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Sunday, June 29, 2025

शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कथा-

|| शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कथा- ||

शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कथा-

एक बार सबसे ज्यादा श्रेष्ठ कौन है को लेकर सभी देवताओं में वाद - विवाद होने लगा विवाद जब बढ़ गया तब सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और पुछा की देवराज बताइए हम सभी देवगणों सबसे ज्यादा श्रेष्ठ कौन है। 

उनकी बात सुनकर देवराज भी चिंता में पड़ गए की इनको क्या उत्तर दूं. फिर उन्होंने ने कहा पृथ्वीलोक में उज्जैनी नमक नगरी है, वहा के रजा विक्रमादित्य जो कोई न्याय करने में बहुत ज्ञानी हैं वो दूध का दूध और पानी का पानी तुरंत कर देते हैं आप उनके पास जाइये वो आपके शंका का समाधान कर देंगे।




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सभी देवता देवराज इन्द्र की बात मानकर विक्रमादित्य के पास पहुचे और उनको अपनी बात बताई, तो विक्रमादित्य ने अलग-अलग धातुओं सोना, तम्बा, कांस्य, चंदी आदि के आसन बनवाए ओर सभी को एक के बाद एक रखने को कहा और सभी देवताओं को उन पर बैठने को कहा उसके बाद राजा ने कहा फैसला हो गया जो सबसे आगे बैठे हैं वो सबसे ज्यादा श्रेष्ठ हैं।


इस हिसाब से शनिदेव सबसे पीछे बैठे थे, राजा की ये बात सुनकर शनिदेव बहुत ही क्रोधित हुए और राजा को बोला तुमने मेरा घोर अपमान किया है जिसका दंड तुम्हे भुगतना परेगा।

उसके बाद सभी देवता वहा से चले गए. लेकिन शनिदेव अपने अपमान को भूल नहीं पाए थे।

और वो राजा विक्रमदित्य को दंड देना चाहते थे।


एक बार शनिदेव घोड़े के व्यापारी का रूप धर कर राजा के पास पहुचे।

राजा को घोडा बहुत पसंद आया और उन्होंने वो घोडा खरीद लिया फिर जब वो उस पर सवार हुए तो घोडा तेजी से भागा और राजा को जंगल में गिरा कर भाग गया । 

विक्रमादित्य जंगल में अकेला भूखे प्यासे भटक रहा था भटकते भटकते राजा एक नगर में पंहुचा वहा जब एक सेठ ने राजा की ये हालत देखि तो उसे राजा पर बहुत दया आया और अपने’ घर में’शरण दिया उस दिन शेठ को अपने व्यापर में काफी मुनाफा हुआ । 

तो उसको लगा ये मेरे मेरे लिए बहुत भाग्यशाली है, फिर वो उसे अपने घर लेकर गया। 

सेठ के घर में एक सोने का हार खूंटी से लटकी हुई थी सेठ विक्रमादित्य को घर में अकेला छोर कर थोड़ी देर के लिए बाहर गया इस बीच खूटी सोने के हार को निगल गयी।


सेठ जब वापस आया तो सोने के हार को न पाकर बहुत क्रोधित हुआ । 

उसे लगा की विक्रमादित्य ने हार’चुरा लिया। 

वो उसे लेकर उस नगर के राजा के पास गया और सारी बात बताई। 

राजा ने विक्रमादित्य से पूछा की ये सच है तो विक्रमादित्य ने बताया की’ वो सोने की हार खूँटी निगल गयी जिस पर राजा को भरोसा नहीं हुआ और राजा ने विक्रमादित्य के हाथ - पैर काट देने की सजा सुनाई।

फिर विक्रमादित्य के हाथ पैर काटकर नगर के चौराहे पर रख दिया।

एक दिन उधर से एक तेली गुजर रहा था उसने जब विक्रमादित्य की हालत देखि तो बहुत दुखी हुआ वो उसे अपने घर लाया और वही रखा। 

एक दिन राजा विक्रमादित्य मल्लहार गा रहे थे और  उसी रास्ते से उस नगर की राजकुमारी जा रही थी इसे उसने जब मल्लहार की आवाज सुनी तो वो आवाज का पीछा करते विक्रमादित्य के पास पहुची और उसकी ये हालत देखि तो बहुत दुखी हुई। 

और अपने महल जा कर पिता से विक्रमादित्य से शादी करने की ज़िद करने लगी।


राजा पहले तो बहुत क्रोधित हुए फिर बेटी की जिद के झुक कर दोनों का विवाह कराया। 

तब तक विक्रमादित्य का साढ़ेसाती का प्रकोप भी समाप्त हो गया था फिर एक दिन शनिदेव विक्रमादित्य के स्वप्न में आये ओर बताया की ये सारी घटना उनके क्रोध के कारन हुई। 

फिर राजा ने कहा हे प्रभु आपने जितना कष्ट मुझे दिया उतना किसी को न देना। 

तो शनि देव ने कहा जो शुद्ध मन से मेरी पूजा करेगा शनिवार का व्रत रखेगा वो हमेशा मेरी कृपा का पात्र रहेगा।


फिर जब सुबह हुई तो राजा के हाथ पैर वापस आ गये थे। 

राजकुमारी ने जब यह देखा तो बहुत प्रसन्न हुई। 

फिर राजा और रानी उज्जैनी नगरी आये और नगर में घोषणा करवाई कि शनिदेव सबसे श्रेष्ठ हैं सब लोगो को शनिदेव का उपवास और व्रत रखना चाहिए।


उज्जैन त्रिवेणी संगम पर उनके द्वारा स्थापित शनि मंदिर आज भी विद्वमान  है।


  || जय शनिदेव प्रणाम आपको ||


इंद्र का ऐरावत हाथी की पौराणिक कथा 


बारिश बादल की अद्भुतकथा -


क्या आपको पता है इंद्र का हाथी ऐरावत सिर्फ एक वाहन नहीं, बल्कि बादलों और वर्षा का स्वामी भी है ?

समुद्र मंथन से जन्मे इस अद्भुत गजराज की कहानी आपको हैरान कर देगी! 

कैसे इसने धरती पर सूखा मिटाया और बन गया मेघों का राजा!


उसकी कहानी सिर्फ एक जानवर की नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय शक्तियों, त्याग और उस अद्भुत क्षण की है जब धरती पर पहली बार अमृत वर्षा हुई थी!

कल्पना कीजिए, सदियों पहले, जब ब्रह्मांड में सिर्फ अंधकार और जल था। 

देवता और असुर, दोनों ही अमरता की खोज में थे। 

इसी खोज में उन्होंने मिलकर एक ऐसे कार्य का बीड़ा उठाया जिसने सृष्टि का चेहरा ही बदल दिया - समुद्र मंथन! मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया और वासुकी नाग को रस्सी। 

महीनों तक यह मंथन चला, जिससे भयानक विष हलाहल निकला, जिसे भगवान शिव ने कंठ में धारण किया।

लेकिन फिर, इस महासागर से एक के बाद एक अद्भुत रत्न निकलने लगे। 

कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, अप्सराएं, देवी लक्ष्मी और फिर, एक गर्जना के साथ, जल से बाहर आया एक अलौकिक जीव! वह था ऐरावत - चार विशाल दाँतों वाला, दूधिया सफेद रंग का, बादलों-सा भव्य हाथी! 

