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Sunday, June 29, 2025

शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कथा-

|| शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कथा- ||

शनिदेव और राजा विक्रमादित्य की कथा-

एक बार सबसे ज्यादा श्रेष्ठ कौन है को लेकर सभी देवताओं में वाद - विवाद होने लगा विवाद जब बढ़ गया तब सभी देवता देवराज इन्द्र के पास पहुंचे और पुछा की देवराज बताइए हम सभी देवगणों सबसे ज्यादा श्रेष्ठ कौन है। 

उनकी बात सुनकर देवराज भी चिंता में पड़ गए की इनको क्या उत्तर दूं. फिर उन्होंने ने कहा पृथ्वीलोक में उज्जैनी नमक नगरी है, वहा के रजा विक्रमादित्य जो कोई न्याय करने में बहुत ज्ञानी हैं वो दूध का दूध और पानी का पानी तुरंत कर देते हैं आप उनके पास जाइये वो आपके शंका का समाधान कर देंगे।




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सभी देवता देवराज इन्द्र की बात मानकर विक्रमादित्य के पास पहुचे और उनको अपनी बात बताई, तो विक्रमादित्य ने अलग-अलग धातुओं सोना, तम्बा, कांस्य, चंदी आदि के आसन बनवाए ओर सभी को एक के बाद एक रखने को कहा और सभी देवताओं को उन पर बैठने को कहा उसके बाद राजा ने कहा फैसला हो गया जो सबसे आगे बैठे हैं वो सबसे ज्यादा श्रेष्ठ हैं।


इस हिसाब से शनिदेव सबसे पीछे बैठे थे, राजा की ये बात सुनकर शनिदेव बहुत ही क्रोधित हुए और राजा को बोला तुमने मेरा घोर अपमान किया है जिसका दंड तुम्हे भुगतना परेगा।

उसके बाद सभी देवता वहा से चले गए. लेकिन शनिदेव अपने अपमान को भूल नहीं पाए थे।

और वो राजा विक्रमदित्य को दंड देना चाहते थे।


एक बार शनिदेव घोड़े के व्यापारी का रूप धर कर राजा के पास पहुचे।




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राजा को घोडा बहुत पसंद आया और उन्होंने वो घोडा खरीद लिया फिर जब वो उस पर सवार हुए तो घोडा तेजी से भागा और राजा को जंगल में गिरा कर भाग गया । 

विक्रमादित्य जंगल में अकेला भूखे प्यासे भटक रहा था भटकते भटकते राजा एक नगर में पंहुचा वहा जब एक सेठ ने राजा की ये हालत देखि तो उसे राजा पर बहुत दया आया और अपने’ घर में’शरण दिया उस दिन शेठ को अपने व्यापर में काफी मुनाफा हुआ । 

तो उसको लगा ये मेरे मेरे लिए बहुत भाग्यशाली है, फिर वो उसे अपने घर लेकर गया। 

सेठ के घर में एक सोने का हार खूंटी से लटकी हुई थी सेठ विक्रमादित्य को घर में अकेला छोर कर थोड़ी देर के लिए बाहर गया इस बीच खूटी सोने के हार को निगल गयी।


सेठ जब वापस आया तो सोने के हार को न पाकर बहुत क्रोधित हुआ । 

उसे लगा की विक्रमादित्य ने हार’चुरा लिया। 

वो उसे लेकर उस नगर के राजा के पास गया और सारी बात बताई। 

राजा ने विक्रमादित्य से पूछा की ये सच है तो विक्रमादित्य ने बताया की’ वो सोने की हार खूँटी निगल गयी जिस पर राजा को भरोसा नहीं हुआ और राजा ने विक्रमादित्य के हाथ - पैर काट देने की सजा सुनाई।

फिर विक्रमादित्य के हाथ पैर काटकर नगर के चौराहे पर रख दिया।





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एक दिन उधर से एक तेली गुजर रहा था उसने जब विक्रमादित्य की हालत देखि तो बहुत दुखी हुआ वो उसे अपने घर लाया और वही रखा। 

एक दिन राजा विक्रमादित्य मल्लहार गा रहे थे और  उसी रास्ते से उस नगर की राजकुमारी जा रही थी इसे उसने जब मल्लहार की आवाज सुनी तो वो आवाज का पीछा करते विक्रमादित्य के पास पहुची और उसकी ये हालत देखि तो बहुत दुखी हुई। 

