवलिंग विराजमान है, जिसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि भगवान शिव का एक नाम भूतनाथ भी है. भोलेनाथ ना सिर्फ देवी-देवताओं और इंसानों के भगवान हैं बल्कि उनको भूत-प्रेत व दानव भी भगवान मानकर पूजते हैं. पुराणों में लिखा है कि भगवान शिव की शादी में देवी-देवताओं के अलावा भूत-प्रेत भी बाराती बनकर आए थे और इस मंदिर का निर्माण भी भूतों ने किया है।


कहा जाता है कि रात में यहां वो नजारा दिखता है, जिसे देखकर किसी भी इंसान की रूह कांप जाएगी. ककनमठ मंदिर का इतिहास करीब एक हज़ार साल हजार पुराना है. बेजोड़ स्थापत्य कला का उदाहरण ये मंदिर पत्थरों को एक दूसरे से सटा कर बनाया गया है. मंदिर का संतुलन पत्थरों पर इस तरह बना है कि बड़े-बड़े तूफान और आंधी भी इसे हिला नहीं पाई. कुछ लोग यह मानते हैं कि कोई चमत्कारिक अदृश्य शक्ति है जो मंदिर की रक्षा करती है. इस मंदिर के बीचो बीच शिव लिंग स्थापित है. 120 फीट ऊंचे इस मंदिर का उपरी सिरा और गर्भ गृह सैकड़ों साल बाद भी सुरक्षित है।


इस मंदिर को देखने में लगता है कि यह कभी भी गिर सकता है.. लेकिन ककनमठ मंदिर सैकडों सालों से इसी तरह टिका हुआ है यह एक अदभुत करिश्मा है. इसकी एक औऱ ये विशेषता है..कि इस मंदिर के आस पास के सभी मंदिर टूट गए हैं , लेकिन ककनमठ मंदिर आज भी सुरक्षित है. मुरैना में स्थित ककनमठ मंदिर पर्यटकों के लिए विशेष स्थल है. यहां की कला और मंदिर की बड़ी-बड़ी शिलाओं को देख कर पर्यटक भी इस मंदिर की तारीफ करने से खुद को नहीं रोक पाते. मंदिर की दीवारों पर देवी-देवताओं की प्रतिमायें पर्यटकों को खजुराहो की याद दिलाती हैं. मगर प्रशासन की उपेक्षा के चलते पर्यटक यदा-कदा यहां आ तो जाते हैं। पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


Thursday, May 22, 2025

श्री हरि सखियों के श्याम और मोक्षदायिनी सप्तपुरिया

श्री हरि सखियों के श्याम  और मोक्षदायिनी सप्तपुरिया 


श्रीहरि सखियों के श्याम 


सखियों के श्याम (भाग 19) 

(दिन दुलहा दिन दुलहिन राधा नंदकिशोर)

'सखियों! सबके विवाह हो गये, किंतु जिनका विवाह देखनेको नयन तृषित हैं, उनका न जाने क्यों विधाताको स्मरण ही नहीं होता।'

गोपकुमारियाँ सिरपर घड़े और हाथमें वस्त्र लिये जमुनाकी ओर जा रही थी।

 चलते-चलते चित्राने यह बात कही तो उत्तरमें इला बोली—
'अरी बहिन! बड़े भाई के कुमारे रहते, छोटे भाईका विवाह कैसे हो! इसी संकोचके मारे नंदबाबा अपने लालाका विवाह नहीं कर रहे।'

अहो, इला जीजी तो बहुत शास्त्र जानती है। किंतु दोनों सगे भाई तो नहीं कि नंदकुमारको परिवेत्ता होनेका दोष लगे!'—  नंदाने हँसकर कहा।

'सगे न सही। किंतु बाबा महा—संकोची हैं। 





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वे तबतक श्यामसुंदरका विवाह नहीं करेंगे जबतक दाऊ दादाका विवाह न हो जाय अथवा उन्हें उनके पिता वसुदेवजी मथुरा न बुला लें। 

पहले कंसने उनके ढेर सारे बालक मार दिये हैं, अब दाऊजी यहाँसे बड़े बलवान बनके जायेंगे और कंसको मारकर, माता—पिताको सुख देंगे। 

अभी तो वे कंससे छिपकर यहाँ रह रहे हैं।'—  

इलाने गम्भीरता से कहा।

'तबतक क्या श्रीकिशोरी जू कुमारी ही रहेंगी!'– नंदाने आश्चर्य व्यक्त किया। 

'और नहीं तो क्या ?' विद्या हँस पड़ी—
'सगाई तो हो चुकी अब विलम्बके भयसे सगाई तोड़े वृषभानुराय; यह सम्भव नहीं लगता! अतः जबतक श्याम कुमारे तबतक श्री जू कुमारी!"