उसकी काया इतनी विशाल और तेजस्वी थी कि देवता भी विस्मित रह गए।


ऐरावत सिर्फ सुंदरता ही नहीं, बल्कि शक्ति का भी प्रतीक था। 

उसके आगमन से वायुमंडल में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। 

देवराज इंद्र, अपनी सारी समृद्धि और शक्ति के बावजूद, एक ऐसे वाहन की तलाश में थे जो उनकी गरिमा के अनुरूप हो। 

ऐरावत को देखते ही इंद्र ने उसे अपना वाहन चुन लिया। 

ऐरावत, अपनी भव्यता और बल के साथ, इंद्र के सिंहासन के योग्य था।


लेकिन ऐरावत की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। 

वह सिर्फ इंद्र का वाहन नहीं, बल्कि वर्षा और बादलों का स्वामी भी बन गया। 

कहते हैं, जब ऐरावत अपनी सूंड उठाता है, तो आकाश में घने बादल छा जाते हैं, और जब वह चिंघाड़ता है, तो बिजली कड़कती है और मूसलाधार वर्षा होती है। 

धरती पर जब भी अकाल पड़ा है, तब देवताओं ने ऐरावत की स्तुति की है ताकि वह मेघों को बुलाकर प्यासी धरती को तृप्त कर सके।

एक बार, धरती पर भयंकर सूखा पड़ा। 

नदियाँ सूख गईं, खेत बंजर हो गए और जीवन त्राहि - त्राही कर रहा था। 

लोग इंद्रदेव से प्रार्थना कर रहे थे, लेकिन मेघ उनका आदेश नहीं मान रहे थे। 

तब इंद्र ने ऐरावत का आह्वान किया। 

ऐरावत ने अपनी अलौकिक शक्तियों से बादलों को आकर्षित किया। 

उसने अपनी सूंड से स्वर्ग गंगा का जल खींचा और उसे पृथ्वी पर वर्षा के रूप में बरसाया। 

ऐरावत के प्रयास से ही धरती पर फिर से हरियाली लौटी और जीवन का संचार हुआ।


ऐरावत की कहानी हमें सिखाती है कि प्रकृति और शक्ति का सामंजस्य कितना महत्वपूर्ण है। 

वह सिर्फ एक पौराणिक हाथी नहीं, बल्कि संतुलन, शक्ति और जीवनदायिनी वर्षा का प्रतीक है। 

अगली बार जब आप बादलों को गरजते और वर्षा को बरसते देखें, तो याद करें ऐरावत को - वह दिव्य गज जो आकाश में गरजता है और धरती पर जीवन लाता है!

     || महाकाल पंडारामा प्रभु राज्यगुरु  ||

Wednesday, June 25, 2025

मां का प्रेम , 'दुर्गावती’

मां का प्रेम ,  'दुर्गावती’  

 || मां का प्रेम ||


संसार में सबसे अधिक प्रेम करने वाला कोई व्यक्ति है, तो उसे मां कहते हैं। 

पिता को भी अपने बच्चों से प्रेम होता है, परन्तु इतना नहीं जितना मां को होता है।


यह नियम केवल मनुष्य जाति में ही नहीं, बल्कि सभी योनियों में देखा जाता है। 

चाहे गौ की योनि हो, सूअर की हो, कुत्ते बिल्ली शेर भेड़िया चिड़िया आदि कोई भी योनि हो, सब योनियों में उन बच्चों की मां अपने बच्चों से बहुत प्रेम करती है।




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यह ईश्वर की एक व्यवस्था है। 

क्योंकि यदि मां को बच्चों से इतना प्रेम न हो, तो शायद बच्चे पल भी नहीं पाएंगे। 

बच्चों के लालन - पालन के लिए मां में इतना प्रेम होना आवश्यक भी है। 

इसी प्रेम के कारण वह मां बच्चों का लालन पालन वर्षों तक करती है। 

और सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी अपने बच्चों को सुख देती है, और उनकी रक्षा करती है।


दार्शनिक शास्त्रीय भाषा में इसे "राग" कहते हैं। 

और साहित्यिक भाषा में इसे "स्नेह" कहते हैं। अस्तु।


भाषा जो भी हो, यह जो 'राग' या 'स्नेह' की "भावना" है, यह माता में बच्चों के लिए अद्वितीय होती है। 

इस भावना को मां ही अनुभव कर सकती है। 

दूसरे व्यक्ति इसको पूरी तरह से अनुभव नहीं कर सकते, कुछ कुछ मात्रा में कर लेते हैं।

परंतु इस भावना की अभिव्यक्ति शब्दों में करना तो असंभव है।

जैसे गुड़ का स्वाद शब्दों से व्यक्त करना असंभव है। 

वह स्वाद तो "अनुभव करने का" विषय है। 

ऐसे ही जो मां का बच्चों के प्रति राग या स्नेह होता है, वह भी अनुभव करने का ही विषय है। 

उसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता।


इस लिए सब लोगों को मां का सम्मान अवश्य करना चाहिए। 

और केवल अपनी मां का ही नहीं,बल्कि सभी माताओं का सम्मान करना चाहिए। 

क्योंकि सभी माताएं अपने बच्चों के लिए जितना कष्ट उठाती हैं....! 

उतना कष्ट कोई नहीं उठाता या उठा सकता।


     || मां तो मां ही होती है ||


‘दुर्गावती’ 


दुर्गाष्टमी पर जन्म, इसलिए नाम पड़ा ‘दुर्गावती’


रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को बांदा जिले के कालिंजर किले में हुआ था। 

दुर्गाष्टमी पर जन्म लेने के कारण उनका नाम ‘दुर्गावती’ रखा गया। 

वे कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की इकलौती संतान थीं।

अपने नाम के अनुरूप ही रानी दुर्गावती ने साहस, शौर्य और सुंदरता के कारण ख्याति प्राप्त की। 

उनका विवाह गोंडवाना राज्य के राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से हुआ था। 

विवाह के चार साल बाद ही राजा दलपत शाह का निधन हो गया। 

उस समय रानी दुर्गावती का पुत्र नारायण केवल तीन वर्ष का 

था, अतः उन्होंने स्वयं गढ़मंडला का शासन संभाल लिया।


अकबर के आगे नहीं झुकीं रानी दुर्गावती


रानी दुर्गावती इतनी पराक्रमी थीं कि उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के सामने झुकने से इनकार कर दिया। 

राज्य की स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने युद्ध का मार्ग चुना और कई बार शत्रुओं को पराजित किया। 

24 जून 1564 को उन्होंने वीरगति प्राप्त की। 

अंत समय निकट जानकर रानी ने अपनी कटार स्वयं अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान दिया।


   ||  शत् शत् नमन और प्रणाम ||


जो कुछ भी इस जगत में है वह ईश्वर ही है और कुछ नहीं वह आनंद स्रोत है, रस है। 

ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता का अंधेरा दूर होता है। 

बिना स्वाध्याय के, बिना ज्ञान की उपासना के बुद्धि पवित्र नहीं हो सकती.....! 