और अपने महल जा कर पिता से विक्रमादित्य से शादी करने की ज़िद करने लगी।


राजा पहले तो बहुत क्रोधित हुए फिर बेटी की जिद के झुक कर दोनों का विवाह कराया। 

तब तक विक्रमादित्य का साढ़ेसाती का प्रकोप भी समाप्त हो गया था फिर एक दिन शनिदेव विक्रमादित्य के स्वप्न में आये ओर बताया की ये सारी घटना उनके क्रोध के कारन हुई। 

फिर राजा ने कहा हे प्रभु आपने जितना कष्ट मुझे दिया उतना किसी को न देना। 

तो शनि देव ने कहा जो शुद्ध मन से मेरी पूजा करेगा शनिवार का व्रत रखेगा वो हमेशा मेरी कृपा का पात्र रहेगा।


फिर जब सुबह हुई तो राजा के हाथ पैर वापस आ गये थे। 

राजकुमारी ने जब यह देखा तो बहुत प्रसन्न हुई। 

फिर राजा और रानी उज्जैनी नगरी आये और नगर में घोषणा करवाई कि शनिदेव सबसे श्रेष्ठ हैं सब लोगो को शनिदेव का उपवास और व्रत रखना चाहिए।


उज्जैन त्रिवेणी संगम पर उनके द्वारा स्थापित शनि मंदिर आज भी विद्वमान  है।


  || जय शनिदेव प्रणाम आपको ||





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इंद्र का ऐरावत हाथी की पौराणिक कथा 


बारिश बादल की अद्भुतकथा -


क्या आपको पता है इंद्र का हाथी ऐरावत सिर्फ एक वाहन नहीं, बल्कि बादलों और वर्षा का स्वामी भी है ?

समुद्र मंथन से जन्मे इस अद्भुत गजराज की कहानी आपको हैरान कर देगी! 

कैसे इसने धरती पर सूखा मिटाया और बन गया मेघों का राजा!


उसकी कहानी सिर्फ एक जानवर की नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय शक्तियों, त्याग और उस अद्भुत क्षण की है जब धरती पर पहली बार अमृत वर्षा हुई थी!

कल्पना कीजिए, सदियों पहले, जब ब्रह्मांड में सिर्फ अंधकार और जल था। 

देवता और असुर, दोनों ही अमरता की खोज में थे। 

इसी खोज में उन्होंने मिलकर एक ऐसे कार्य का बीड़ा उठाया जिसने सृष्टि का चेहरा ही बदल दिया - समुद्र मंथन! मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया गया और वासुकी नाग को रस्सी। 

महीनों तक यह मंथन चला, जिससे भयानक विष हलाहल निकला, जिसे भगवान शिव ने कंठ में धारण किया।





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लेकिन फिर, इस महासागर से एक के बाद एक अद्भुत रत्न निकलने लगे। 

कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष, अप्सराएं, देवी लक्ष्मी और फिर, एक गर्जना के साथ, जल से बाहर आया एक अलौकिक जीव! वह था ऐरावत - चार विशाल दाँतों वाला, दूधिया सफेद रंग का, बादलों-सा भव्य हाथी! 

उसकी काया इतनी विशाल और तेजस्वी थी कि देवता भी विस्मित रह गए।


ऐरावत सिर्फ सुंदरता ही नहीं, बल्कि शक्ति का भी प्रतीक था। 

उसके आगमन से वायुमंडल में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। 

देवराज इंद्र, अपनी सारी समृद्धि और शक्ति के बावजूद, एक ऐसे वाहन की तलाश में थे जो उनकी गरिमा के अनुरूप हो। 

ऐरावत को देखते ही इंद्र ने उसे अपना वाहन चुन लिया। 

ऐरावत, अपनी भव्यता और बल के साथ, इंद्र के सिंहासन के योग्य था।


लेकिन ऐरावत की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। 

वह सिर्फ इंद्र का वाहन नहीं, बल्कि वर्षा और बादलों का स्वामी भी बन गया। 

कहते हैं, जब ऐरावत अपनी सूंड उठाता है, तो आकाश में घने बादल छा जाते हैं, और जब वह चिंघाड़ता है, तो बिजली कड़कती है और मूसलाधार वर्षा होती है। 

धरती पर जब भी अकाल पड़ा है, तब देवताओं ने ऐरावत की स्तुति की है ताकि वह मेघों को बुलाकर प्यासी धरती को तृप्त कर सके।





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एक बार, धरती पर भयंकर सूखा पड़ा। 

