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Sunday, February 28, 2021

।। श्री यजुर्वेद और श्री शिवपुराण के साथ अनेक पुराणों के अनुसार भगवान शिव के 35 रहस्य के उलेख ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश....!

।। श्री यजुर्वेद और श्री शिवपुराण के साथ अनेक पुराणों के अनुसार भगवान शिव के 35 रहस्य के उलेख ।।

# हमारे वेद पुराण के अनुसार भगवान_शिव के  "35" रहस्य उलेख !


भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है।

*🔱 1. आदिनाथ शिव : -* 

सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार - प्रसार का प्रयास किया ।

इस लिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 

'आदि' का अर्थ प्रारंभ। 

आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम 'आदिश' भी है।

*🔱 2. शिव के अस्त्र-शस्त्र : -* 

शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। 

उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।

*🔱 3. भगवान शिव का नाग : -* 

शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। 

वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।

*🔱 4. शिव की अर्द्धांगिनी : -* 

शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।

*🔱 5. शिव के पुत्र : -*

 शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- 



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गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। 

सभी के जन्म की कथा रोचक है।

*🔱 6. शिव के शिष्य : -*

 शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। 

इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न - भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। 

शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। 

शिव के शिष्य हैं- 

बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।

*🔱 7. शिव के गण : -* 

शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। 

इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग - नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। 






*🔱 8. शिव पंचायत : -* 

भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।

*🔱 9. शिव के द्वारपाल : -* 

नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा - महेश्वर और महाकाल।

*🔱 10. शिव पार्षद : -* 

जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं ।

उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।

*🔱 11. सभी धर्मों का केंद्र शिव : -* 

शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। 

मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। 

शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई ।

जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में वि‍भक्त हो गई।

*🔱 12. बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय : -*  

शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। 

उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया है ।

कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- 

तणंकर, शणंकर और मेघंकर।


*🔱 13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव : -* 

भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। 

वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। 

उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। 

शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।

*🔱 14. शिव चिह्न : -* 

वनवासी से लेकर सभी साधारण व्‍यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्‍थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। 

इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। 

कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं ।

हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।

*🔱 15. शिव की गुफा : -* 

शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। 

वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। 

दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा 'अमरनाथ गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है।

*🔱 16. शिव के पैरों के निशान : -* 

श्रीपद - 

श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। 

ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। 

इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। 

कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।

रुद्र पद- 

तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्‍वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। 

इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।

तेजपुर - 

असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।

जागेश्वर - 

उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के पास शिव के पदचिह्न हैं। 

पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।

रांची - 

झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। 

इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है।


*🔱 17. शिव के अवतार : -* 

वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। 

वेदों में रुद्रों का जिक्र है। 

रुद्र 11 बताए जाते हैं- 

कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।

*🔱 18. शिव का विरोधाभासिक परिवार : -* 

शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है ।

जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। 

स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। 

इधर गणपति का वाहन चूहा है।

जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। 

माता श्री पार्वती का वाहन शेर है।

लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। 

इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।

*🔱 19.*  ति‍ब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। 

जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। 

शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।

*🔱 20.शिव भक्त : -* 

ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी - देवताओं सहित भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण भी शिव भक्त है। 

श्रीहरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। 

भगवान श्रीराम ने ही श्रीरामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।

*🔱 21.शिव ध्यान : -* 

शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान - पूजन किया जाता है। 

शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।

*🔱 22.शिव मंत्र : -* 

दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- 

ॐ नम: शिवाय। 

दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- 

ॐ ह्रौं जू सः। 
ॐ भूः भुवः स्वः। 
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। 
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। 
स्वः भुवः भूः ॐ। 
सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।

*🔱 23.शिव व्रत और त्योहार : -* 

सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। 







हर मास की मासिक शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।

*🔱 24.शिव प्रचारक : -* 

भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष ( शिव ), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। 

इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। 

इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। 

दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

*🔱 25.शिव महिमा : -* 

शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। 

शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। 

शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। 

शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। 

ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।


*🔱 26.शैव परम्परा : -* 

दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। 

चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। 

भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। 

शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।

*🔱 27.शिव के प्रमुख नाम : -* 

 शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।

लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें-

महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।

*🔱 28.अमरनाथ के अमृत वचन : -* 

शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। 

वह ज्ञान योग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है।

 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है ।

जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।

*🔱 29.शिव ग्रंथ : -* 

वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। 

तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।

*🔱 30.शिवलिंग : -* 

श्री वायुपुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है ।

उसे लिंग कहते हैं। 

इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। 

वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु - नाद स्वरूप है। 

बिंदु शक्ति है और नाद शिव। 

बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। 

यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। 

इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा - अर्चना है।

*🔱 31.बारह ज्योतिर्लिंग : -* 

सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। 





ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। 

ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। 

जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। 

श्री शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।

 दूसरी मान्यता अनुसार श्री शिवपुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्‍योति पिंड पृथ्‍वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। 

इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। 

भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्‍योतिर्लिंग में शामिल किया गया।

*🔱 32.शिव का दर्शन : -*

शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं ।

वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं ।

क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो ।

वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। 

आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

*🔱 33.शिव और शंकर : -* 

शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। 

लोग कहते हैं- 

शिव, शंकर, भोलेनाथ। 

इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। 

असल में, दोनों की प्रतिमाएं बहुत अलग - अलग आकृति की हैं। 

शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। 

कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। 

अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। 

हालां कि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। 

माना जाता है कि महेष ( नंदी ) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। 

रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।


*🔱 34. देवों के देव महादेव :* 

देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। 

ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। 

दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त हो कर शिव के समक्ष झुक गए ।

इसी लिए शिव हैं देवों के देव महादेव। 

वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। 

वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।

*🔱 35. शिव हर काल में : -* 

भगवान शिव ने हर काल में लोगों को दर्शन दिए हैं। 

राम के समय भी शिव थे। 

महाभारत काल में भी शिव थे और विक्रमादित्य के काल में भी शिव के दर्शन होने का उल्लेख मिलता है। 

भविष्य पुराण अनुसार राजा 
हर्षवर्धन को भी भगवान शिव ने दर्शन दिए थे,

जय जय ॐ शिव शिव शिव
जय जय श्री राम🙏🙏 🙏

         !!!!! शुभमस्तु !!!

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Saturday, February 27, 2021

।। श्री ऋग्वेद और श्री रामायण के अनुसार श्रीरामचन्द्रजी 14 साल के वनवास के उलेख/विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार भगवान शिवजी माता पावर्ती के शादी के पहले गणपति था कि नही ? ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। श्री ऋग्वेद और श्री रामायण के अनुसार श्रीरामचन्द्रजी 14 साल के वनवास के उलेख  , विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार भगवान शिवजी माता पावर्ती के शादी के पहले गणपति था कि नही ?   ।।


हमारे ग्रथों पुराणों और वेदों में श्रीराम को 14 वर्ष का वनवान हुआ। 

इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि - मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। 

संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया। 

श्री रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। 






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इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।

जाने - माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है ।

जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं ।

जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। 

वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय - काल की जांच - पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। 

आओ जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों के बारे में...!






पहला पड़ाव...

श्री केवट प्रसंग :

राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। 

इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज ( इलाहाबाद ) से 20 - 22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। 

यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।

'सिंगरौर' : 

इलाहाबाद से 22 मील ( लगभग 35.2 किमी ) उत्तर - पश्चिम की ओर स्थित 'सिंगरौर' नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। 

रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। 

यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। 

महाभारत में इसे 'तीर्थस्थल' कहा गया है।

'कुरई' : 

इलाहाबाद जिले में ही कुरई नामक एक स्थान है ।

जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित है। 

गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। 

सिंगरौर में गंगा पार करने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।

दूसरा पड़ाव....

श्री चित्रकूट के घाट पर :

कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे। 

प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। 

यहां गंगा - जमुना का संगम स्थल है। 

हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। 

प्रभु श्रीराम ने संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। 

यहां स्थित स्मारकों में शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।

अद्वितीय सिद्धा पहाड़ :

सतना जिले के बिरसिंहपुर क्षेत्र स्थित सिद्धा पहा़ड़। 

यहाँ पर भगवान श्रीराम ने निशाचरों का नाश करने पहली बार प्रतिज्ञा ली थी।

चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। 

तब जब दशरथ का देहांत हो जाता है। 

भारत यहां से राम की चरण पादुका ले जाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं।







तीसरा पड़ाव; 

श्री अत्रि ऋषि का आश्रम :

चित्रकूट के पास ही सतना ( मध्यप्रदेश ) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। 

महर्षि अत्रि चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। 

वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया। 

अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। 

अत्रि ऋषि की पत्नी का नाम है अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। 

चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी, छोटी पहाड़ियां, कंदराओं आदि से निकलकर भगवान राम पहुंच गए घने जंगलों में...