मानसिक मलीनता दूर नहीं हो सकती। 

मानव जीवन का लक्ष्य आत्मा का परमात्मा से मिलन है,जो की ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। 

ब्रह्मज्ञान एक दिव्य ज्ञान है जो आध्यात्मिक उन्नति और सम्पूर्णता का अनुभव है।


ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से, मनुष्य में प्रेम, करुणा, और समता जैसे गुण स्वतः ही उत्पन्न होते हैं। 

ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। 

ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति केवल पूर्ण सतगुरु से ही हो सकती है।

अतः अविद्या के अज्ञानता के सारे द्वार बंद कर स्वयं को ब्रह्मज्ञान के द्वारा प्रकाशित करें...।


अंधकार में अनेक प्रकार के भय, त्रास एवं विघ्न छिपे रहते हैं। 

दुष्ट तत्वों की घात अंधकार में ही लगती है।

अविद्या को अंधकार कहा गया है। 

अविद्या का अर्थ अक्षर ज्ञान की जानकारी का अभाव नही है.....! 

वरन्  जीवन की लक्ष्य भ्रष्टता है। 

इसी को नास्तिकता, अनीति, माया, भान्ति पशुता आदि नामों से पुकारते हैं।


अध्यात्म के द्वारा हम स्वयं को रूपांतरित कर सकते है। 

अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता है.....! 

जो सहज स्फूर्त नैतिकता को संभव बनाता है.....! 

और हम जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ते हैं। 

इस से व्यक्तित्व में दैवीय गुणों का विकास होता है और एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता व्यक्तित्व में जन्म लेती है।

जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से संबंधित है। 

हमें चाहिए कि हम अपने गुणों की वृद्धि करते रहे। 

ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा - पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण है, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। 

व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवन कला के विरोधी दुर्गुण है। 

इन का त्याग करने से जीवन कला को बल प्राप्त होता है।


अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है । 

इस के अभाव में असुख, अशाँति एवं असंतोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है। 

मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिए अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। 

जो साधक 'ब्रह्मज्ञान' के निकट पहुंच चुका है अथवा उसमें आत्मसात हो चुका है, उसके लिए सूर्य या ब्रह्म न तो उदित होता है, न अस्त होता है। 

वह तो सदा दिन के प्रकाश की भांति जगमगाता रहता है और साधक उसी में मगन रहता है...।


       || श्री अवधेशानंद गिरि जी महाराज  ||


अन्न का कण :

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श्री कृष्ण भगवान की एक प्रेरणादायक कहानी  ( "छोटा सा निवाला" )


एक बार की बात है। 

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था। 

द्वारका लौटने के बाद श्री कृष्ण भगवान एक दिन अपने महल में विश्राम कर रहे थे। 

तभी रुक्मिणी जी ने उनसे पूछा: "प्रभु, आपने इस युद्ध में सभी का साथ दिया, द्रौपदी की लाज बचाई, अर्जुन का रथ चलाया, लेकिन कभी अपने लिए कुछ नहीं माँगा। 

आपको कभी भूख, थकावट या दुख नहीं हुआ क्या ?"


श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले: 

"रुक्मिणी, मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ जो तुम्हें समझा देगी कि मुझे क्या तृप्त करता है....! 

और फिर उन्होंने एक पुरानी घटना सुनाई।


महाभारत युद्ध से पहले, जब पांडव वनवास में थे, वे बहुत कष्ट में थे। 

एक दिन ऋषि दुर्वासा अपने शिष्यों सहित पांडवों के आश्रम आए। 

उन्होंने कहा कि वे भोजन करने आए हैं और थोड़ी देर में लौटेंगे। 

उस समय पांडवों के पास अन्न का एक दाना भी नहीं था।


द्रौपदी बहुत चिंतित हो गईं। 

उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया। 

श्री कृष्ण तुरन्त प्रकट हुए। 

द्रौपदी ने कहा: "भगवन, हमारे पास ऋषियों को भोजन कराने के लिए कुछ भी नहीं है। 

क्या करें ?"


श्री कृष्ण मुस्कराए और बोले: 

"द्रौपदी, अपने पात्र को तो देखो।"


द्रौपदी ने जब पात्र देखा, तो उसमें एक चावल का छोटा सा दाना चिपका हुआ था। 

श्री कृष्ण ने वह छोटा सा दाना खा लिया और आँखें बंद कर लीं। 


अचानक ऋषि दुर्वासा और उनके सभी शिष्य जहां कहीं भी थे....! 

उन्हें इतना तृप्ति का अनुभव हुआ कि वे वापस ही नहीं आए। 

वे कहीं और चले गए।---


रुक्मिणी यह सुनकर अचंभित रह गईं और बोलीं: 

"केवल एक दाना और पूरी सृष्टि तृप्त हो गई?"


श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले: "जब प्रेम और विश्वास से कुछ दिया जाता है.....! 

तो वह अमृत बन जाता है। 

मुझे भूख नहीं लगती रुक्मिणी, मुझे प्रेम तृप्त करता है।"


शिक्षा ( Moral ) :

सच्चा प्रेम और भक्ति ही भगवान को तृप्त करती है। 

हमारी श्रद्धा से भरा छोटा सा प्रयास भी अगर सच्चे मन से हो, तो वह ईश्वर के लिए बहुत बड़ा होता है। 

जय श्री कृष्ण

जय जय श्री राधे 


कौन थीं,? राधा, सीता, और पार्वती जी की माँ  पितरों की तीन मानसी कन्याओं की कथा ।


जगदम्बिका माँ पार्वती, सीता मैया और राधारानी जी का आपस में सम्बन्ध है। 

जी हाँ, शायद आपने भी पितरों की मानसी पुत्रियों के बारे में सुना या पढ़ा होगा। 

श्रीशिव महापुराण में से एक ऐसी ही कथा के बारे में बताते हैं जो जुड़ी है पितरों की मानसी कन्याओं के साथ। इस कथा में उन्हें मिला शाप ही उनके लिए वरदान बन गया।


पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष की साठ पुत्रियाँ थी, जिनका विवाह ऋषि कश्यप आदि के साथ किया गया। 

इनमें से स्वधा नामक पुत्री का विवाह दक्ष ने पितरों के साथ किया। 


कुछ समय के बाद पितरों के मन से प्रादुर्भूत तीन कन्याएँ स्वधा को प्राप्त हुईं। 

बड़ी कन्या का नाम मेना, मझली का नाम धन्या और सबसे छोटी कन्या का नाम कलावती था। 

ये तीनों कन्याएँ ही बहुत सौभाग्यवती थीं।


एक बार की बात है, तीनों बहनें, श्री विष्णु के दर्शन करने के लिए श्वेतद्वीप गईं। 

भगवान् विष्णु के दर्शन कर, वे प्रभु की आज्ञा से वहीं रुक गईं। 

उस समय वहाँ एक बहुत बड़ा समाज एकत्रित हुआ था। 

उस समाज में अन्य सभी के साथ ब्रह्मा जी के पुत्र सनकादि भी उपस्थित हुए। 

सनकादि मुनियों को वहाँ आया देख सभी ने उन्हें प्रणाम किया और वे सब अपने - अपने स्थान से उठ खड़े हुए।


लेकिन महादेव की माया से सम्मोहित हो कर तीनों बहनें वहाँ अपने - अपने स्थान पर बैठी रहीं और विस्मित होकर उन मुनियों को देखती रहीं। 

कहते हैं न कि शिवजी की माया बहुत ही प्रबल है....! 