नदियाँ सूख गईं, खेत बंजर हो गए और जीवन त्राहि-त्राही कर रहा था। 

लोग इंद्रदेव से प्रार्थना कर रहे थे, लेकिन मेघ उनका आदेश नहीं मान रहे थे। 

तब इंद्र ने ऐरावत का आह्वान किया। 

ऐरावत ने अपनी अलौकिक शक्तियों से बादलों को आकर्षित किया। 

उसने अपनी सूंड से स्वर्ग गंगा का जल खींचा और उसे पृथ्वी पर वर्षा के रूप में बरसाया। 

ऐरावत के प्रयास से ही धरती पर फिर से हरियाली लौटी और जीवन का संचार हुआ।


ऐरावत की कहानी हमें सिखाती है कि प्रकृति और शक्ति का सामंजस्य कितना महत्वपूर्ण है। 

वह सिर्फ एक पौराणिक हाथी नहीं, बल्कि संतुलन, शक्ति और जीवनदायिनी वर्षा का प्रतीक है। 

अगली बार जब आप बादलों को गरजते और वर्षा को बरसते देखें, तो याद करें ऐरावत को - वह दिव्य गज जो आकाश में गरजता है और धरती पर जीवन लाता है!


     || महाकाल पंडारामा प्रभु राज्यगुरु  ||

Wednesday, June 25, 2025

मां का प्रेम , 'दुर्गावती’

मां का प्रेम ,  'दुर्गावती’  

 || मां का प्रेम ||


संसार में सबसे अधिक प्रेम करने वाला कोई व्यक्ति है, तो उसे मां कहते हैं। 

पिता को भी अपने बच्चों से प्रेम होता है, परन्तु इतना नहीं जितना मां को होता है।


यह नियम केवल मनुष्य जाति में ही नहीं, बल्कि सभी योनियों में देखा जाता है। 

चाहे गौ की योनि हो, सूअर की हो, कुत्ते बिल्ली शेर भेड़िया चिड़िया आदि कोई भी योनि हो, सब योनियों में उन बच्चों की मां अपने बच्चों से बहुत प्रेम करती है।




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यह ईश्वर की एक व्यवस्था है। 

क्योंकि यदि मां को बच्चों से इतना प्रेम न हो, तो शायद बच्चे पल भी नहीं पाएंगे। 

बच्चों के लालन - पालन के लिए मां में इतना प्रेम होना आवश्यक भी है। 

इसी प्रेम के कारण वह मां बच्चों का लालन पालन वर्षों तक करती है। 

और सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी अपने बच्चों को सुख देती है, और उनकी रक्षा करती है।


दार्शनिक शास्त्रीय भाषा में इसे "राग" कहते हैं। 

और साहित्यिक भाषा में इसे "स्नेह" कहते हैं। अस्तु।


भाषा जो भी हो, यह जो 'राग' या 'स्नेह' की "भावना" है, यह माता में बच्चों के लिए अद्वितीय होती है। 

इस भावना को मां ही अनुभव कर सकती है। 

दूसरे व्यक्ति इसको पूरी तरह से अनुभव नहीं कर सकते, कुछ कुछ मात्रा में कर लेते हैं।

परंतु इस भावना की अभिव्यक्ति शब्दों में करना तो असंभव है।

जैसे गुड़ का स्वाद शब्दों से व्यक्त करना असंभव है। 

वह स्वाद तो "अनुभव करने का" विषय है। 

ऐसे ही जो मां का बच्चों के प्रति राग या स्नेह होता है, वह भी अनुभव करने का ही विषय है। 

उसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता।


इस लिए सब लोगों को मां का सम्मान अवश्य करना चाहिए। 

और केवल अपनी मां का ही नहीं,बल्कि सभी माताओं का सम्मान करना चाहिए। 

क्योंकि सभी माताएं अपने बच्चों के लिए जितना कष्ट उठाती हैं, उतना कष्ट कोई नहीं उठाता या उठा सकता।


     || मां तो मां ही होती है ||


‘दुर्गावती’ 


दुर्गाष्टमी पर जन्म, इसलिए नाम पड़ा ‘दुर्गावती’


रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को बांदा जिले के कालिंजर किले में हुआ था। 

दुर्गाष्टमी पर जन्म लेने के कारण उनका नाम ‘दुर्गावती’ रखा गया। 

वे कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की इकलौती संतान थीं।





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अपने नाम के अनुरूप ही रानी दुर्गावती ने साहस, शौर्य और सुंदरता के कारण ख्याति प्राप्त की। 

उनका विवाह गोंडवाना राज्य के राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से हुआ था। 