चौथा पड़ाव, 

श्री दंडकारण्य :

अत्रि ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के घने जंगलों को अपना आश्रय स्थल बनाया। 

यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। 

'अत्रि - आश्रम' से 'दंडकारण्य' आरंभ हो जाता है। 

छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सों पर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। 

यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवं गुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। 

यहीं पर राम ने अपना वनवास काटा था। 

दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। 

यह क्षेत्र आजकल दंतेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। 

यहां वर्तमान में गोंड जाति निवास करती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है। 

इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। 

गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता - रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। 

यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। 

कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। 

ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

पांचवा पड़ाव; 

श्री पंचवटी में राम :

दण्डकारण्य में मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रम गए। 

मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। 

त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया।

छठा पड़ाव.. 

श्री सीताहरण का स्थान 'सर्वतीर्थ' :

नासिक क्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण ने सीता का हरण किया और जटायु का भी वध किया।

जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूर ताकेड गांव में 'सर्वतीर्थ' नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है।

सातवां पड़ाव;

श्री सीता माता की खोज :

सर्वतीर्थ जहां जटायु का वध हुआ था ।

वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। 

उसके बाद श्रीराम - लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंच गए। 

तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वे सीता की खोज में गए।

आठवां पड़ाव...

श्री शबरी का आश्रम :

तुंगभद्रा और कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्मण चले सीता की खोज में। 

जटायु और कबंध से मिलने के पश्चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। 

रास्ते में वे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकल केरल में स्थित है। 

शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। 

केरल का प्रसिद्ध 'सबरिमलय मंदिर' तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है।

नवम पड़ाव; 

श्री हनुमान से भेंट :

मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। 

यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। 

ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है।

कोडीकरई






श्री हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। 

मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन - वाटिकाओं को पार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। 

श्रीराम ने पहले अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।

सुग्रीव गुफा

सुग्रीव अपने भाई बाली से डरकर जिस कंदरा में रहता था ।

उसे सुग्रीव गुफा के नाम से जाना जाता है। 






यह ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित थी।

ग्यारहवां पड़ाव... 

श्री रामेश्वरम :

रामेश्वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंग के लिए आदर्श है।







श्री रामेश्वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। 

महाकाव्य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। 






रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

रामसेतु

रामसेतु जिसे अंग्रेजी में एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है ।








भारत ( तमिलनाडु ) के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य चूना पत्थर से बनी एक श्रृंखला है। 

भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है ।

कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। 

यह पुल करीब 18 मील ( 30 किलोमीटर ) लंबा है।

बारहवां पड़ाव... 

धनुषकोडी :

वाल्मीकि के अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला ।

जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। 

उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। 

धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित एक गांव है। 

धनुषकोडी पंबन के दक्षिण - पूर्व में स्थित है। 







धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्नार से करीब 18 मील पश्चिम में है।

तेरहवां पड़ाव...

'नुवारा एलिया' पर्वत श्रृंखला :

वाल्मीकिय - रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। 

'नुवारा एलिया' पहाड़ियों से लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचोबीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं।

रावण की लंका का रहस्य...

रामायण काल को लेकर अलग - अलग मान्यताएं हैं। 

ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं होने के कारण कुछ लोग जहां इसे नकारते हैं ।







वहीं कुछ इसे सत्य मानते हैं। 

हालांकि इसे आस्था का नाम दिया जाता है ।

लेकिन नासा द्वारा समुद्र में खोजा गया रामसेतु ऐसे लोगों की मान्यता को और पुष्ट करता है।


         !!!!! शुभमस्तु !!!