जो सब लोगों को अपने अधीन रखती है....! 

अर्थात उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं होता और इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ।

सनकादि के स्वागत- सत्कार में जब तीनों बहनें उठी नहीं....! 

तो सनकादि जैसे महान ज्ञाता मुनिश्वरों ने उन तीनों बहनों पर क्रोध किया। 

सनत्कुमार ने दण्डित करने के लिए उन्हें शाप दे दिया।


सनत्कुमार ने कहा, ‘तुम तीन बहनें पितरों की कन्या हो....! 

तब भी तुम मूर्ख, सद्ज्ञान से रहित और वेदतत्व के ज्ञान से खाली हो। 

अभिमान के कारण तुम तीनों ने हमारा अभिवादन नहीं किया और तुम नरभाव से मोहित हो गई हो इस लिए तुम स्वर्ग से दूर हो कर....! 

मनुष्यों की स्त्रियाँ बन जाओगी।


जब शिवजी की माया तीनों बहनों से दूर हुई....! 

तब तीनों ने सनकादि के चरण पकड़ लिए और उनसे कहा कि मूर्ख होने के कारण हम ने आपका आदर-सत्कार नहीं किया। 

अपने किए का फल हमें स्वीकार है। 

हम अपनी गलती की क्षमा माँगते हैं और हे महामुने! 

हम पर दया कीजिए। 

आप हमें, पुनः स्वर्गलोक की प्राप्ति हो सके, उसका उपाय बताइए।


साध्वी कन्याओं से प्रसन्न हो कर सनत्कुमार बोले कि सबसे बड़ी पुत्री विष्णु जी के अंशभूत हिमालय पर्वत की पत्नी होगी....! 

जिसकी पुत्री स्वयं माँ जगदम्बिका पार्वती होंगी।

धन्या नामक कन्या का विवाह राजा सीरध्वज जनक से होगा....! 

जिनकी पुत्री स्वयं श्री लक्ष्मी होंगी और उसका नाम सीता होगा।


इसी प्रकार से तीसरी और सबसे छोटी कन्या, कलावती का विवाह वृषभानु से होगा, जिनकी पुत्री के 

रूप में द्वापर के अंत में श्री राधारानी जी प्रकट होंगी। 


इस प्रकार तीनों ही बहनें, तीन महान देवियों की माता होने का सुख पाएँगी और समय आने पर अपने - अपने पति के साथ स्वर्ग को चली जाएँगी। 

सनत्कुमार ने इन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा कि महादेव की भक्ति के फल के रूप में ये तीनों बहनें हमेशा ही पूजनीय रहेंगी।


कालांतर में पितरों की सबसे बड़ी पुत्री मेना का विवाह हिमालय पर्वत के साथ हुआ और उन्हें पुत्री के रूप में स्वयं माँ जगदम्बिका, पार्वती जी प्राप्त हुईं। 


शिवजी को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती जी ने कठोर तपस्या की और अपनी पुत्री के वरदान स्वरूप मेना और उनके पति हिमालय अपने उसी शरीर के साथ परम पद कैलाश को चले गए।


वहीं धन्या का विवाह जनकवंश में उत्पन्न हुए राजा सीरध्वज के साथ हुआ। 

और उनकी संतान के रूप में सीता जी का साथ उन्हें मिला। 

सीता जी का विवाह विष्णु जी के अवतार, श्री राम से हुआ। 

स्वयं श्री लक्ष्मी जिनकी पुत्री हुई, उन साध्वी माता धन्या ने, अपने पति के साथ वैकुण्ठ लोक को प्राप्त किया।


पितरों की सबसे छोटी बेटी का विवाह वृषभानु जी से हुआ और इन्हें श्री राधारानी जी की माँ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 

ये अपनी पुत्री के साथ ही गोलोक को चली गईं।

सनत्कुमार के द्वारा पितरों की मानसी कन्याओं को प्राप्त शाप ही उनके उद्धार का कारण बना और मनुष्य योनि में आने के बाद भी तीनों बहनों को शिवलोक, वैकुण्ठ और गोलोक की प्राप्ति हुई।


उपरोक्त पोस्ट 6 वर्ष पूर्व मेरे द्वारा पितृपक्ष में फेसबुक पर प्रसारित की थी। 

     || समस्त मातृ शक्तियों को प्रणाम ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

Sunday, June 22, 2025

शिवपुराण के अनुसार

 शिवपुराण के अनुसार  


शिव के बारह ज्योतिर्लिंग की महिमा 


द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र :


सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।

हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥

एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥





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इस स्तोत्र के जप मात्र से व्यक्ति को शिवजी के साथ ही सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। 

जो भी व्यक्ति इस स्तोत्र को नियमित जप करता है, उसे महालक्ष्मी की कृपा हमेशा प्राप्त होती है


क्या आप जानते हैं भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग देश के अलग - अलग भागों में स्थित हैं। 

इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है। 

इन ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म - जन्मातर के सारे पाप समाप्त हो जाते हैं। 


सोमनाथ

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भारत का ही नहीं अपितु इस पृथ्वी का पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है। 

यह मंदिर गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है। 

शिवपुराण के अनुसार जब चंद्रमा को दक्ष प्रजापति ने क्षय रोग होने का श्राप दिया था, तब चंद्रमा ने इसी स्थान पर तप कर इस श्राप से मुक्ति पाई थी। 

ऐसा भी कहा जाता है कि इस शिवलिंग की स्थापना स्वयं चंद्रदेव ने की थी। 


मल्लिकार्जुन 

यह ज्योतिर्लिंग आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्री शैल नाम के पर्वत पर स्थित है। 

इस मंदिर का महत्व भगवान शिव के कैलाश पर्वत के समान कहा गया है। 

अनेक धार्मिक शास्त्र इसके धार्मिक और पौराणिक महत्व की व्याख्या करते हैं। 

कहते हैं कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है।


महाकालेश्वर 

यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी कही जाने वाली उज्जैन नगरी में स्थित है। 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। 

यहां प्रतिदिन सुबह की जाने वाली भस्मारती विश्व भर में प्रसिद्ध है। 

महाकालेश्वर की पूजा विशेष रूप से आयु वृद्धि और आयु पर आए हुए संकट को टालने के लिए की जाती है।


ओंकारेश्वर 

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध शहर इंदौर के समीप स्थित है। 

जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊं का आकार बनता है। 

ऊं शब्द की उत्पति ब्रह्मा के मुख से हुई है। 

इस लिए किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं के साथ ही किया जाता है। 

यह ज्योतिर्लिंग औंकार अर्थात ऊं का आकार लिए हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से जाना जाता है।


केदारनाथ 

केदारनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग भी भगवान शिव के 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में आता है। 

यह उत्तराखंड में स्थित है। 

बाबा केदारनाथ का मंदिर बद्रीनाथ के मार्ग में स्थित है। 

केदारनाथ का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में भी मिलता है। 

यह तीर्थ भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। 

जिस प्रकार कैलाश का महत्व है उसी प्रकार का महत्व शिव जी ने केदार क्षेत्र को भी दिया है।