विवाह के चार साल बाद ही राजा दलपत शाह का निधन हो गया। 

उस समय रानी दुर्गावती का पुत्र नारायण केवल तीन वर्ष का 

था, अतः उन्होंने स्वयं गढ़मंडला का शासन संभाल लिया।


अकबर के आगे नहीं झुकीं रानी दुर्गावती


रानी दुर्गावती इतनी पराक्रमी थीं कि उन्होंने मुगल सम्राट अकबर के सामने झुकने से इनकार कर दिया। 

राज्य की स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने युद्ध का मार्ग चुना और कई बार शत्रुओं को पराजित किया। 

24 जून 1564 को उन्होंने वीरगति प्राप्त की। 

अंत समय निकट जानकर रानी ने अपनी कटार स्वयं अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान दिया।


   ||  शत् शत् नमन और प्रणाम ||




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जो कुछ भी इस जगत में है वह ईश्वर ही है और कुछ नहीं वह आनंद स्रोत है, रस है। 

ब्रह्मज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता का अंधेरा दूर होता है। 

बिना स्वाध्याय के, बिना ज्ञान की उपासना के बुद्धि पवित्र नहीं हो सकती, मानसिक मलीनता दूर नहीं हो सकती। 

मानव जीवन का लक्ष्य आत्मा का परमात्मा से मिलन है,जो की ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही सम्भव है। 

ब्रह्मज्ञान एक दिव्य ज्ञान है जो आध्यात्मिक उन्नति और सम्पूर्णता का अनुभव है।


ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति से, मनुष्य में प्रेम, करुणा, और समता जैसे गुण स्वतः ही उत्पन्न होते हैं। 

ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। 

ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति केवल पूर्ण सतगुरु से ही हो सकती है।

अतः अविद्या के अज्ञानता के सारे द्वार बंद कर स्वयं को ब्रह्मज्ञान के द्वारा प्रकाशित करें...।


अंधकार में अनेक प्रकार के भय, त्रास एवं विघ्न छिपे रहते हैं। 

दुष्ट तत्वों की घात अंधकार में ही लगती है।

अविद्या को अंधकार कहा गया है। 

अविद्या का अर्थ अक्षर ज्ञान की जानकारी का अभाव नही है, वरन्  जीवन की लक्ष्य भ्रष्टता है। 

इसी को नास्तिकता, अनीति, माया, भान्ति पशुता आदि नामों से पुकारते हैं।


अध्यात्म के द्वारा हम स्वयं को रूपांतरित कर सकते है। 

अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता है, जो सहज स्फूर्त नैतिकता को संभव बनाता है, और हम जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ते हैं। 

इस से व्यक्तित्व में दैवीय गुणों का विकास होता है और एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता व्यक्तित्व में जन्म लेती है।




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जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से संबंधित है। 

हमें चाहिए कि हम अपने गुणों की वृद्धि करते रहे। 

ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा - पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण है, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। 

व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवन कला के विरोधी दुर्गुण है। 

इन का त्याग करने से जीवन कला को बल प्राप्त होता है।


अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है । 

इस के अभाव में असुख, अशाँति एवं असंतोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है। 

मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिए अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। 

जो साधक 'ब्रह्मज्ञान' के निकट पहुंच चुका है अथवा उसमें आत्मसात हो चुका है, उसके लिए सूर्य या ब्रह्म न तो उदित होता है, न अस्त होता है। 

वह तो सदा दिन के प्रकाश की भांति जगमगाता रहता है और साधक उसी में मगन रहता है...।


       || श्री अवधेशानंद गिरि जी महाराज  ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

Sunday, June 22, 2025

शिवपुराण के अनुसार

 शिवपुराण के अनुसार  


शिव के बारह ज्योतिर्लिंग की महिमा 


द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्र :


सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।

उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।

सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।

हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥

एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।

सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥





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इस स्तोत्र के जप मात्र से व्यक्ति को शिवजी के साथ ही सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त हो जाती है। 

जो भी व्यक्ति इस स्तोत्र को नियमित जप करता है, उसे महालक्ष्मी की कृपा हमेशा प्राप्त होती है


क्या आप जानते हैं भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग देश के अलग - अलग भागों में स्थित हैं। 

इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम से जाना जाता है। 

इन ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म - जन्मातर के सारे पाप समाप्त हो जाते हैं। 


सोमनाथ

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भारत का ही नहीं अपितु इस पृथ्वी का पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है। 

यह मंदिर गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है। 

शिवपुराण के अनुसार जब चंद्रमा को दक्ष प्रजापति ने क्षय रोग होने का श्राप दिया था, तब चंद्रमा ने इसी स्थान पर तप कर इस श्राप से मुक्ति पाई थी। 