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।। श्री यजुर्वेद ,  श्री सामवेद , श्री ऋग्वेद  और विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार भगवान शिवजी माता पावर्ती के शादी के पहले गणपति था कि नही ? घर मे शुभारंभ शुभ प्रसगो के अनुसार गनपति के पूजन किया जाता है तो कौनसी सूंड का गणपति पूजन अर्चन के लिए शुभ माना जाता है ? ।।





श्री यजुर्वेद ,  श्री सामवेद , और विष्णुपुराण , श्री शिवमहापुराण के अनुसार भगवान श्री शिवजी - माता श्री पार्वतीजी विवाह में ऐसे हुई थी गणेश जी की पूजा ।

श्री यजुर्वेद और श्री विष्णुपुराण सहित के पुराणों में श्री गणेश जी के जन्म से संबंधित कथाएं विभिन्न रूपों में प्राप्त होती हैं। 

विभिन्न पुराणों की कथाओं में गणेशजी की जन्म कथा में कुछ भिन्नता होने के बाद भी यह कहा जाता है ।

कि भगवान श्री शिवजी -माता श्री पार्वतीजी के माध्यम से ही इनका अवतार हुआ है। 

कुछ लोग वेदों एवं पुराणों के विवरण को न समझ पाने के कारण शंका करते हैं कि गणेशजी अगर शिवपुत्र हैं तो फिर अपने ही विवाह में श्री शिवजी - श्री पार्वतीजी ने उनका पूजन कैसे किया?

इस शंका का समाधान तुलसीदासजी करते हैं—

मुनि अनुशासन गनपति हि पूजेहु शंभु भवानि।
कोउ सुनि संशय करै जनि सुर अनादि जिय जानि। 

( विवाह के समय ब्रह्मवेत्ता मुनियों के निर्देश पर श्रीशिवजी - श्रीपार्वतीजी ने गणपति की पूजा संपन्न की। 

कोई व्यक्ति संशय न करें, क्योंकि देवता ( श्रीगणपति ) अनादि होते हैं। )

तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीगणपतिजी किसी के पुत्र नहीं हैं। 

वे अज, अनादि व अनंत हैं। 

भगवान शिव के पुत्र जो गणेश हुए, वह तो उन गणपति के अवतार हैं, जिनका उल्लेख वेदों में पाया जाता है। 

गणेश जी वैदिक देवता हैं, परंतु इनका नाम वेदों में गणेश न होकर ‘गणपति’ या ‘ब्रह्मणस्पति’ है। 

जो वेदों और बहुत पुराणों में ब्रह्मणस्पति हैं, उन्हीं का नाम पुराणों में गणेश है। 

ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के मंत्रों में भी गणेश जी के उपर्युक्त नाम देखे जा सकते हैं।

माताश्री जगदम्बा ने महागणपतिजी की आराधना की और उनसे वरदान प्राप्त किया कि आप मेरे पुत्र के रूप में अवतार लें । 

इस लिए भगवान श्रीमहागणपतिजी गणेश के रूप में श्रीशिवजी - श्रीपार्वतीजी के पुत्र होकर अवतरित हुए। 

अत: यह शंका निर्मूल है कि शिव विवाह में गणपति पूजन कैसे हुआ। 

जिस प्रकार भगवान विष्णु अनादि हैं और राम, कृष्ण, वामन आदि अनेक अवतार हैं, उसी प्रकार गणेशजी भी महागणपति के अवतार हैं ।

सनातन धर्म के हिन्दू घर मे शुभारंभ शुभ प्रसगो के अनुसार गनपति के पूजन किया जाता है तो कौनसी सूंड का गणपति पूजन अर्चन के लिए श्री गणेश की दाईं सूंड या बाईं सूंड ...!

श्री ऋग्वेद और श्री विष्णुपुराण के अनुशार शुभ प्रसगो के अनुसार गनपति के पूजन किया जाता है तो कौनसी सूंड का गणपति पूजन अर्चन के लिए श्री गणेश की दाईं सूंड या बाईं सूंड ।

अक्सर श्री गणेश की प्रतिमा लाने से पूर्व या घर में स्थापना से पूर्व यह सवाल सामने आता है ।

कि श्री गणेश की कौन सी सूंड होनी चाहिए दाईं सूंड या बाईं सूंड  यानी किस तरफ सूंड वाले श्री गणेश पूजनीय हैं? 