भीमाशंकर 

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पूणे जिले में सह्याद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। 

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग को मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। 

इस मंदिर के विषय में मान्यता है कि जो भक्त श्रृद्धा से इस मंदिर के प्रतिदिन सुबह सूर्य निकलने के बाद दर्शन करता है, उसके सात जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं तथा उसके लिए स्वर्ग के मार्ग खुल जाते हैं।


काशी विश्वनाथ  

विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। 

यह उत्तर प्रदेश के काशी नामक स्थान पर स्थित है। 

काशी सभी धर्म स्थलों में सबसे अधिक महत्व रखती है। 

इस लिए सभी धर्म स्थलों में काशी का अत्यधिक महत्व कहा गया है। 

इस स्थान की मान्यता है, कि प्रलय आने पर भी यह स्थान बना रहेगा। 

इस की रक्षा के लिए भगवान शिव इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेंगे और प्रलय के टल जाने पर काशी को उसके स्थान पर पुन: रख देंगे।


त्र्यंबकेश्वर 

यह ज्योतिर्लिंग गोदावरी नदी के करीब महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले में स्थित है। 

इस ज्योतिर्लिंग के सबसे अधिक निकट ब्रह्मा गिरि नाम का पर्वत है। 

इसी पर्वत से गोदावरी नदी शुरू होती है। 

भगवान शिव का एक नाम त्र्यंबकेश्वर भी है। 

कहा जाता है कि भगवान शिव को गौतम ऋषि और गोदावरी नदी के आग्रह पर यहां ज्योतिर्लिंग रूप में रहना पड़ा।


वैद्यनाथ 

श्री वैद्यनाथ शिवलिंग का समस्त ज्योतिर्लिंगों की गणना में नौवां स्थान बताया गया है। 

भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर अवस्थित है, उसे वैद्यनाथ धाम कहा जाता है। 

यह स्थान झारखण्ड प्रान्त, पूर्व में बिहार प्रान्त के संथाल परगना के दुमका नामक जनपद में पड़ता है।


नागेश्वर ज्योतिर्लिंग 

यह ज्योतिर्लिंग गुजरात के बाहरी क्षेत्र में द्वारिका स्थान में स्थित है। 

धर्म शास्त्रों में भगवान शिव नागों के देवता है और नागेश्वर का पूर्ण अर्थ नागों का ईश्वर है। 

भगवान शिव का एक अन्य नाम नागेश्वर भी है। 

द्वारका पुरी से भी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की दूरी 17 मील की है। 

इस ज्योतिर्लिंग की महिमा में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ यहां दर्शनों के लिए आता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।


रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग 

यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु राज्य के रामनाथ पुरं नामक स्थान में स्थित है। 

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ - साथ यह स्थान हिंदुओं के चार धामों में से एक भी है। 

इस ज्योतिर्लिंग के विषय में यह मान्यता है, कि इसकी स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। 

भगवान राम के द्वारा स्थापित होने के कारण ही इस ज्योतिर्लिंग को भगवान राम का नाम रामेश्वरम दिया गया है।


धृष्णेश्वर मन्दिर 

घृष्णेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर महाराष्ट्र के संभाजीनगर के समीप दौलताबाद के पास स्थित है। 

इसे धृष्णेश्वर या घुश्मेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। 

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। 

बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएं इस मंदिर के समीप स्थित हैं। 

यहीं पर श्री एकनाथजी गुरु व श्री जनार्दन महाराज की समाधि भी है।


       ।। हर हर महादेव।।


शिव का रौद्र रूप है वीरभद्र।


समाचार सब संकर पाए। 

बीरभद्रु करि कोप पठाए॥

जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। 

सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥


यह अवतार तब हुआ था जब ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया लेकिन भगवान शिव को उसमें नहीं बुलाया। 

जबकि दक्ष की पुत्री सती का विवाह शिव से हुआ था। 


यज्ञ की बात ज्ञात होने पर सती ने भी वहां चलने को कहा लेकिन शिव ने बिना आमंत्रण के जाने से मना कर दिया। 

फिर भी सती जिद कर अकेली ही वहां चली गई।


अपने पिता के घर जब उन्होंने शिव का और स्वयं का अपमान अनुभव किया तो उन्हें क्रोध भी हुआ और उन्होंने यज्ञवेदी में कूदकर अपनी देह त्याग दी। 

जब भगवान शिव को यह पता हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। 

उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। 


शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है- 

क्रुद्ध: सुदष्टष्ठपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्व ह्लिस टोग्ररोचिषम्। 

उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥ 

ततोऽतिकाय स्तनुवा स्पृशन्दिवं। - श्रीमद् भागवत -4/5/1 


अर्थात सती के प्राण त्यागने से दु:खी भगवान शिव ने उग्र रूप धारण कर क्रोध में अपने होंठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी। 

सहसा खड़े होकर उन्होंने गंभीर अठ्ठाहस के साथ जटा को पृथ्वी पर पटक दिया। 

इसी से महाभयंकर वीरभद्र प्रगट हुए। 


भगवान शिव के वीरभद्र अवतार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। 

यह अवतार हमें संदेश देता है कि शक्ति का प्रयोग वहीं करें जहां उसका सदुपयोग हो। 

वीरों के दो वर्ग होते हैं- भद्र एवं अभद्र वीर। 


राम, अर्जुन और भीम वीर थे। 

रावण, दुर्योधन और कर्ण भी वीर थे लेकिन पहला भद्र ( सभ्य ) वीर वर्ग और दूसरा अभद्र (असभ्य ) वीर वर्ग है। 

सभ्य वीरों का काम होता है हमेशा धर्म के पथ पर चलना तथा नि:सहायों की सहायता करना। 


वहीं असभ्य वीर वर्ग सदैव अधर्म के मार्ग पर चलते हैं तथा नि:शक्तों को परेशान करते हैं। 

भद्र का अर्थ होता है कल्याणकारी। 

अत: वीरता के साथ भद्रता की अनिवार्यता इस अवतार से प्रतिपादित होती है।


|| नम्रता और सभ्यता ||


संसार में ऐसा देखा जाता है.....! 

कि "जो व्यक्ति नम्रता सभ्यता अनुशासन आदि में रहता है.....! 

सब काम सोच विचार कर संविधान के अनुकूल करता है.....! 

उसकी बुद्धि ठीक रहती है। 

वह ठीक निर्णय लेता है और ठीक काम करता है। 

परिणाम स्वरूप वह जीवन में सुखी रहता है।


इस के विपरीत ऐसा भी देखा जाता है....! 

कि जो व्यक्ति नम्रता सभ्यता अनुशासन में नहीं रहता....! 

हठ दुराग्रह मूर्खता और अभिमान आदि दोषों से घिरा रहता है.....!

उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। 

उसके निर्णय गलत होते हैं। 

उसकी योजनाएं गलत होती हैं। 

वह गलत काम करता है, और परिणाम स्वरूप वह स्वयं भी दुखी रहता है.....! 

तथा अन्यों को भी दुख देता है।


अब यहां समझने की और बड़ी विचित्र बात यह है.....! 

कि जब व्यक्ति अभिमान करता है.....! 