ऐसा भी कहा जाता है कि इस शिवलिंग की स्थापना स्वयं चंद्रदेव ने की थी। 


मल्लिकार्जुन 

यह ज्योतिर्लिंग आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्री शैल नाम के पर्वत पर स्थित है। 

इस मंदिर का महत्व भगवान शिव के कैलाश पर्वत के समान कहा गया है। 

अनेक धार्मिक शास्त्र इसके धार्मिक और पौराणिक महत्व की व्याख्या करते हैं। 

कहते हैं कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है।


महाकालेश्वर 

यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी कही जाने वाली उज्जैन नगरी में स्थित है। 

महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। 

यहां प्रतिदिन सुबह की जाने वाली भस्मारती विश्व भर में प्रसिद्ध है। 

महाकालेश्वर की पूजा विशेष रूप से आयु वृद्धि और आयु पर आए हुए संकट को टालने के लिए की जाती है।





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ओंकारेश्वर 

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध शहर इंदौर के समीप स्थित है। 

जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊं का आकार बनता है। 

ऊं शब्द की उत्पति ब्रह्मा के मुख से हुई है। 

इस लिए किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं के साथ ही किया जाता है। 

यह ज्योतिर्लिंग औंकार अर्थात ऊं का आकार लिए हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से जाना जाता है।


केदारनाथ 

केदारनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग भी भगवान शिव के 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में आता है। 

यह उत्तराखंड में स्थित है। 

बाबा केदारनाथ का मंदिर बद्रीनाथ के मार्ग में स्थित है। 

केदारनाथ का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में भी मिलता है। 

यह तीर्थ भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। 

जिस प्रकार कैलाश का महत्व है उसी प्रकार का महत्व शिव जी ने केदार क्षेत्र को भी दिया है।





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भीमाशंकर 

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पूणे जिले में सह्याद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। 

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग को मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। 

इस मंदिर के विषय में मान्यता है कि जो भक्त श्रृद्धा से इस मंदिर के प्रतिदिन सुबह सूर्य निकलने के बाद दर्शन करता है, उसके सात जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं तथा उसके लिए स्वर्ग के मार्ग खुल जाते हैं।


काशी विश्वनाथ  

विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। 

यह उत्तर प्रदेश के काशी नामक स्थान पर स्थित है। 

काशी सभी धर्म स्थलों में सबसे अधिक महत्व रखती है। 

इस लिए सभी धर्म स्थलों में काशी का अत्यधिक महत्व कहा गया है। 

इस स्थान की मान्यता है, कि प्रलय आने पर भी यह स्थान बना रहेगा। 

इस की रक्षा के लिए भगवान शिव इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेंगे और प्रलय के टल जाने पर काशी को उसके स्थान पर पुन: रख देंगे।




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त्र्यंबकेश्वर 

यह ज्योतिर्लिंग गोदावरी नदी के करीब महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले में स्थित है। 

इस ज्योतिर्लिंग के सबसे अधिक निकट ब्रह्मा गिरि नाम का पर्वत है। 

इसी पर्वत से गोदावरी नदी शुरू होती है। 

भगवान शिव का एक नाम त्र्यंबकेश्वर भी है। 

कहा जाता है कि भगवान शिव को गौतम ऋषि और गोदावरी नदी के आग्रह पर यहां ज्योतिर्लिंग रूप में रहना पड़ा।




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वैद्यनाथ 

श्री वैद्यनाथ शिवलिंग का समस्त ज्योतिर्लिंगों की गणना में नौवां स्थान बताया गया है। 

भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर अवस्थित है, उसे वैद्यनाथ धाम कहा जाता है। 

यह स्थान झारखण्ड प्रान्त, पूर्व में बिहार प्रान्त के संथाल परगना के दुमका नामक जनपद में पड़ता है।


नागेश्वर ज्योतिर्लिंग 

यह ज्योतिर्लिंग गुजरात के बाहरी क्षेत्र में द्वारिका स्थान में स्थित है। 

धर्म शास्त्रों में भगवान शिव नागों के देवता है और नागेश्वर का पूर्ण अर्थ नागों का ईश्वर है। 

भगवान शिव का एक अन्य नाम नागेश्वर भी है। 

द्वारका पुरी से भी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की दूरी 17 मील की है। 

इस ज्योतिर्लिंग की महिमा में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ यहां दर्शनों के लिए आता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।




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रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग 

यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु राज्य के रामनाथ पुरं नामक स्थान में स्थित है। 