श्री दाईं सूंड गणपति : 

श्री ऋग्वेद और श्री भविष्यपुराण के अनुसार दाईं सूंड गणपति मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ दाईं ओर हो, उसे दक्षिण मूर्ति या दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं। 

यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा या दाईं बाजू। 

दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जाने वाली व दाईं बाजू सूर्य नाड़ी की है। 

जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है व जिसकी सूर्य नाड़ी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है।
 
इन दोनों अर्थों से दाईं सूंड वाले गणपति को 'जागृत' माना जाता है। 

ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांडांतर्गत पूजा विधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन करना आवश्यक है। 

उससे सात्विकता बढ़ती है व दक्षिण दिशा से प्रसारित होने वाली रज लहरियों से कष्ट नहीं होता।
 
श्री भविष्यपुराण श्री ऋग्वेद के अनुसार दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती ।

क्योंकि तिर्य्‌क ( रज ) लहरियां दक्षिण दिशा से आती हैं। 

दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप - पुण्य का हिसाब रखा जाता है। 

इस लिए यह बाजू अप्रिय है। 

यदि दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें या सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखें तो जैसी अनुभूति मृत्यु के पश्चात अथवा मृत्यु पूर्व जीवित अवस्था में होती है ।

वैसी ही स्थिति दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा करने से होने लगती है। 

विधि विधान से पूजन ना होने पर यह श्री गणेश रुष्ट हो जाते हैं।

 श्री बाईं सूंड गणपति : 

श्री ऋग्वेद श्री सामवेद और विष्णुपुराण के अनुसार श्री गणपति के मूर्ति में सूंड के अग्रभाव का मोड़ बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहते हैं। 

वाम यानी बाईं ओर या उत्तर दिशा। 

बाई ओर चंद्र नाड़ी होती है। 

यह शीतलता प्रदान करती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक है, आनंददायक है।

श्री ऋग्वेद , श्री विष्णुपुराण और श्री भविष्यपुराण के अनुसार हर धर में शुभ पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति रखी जाती है। 

इसकी पूजा प्रायिक पद्धति से की जाती है। 

इन  गणेश जी को गृहस्थ जीवन के लिए शुभ माना गया है। 

इन्हें विशेष विधि विधान की जरुरत नहीं लगती। 

यह शीघ्र प्रसन्न होते हैं। 

थोड़े में ही संतुष्ट हो जाते हैं। 

त्रुटियों पर क्षमा करते हैं।


         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

Sunday, February 21, 2021

।। श्री ऋग्वेद , श्री शिवमहापुराण और योगनी तंत्रम ग्रंथ के अनुसार शिवजी को बिलपत्र प्रिय क्यों होता है ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री ऋग्वेद , श्री शिवमहापुराण और योगनी तंत्रम ग्रंथ के अनुसार शिवजी को बिलपत्र प्रिय क्यों होता है ।।


 हमारे वेदों पुराणों के अंदर बताया गया है कि शिव को बेलपत्र इतने प्रिय क्यों है।


नारद जी ने एकबार भोलेनाथ की स्तुति कर पूछा – 

प्रभु आपको प्रसन्न करने के लिए सबसे उत्तम और सुलभ साधन क्या है ।

हे त्रिलोकीनाथ आप तो निर्विकार और निष्काम हैं ।

आप सहज ही प्रसन्न हो जाते हैं।

 फिर भी मेरी जानने की इच्छा है कि आपको क्या प्रिय है ?

शिवजी बोले- 

नारदजी वैसे तो मुझे भक्त के भाव सबसे प्रिय हैं, फिर भी आपने पूछा है तो बताता हूं ।

मुझे जल के साथ - साथ बिल्वपत्र बहुत प्रिय है ।






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जो अखंड बिल्वपत्र मुझे श्रद्धा से अर्पित करते हैं मैं उन्हें अपने लोक में स्थान देता हूं।
.
नारद जी भगवान शंकर औऱ माता पार्वती की वंदना कर अपने लोक को चले गए।

उनके जाने के पश्चात पार्वती जी ने शिव जी से पूछा- 

हे प्रभु मेरी यह जानने की बड़ी उत्कट इच्छा हो रही है कि आपको बेलपत्र इतने प्रिय क्यों है ?

कृपा करके मेरी जिज्ञासा शांत करें.
.
शिव जी बोले- हे शिवे ! बिल्व के पत्ते मेरी जटा के समान हैं।

उसका त्रिपत्र यानी तीन पत्ते, ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद हैं. शाखाएं समस्त शास्त्र का स्वरूप हैं ।

विल्ववृक्ष को आप पृथ्वी का कल्पवृक्ष समझें जो ब्रह्मा - विष्णु - शिव स्वरूप है ।

स्वयं महालक्ष्मी ने शैल पर्वत पर विल्ववृक्ष रूप में जन्म लिया था।

यह सुनकर पार्वती जी कौतूहल में पड़ गईं ।

उन्होंने पूछा- देवी लक्ष्मी ने आखिर विल्ववृक्ष का रूप क्यों लिया ? 