तो ऐसी स्थिति में उसे यह पता ही नहीं चलता, कि मैं गलत सोचता हूं।

गलत निर्णय लेता हूं। 

गलत काम करता हूं। 

अभिमान नामक भयंकर दोष उसे यह महसूस ही नहीं होने देता, कि वह ग़लत है। 

अपनी मूर्खता और दुष्टता के कारण वह स्वयं तो दुखी रहता ही है.....! 

तथा दूसरों को भी दुख देता रहता है।


इसलिए ऐसे मूर्ख दुष्ट अभिमानी लोगों की संगति से भी दूर रहें....! 

और स्वयं भी ऐसे पाप कर्म न करें। 

अच्छे कर्म करें। 

सभ्यता अनुशासन और नम्रता से जीवन जीएं। 

तभी आपका जीवन सुखमय एवं सफल हो पाएगा,अन्यथा नहीं।


        || महाकाल लोक  ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु   ।। हर हर महादेव।।


Monday, June 16, 2025

प्रदोष व्रत : निर्जला एकादशी व्रत :

 प्रदोष व्रत : निर्जला एकादशी व्रत :

 प्रदोष व्रत :

प्रदोष व्रत हर माह शुक्र पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है। 

इस दिन लोग भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करते हैं। 

वहीं अगल - अलग दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत की महिमा भी अलग - अलग होती है। 

धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव को समर्पित प्रदोष व्रत सभी कष्टों को हरने वाला माना जाता है। 

इस व्रत का महिमा मंडन शिव पुराण में मिलता है। 

कहते हैं कि इस दिन पूजा और अभिषेक करने से व्यक्ति को शुभ फलों की प्राप्ति होती है। 

इस के अलावा जीवन के सभी दुखों छुटकारा मिलता है।




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आषाढ़ माह का पहला प्रदोष व्रत कब है ?

पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ माह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि की शुरुआत 8 जून को सुबह 7 बजकर 17 मिनट पर होगी। 

वहीं तिथि का समापन अगले दिन यानी 9 जून को सुबह 9 बजकर 35 मिनट पर होगा। 

ऐसे में जेष्ठ माह का आखिरी प्रदोष व्रत 8 जून को रखा जाएगा। 

वहीं दिन महादेव की पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 7 बजकर 18 मिनट से लेकर 9 बजकर 19 मिनट तक रहेगा। 

इस दौरान भक्तों को पूजा के लिए कुल 2 घंटे 1 मिनट का समय मिलेगा।


प्रदोष व्रत में क्या नहीं करें ?

प्रदोष व्रत के दिन व्रती को नमक के सेवन से बचना चाहिए। 

साथ ही प्रदोष काल में कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए।

तामसिक भोजन, मांसाहार और शराब का सेवन भूलकर भी नहीं करना चाहि। 

साथ ही काले रंग के वस्त्र पहनने से बचना चाहिए।

मन में किसी भी व्यक्ति लिए नकारात्मक विचार नहीं लाने चाहिए। 

किसी से कोई विवाद नहीं करना चाहिए।

झूठ बोलने और बड़ों का अपमान या अनादर नहीं करना चाहिए।


प्रदोष व्रत में क्या करें ?

प्रदोष व्रत के दिन सुबह उठकर स्नान करें। 

इस के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें।

इस के बाद शिव जी का ध्यान करके व्रत का संकल्प लें।

प्रदोष व्रत के दिन शिवलिंग पर बेलपत्र, गंगाजल, दूध, दही, शहद चढ़ाएं।

इस दिन शिव प्रतिमा या शिवलिंग को चंदन, रोली और फूलों से सजाएं।

प्रदोष व्रत के दिन शिवलिंग का जलाभिषेक और रुद्राभिषेक दोनों कर सकते हैं।

प्रदोष व्रत के दिन शिवलिंग के सामने धूप - दीप जलाकर आरती करें।

इस दिन शिव पुराण का पाठ जरूर करें।

प्रदोष व्रत के दिन जरूरतमंदों और ब्राह्मणों को भोजन और वस्त्र दान करें।

प्रदोष व्रत के दिन फल, कपड़े, अन्न, काले तिल और गौ दान करने से पुण्य फल प्राप्त होता है।


प्रदोष व्रत का महत्व :


सनातन धर्म में अजर अमर अविनाशी भगवान शिव को जन्म जन्मांतर के चक्र से मुक्ति देने वाला कहा गया है। 

उनकी आराधना के लिए हर माह प्रदोष व्रत किया जाता है। 

कहते हैं कि त्रयोदशी के दिन इस व्रत को करने से शिव धाम की प्राप्ति होती है। 

जो व्यक्ति नियमित रूप से प्रदोष व्रत रखता है, उसके जीवन की समस्त इच्छाएं पूरी हो जाती हैं और जातक के परिवार के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। 

कहा जाता है कि शाप मिलने के कारण चंद्रमा को क्षयरोग और दोष हो गया था और उसके भयंकर शारीरिक कष्ट हो रहा था। 

उसने सच्चे मन से भगवान शिव की आराधनी की और भगवान शिव ने उसके क्षय रोग का निवारण करके त्रयोदशी के दिन स्वस्थ होने का वरदान दिया। 

प्रदोष व्रत करने से कुंडली में चंद्रमा की स्थिति अच्छी होती है और चंद्रमा शुभ फल देता है।


निर्जला एकादशी व्रत :


निर्जला एकादशी के व्रत को सभी एकादशी व्रत में से श्रेष्ठ और कठिन व्रत में एक माना जाता है। 

क्योंकि इस व्रत में अन्न तो क्या पीनी भी पीने की मनाही होती है। 

भगवान विष्णु को समर्पित इस व्रत को करने से व्यक्ति को जीवन में सुख - समृद्धि बनी रहती है। 

कहते हैं कि इस व्रत को महाभारत काल में भीम ने इस कठिन व्रत को किया था, तभी से इसे भीमसेनी एकादशी तक भी कहा जाता है। 

मान्यता है कि निर्जला एकादशी के दिन पूजा श्री हरि की पूजा करने के साथ कुछ विशेष उपाय करने से व्यक्ति को सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति मिलती है।


निर्जला एकादशी कब है ?


वैदिक पंचांग के अनुसार, निर्जला एकादशी यानी जेष्ठ माह की एकादशी तिथि की शुरुआत 6 जून को देर रात 2 बजकर 15 मिनट पर शुरू होगी। 

वहीं तिथि का समापन अगले दिन 7 जून को तड़के सुबह 4 बजकर 47 मिनट पर होगा। 

उदया तिथि के अनुसार, 6 जून को रखा जाएगा।


निर्जला एकादशी के उपाय :


भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने के लिए निर्जला एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की विधि विधान से पूजा आराधना करें। माता लक्ष्मी को एक श्रीफल अर्पित करें।

मान्यता है कि ऐसा करने से माता लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है सभी दुख दूर हो जाते हैं।


धन लाभ के लिए क्या करें ? 


पैसों की तंगी से बचने और धन का प्रवाह बढ़ाने के लिए निर्जला एकादशी के दिन भगवान विष्णु को तुलसी की मंजरी अवश्य अर्पित करें। 

ऐसा करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है। 

एकादशी तिथि के दिन तुलसी दल अथवा मंजरी को ना तोड़े।


ऐसे बढ़ेगा सुख - सौभाग्य :


निर्जला एकादशी के दिन जगत के पालनहार श्री हरि विष्णु को तुलसी दल अर्पित कर सुख - समृद्धि के लिए प्रार्थना करें। 

इसके साथ ही माता लक्ष्मी को खीर भोग लगाना चाहिए ऐसा करने से अच्छे वर की प्राप्ति होती है।


निर्जला एकादशी का महत्व :


सनातन धर्म में निर्जला एकादशी का विशेष महत्व है। 

इस व्रत को करने से साधक ( व्यक्ति ) दीर्घायु होता है। 

वहीं, मृत्यु के बाद साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

सभी एकादशियों में निर्जला एकादशी श्रेष्ठ है। 

व्रत के दौरान जल ग्रहण पूर्णतः वर्जित है। 

इस व्रत को भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है। 

गंगा दशहरा के एक दिन बाद निर्जला एकादशी मनाई जाती है। 

इस शुभ अवसर पर साधक अपने घरों पर व्रत रख लक्ष्मी नारायण जी की पूजा करते हैं। 

वहीं, मंदिरों में भगवान विष्णु और देवी मां लक्ष्मी की विशेष पूजा और आरती की जाती है।


निर्जला एकादशी पर दुर्लभ संयोग :


निर्जला एकादशी के दिन भद्रावास और वरीयान योग का संयोग बन रहा है। 

इस के साथ ही हस्त और चित्रा नक्षत्र का भी निर्माण हो रहा है। 

वहीं, अभिजित मुहूर्त और वणिज करण के भी योग हैं।


निर्जला एकादशी पूजा विधि :


एकादशी व्रत के नियम की शुरुआत दशमी तिथि से होती है। 

अतः दशमी तिथि पर घर के दैनिक कार्यों से निवृत्त होने के बाद स्नान-ध्यान करें। 

साधक गंगाजल युक्त पानी ( गंगाजल मिला पानी ) से स्नान करें और आचमन कर एकादशी व्रत संकल्प लें। 

इस के बाद पीले रंग के कपड़े पहनें और सूर्य देव को जल अर्पित करें। 

अब भक्ति भाव से लक्ष्मी नारायण जी की पूजा करें। 

दशमी तिथि पर सात्विक भोजन करें। 

साथ ही ब्रह्मचर्य नियमों का पालन करें। 

किसी के प्रति कोई वैर भावना न रखें और न ही किसी का दिल दुखाएं। 

अगले दिन यानी एकादशी तिथि पर ब्रह्म बेला में उठें। 

इस समय लक्ष्मी नारायण जी का ध्यान कर उन्हें प्रणाम करें। 

इस समय विष्णु जी के मंत्र का पाठ करें।

ग्यारस भगवान विष्णु जी एवं बृहस्पति जी से संबंध रखती है ।


बृहस्पति ग्रह से पीड़ित व्यक्ति इस दिन पीली वस्तु का दान किसी जरूरत मंद या भगवान विष्णु जी के मंदिर में पूर्ण श्रद्धा एवं कामना से अर्पण करे ।

जितना संभव हो पेय प्रदार्थ जैसे जल ,शरबत इत्यादि का दान करना श्रेष्ठ माना जाता हैं ।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 


Saturday, June 14, 2025

तुला दान क्यों ?

 || तुला दान क्यों ? ||

तुला दान क्यों ?        

तुला दान एक ऐसी दान-प्रथा है जिसमें व्यक्ति अपने वजन के बराबर कोई वस्तु ( जैसे सोना, चांदी, अनाज, या अन्य सामग्री ) दान करता है. यह एक प्राचीन हिंदू अनुष्ठान है जो धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखता है. तुला दान करने से व्यक्ति के जीवन में सुख, समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है।




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कलिकाल में तुलादान के समान कोई दान नहीं है शास्त्रों में सोलह महादानों में पहला महादान तुलादान बताया है। 

पौराणिक काल में सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण ने तुलादान किया। 

रत्न, चांदी, लोहा आदि धातु, घी, लवण ( नमक ), गुड़, चीनी, चंदन, कुमकुम, वस्त्र, सुगंधित  द्रव्य, कपूर, फल व विभिन्न अन्नों से तुलादान किया जाता है। 

आधि - व्याधि, ग्रह - पीड़ा व दरिद्रता के निवारण के लिए तुलादान बहुत श्रेष्ठ माना जाता है।


अपने वजन के बराबर सामग्री तोलकर गोमाता को दान करने से सबसे अधिक पुण्य की प्राप्ति होती है, क्योंकि गो को दिया गया दान ही सर्वश्रेष्ठ है। 

दान लेने की सबसे बड़ी और प्रथम अधिकारी गोमाता है। 

इस लिए हमको वर्ष में कम से कम एक बार तुला दान अवश्य करना चाहिए।


गुड़ का दान करने से पितरों को विशेष संतुष्टि प्राप्त होती है, इससे पितरों की आत्मा को शांति मिलती है,साथ ही,घर में सुख शांति बनी रहती है, ऐसी मान्यता है कि गुड़ का दान करने से घर का क्लेश भी दूर हो जाता है।


शिवपुराण के अनुसार नमक का दान करने से बुरा समय दूर होता है और घर में सुख - समृद्धि आती है।


चोकर आटा, अन्न दान बहुत शुभ माना जाता है, इससे घर में सुख-समृद्धि होती है।


खल दान करने से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो सकता है। 

आपको बीमारी से छुटकारा मिल सकता है।


तेल का दान करने से व्यक्ति के रुके

    हुए कार्य जल्द बनने लग जाते हैं।


घी का दान करते हैं, उनकी शारीरिक कमजोरियां दूर होती हैं और बीमारियों से मुक्ति मिलती है। आपकी उम्र बढ़ती है।


           || श्रेष्ठ दान तुला दान ||


गरुड़ पुराण में पाँच ऐसे
    मनुष्यों का वर्णन है। 

          

जो मरने के बाद प्रेत

 ( भटकती आत्मा ) बन जाते हैं।


ये कौन होते हैं? पाँच प्रेत

       

1- जो माता-पिता की सेवा नहीं करता

ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद भी चैन नहीं पाता।


2- जो पत्नी को दुःख देता है!

उसका जीवन और मरण दोनों अशांत होता है।


3- जो दूसरों का अन्न छीनता है!

वह आत्मा तृप्त नहीं होती- भूखी भटकती है।


4- जो गुरु का अपमान करता है!

ऐसे व्यक्ति को सद्गति नहीं मिलती।


5- जो मृत्यु के बाद श्राद्ध और पिंडदान नहीं करवाता वह आत्मा प्रेत योनि में फँसी रहती है।


कथा का सार:-

              

गरुड़ जी ने विष्णु भगवान से पूछा —

कौन लोग मरने के बाद प्रेत बनते हैं ?

भगवान विष्णु ने यह पांच बातें बताईं और कहा:-

जो धर्म,सेवा,और कर्तव्य से भागता है,वही प्रेत बनता है।


इस कथा से क्या सीखें ?

      

माता - पिता की सेवा करें!

पत्नी, गुरु और समाज का सम्मान करें!

अन्न को दूसरों से छीनें नहीं, बाँटें!

मृत्यु के बाद श्राद्ध कर्म जरूर करवाएं!


क्या आप इन बातों का पालन करते हैं ?

     धर्म ही जीवन है!


|| महाकाल ||


|| क्या हम बदल नही सकते ? ||

       

माना, कि मेरे भीतर बहुत दोष हैं, दुर्गुण हैं, पाप हैं, बुराइयाँ हैं - तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं कभी बदल नहीं सकता । 

अच्छा हो नहीं सकता । 

अगर अजामिल और रत्नाकर जैसे लोग जो दोषों के भंडार थे,उनमें बदलाव आ सकता है तो मुझमें भी आ सकता है । 

अगर मैं अपराधी हूँ तो मेरे धर्म में घोर से घोर अपराधी को, पापी को पावन, पुण्यात्मा - साधु बनाने की व्यवस्था है ।


भगवान श्रीकृष्ण की घोषणा है :-

        

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

 साधुरेव स मन्तव्यःसम्यग्व्यवसितो हि सः ॥


   {गीता अध्याय 9, श्लोक 30}


यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है ।


हर व्यक्ति के जीवन में कुछ न कुछ दोष थोड़ी बहुत मात्रा में रहते ही हैं । 

कोई भी कर्म पूर्णतः निर्दोष नहीं हो सकता । 

सत् - असत्, अच्छा - बुरा, पुण्य - पाप, गुण - दोष, सद्गुण - दुर्गुण - ये तो अनादि काल से चलते आ रहे हैं । 

भले से भले अच्छे से अच्छे व्यक्ति के भीतर कब बुराई आ जाए, कह नहीं सकते । 

ठीक उसी प्रकार बुरे से बुरे व्यक्ति के भीतर भी अच्छाई हो सकती है, पनप सकती है । 

अक्सर लोगों को, हम सबको अपनी बुराई उतनी जल्दी नहीं दिखती जितनी दूसरों की दिखती है ।


जो निंदा करते हैं, वे हमारे दोष बताते हैं । 

इस से हमें आत्म निरीक्षण करने का,अपने भीतर झांकने का अवसर मिलता है । 

हमें पावन, शुद्ध बनने के लिए, निर्दोष बनने के लिए उनकी निंदा - उनका दोषारोपण बहुत काम आता है।


         || जय श्री कृष्ण ||

पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः।

न चैव तु पृथग्भावमधिकेन ततो विदुः।।


एतदेवं च नैवं च न चोभे नानुभे न च।

स्वकर्मविषयं ब्रूयु: सत्त्वस्था: समदर्शिनः।।


मनुष्य को मिलने वाला सुख दुःख लाभ हानि यश अपयश कीर्ति अपकीर्ति सफलता और असफलता उसके पौरुष अर्थात कर्म और दैव अर्थात भाग्य के संयोग से व्यवहारिक और स्वभावतः फलित होने के  परिणाम स्वरूप होता है पौरुष ( कर्म ) और दैव ( भाग्य ) को कभी भी पृथक पृथक और न्यूनाधिक नही मानना चाहिए अर्थात न तो केवल कर्म और न ही केवल भाग्य फल प्राप्ति का साधन है ।

सब कुछ पूर्व में और पूर्व के जन्मों में  किये गये कर्म अकर्म धर्म अधर्म नीति अनीति न्याय अन्याय यश अपयश और पाप पुण्य के द्वारा अर्जित प्रारब्ध ( संचित कर्म फल ) अनुसार पूर्व निर्धारित फल भोग के अनुसार विधि द्वारा निर्धारित भाग्य और तदनुसार दैव प्रेरित पौरुष ( दैवीय प्रेरणा से कर्म करने का भाव )  के अनुसार अच्छे  बुरे पाप और पुण्यमय कार्य और कर्म करने और तदनुसार कर्म करने में लिप्त होने का भाव और कर्म की सफलता और संपन्नता की मात्रा के अनुसार किसी भी मनुष्य को उसके द्वारा किए गए पौरुष अनुसार  फल के परिमाण ( मात्रा ) और परिणाम की प्राप्ति होती है और उसके आधार पर ही दैव अर्थात ईश्वर मनुष्य  या किसी भी जीव के भाग्य का सृजन करता है और पुनः इस जीवन पौरुष रूपी कर्म और भाग्य वर्तमान जीवन के लिए आचरण स्वभाव और कर्म के भाव का निर्धारण होता है।


श्रीब्रह्माण्डपुराण,पूर्वभाग

  2-अनुषंगपाद,अध्याय-8 श्लोक-63,64

             

     || महाकाल ||


|| पंचमुखी गणेश ||

     

भगवान श्रीगणेश की पूजा का विधान सभी देवी- देवताओं में सबसे पहले है। 

किसी भी देवी - देवता की पूजा करने,या किसी नए कार्य को शुरू करने या शुभ कार्य में सबसे पहले भगवान श्री गणेश की पूजा की जाती है। 

कहा जाता है कि भगवान श्री गणेश दुखों और कष्ट को हर लेते हैं और इनकी पूजा करने से सारी दुख और परेशानी दूर हो जाती है। 

इस लिए किसी कार्य में सबसे पहले गणेशजी की पूजा करने से सभी कार्य अच्छे से संपन्न होता है।


भगवान गणेश के स्वरूपों में पंचमुखी गणेश का भी महत्व होता है। 

पंचमुखी का मतलब होता है पांच मुंह वाले गणेश। 

गणेश जी के पंचमुख को पांच कोश का प्रतीक भी कहा जाता है। 

इन पंचकोश को पांच तरह के शरीर कहा जाता है।


इनमें पहला कोश अन्नमय, दूसरा प्राणमय,तीसरा मनोमय, चौथा विज्ञानमय और पांचवा आनंदमय होता है।


जानते हैं भगवान गणेश के पंचमुखी या पंच कोश के बारे में।अन्नमय कोश- संपूर्ण जड़ जगत धरती, तारे, ग्रह, नक्षत्र आदि। 

ये सभी अन्नमय कोश कहलाते हैं। 

प्राणमय कोश- दूसरे कोश प्राणमय जड़ में प्राण आने से वायु तत्व जागता है और उससे कई तरह के जीव प्रकट होते हैं। 

इस लिए इसे प्राणमय कोश कहा जाता है। 

मनोमय कोश इसे शरीर का तीसरा कोश कहा जाता है, जो प्राणियों के मन में जाग्रत होता है।


जिनमें मन अधिक जानता है नहीं प्राणी मनुष्य बनता है। 

विज्ञानमय कोश- विज्ञानमय कोश बिल्कुल अलग प्रकृति का है। 

जिस सांसारिक माया भ्रम का ज्ञान प्राप्त होता है। 

सत्य के मार्ग चलने वाली बोधि विज्ञानमय कोश में होता है। 

आनंदमय कोश - ईश्वर और जगत के मध्य की कड़ी है आनंदमय कोश। 

कहा जाता है कि इस कोश से ज्ञान प्राप्त करने के बाद मानव समाधि युक्त अधिमानव बन जाता है। 

वहीं जो भी मानव इन पांचों कोशों से मुक्त होता है, वह मुक्त मुनष्य ब्रह्मलीन हो जाता है।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

 || भगवान पंचमुखी गणेश की जय हो ||