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ - साथ यह स्थान हिंदुओं के चार धामों में से एक भी है। 

इस ज्योतिर्लिंग के विषय में यह मान्यता है, कि इसकी स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। 

भगवान राम के द्वारा स्थापित होने के कारण ही इस ज्योतिर्लिंग को भगवान राम का नाम रामेश्वरम दिया गया है।


धृष्णेश्वर मन्दिर 

घृष्णेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर महाराष्ट्र के संभाजीनगर के समीप दौलताबाद के पास स्थित है। 

इसे धृष्णेश्वर या घुश्मेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। 

भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। 

बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएं इस मंदिर के समीप स्थित हैं। 

यहीं पर श्री एकनाथजी गुरु व श्री जनार्दन महाराज की समाधि भी है।


       ।। हर हर महादेव।।




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शिव का रौद्र रूप है वीरभद्र।


समाचार सब संकर पाए। 

बीरभद्रु करि कोप पठाए॥

जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। 

सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥


यह अवतार तब हुआ था जब ब्रह्मा के पुत्र दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया लेकिन भगवान शिव को उसमें नहीं बुलाया। 

जबकि दक्ष की पुत्री सती का विवाह शिव से हुआ था। 


यज्ञ की बात ज्ञात होने पर सती ने भी वहां चलने को कहा लेकिन शिव ने बिना आमंत्रण के जाने से मना कर दिया। 

फिर भी सती जिद कर अकेली ही वहां चली गई।


अपने पिता के घर जब उन्होंने शिव का और स्वयं का अपमान अनुभव किया तो उन्हें क्रोध भी हुआ और उन्होंने यज्ञवेदी में कूदकर अपनी देह त्याग दी। 

जब भगवान शिव को यह पता हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। 

उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। 


शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है- 

क्रुद्ध: सुदष्टष्ठपुट: स धूर्जटिर्जटां तडिद्व ह्लिस टोग्ररोचिषम्। 

उत्कृत्य रुद्र: सहसोत्थितो हसन् गम्भीरनादो विससर्ज तां भुवि॥ 

ततोऽतिकाय स्तनुवा स्पृशन्दिवं। - श्रीमद् भागवत -4/5/1 


अर्थात सती के प्राण त्यागने से दु:खी भगवान शिव ने उग्र रूप धारण कर क्रोध में अपने होंठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली, जो बिजली और आग की लपट के समान दीप्त हो रही थी। 

सहसा खड़े होकर उन्होंने गंभीर अठ्ठाहस के साथ जटा को पृथ्वी पर पटक दिया। 

इसी से महाभयंकर वीरभद्र प्रगट हुए। 


भगवान शिव के वीरभद्र अवतार का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। 

यह अवतार हमें संदेश देता है कि शक्ति का प्रयोग वहीं करें जहां उसका सदुपयोग हो। 

वीरों के दो वर्ग होते हैं- भद्र एवं अभद्र वीर। 


राम, अर्जुन और भीम वीर थे। 

रावण, दुर्योधन और कर्ण भी वीर थे लेकिन पहला भद्र ( सभ्य ) वीर वर्ग और दूसरा अभद्र (असभ्य ) वीर वर्ग है। 

सभ्य वीरों का काम होता है हमेशा धर्म के पथ पर चलना तथा नि:सहायों की सहायता करना। 


वहीं असभ्य वीर वर्ग सदैव अधर्म के मार्ग पर चलते हैं तथा नि:शक्तों को परेशान करते हैं। 

भद्र का अर्थ होता है कल्याणकारी। 

अत: वीरता के साथ भद्रता की अनिवार्यता इस अवतार से प्रतिपादित होती है।


पंडारामा प्रभु राज्यगुरु   ।। हर हर महादेव।।


Monday, June 16, 2025

प्रदोष व्रत : निर्जला एकादशी व्रत :

 प्रदोष व्रत : निर्जला एकादशी व्रत :

 प्रदोष व्रत :

प्रदोष व्रत हर माह शुक्र पक्ष और कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को रखा जाता है। 

इस दिन लोग भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करते हैं। 

वहीं अगल-अलग दिन पड़ने वाले प्रदोष व्रत की महिमा भी अलग - अलग होती है। 

धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव को समर्पित प्रदोष व्रत सभी कष्टों को हरने वाला माना जाता है। 

इस व्रत का महिमा मंडन शिव पुराण में मिलता है। 

कहते हैं कि इस दिन पूजा और अभिषेक करने से व्यक्ति को शुभ फलों की प्राप्ति होती है। 

इस के अलावा जीवन के सभी दुखों छुटकारा मिलता है।




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आषाढ़ माह का पहला प्रदोष व्रत कब है ?