आप यह कथा विस्तार से कहें. भोलेनाथ ने देवी पार्वती को कथा सुनानी शुरू की.
.
हे देवी, सत्ययुग में ज्योतिरूप में मेरे अंश का रामेश्वर लिंग था।

ब्रह्मा आदि देवों ने उसका विधिवत पूजन - अर्चन किया था । 

फलतः मेरे अनुग्रह से वाग्देवी सबकी प्रिया हो गईं. वह भगवान विष्णु को सतत प्रिय हो गईं।

मेरे प्रभाव से भगवान केशव के मन में वाग्देवी के लिए जितनी प्रीति हुई वह स्वयं लक्ष्मी को ही नहीं भाई ।

अतः लक्ष्मी देवी चिंतित और रूष्ट होकर परम उत्तम श्री शैल पर्वत पर चली गईं.।

वहां उन्होंने मेरे लिंग विग्रह की उग्र तपस्या प्रारम्भ कर दी ।

हे परमेश्वरी कुछ समय बाद महालक्ष्मी जी ने मेरे लिंग विग्रह से थोड़ा उर्ध्व में एक वृक्ष का रूप धारण कर लिया और अपने पत्र पुष्प द्वारा निरंतर मेरा पूजन करने लगी।

इस तरह उन्होंने कोटि वर्ष ( एक करोड़ वर्ष ) तक आराधना की।

अंततः उन्हें मेरा अनुग्रह प्राप्त हुआ ।

महालक्ष्मी ने मांगा कि श्री हरि के हृदय में मेरे प्रभाव से वाग्देवी के लिए जो स्नेह हुआ है वह समाप्त हो जाए.

शिवजी बोले- 

मैंने महालक्ष्मी को समझाया कि श्री हरि के हृदय में आपके अतिरिक्त किसी और के लिए कोई प्रेम नहीं है. वाग्देवी के प्रति तो उनकी श्रद्धा है ।

यह सुनकर लक्ष्मी जी प्रसन्न हो गईं और पुनः श्री विष्णु के ह्रदय में स्थित होकर निरंतर उनके साथ विहार करने लगी।

हे पार्वती ! 






महालक्ष्मी के हृदय का एक बड़ा विकार इस प्रकार दूर हुआ था ।

इस कारन हरिप्रिया उसी वृक्षरूपं में सर्वदा अतिशय भक्ति से भरकर यत्न पूर्वक मेरी पूजा करने लगी ।

बिल्व इस कारण मुझे बहुत प्रिय है और मैं विल्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहता हूं ।

विल्ववृक्ष को सदा सर्व तीर्थमय एवं सर्व देवमय मानना चाहिए. इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

विल्वपत्र, विल्वफूल, विल्ववृक्ष अथवा विल्व काष्ठ के चन्दन से जो मेरा पूजन करता है वह भक्त मेरा प्रिय है ।

विल्ववृक्ष को शिव के समान ही समझो ।

वह मेरा शरीर है....!

जो विल्व पर चंदन से मेरा नाम अंकित करके मुझे अर्पण करता है ।

मैं उसे सभी पापों से मुक्त करके अपने लोक में स्थान देता हूं ।

उस व्यक्ति को स्वयं लक्ष्मी जी भी नमस्कार करती हैं ।

जो विल्वमूल में प्राण छोड़ता है उसको रूद्र देह प्राप्त होता है.
( श्री ऋग्वेद श्री शिवमहापुराण और योगिनीतंत्रम् ग्रंथ से )
जय माताजी....!!!

।। श्री मसत्यपुराण प्रवचवन ।।

🕉 *बांस की लकड़ी को क्यों नहीं जलाया जाता है ?* 🌷👇

इसके पीछे धार्मिक कारण है या वैज्ञानिक कारण ?






हम अक्सर शुभ { जैसे हवन, पूजा, पाठ आदि } और अशुभ { दाह संस्कारादि } कामों के लिए विभिन्न प्रकार की लकड़ियों को जलाने में प्रयोग करते है ।

लेकिन क्या आपने कभी किसी काम के दौरान बांस की लकड़ी जलती देखी है ? 

नहीं ना?

भारतीय संस्कृति, परंपरा और धार्मिक महत्व के अनुसार ।

"हमारे शास्त्रों में बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित माना गया है। 

यहां तक की हम अर्थी के लिए बांस की लकड़ी का उपयोग तो करते है ।

लेकिन उसे चिता में जलाते नहीं।"

आर्य { हिन्दू } धर्मानुसार बांस जलाने से पितृ दोष लगता है ।

वहीं जन्म के समय जो नाल माता और शिशु को जोड़ के रखती है ।

उसे भी बांस के वृक्षो के बीच मे गाड़ते है ।

ताकि वंश सदैव बढ़ता रहे।

क्या इसका कोई वैज्ञानिक कारण है ?

बांस में लेड { शीसा } व हेवी-मेटल प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। 

शीसा जलने पर लेड ऑक्साइड बनाता है ।

जो कि एक खतरनाक न्यूरो-टॉक्सिक है। 

हेवी-मेटल भी जलने पर ऑक्साइड्स बनाते हैं।

लेकिन जिस बांस की लकड़ी को जलाना शास्त्रों में वर्जित है ।

यहां तक कि चिता में भी नही जला सकते ।

उस बांस की लकड़ी को हमलोग रोज़ अगरबत्ती में जलाते हैं।

अगरबत्ती के जलने से उत्पन्न हुई सुगन्ध के प्रसार के लिए फेथलेट नाम के विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है। 

यह एक फेथलिक एसिड का ईस्टर होता है ।

जो कि श्वांस के साथ शरीर में प्रवेश करता है ।

इस प्रकार अगरबत्ती की तथाकथित सुगन्ध न्यूरोटॉक्सिक एवम हेप्टोटोक्सिक को भी स्वांस के साथ शरीर मे पहुंचाती है।

इसकी लेशमात्र उपस्थिति कैंसर अथवा मष्तिष्क आघात का कारण बन सकती है। 

हेप्टो टॉक्सिक की थोड़ी सी मात्रा लीवर को नष्ट करने के लिए पर्याप्त है।

शास्त्रों में पूजन विधान में कहीं भी अगरबत्ती का उल्लेख नहीं मिलता ।

सब जगह धूप ही लिखा है।

हर स्थान पर धूप ।

दीप । 

कपूरम ।

नैवेद्य का ही वर्णन है।

अगरबत्ती का प्रयोग भारतवर्ष में इस्लाम के आगमन के साथ ही शुरू हुआ है। 

मुस्लिम लोग अगरबत्ती मज़ारों में जलाते है।

हम हमेशा अंधानुकरण ही करते है ।

जब कि हमारे धर्म की हर एक बातें वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मानव-मात्र के कल्याण के लिए ही बनी है...

🔸️अतः कृपया अगरबत्ती का प्रयोग न करें ।

उसकी जगह धूप  का ही उपयोग करें। 🌷👇
जय श्री कृष्ण

*💫❣🌀पुण्य कर्म का उचित फल🌀❣💫*





        *🌀💫एक गांव में एक बहुत गरीब सेठ रहता था जो कि किसी जमाने में बहुत बड़ा धनवान था।* 

*जब सेठ धनी था उस समय सेठ ने बहुत पुण्य किए,गौशाला बनवाई, गरीबों को खाना खिलाया,अनाथ आश्रम बनवाए और भी बहुत से पुण्य किए लेकिन जैसे जैसे समय गुजरा सेठ निर्धन हो गया।*

    *🌀💫एक समय ऐसा आया, कि राजा ने ऐलान कर दिया कि यदि किसी व्यक्ति ने कोई पुण्य किए हैं तो वह अपने पुण्य बताएं और अपने पुण्य का जो भी उचित फल है ले जाए।*

     *🌀💫यह बात जब सेठानी ने सुनी, तो सेठानी, सेठ को कहती है, कि हमने तो बहुत पुण्य किए हैं तुम राजा के पास जाओ और अपने पुण्य बताकर उनका जो भी फल मिले ले आओ।* 

*सेठ इस बात के लिए सहमत हो गया और दूसरे दिन राजा के महल जाने के लिए तैयार हो गया जब सेठ महल जाने लगा तो सेठानी ने सेठ के लिए चार रोटी बनाकर बांध दी कि रास्ते मे जब भूख लगी तो रोटी खा लेना।* 

*सेठ राजा के महल को रवाना हो गया।*

    *🌀💫गर्मी का समय था, दोपहर हो गई, सेठ ने सोचा सामने पानी का कुंड भी है, वृक्ष की छाया भी है, क्यों ना बैठकर थोड़ा आराम किया जाए व रोटी भी खा लूंगा।*

       *🌀💫सेठ वृक्ष के नीचे रोटी रखकर पानी से हाथ मुंह धोने लगा तभी वहां पर एक कुतिया अपने चार पांच छोटे छोटे बच्चों के साथ पहुंच गई और सेठ के सामने प्रेम से दुम हिलाने लगी क्योंकि कुतिया को सेठ के पास की रोटी की खुशबु आ रही थी।*

     *🌀💫कुतिया को देखकर सेठ को दया आई।* 

*सेठ ने दो रोटी निकाल कर कुतिया को डाल दी अब कुतिया भूखी थी और बिना समय लगाए कुतिया दोनो रोटी खा गई और फिर से सेठ की तरफ देखने लगी।* 

*सेठ ने सोचा कि कुतिया के चार पांच बच्चे इसका दूध भी पीते हैं, दो रोटी से इसकी भूख नहीं मिट सकती और फिर सेठ ने बची हुई दोनों रोटी भी कुतिया को डाल कर पानी पीकर अपने रास्ते चल दिया।*

     *🌀💫सेठ राजा के दरबार मे हाजिर हो गया और अपने किए गए पुण्य के कामों की गिनती करने लगा, और सेठ ने अपने द्वारा किए गए सभी पुण्य कर्म, विस्तार पूर्वक राजा को बता दिए और अपने द्वारा किए गए पुण्य का फल देने की बात कही।*

      *🌀💫तब राजा ने कहा कि आपके इन पुण्य का कोई फल नहीं है, यदि आपने कोई और पुण्य किया है तो वह भी बताएं शायद उसका कोई फल मैं आपको दे पाऊँ।*

     *🌀💫सेठ कुछ नहीं बोला और यह कहकर वापिस चल दिया कि यदि मेरे इतने पुण्य का कोई फल नहीं है तो और पुण्य गिनती करना बेकार है, अब मुझे यहां से चलना चाहिए।*

     *🌀💫जब सेठ वापिस जाने लगा तो राजा ने सेठ को आवाज लगाई कि सेठ जी आपने एक पुण्य कल भी किया था वह तो आपने बताया ही नहीं।* 

*सेठ ने सोचा कि कल तो मैनें कोई पुण्य किया ही नहीं राजा किस पुण्य की बात कर रहा है क्योंकि सेठ भूल चुका था कि कल उसने कोई पुण्य किया था।* 

*सेठ ने कहा कि राजा जी कल मैनें कोई पुण्य नहीं किया।*

    *🌀💫तो राजा ने सेठ को कहा -  कि कल तुमने एक कुतिया को चार रोटी खिलाई और तुम उस पुण्य कर्म को भूल गए।* 

*कल किए गए आपके पुण्य के बदले आप जो भी मांगना चाहते हो मांग लो वह आपको मिल जाएगा।*

*🌀💫सेठ ने पूछा कि राजा जी ऐसा क्यों?* 

*मेरे किए पिछले सभी कर्म का कोई मूल्य नहीं है और एक कुतिया को डाली गई चार रोटी का मोल क्यों?*

    *🌀💫राजा के कहा - हे सेठ, जो पुण्य करके तुमने याद रखे और गिनकर लोगों को बता दिए, वह सब बेकार है, क्यों कि तुम्हारे अन्दर मैं बोल रही है कि यह मैनें किया?* 


*तुम्हारे सब कर्म व्यर्थ हैं जो तुम करते हो और लोगों को सुनाते हो।*

     *🌀💫जो सेवा कल तुमने रास्ते मे कुतिया को चार रोटी पुण्य करके की, वह तुम्हारी सबसे बड़ी सेवा है, उसके बदले में तुम मेरा सारा राज्य भी ले लो, वह भी बहुत कम है।*

    *कहानी का अर्थ --*

       *⛲दान व पुण्य वही है जो एक हाथ से करे तो दूसरे हाथ को भी पता न हो कि दान किया है।*
  
       *🙏जय द्वारकाधीश 🙏*

         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

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