यह तो महा-अनरथ — अनहोनी होगी अहिरोंकी बेटी तो घुटनोंके बल चलनेके साथ ही सुसरालका मुँह देख लेती है।

 सच है बहिन! पर अब क्या हो, कठिनाई ही ऐसी आन पड़ी है।

अच्छा जीजी! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बड़े जब उनका अवकाश हो, तब उनका विवाह करें। हम अपने ढंगसे उनका विवाह रचकर नेत्रोंकी प्यास बुझा लें। — क्षमाने इन्दुलेखाजीसे कहा; तो अनेक कंठोंने समर्थन किया हर्षपूर्वक ।

'विवाहका खेल कैसे खेला जा सकता है मेरी बहिन!' – इन्दुलेखा जीजीने स्नेहसे क्षमाकी ठोड़ी छूकर कहा।

क्यों नहीं जीजी! जब कभी-न-कभी उनका विवाह निश्चित है, तो फिर खेलमें विवाह निषेध कैसे क्यों ? ' क्षमाने युक्ति प्रस्तुत की। 

'अच्छा बहिन! मैं तेरी बात बरसानेकी बहिनों को बताऊँगी। — जीजी हँसकर बोलीं।

'बरसानेकी बहिनों—से भी समर्थन प्राप्त हुआ और वह धन्य क्षण आया। दुःख यही है कि तुम ननिहाल थी कला! यह उत्सव देख न सकीं।' 

उत्तरमें कलाके नयन झर झर बरस उठे—'मेरा दुर्भाग्य ही मुझे यहाँसे दूर ले गया था बहिन! नयन अभागे ही रहे, वह सौभाग्य तुम्हारी कृपासे कर्ण प्राप्त करें।" 

'सुन सखी! जब सब बहिनें और श्यामसुंदरके सखा भी सहमत हो गये, तो हमने अक्षय तृतीयाकी गोधूलि बेला विवाह के लिये निश्चित की। 

श्रीराधा-कृष्णका शृंगार हुआ । 

गिरिराजकी तलहटीमें मालती-कुंजमें लग्न मंडप बना। 

गणपति पूजनके पश्चात दोनों मंडपमें बिराजित हुए। 

उस छविका वर्णन कैसे करूँ सखी! दोनों ही एक-दूसरे की शोभा देखना चाहते थे, अतः ललचाकर दोनों हीके नयन तिरछे हो जाते; किंतु लज्जा और संकोचके मारे दृष्टि ठहर नहीं पाती थी। 

दोनोंके माथे पे मोर और मोतीकी लड़ियाँ शोभित थीं। 

किशोरीजीका मुख घड़ीमें आरक्त हो उठता, सदाके मुखर कान्ह जू भी उस दिन सकुचायेसे बैठे थे।'

'मधुमंगलने दोनों ओर का पौरोहित्य निभाया। 

सदाके मसखरे मधुमंगलको धीर –गम्भीर स्वरमें मंत्रपाठ और शाखोच्चार करते देख विश्वास नहीं हो पा रहा था कि यह यही चिढ़ने-चिढ़ानेवाला मधुमंगल है।'

'कन्यादानके समय एक आश्चर्य भयो! न जाने कहाँ ते एक बूढ़ा ब्राह्मण आ पहुंँचो,  अपनी काँपती वाणीमें हाथ जोड़कर बोला- यह सौभाग्य मुझे प्रदान हो! 

उसे देखते ही राधा-कृष्णने खड़े होकर प्रणाम किया और सिर हिलाकर उसकी प्रार्थना स्वीकार की।

'उस बेचारे की दशा देखतीं तुम! रोमोत्थानसे काँपती देह, शिथिल वाणीसे निकलता मन्त्र पाठ और नयनों से झरता प्रवाह। 

जब पान, सुपारी, श्रीफल, पुष्प और दक्षिणाके साथ उसने किशोरीजीका कर श्यामसुंदरके हाथमें दिया तो तीनों ही की देह हल्की सिहरन–से थरथरा उठी। 





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सखियाँ मंगलगान और सखा विनोद करना भूल गये।

मधुमंगलकी वाणी वाष्परुद्ध हो कंठमें ही गोते खाने लगी। मानो सबके सब चित्रलिखे – से रह गये।'

अब भांवरकी शोभा कैसे कहूँ.... !' — कहते-कहते क्षमाको रोमांच हुआ और वाणी तथा देह एक साथ कंटकित हो विराम पा गयी।

क्षमाके चुप होते ही कलाकी आकुल-व्याकुल दृष्टि ऊपर उठी — गद्गद स्वर फूटा—  'भांवर.... भांवर कैसे हुई बहिन ?' 

वह उतावलीसे बोली — 

 'मेरे तृषित कर्णोंको तृति प्रदान करो बहिन!'

कुछ क्षण पश्चात संयत होकर क्षमा बोली- 'बहिन! उस शोभाका वर्णन करनेको मेरे पास तो क्या; वागीश्वरीके समीप भी शब्दोंका अभाव ही होगा! भांवरके पश्चात हम उन्हें निकुंज–भवनमें ले गयी।'

'उस बूढ़े ब्राह्मणका क्या हुआ- कौन था वह ?'– कलाने पूछा।

 'विवाहके पश्चात प्रणामकरके दम्पतिने उसे दक्षिणाकी पृच्छा की। 

न जाने कैसा ब्राह्मण था वह, बहुत देर तक आँसू बहाते हुए हाथ जोड़कर न जाने क्या-क्या कहता रहा, एक भी शब्द हमारी समझमें नहीं आया। 

सम्भवतः वह कोई अनुपम वरदान चाहता था। 

क्योंकि अंतमें जब वह प्रणामके लिये भूमिष्ठ हुआ तो श्यामसुंदरने उसे उठाकर 'तथास्तु' कहा।'

'निकुञ्ज–भवनमें दोनों को सिंहासनपर विराजमान करके दो सखियाँ चँवर डुलाने लगी। 

ललिता जीजीने चरण धोकर हाथों का प्रक्षालन करा आचमन कराया। 

वर—वधु किसी कारण इधर-उधर देखते तो लगता मानो नयन श्रवणोंसे कोई गुप्त बात करने त्वरापूर्वक उनके समीप जा लौट आये हैं। 

आचमनके अनन्तर षट्-रस भोजनका थाल सम्मुख धरा। विशाखा जू श्यामसुन्दरको और ललिता जू श्री किशोरी जू को मनुहार देना सिखा रही थीं। '

'प्रथम, श्यामसुन्दरने मिठाईका छोटा-सा ग्रास श्रीकिशोरीजीके मुख में दिया; मानो कोई नाग अपनी विष ज्वाला न्यून करने हेतु चन्द्रमासे अमृत याचना करते हुए अर्घ्य अर्पित कर रहा हो। 

इसी प्रकार श्रीकिशोरी जू ने भी मिठाईका छोटा-सा ग्रास श्यामसुंदरके मुखमें दिया — ऐसा लगा मानो नाल सहित कमलने ऊपर उठकर उषाकालीन सूर्यकी अभ्यर्थना की हो।'

कलाके अधखुले नयन मुक्ता-वर्षणकर रहे थे। 

खुले काँपते अधरपुटोंसे धवल दन्तपंक्तिकी हल्की-सी झलक मिल जाती। 

प्रत्येक रोम उत्थित हो, मानो अपनी स्वामिनीकी अंतरकथा कहनेको आतुर हो उठा। 

क्षमा समझ गयी कला राधा-कृष्णकी ब्याह–लीला देखने में निमग्न है।





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'सुन कला! ध्यान फिर कर लेना अभी श्रवण सार्थक कर ले बहिन।'—

क्षमाने उसके कंधे हिलाये। 

उसके नयन उघड़े, तो भीतर भरा जल ऐसे झर पड़ा जैसे दो सुक्तियोंने मुक्ता वर्षण किया हो ।

'आगे?'– 

उस दृष्टिने प्रश्न किया और क्षमा कहने लगी—

 'भोजनके पश्चात् इलाने हस्त-प्रक्षालन कराया —  

ताम्बूल अर्पण किया। यह लो आ गयी इला भी, अब तुम्ही आगे की बात सुनाओ बहिन!' क्या कहुँ बहिन! सबकी सेवा निश्चित हो गयी थी, पर सखियोंने कृपाकरके मुझे अवसर दिया। 

अपनी दशा क्या कहुँ ! 

हाथोंका कम्प, नेत्रों के अश्रु और कंठके स्वर; सब मिलकर मुझे स्थिर — 

अस्थिर करनेको मानो कटिबद्ध थे। 

किंतु सेवाका सौभाग्य भी तो कोई छोटा न था! श्यामसुंदरने अपने हाथसे ताम्बूल श्रीजूके मुखमें दिया और उन्होंने श्यामसुन्दरके मुखमें। 

क्या कहुँ सखी! लाजके भारसे श्रीजूकी पलकें उठ नहीं पा रही थी, पर मन निरन्तर दर्शनको आतुर था! वे कोमल अनियारे झुके-झुके नयनकंज बार-बार तिरछे होकर मुड़ जाते। 

श्याम जू की जिह्वा भी आज सकुचायी-सी थी ।

चन्द्रावली जू और ललिता जू ने दोनोंसे कहा- 'नेक समीप है के बिराजो स्याम जू! नहीं तो सदा आँतरो रहेगो बीच में।' 

सुनकर सब सखियां हँस पड़ी थी। श्यामसुन्दर कुछ कहनेको हुए, पर कसमसा कर चुप हो गये।

'क्या बात है, आज बोल नहीं फूट रहा मुखसे; जसुदा जू ने बोलना नहीं सिखाया क्या?"

बोलना तो आता है सखी! पर तुम मुझे गँवार कहोगी, इसी भयसे चुप हो रहा।'

'अच्छा स्याम जू! क्या कहना चाहते थे भला?"

'जाने दो सखी; कुछ नहीं! तुम्हारी बकर-बकर सुनकर मौन हो जाना ही शुभ है।' –  

श्यामसुन्दरकी बात सुनकर सब हँस पड़ी। 

इसके पश्चात् आरती हुई ढ़ोल-मृदंग-वीणा-पखावजके साथ सखियोंके स्वर गूँज उठे–

 'आरति मुरलीधर मोहन की प्राणप्रिया संग सोहन की।' 

उस समयकी शोभा कैसे कहूँ.... देखते ही बनती थी। 

शंख जलके छोटे पड़े तो चेत हुआ तथा इसके पश्चात गाना बजाना और नृत्य हुए।




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इन्दुलेखा जीजीके नृत्यके पश्चात चन्द्रावलीजूने कहा- 

'मोहन!अब तुम दोनोंके गाने–नाचनेकी बारी है।'

युगल जोड़ीने तिरछे नयनोंसे एक दूसरे की ओर देखा। 

किशोरीजीने लजाकर पलके झुका लीं; पर श्यामसुंदर हँसकर बोले- 

'मैं क्या छोरी हूँ सखी ? 

यह सब काम तो तुम्हीं को शोभा देते हैं; मुझे तो गाना-नाचना आता नहीं।'





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"अहा.... हा, भली कही!'-
— चन्द्रावलीज़ बोली।

 'हमने तो कभी देखा सुना ही नहीं न! अरे तुम तो हमसे भी सुन्दर नृत्य-गायन करते हो। 

तुम्हारी ये बातें यहाँ नहीं चलेंगी।'- कहकर उन्होंने उनके हाथ पकड़कर सिंहासन से उतार दिया,

इसी प्रकार ललिताजीने श्री जू को सहारा दिया। 

बीचमें राधा–श्यामको अवस्थित करके हम सब चन्द्राकर स्थित हुई।

'वैकुण्ठ हूँ ते प्यारो मेरो यह वृंदावनधाम।'–

श्यामसुंदरके आलाप लेते ही, वाद्य मुखर हो उठे; अन्य सब हाथोंसे ताल देने लगीं। 

दोनोंकी सम्मलित स्वर - माधुरी और नृत्य देखकर हमारे नेत्र धन्य हुए; हम कृतकृत्य हुईं ।

'सखी! अनेकों बार हमने अलग-अलग इनका नृत्य–गान सुना है, किंतु यह माधुर्य, नेत्र चालन, हस्त–मुद्रायें, निर्दोष पद-चालन और अंग–विलास, स्वर ताल और भाव-वेष्ठित यह युगल.... ।'

जय श्री राधे....

मोक्षदायिनी सप्तपुरियां कौन कौन सी हैं?


सप्तपुरी पुराणों में वर्णित सात मोक्षदायिका पुरियों को कहा गया है। 

इन पुरियों में 'काशी', 'कांची' (कांचीपुरम), 'माया' ( हरिद्वार ), 'अयोध्या', 'द्वारका', 'मथुरा' और 'अवंतिका' ( उज्जयिनी ) की गणना की गई है।

'काशी कांची चमायाख्यातवयोध्याद्वारवतयपि, मथुराऽवन्तिका चैताः सप्तपुर्योऽत्र मोक्षदाः'; 'अयोध्या-मथुरामायाकाशीकांचीत्वन्तिका, पुरी द्वारावतीचैव सप्तैते मोक्षदायिकाः।'

पुराणों के अनुसार इन सात पुरियों या तीर्थों को मोक्षदायक कहा गया है। 

इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-

1. अयोध्या

अयोध्या उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। 

दशरथ अयोध्या के राजा थे। 

श्रीराम का जन्म यहीं हुआ था। 

राम की जन्म-भूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएँ तट पर स्थित है। 

अयोध्या हिन्दुओं के प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है। 

अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है।

रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। 

कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्य वंश की राजधानी रहा। 

अयोध्या एक तीर्थ स्थान है और मूल रूप से मंदिरों का शहर है। 

यहाँ आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। 

जैन मत के अनुसार यहाँ आदिनाथ सहित पाँच तीर्थंकरों का जन्म हुआ था।

2. मथुरा

पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है। 

अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा। 

ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

वराह पुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात देवता हैं।[3] श्राद्ध कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है। 

मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है।उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था।

पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है। पृथ्वी के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है? 

महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है। 

वराह पुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है।

यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है।

इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृन्दावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुण्ड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है। 

इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है।

गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है।

पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

3. हरिद्वार

हरिद्वार उत्तराखंड में स्थित भारत के सात सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में एक है। 

भारत के पौराणिक ग्रंथों और उपनिषदों में हरिद्वार को मायापुरी कहा गया है। 

गंगा नदी के किनारे बसा हरिद्वार अर्थात हरि तक पहुंचने का द्वार है। 

हरिद्वार को धर्म की नगरी माना जाता है। सैकडों सालों से लोग मोक्ष की तलाश में इस पवित्र भूमि में आते रहे हैं।

इस शहर की पवित्र नदी गंगा में डुबकी लगाने और अपने पापों का नाश करने के लिए साल भर श्रद्धालुओं का आना जाना यहाँ लगा रहता है। 

गंगा नदी पहाड़ी इलाकों को पीछे छोड़ती हुई हरिद्वार से ही मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है। 

उत्तराखंड क्षेत्र के चार प्रमुख तीर्थस्थलों का प्रवेश द्वार हरिद्वार ही है। 

संपूर्ण हरिद्वार में सिद्धपीठ, शक्तिपीठ और अनेक नए पुराने मंदिर बने हुए हैं।

4. काशी

वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत देश के उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन और धार्मिक महत्ता रखने वाला शहर है। 

वाराणसी का पुराना नाम काशी है। 

वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। 

यह गंगा नदी किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। 

दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पडा। 

बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। 

संस्कृत पढने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। 

वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत में अपनी ही शैली है।

5. कांचीपुरम

कांचीपुरम तीर्थपुरी दक्षिण की काशी मानी जाती है, जो मद्रास से 45 मील की दूरी पर दक्षिण–पश्चिम में स्थित है। 

कांचीपुरम को कांची भी कहा जाता है। 

यह आधुनिक काल में कांचीवरम के नाम से भी प्रसिद्ध है। 

ऐसी अनुश्रुति है कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल में ब्रह्मा जी ने देवी के दर्शन के लिये तप किया था।

मोक्षदायिनी सप्त पुरियों अयोध्या, मथुरा, द्वारका, माया ( हरिद्वार ), काशी और अवन्तिका ( उज्जैन ) में इसकी गणना की जाती है। 

कांची हरिहरात्मक पुरी है। 

इसके दो भाग शिवकांची और विष्णुकांची हैं। 

सम्भवत: कामाक्षी अम्मान मंदिर ही यहाँ का शक्तिपीठ है।

6. अवंतिका

उज्जयिनी का प्राचीनतम नाम अवन्तिका, अवन्ति नामक राजा के नाम पर था। [

9] इस जगह को पृथ्वी का नाभिदेश कहा गया है। 

महर्षि सान्दीपनि का आश्रम भी यहीं था।

उज्जयिनी महाराज विक्रमादित्य की राजधानी थी। 

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में देशान्तर की शून्य रेखा उज्जयिनी से प्रारम्भ हुई मानी जाती है। 

इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। 

यहाँ हर 12 वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है। 

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है।

7. द्वारका

द्वारका का प्राचीन नाम है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था। 

बाद में त्रिविकम भगवान ने कुश नामक दानव का वध भी यहीं किया था। 

त्रिविक्रम का मंदिर द्वारका में रणछोड़जी के मंदिर के निकट है। 

ऐसा जान पड़ता है कि महाराज रैवतक ( बलराम की पत्नी रेवती के पिता ) ने प्रथम बार, समुद्र में से कुछ भूमि बाहर निकाल कर यह नगरी बसाई होगी। 

हरिवंश पुराण के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी। विष्णु पुराण के अनुसार,अर्थात् आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर आनर्त पर राज्य किया। 

विष्णु पुराण से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी-'कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव, सा द्वारका संप्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा'।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 
श्री राधे 🙏🏽