पंचांग के अनुसार, ज्येष्ठ माह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि की शुरुआत 8 जून को सुबह 7 बजकर 17 मिनट पर होगी। 

वहीं तिथि का समापन अगले दिन यानी 9 जून को सुबह 9 बजकर 35 मिनट पर होगा। 

ऐसे में जेष्ठ माह का आखिरी प्रदोष व्रत 8 जून को रखा जाएगा। 

वहीं दिन महादेव की पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 7 बजकर 18 मिनट से लेकर 9 बजकर 19 मिनट तक रहेगा। 

इस दौरान भक्तों को पूजा के लिए कुल 2 घंटे 1 मिनट का समय मिलेगा।




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प्रदोष व्रत में क्या नहीं करें ?

प्रदोष व्रत के दिन व्रती को नमक के सेवन से बचना चाहिए। 

साथ ही प्रदोष काल में कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिए।

तामसिक भोजन, मांसाहार और शराब का सेवन भूलकर भी नहीं करना चाहि। 

साथ ही काले रंग के वस्त्र पहनने से बचना चाहिए।

मन में किसी भी व्यक्ति लिए नकारात्मक विचार नहीं लाने चाहिए। 

किसी से कोई विवाद नहीं करना चाहिए।

झूठ बोलने और बड़ों का अपमान या अनादर नहीं करना चाहिए।




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प्रदोष व्रत में क्या करें ?

प्रदोष व्रत के दिन सुबह उठकर स्नान करें। 

इस के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें।

इस के बाद शिव जी का ध्यान करके व्रत का संकल्प लें।

प्रदोष व्रत के दिन शिवलिंग पर बेलपत्र, गंगाजल, दूध, दही, शहद चढ़ाएं।

इस दिन शिव प्रतिमा या शिवलिंग को चंदन, रोली और फूलों से सजाएं।

प्रदोष व्रत के दिन शिवलिंग का जलाभिषेक और रुद्राभिषेक दोनों कर सकते हैं।

प्रदोष व्रत के दिन शिवलिंग के सामने धूप - दीप जलाकर आरती करें।

इस दिन शिव पुराण का पाठ जरूर करें।

प्रदोष व्रत के दिन जरूरतमंदों और ब्राह्मणों को भोजन और वस्त्र दान करें।

प्रदोष व्रत के दिन फल, कपड़े, अन्न, काले तिल और गौ दान करने से पुण्य फल प्राप्त होता है।




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प्रदोष व्रत का महत्व :


सनातन धर्म में अजर अमर अविनाशी भगवान शिव को जन्म जन्मांतर के चक्र से मुक्ति देने वाला कहा गया है। 

उनकी आराधना के लिए हर माह प्रदोष व्रत किया जाता है। 

कहते हैं कि त्रयोदशी के दिन इस व्रत को करने से शिव धाम की प्राप्ति होती है। 

जो व्यक्ति नियमित रूप से प्रदोष व्रत रखता है, उसके जीवन की समस्त इच्छाएं पूरी हो जाती हैं और जातक के परिवार के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। 

कहा जाता है कि शाप मिलने के कारण चंद्रमा को क्षयरोग और दोष हो गया था और उसके भयंकर शारीरिक कष्ट हो रहा था। 

उसने सच्चे मन से भगवान शिव की आराधनी की और भगवान शिव ने उसके क्षय रोग का निवारण करके त्रयोदशी के दिन स्वस्थ होने का वरदान दिया। 

प्रदोष व्रत करने से कुंडली में चंद्रमा की स्थिति अच्छी होती है और चंद्रमा शुभ फल देता है।


निर्जला एकादशी व्रत :


निर्जला एकादशी के व्रत को सभी एकादशी व्रत में से श्रेष्ठ और कठिन व्रत में एक माना जाता है। 

क्योंकि इस व्रत में अन्न तो क्या पीनी भी पीने की मनाही होती है। 

भगवान विष्णु को समर्पित इस व्रत को करने से व्यक्ति को जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है। 

कहते हैं कि इस व्रत को महाभारत काल में भीम ने इस कठिन व्रत को किया था, तभी से इसे भीमसेनी एकादशी तक भी कहा जाता है। 

मान्यता है कि निर्जला एकादशी के दिन पूजा श्री हरि की पूजा करने के साथ कुछ विशेष उपाय करने से व्यक्ति को सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति मिलती है।




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निर्जला एकादशी कब है ?


वैदिक पंचांग के अनुसार, निर्जला एकादशी यानी जेष्ठ माह की एकादशी तिथि की शुरुआत 6 जून को देर रात 2 बजकर 15 मिनट पर शुरू होगी। वहीं तिथि का समापन अगले दिन 7 जून को तड़के सुबह 4 बजकर 47 मिनट पर होगा। उदया तिथि के अनुसार, 6 जून को रखा जाएगा।


निर्जला एकादशी के उपाय :


भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने के लिए निर्जला एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान कर भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की विधि विधान से पूजा आराधना करें। माता लक्ष्मी को एक श्रीफल अर्पित करें।

मान्यता है कि ऐसा करने से माता लक्ष्मी की विशेष कृपा प्राप्त होती है सभी दुख दूर हो जाते हैं।




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धन लाभ के लिए क्या करें ? 


पैसों की तंगी से बचने और धन का प्रवाह बढ़ाने के लिए निर्जला एकादशी के दिन भगवान विष्णु को तुलसी की मंजरी अवश्य अर्पित करें। 

ऐसा करने से भगवान विष्णु की विशेष कृपा प्राप्त होती है। 

एकादशी तिथि के दिन तुलसी दल अथवा मंजरी को ना तोड़े।


ऐसे बढ़ेगा सुख-सौभाग्य :


निर्जला एकादशी के दिन जगत के पालनहार श्री हरि विष्णु को तुलसी दल अर्पित कर सुख - समृद्धि के लिए प्रार्थना करें। 

इसके साथ ही माता लक्ष्मी को खीर भोग लगाना चाहिए ऐसा करने से अच्छे वर की प्राप्ति होती है।




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निर्जला एकादशी का महत्व :


सनातन धर्म में निर्जला एकादशी का विशेष महत्व है। 

इस व्रत को करने से साधक (व्यक्ति) दीर्घायु होता है। 

वहीं, मृत्यु के बाद साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

सभी एकादशियों में निर्जला एकादशी श्रेष्ठ है। 

व्रत के दौरान जल ग्रहण पूर्णतः वर्जित है। 

इस व्रत को भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है। 

गंगा दशहरा के एक दिन बाद निर्जला एकादशी मनाई जाती है। 

इस शुभ अवसर पर साधक अपने घरों पर व्रत रख लक्ष्मी नारायण जी की पूजा करते हैं। 

वहीं, मंदिरों में भगवान विष्णु और देवी मां लक्ष्मी की विशेष पूजा और आरती की जाती है।


निर्जला एकादशी पर दुर्लभ संयोग :


निर्जला एकादशी के दिन भद्रावास और वरीयान योग का संयोग बन रहा है। 

इस के साथ ही हस्त और चित्रा नक्षत्र का भी निर्माण हो रहा है। 

वहीं, अभिजित मुहूर्त और वणिज करण के भी योग हैं।


निर्जला एकादशी पूजा विधि :


एकादशी व्रत के नियम की शुरुआत दशमी तिथि से होती है। 

अतः दशमी तिथि पर घर के दैनिक कार्यों से निवृत्त होने के बाद स्नान-ध्यान करें। 

साधक गंगाजल युक्त पानी ( गंगाजल मिला पानी ) से स्नान करें और आचमन कर एकादशी व्रत संकल्प लें। 

इस के बाद पीले रंग के कपड़े पहनें और सूर्य देव को जल अर्पित करें। 

अब भक्ति भाव से लक्ष्मी नारायण जी की पूजा करें। 

दशमी तिथि पर सात्विक भोजन करें। 

साथ ही ब्रह्मचर्य नियमों का पालन करें। 

किसी के प्रति कोई वैर भावना न रखें और न ही किसी का दिल दुखाएं। 

अगले दिन यानी एकादशी तिथि पर ब्रह्म बेला में उठें। 

इस समय लक्ष्मी नारायण जी का ध्यान कर उन्हें प्रणाम करें। 

इस समय विष्णु जी के मंत्र का पाठ करें।

ग्यारस भगवान विष्णु जी एवं बृहस्पति जी से संबंध रखती है ।




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बृहस्पति ग्रह से पीड़ित व्यक्ति इस दिन पीली वस्तु का दान किसी जरूरत मंद या भगवान विष्णु जी के मंदिर में पूर्ण श्रद्धा एवं कामना से अर्पण करे ।

जितना संभव हो पेय प्रदार्थ जैसे जल ,शरबत इत्यादि का दान करना श्रेष्ठ माना जाता हैं ।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु