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Tuesday, February 25, 2025

श्री महाशिवरात्रि :

|| महाशिवरात्रि ||


महाशिवरात्रि 

       
महाशिवरात्रि धार्मिक दृष्टि से देखा जाय तो पुण्य अर्जित करने का दिन है ।

लेकिन भौगोलिक दृष्टि से भी देखा जाय तो इस दिन आकाश मण्डल से कुछ ऐसी किरणें आती हैं।

जो व्यक्ति के तन-मन को प्रभावित करती हैं। 

इस दिन व्यक्ति जितना अधिक जप, ध्यान व मौन परायण रहेगा, उतना उसको अधिक लाभ होता है। 
महाशिवरात्रि भाँग पीने का दिन नहीं है। 






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शिवजी को व्यसन है भुवन भंग करने का अर्थात् भुवनों की सत्यता को भंग करने का लेकिन  भँगेड़ियों ने ‘ भुवनभंग ’ भाँग बनाकर घोटनी से घोंट - घोंट के भाँग पीना चालू कर दिया।

शिवजी यह भाँग नहीं पीते हैं जो ज्ञानतंतुओं को मूर्च्छित कर दे। 

शिवजी तो ब्रह्मज्ञान की भाँग पीते हैं, ध्यान की भाँग पीते हैं। 

शिवजी पार्वती जी को लेकर कभी - कभी अगस्त्य ऋषि के आश्रम में जाते हैं और ब्रह्म विद्या की भाँग पीते हैं। 





तो आप भी महाशिवरात्रि को सुबह ज्ञानरूपी भाँग पीना। 

जिसे ब्रह्मविद्या, ब्रह्मज्ञान की भाँग कहते हैं। 

सुबह उठकर बिस्तर पर ही बैठ के थोड़ी देर ‘हे प्रभु ! 

' आहा, मेरे को बस, रामरस मीठा लगे, प्रभुरस मीठा लगे, शिव - शिव, चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।’ 

ऐसा भाव करके ब्रह्मविद्या की भाँग पीना और संकल्प करना कि ‘आज के दिन मैं खुश रहूँगा।

’ और ‘ॐ नमः शिवाय - नमः शम्भवाय च मयोभवाय नमःशङ्कराय चमयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।

बोल के भगवान शिव की आराधना करते-करते शिवजी को प्यार करना, पार्वती जी को भी प्रणाम करना। 

फिर मन - ही - मन तुम गंगा किनारे नहाकर आ जाना। 

इस प्रकार की मानसिक पूजा से बड़ी उन्नति, शुद्धि होती है। 

यह बड़ी महत्त्वपूर्ण पूजा होती है और आसान भी है, सब लोग कर सकते हैं। 

गंगा - किनारा नहीं देखा हो तो मन - ही - मन ‘गंगे मात की जय' कह के गंगा जी में नहा लिया।*

फिर एक लोटा पानी का भरकर धीरे - धीरे शिवजी को चढ़ाया, ऐसा नहीं कि उंडे़ंल दिया, और ‘नमः शिवाय च मयस्कराय च’ बोलना नहीं आये तो ‘जय भोलेनाथ ! 

मेरे शिवजी ! 

नमः शिवाय, नमः शिवाय’ मन में ऐसा बोलते - बोलते पानी का लोटा चढ़ा दिया, मन-ही-मन हार, बिल्वपत्र चढ़ा दिये। 

फिर पार्वती जी को तिलक कर दिया और प्रार्थना कीः ‘आज की महाशिवरात्रि मुझे आत्मशिव से मिला दे।’ 

यह प्रारम्भिक भक्ति का तरीका अपना सकते हैं।* 

|| शिव महिम्न स्तोत्र ||
          
शिव महिम्न भगवान शिव के भक्तों के बीच बहुत लोकप्रिय है और इसे भगवान शिव को अर्पित सभी स्तोत्रों  ( या स्तुतियों ) में से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। 

इस स्तोत्र का पाठ बहुत लाभकारी है....! 

और श्री रामकृष्ण परमहंस इस भजन के कुछ छंदों को पढ़कर ही समाधि में चले गए थे। 

इस स्तोत्र की रचना के लिए परिस्थितियों के बारे में किंवदंती बताते हैं -

चित्ररथ नाम के एक राजा ने एक सुंदर बगीचा बनवाया था। इस बगीचे में सुंदर फूल थे। 

इन फूलों का उपयोग राजा द्वारा प्रतिदिन भगवान शिव की पूजा में किया जाता था। 

एक दिन पुष्पदंत नामक गंधर्व ( स्वर्ग के स्वामी इंद्र के दरबार में गायक ) सुंदर फूलों पर मोहित होकर उन्हें चुराने लगा, जिसके परिणामस्वरूप राजा चित्ररथ भगवान शिव को फूल नहीं चढ़ा सके।

उन्होंने चोर को पकड़ने की बहुत कोशिश की,लेकिन व्यर्थ, क्योंकि गंधर्वों के पास अदृश्य रहने की दिव्य शक्ति होती है। 

अंत में राजा ने अपने बगीचे में शिव निर्माल्य फैलाया। 

शिव निर्माल्य में बिल्व पत्र, फूल आदि होते हैं जिनका उपयोग भगवान शिव की पूजा में किया जाता है। 

शिव निर्माल्य को पवित्र माना जाता है। 

चोर पुष्पदंत को यह पता नहीं था.....! 

इस लिए वह शिव निर्माल्य पर चला गया.......! 

जिससे वह भगवान शिव के क्रोध का शिकार हो गया और अदृश्य होने की दिव्य शक्ति खो बैठा। 

फिर उसने भगवान शिव से क्षमा के लिए प्रार्थना की। 

इस प्रार्थना में उन्होंने प्रभु की महानता का गुणगान किया।यही प्रार्थना ' शिव महिम्न स्तोत्र ' के नाम से प्रसिद्ध हुई। 

भगवान शिव इस स्तोत्र से प्रसन्न हुए और पुष्पदंत की दिव्य शक्तियां लौटा दीं।

|| हर हर महादेव ||
      
हिन्दू शास्त्र के अनुसार ब्रह्माण्ड की तीन चक्रीय स्थितियां होती है स्रष्टि, संचालन एवं संहार ! 

जो चक्रिये अवस्था में अनंत काल तक चलता रहता है ! 

प्रत्येक अवस्था एक ईश्वर के द्वारा नियंत्रित व संचालित होता है ! 

इस लिए ब्रह्मा, विष्णु एवंम हेश को त्रिदेव कहा गया है ! 

चूँकि भगवान् शिव इस चक्रिये अवस्था के संहारक अवस्था को नियंत्रित करते है एतएव इनको महादेव भी कहा जाता है ! 

उपरोक्त शिवलिंग चित्र तीनों अवस्थाओं को दर्शाता है शिवलिंग के तीन हिस्से होते है निचला आधार का हिस्सा जिसमे तीन स्तर होते है जो तीनों लोकों को दर्शाता है जिसके ब्रह्मा स्राजनकर्ता है ! 

मध्य भाग अष्टकोनिए गोल हिस्सा अस्तित्व अथवा पोषण को दर्शाता है वह विष्णु है ! 

एवं ऊपर का सिलेंडर नुमा हिस्सा चक्रिये अवस्था के अंत को दिखताहै वह भगवान् शंकर है !

सदाशिव भगवान् शिव लिंग रूप में दर्शाए जाते है जो संपूर्ण ज्ञान के घोतक है ! 

भगवान् शंकर सभी चलायमान चीजों के आधार है इसलिए इनको ईश्वर भी कहते है ! 

भगवान् शंकर नृत्य काला के जनक भी है ! 

धर्म एव हतो हन्ति धर्मोरक्षति रक्षितः। 

अर्थात् " धर्म उसकी रक्षा करता है, जो धर्म कि रक्षा करता है "।

        *|| ॐ नमः शिवाय ||*

धर्मराजेश्वर मंदिर, मध्य प्रदेश 🛕

महाशिवरात्रि विशेष

एलोरा गुफा के शिव मंदिर की भांति चट्टानों को काटकर बनाया गया एक अद्भुत मंदिर मध्य प्रदेश में भी है.।

खरगौन जिले में स्थित यह मंदिर लगभग 1500 वर्ष प्राचीन है, जो अपनी अप्रतिम वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।

यह मंदिर मालवा की समृद्ध विरासत, संस्कृति एवं इतिहास समेटे हुए है।

जो भगवान शिव को समर्पित है।

यहां हमें आध्यात्मिक चेतना के साथ - साथ प्राचीन भारत की उन्नत स्थापत्यकला भी दिखाई देती है।

महाशिवरात्रि के समान कोई पाप नाशक व्रत नहीं :-
 
धर्मशास्त्र में महाशिवरात्रि व्रत का सर्वाधिक बखान किया गया है। 

कहा गया है कि महाशिवरात्रि के समान कोई पाप नाशक व्रत नहीं है।

इस व्रत को करके मनुष्य अपने सर्वपापों से मुक्त हो जाता है और अनंत फल की प्राप्ति करता है जिससे एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ वापजेय यज्ञ का फल प्राप्त करता है। 

इस व्रत को जो 14 वर्ष तक पालन करता है....! 

उसके कई पीढ़ियों के पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में मोक्ष या शिव के परम धाम शिवलोक की प्राप्ति होती है। 

महाशिवरात्रि व्रत व शिव की पूजा भगवान श्रीराम, राक्षसराज रावण, दक्ष कन्या सति, हिमालय कन्या पार्वती और विष्णु पत्नी महालक्ष्मी ने किया था। 

जो मनुष्य इस महाशिवरात्रि व्रत के उपवास रहकर जागरण करते हैं.....! 

उनको शिव सायुज्य के साथ अंत में मोक्ष प्राप्त होता है।

जो मनुष्य इस महाशिवरात्रि व्रत के उपवास रहकर जागरण करते हैं.....! 

उनको शिव सायुज्य के साथ अंत में मोक्ष प्राप्त होता है। 

बेलपत्र चढ़ाने से अमोघ फल की प्राप्ति  इस दिन विधि - विधान से शिवलिंग का अभिषेक, भगवान शिव का पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन करने से सहस्रगुणा अधिक पुण्य की प्राप्ति होती है।

इस बार महाशिवरात्रि पर सभी पुराणों का संयोग :-

महाशिवरात्रि में तिथि निर्णय में तीन पक्ष हैं। 

एक तो, चतुर्दशी को प्रदोषव्यापिनी, दूसरा निशितव्यापिनी और तीसरा उभयव्यापिनी, धर्मसिंधु के मुख्य पक्ष निशितव्यापिनी को ग्रहण करने को बताया है।

वहीं धर्मसिंधु, पद्मपुराण, स्कंदपुराण में निशितव्यापिनी की महत्ता बतायी गयी है....! 

जबकि लिंग पुराण में प्रदोषव्यापिनी चतुर्दशी की महत्ता बतायी है....! 

जो इस बार महाशिवरात्रि पर सभी पुराणों का संयोग है।

महाशिवरात्रि व्रत के बारे में लिंग पुराण में कहा गया है-

किप्रदोष व्यापिनी ग्राह्या शिवरात्र चतुर्दशी'-

रात्रिजागरणं यस्यात तस्मातां समूपोषयेत'
 
अर्थात 

महाशिवरात्रि फाल्गुन चतुर्दशी को प्रदोष व्यापिनी लेना चाहिए।

रात्रि में जागरण किया जाता है। 

इस कारण प्रदोष व्यापिनी ही उचित होता है।

  || शिव शक्ति मात की जय हो ||

मेरी संस्कृति...मेरा देश...

      *|| देवाधिदेव श्री महादेव की जय हो ||*
पंडा रामा प्रभु राज्यगुरु का हर हर महादेव 

Saturday, February 15, 2025

उर्वशी और पुरुरवा की कथा / शनिदेव की पूजा

|| उर्वशी और पुरुरवा की कथा ||


उर्वशी और पुरुरवा की कथा 


चंद्रवशी राजा पुरुरवा और स्वर्ग की अप्सारा उर्वशी की प्रेम कथा प्रचलित है। 

एक दिन उर्वशी धरती की यात्रा पर थी। 

धरती के वातारवण से उर्वशी मोहित हो गई। 

अपनी सखियों के साथ वह धरती पर कुछ समय व्यतीत करने के रुक गई। 

उर्वशी जब पुन: स्वर्ग लौट रही थी तब रास्ते में एक राक्षस ने उसका अपहरण कर लिया।

अपहरण करते वक्त उस समय वहां से राजा पुरुरवा भी गुजर रहे थे....! 

उन्होंने इस घटना को देखा और वे अपने रथ से राक्षस के पीछे लग गए। 

युद्ध करने के बाद उन्होंने राक्षस से उर्वशी को बचा लिया। 

यह पहली बार था जब किसी मानव ने उर्वशी को स्पर्श किया था। 

उर्वशी पुरुरवा की तरफ आकर्षित हो गई और पुरुरवा भी स्वर्ग की अप्सरा को अपना दिल दे बैठे।

लेकिन उर्वशी को पुन: स्वर्ग लौटना ही था। 

दोनों ने भरे मन से एक दूसरे को विदाई दी। 

जुदा होने के बाद दोनों के ही मन से एक दूसरे का खयाल निकल ही नहीं रहा था। 

दोनों को अब जुदाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी।





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 उर्वशी को शाप-


एक बार स्वर्ग में एक प्रहसन ( नाटक ) का आयोजन किया गया। 

इस प्रहसन में उर्वशी को लक्ष्मी माता का किरदार निभाना था। 

किरदार निभाते हुए उर्वशी ने अपने प्रियतम के तौर पर भगवान विष्णु का नाम लेने की बजाय पुरुरवा का नाम ले लिया। 

यह देखकर नाटक को निर्देशित कर रहे भारत मुनि को क्रोध आ गया। 

उन्होंने उर्वशी को शाप देते हुए कहा कि एक मानव की तरफ आकर्षित होने के कारण तुझे पृथ्वीलोक पर ही रहना पड़ेगा और मानवों की तरह संतान भी पैदा करना होगी। 

यह शाप तो उर्वशी के लिए वरदान जैसा साबित हुआ। 

क्योंकि वह भी तो यही चाहती थी। 

शाप के चलते एक बार फिर उर्वशी पृथ्वीलोक आ पहुंची। 

फिर वह पुरुरवा से मिली और अपने प्यार का इजहार किया।


उर्वशी की शर्त- :


पुरुरवा ने उर्वशी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा लेकिन ऊर्वशी ने उनके सामने तीन शर्तें रख दीं। 

उर्वशी ने कहा कि मेरी पहली शर्त यह है कि आपको मेरी दो बकरियों की हमेशा सुरक्षा करनी होगी। 

दूसरी शर्त यह कि वह हमेशा घी का ही सेवन करेगी। 

तीसरी शर्त यह कि केवल शारीरिक संबंध बनाते वक्त ही दोनों एक - दूसरे को निर्वस्त्र देख सकते हैं। 

पुरुरवा ने कहा, मुझे मंजूर है।

फिर पुरुवस् का विवाह उर्वशी से हुआ और वे दोनों आनंदपूर्वक साथ रहने लगे। 

कहते हैं कि कुछ काल के बाद र्स्वगलोक के देवताओं को दोनों का साथ पसंद नहीं आया। 

उर्वशी के जाते हैं स्वर्ग की रौनक चली गई थी तो वे चाहत थे कि उर्वशी पुन: स्वर्ग लौट आए। 

तब उन्होंने दोनों को अलग करने की चाल सोची।

 

देवताओं का छल : -


इस योजना के तहत एक रात उर्वशी की बकरियों को गांधर्वों ने चुरा लिया। 

शर्त के मुताबिक बकरियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी पुरुरवा की थी। 

बकरियों की आवाज सुनने पर उर्वशी ने पुरुरवा से उन्हें बचाने को कहा। 

उस समय पुरुरवा निर्वस्त्र थे। 

वह जल्दबाजी में निर्वस्त्र ही बकरियों को बचाने के लिए दौड़े पड़े। 

इसी दौरान देवताओं ने स्वर्ग से बिजली चमका कर उजाला कर दिया और दो नों ने एक - दूसरे को निर्वस्त्र देख लिया।

इस घटना से उर्वशी शर्त टूट गई। 

इस शर्त के टूटते ही उर्वशी स्वर्गलोक के लिए रवाना हो गई। 

दोनों बेहद ही दुखी हए। 

हालांकि उर्वशी अपने साथ पुरुरवा और अपने बच्चे को ले गई। 

कहते हैं कि बाद में उसने अपने बच्चे को पुरुरवा को सौंपने के लिए कुरुक्षेत्र के निकट बुलाया। 

हालांकि बाद के काल में भी उर्वशी कई घटनाक्रम की वजह से धरती पर आईं और पुरुरवा से मिलती रही जिसके चलते उनके और भी बहुत बच्चे हुए।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार इन्द्र की सभा में उर्वशी के नृत्य के समय राजा पुरुरवा उसके प्रति आकृष्ट हो गए थे जिसके चलते उसकी ताल बिगड़ गई थी। 

इस अपराध के कारण इन्द्र ने रुष्ट होकर दोनों को मर्त्यलोक में रहने का शाप दे दिया था।


पुरुरवा का वंश पौरव : -


उल्लेखनीय है कि पुरु के पिता का नाम बुध और माता का नाम ईला था। 

बुध के माता - पिता का नाम सोम और बृहस्पति था। 

पुरु को उर्वशी से आयु, वनायु, क्षतायु, दृढ़ायु, घीमंत और अमावसु कानम नामक पुत्र प्राप्त हुए। 

अमावसु एवं वसु विशेष थे। 

अमावसु ने कान्यकुब्ज नामक नगर की नींव डाली और वहां का राजा बना। 

आयु का विवाह स्वरभानु की पुत्री प्रभा से हुआ जिनसे उसके पांच पुत्र हुए- नहुष , क्षत्रवृत ( वृदशर्मा ) , राजभ ( गय ) , रजि , अनेना। 

प्रथम नहुष का विवाह विरजा से हुआ जिससे अनेक पुत्र हुए जिसमें ययाति , संयाति , अयाति , अयति और ध्रुव प्रमुख थे। 

इन पुत्रों में यति और ययाति प्रीय थे।

ययति सांसारिक मोह त्यागकर संन्यासी हो गए और ययाति राजा बने जिनका राज्य सरस्वती तक विस्तृत था। 

ययाति प्रजापति की 1

वीं पीढ़ी में हुए। 

ययाति की दो पत्नियां थी: देवयानी और शर्मिष्ठा। 

ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10 वीं पीढ़ी में हुए थे। 

देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रहुयु ( द्रुहु ) , अनु और पुरु हुए। 

पांचों पुत्रों ने अपने अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। 

यदु से यादव , तुर्वसु से यवन , द्रहुयु से भोज , अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुए।

ययाति ने पुरु को अपने पैतृत प्रभुसत्ता वला क्षेत्र प्रदाय किया जो कि गंगा - यमुना दो आब का आधा दक्षिण प्रदेश था। 

अनु को पुरु राज्या का उत्तरी , द्रहयु को पश्‍चिमी , यदु को दक्षिण - पश्चिमी तथा तुर्वसु को दक्षिण - पूर्वी भाग प्रदान किया। 

पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए।


पुरु का वंश :- 


पुरु के कौशल्या से जन्मेजय हुए....! 

जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए.....! 

प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए , 

संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए , 

अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए , 

सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए , 

जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए , 

अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए , 

अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए , 

महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए , 

अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए , 

अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए , 

देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए , 

अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए , 

ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए और मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए।

इस के बाद तंसु के कालिंदी से इलिन हुए.....! 

इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए....! 

दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए....! 

भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए.....! 

भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए.....! 

सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए.....! 

हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए....! 

विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए....! 

अजमीढ़ से संवरण हुए.....! 

संवरण के तप्ती से कुरु हुए  जिन के नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया।

कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए.....! 

विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए.....! 

अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए.....! 

परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए....! 

भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए....! 

प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए.....! 

प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि.....! 

बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ।

देवापि किशोरावस्था में ही सन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ने में लग गए इस लिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली। 

शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।

भीष्म का वंश आगे नहीं बढ़ा क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कि थी। 

शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए। 

लेकिन इनका वंश भी आगे नहीं चला इस तरह कुरु की यह शाखा डूब गई....! 

लेकिन दूसरी शाखाओं ने मगथ पर राज किया और तीसरी शाखा ने अफगानिस्तान पर और चौथी ने ईरान पर।

    || महाकाल || 


शनिदेव की पूजा


ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः

इसे शनि बीज मंत्र भी कहा जाता है। 

शनिदेव की पूजा - अर्चना करने से व्यक्ति के जीवन में आने वाली समस्याएं दूर होती हैं।

हिंदू धर्म में प्रत्येक दिन का अपना महत्व होता है। 

सप्ताह का प्रत्येक दिन किसी न किसी देवी - देवता को समर्पित होता है। 

उसी क्रम में शनिवार का दिन न्यायप्रिय देवता शनि को समर्पित है। 

इस दिन विधि - विधान से शनि देव की पूजा अर्चना की जाती है। 

मान्यता है यदि शनि देव किसी पर प्रसन्न होते हैं तो उनके सभी कष्टों को दूर कर देते हैं। 

शनिवार के दिन शनि देव की विधि - विधान से पूजा करने से शनि देव की विशेष कृपा प्राप्त होती है। 

यदि किसी जातक की कुंडली में शनि दोष उत्पन्न हो जाता है तो उसे समस्याओं से गुजरना पड़ता है। 

लेकिन शनि के शुभ प्रभावों से व्यक्ति को जीवन में सभी तरह के सुखों की प्राप्ति होती है। 

ऐसे में शनि देव को प्रसन्न करने के लिए और उनकी कृपा पाने के लिए प्रत्येक शनिवार को पूज के साथ शनिदेव की आरती स्त्रोत और मंत्रों का जाप करना चाहिए। 

इससे घर में सुख शांति बनी रहती है।


  || जय शनिदेव  ||


शब्दोच्चारणादेव स्फीतो भवति माधवः । 

 धा शब्दोच्चारणात् पश्चाद्धावत्येव ससम्भ्रमः ॥


रा शब्द का उच्चारण करने पर उसे सुनते ही माधव हर्षसे फूल जाते हैं और 'धा' शब्द का उच्चारण करने पर बड़े सत्कार के साथ उसके पीछे - पीछे दौड़ने लगते हैं।


'रा' शब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम् । 

  'धा' शब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम् ॥


'रा' इत्यादानवचनो 'धा' च निर्वाणवाचकः ।

यतोऽवाप्नोति मुक्तिं च सा च राधा प्रकीर्तिता ।।


'रा' शब्दके उच्चारण से भक्त परम दुर्लभ मुक्ति- पद को प्राप्त करता है और 'धा' शब्द के उच्चारण से निश्चय ही वह दौड़कर श्रीहरि के धाम में पहुँच जाता है।


'रा' का अर्थ है 'पाना' और 'धा' का अर्थ है निर्वाण - मोक्ष, भक्तजन उनसे निर्वाण - मुक्ति प्राप्त करते हैं, इस लिये उन्हें 'राधा' कहा गया है।


        || जय श्री राधे राधे ||


जीव आत्मा रुपी सागर में रहने वाला एक एैसा मच्छ है, जो सदा जल के आधार, रस रुपी परमानंद को, प्राप्त करने के लिए, सागर से भिन्न, किसी परमात्मा की कल्पना करता रहता है!

जहाँ जाकर वह परमात्मा को खोजना चाहता है!

प्राप्त करना चाहता है!किन्तु जीव मूलत: स्वयं ही सागर के समान ही विराट व विशाल है....! 

अजर अमर अविनाशी है!

किन्तु वह स्वयं को,सागर में बनने वाले व बनकर फूट जाने वाले बुलबुलों को या सागर में एक दूसरे से टकरा टकराकर बनने वाली लहरों को,अथवा वायु द्वारा तरंगित की जा रही तरंगों को,या सागर में रहने वाले विभिन्न आकार प्रकार व स्वभाव वाले अपने ही समान या अन्य प्रवृत्ती वाले जीवों को भी अपने ही जैसा स्थूल रुप मानता है !

इस लिए स्वयं को जन्म लेने वाला, सुखी दु:खी होने वाला या मरने वाला मानता है,जिस कारण कई प्रकार का भ्रम व भय लेकर सदा चिन्तित रहता है!

अनानंदित रहता है!

किन्तु जैसे नारियल के वृक्ष से उसका घाँस फूस के समान किन्तु कठोर दिखने वाला फल,कठोर फल से उसकी मांसल व मीठी मलाईनुमा गिरी,मीठी गिरी से उसमें स्थित मलाई से कम मीठा किन्तु अमृतमयी दिव्य जल भिन्न नहीं है!

वैसे ही सागर से जल,जल से तरंगे,फेन व बुलबुले और सभी जीव भी भिन्न नहीं हैं!

सभी एक रुप हैं!

परन्तु इन सबमें अन्तर केवल व केवल मानव रुप में स्थित जीव ही करने में सक्षम है!

क्योंकि बाकी सभी अन्य योनियों वाले जीव, मानवीय चेतना से भिन्न चेतना वाले हैं, इस लिए उनके लिए जगत का या जगतपति का वैसा महत्व नहीं है,जैसा के मनुष्य जीव के लिए है!

इस लिए पानी में रहकर प्यासे होने का भ्रम त्यागकर समर्पित हो जाओ....!

तो यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाओगे के,न तो तुम कभी कहीं जन्में थे,न जन्में हो....!

न ही जन्मोगे! 

तो फिर कभी मरे थे.....!

अभी मर रहे हो या भविष्य में कभी मरोगे! 

यह चिन्ता भी निरर्थक सिद्ध हो जायेगी के नहीं ? 

नि:संदेह हो जायेगी!

फिर क्या करोगे!

जब कोई चिन्ता ही नहीं रही,न जन्मने की,न सुखी दु:खी होने की,न मरने की तो अब क्या करोगे? 

भगवत भक्ति करो,समर्पित होकर,क्योंकि भगवत भक्ति से स्वयं को ही नहीं...!

वरन स्वयं के साथ साथ संपूर्ण देश काल परिस्थिति वस्तु व्यक्ति और समाज को भी, एकजुट, धर्मपरायण और मर्यादित रखा जा सकता है!

किसी भी अन्य पंथ व सिद्धान्त आदि के द्वारा यह सब संभव नहीं है,क्यों ? 

क्योंकि भक्ति के अतिरिक्त अन्य सभी पंथ व सिद्धान्त समाज व गृहस्थ आश्रम के लिए विषके समान हैं!

यदि वे अपने मत पंथ व सिद्धान्त के अनुसार समाज को चलने के लिए बाध्य करते हैं तो!

क्योंकि मत पंथ व सिद्धान्त वाले अधिकतर लोग यह भूल जाते हैं के कुछ सिद्धियाँ साधना कर्म या उन के मतों के वश में या इनके अधीन नहीं हैं,वरन नारायण के वश में हैं,उनकी कृपा के अधीन हैं!

जिसे किसी भी साधक को जब चाहे मात्र वे ही दे सकते हैं,मत मजहबी या सिद्धान्तवादी नहीं,इस लिए हरि: व्यापक सर्वत्र समाना प्रेम से प्रकट हो हीं मैं जाना के परमानुभव के आधार पर  हम कह सकते हैं के परमात्मा से अव्यभिचारीणी प्रेम करें!अनन्य ज्ञान से युक्त भक्ति करें!

बाकी सब कुछ उन्हींकी कृपा पर छोड़दें!

यह निवेदन मात्र असीमित श्रद्धा व विश्वास रुपी पार्वती व शिवशंकर की अवस्था में पहुँच चुके ज्ञानी भक्तों के लिए है!

सभी के लिए नहीं है!सो जो लोग इस से सहमत न हों समझ लें के यह आपके लिए नहीं है!

क्योंकि आपकी असहमती ही यहाँ आपके अयोग्य होने का प्रमाण है, के अभी आप श्रद्धा व विश्वास अर्थात शिव व शक्ति की कृपा भी प्राप्त नहीं कर सके हैं, तो फिर नारायण कृपा को कैसे प्राप्त कर सकेंगे!!


  ||  ॐ नमो नारायणाय ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

तमिल / द्रावीण ब्राह्मण

Friday, February 7, 2025

आदि शक्ति परा शक्ति/जया एकादशी व्रत/प्रयाग महात्म्य/वैदिक उत्पत्ति:,

आदि  शक्ति परा शक्ति,जया एकादशी व्रत,प्रयाग महात्म्य,वैदिक उत्पत्ति:,

आदि  शक्ति परा शक्ति :

हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार,आदि परा शक्ति या देवी, सर्वोच्च प्राणी हैं जिन्हें परा ब्रह्म के रूप में पहचाना जाता है।

देवी भागवत महापुराण से पता चलता है कि आदि पराशक्ति पूरे ब्रह्मांड की मूल निर्माता, पर्यवेक्षक और विनाशक हैं।

आदि शक्ति, हिन्दू धर्म में सर्वोच्च देवी हैं।इन्हें महादेवी,आदि पराशक्ति, पराम्बा, परशक्ति, और जगत जननी भी कहा जाता है। 

आदि शक्ति को सनातन, निराकार,और परब्रह्म माना जाता है।

आदि शक्ति को ब्रह्मांड की मूल निर्माता माना जाता है।

आदि शक्ति को सृष्टि का पालन - पोषण करने वाली भी माना जाता है।

आदि शक्ति को सृष्टि का विनाश करने वाली भी माना जाता है।

आदि शक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी,और विकार रहित भी बताया गया है। 

आदि शक्ति को ललिता त्रिपुरा सुंदरी का रूप भी माना जाता है।

आदि शक्ति को शाक्त संप्रदाय में ब्रह्म - शक्ति के रूप में पूजा जाता है।

आदि शक्ति को वैष्णव संप्रदाय में भगवती श्री महालक्ष्मी के रूप में पूजा जाता है।

आदि शक्ति को शैव संप्रदाय में माता पार्वती या शाकम्भरी के रूप में पूजा जाता है।

आदि शक्ति को सिख पंथ में निर्गुण माना जाता है।

आदि शक्ति देवी ललिता त्रिपुरा सुंदरी का रूप हैं, जिन्हें देवी मां का पहला और मूल प्रकट रूप माना जाता है। 







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इस के अलावा, ललिता त्रिपुरा सुंदरी पर्वत हिमालय की बेटी के रूप में पार्वती के रूप में अवतरित होती हैं। 

फिर पार्वती का विवाह भगवान शिव से हुआ। 

वह भगवान कार्तिकेय और गणेश जी की माता हैं।

विश्वास ही जीवन का आधार है।

विश्वास के अभाव में जीवन धूप में कुम्हलाई लता के समान हो जाता है। 

स्वामी विवेकानंद जी कहा करते थे कि सब कुछ चले जाने के बाद भी जिसके बल पर पुनः वह सब कुछ पाया जा सकता है वह आपका "विश्वास" ही है। 

स्वयं पर विश्वास, अपने कर्म पर विश्वास और परमात्मा के प्रति विश्वास रखने से सब कुछ फिर से प्राप्त किया जा सकता है।

यदि विश्वास ही नहीं होगा तो जीवन में आनंद और सौंदर्य के पुष्प भी नहीं खिल सकेंगे। 

विश्वास न होने पर जीवन,मूल विहीन वृक्ष के समान है। 

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विश्वास आवश्यक है। 

अपने में विश्वास हो, अपनों में विश्वास हो और प्रभु में विश्वास हो तो जीवन शांत, सुखी और आनंदमय बन जाता है। 

विश्वास में अद्भुत सामर्थ्य है। 

विश्वास के बल पर मनुष्य को ही नहीं अपितु परमात्मा को भी वश में किया जा सकता है..।




     || जया एकादशी व्रत || 

पंचांग के अनुसार माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी मनाई जाती है और इस साल 8 फरवरी 2025 को जया एकादशी का व्रत रखा जा रहा है।

पद्म पुराण और भविष्य पुराण में वर्णन आया है कि माघ मास की एकादशी का इतना महत्व है कि इस दिन व्रत करने मात्र से ही ब्रह्महत्या नष्ट हो जाती है और अग्निष्टोम यज्ञ का भी फल प्राप्त होता है।

“ माघे शन्ति त्रियोगणा ” अर्थात शास्त्रों में ऐसा वर्णन भी आता है कि ब्रह्म, विष्णु, महेश तीनों की साधना का यह पर्व है।
 
साथ ही गंगा, यमुना और सरस्वती यानी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य तीनों की प्राप्ति का मास है.....! 

इसमें एकादशी व्रत अनंत पुण्य की प्राप्ति का मार्ग है। 

कुयोनि को त्याग कर स्वर्ग में चले जाते हैं....! 

एकादशी व्रत करने वाले की पितृ पक्ष की दस पीढियां, मातृ पक्ष की दस पीढियां और पत्नी पक्ष की दस पीढियां भी बैकुण्ठ प्राप्त करती हैं।

इस एकादशी व्रत के प्रभाव से संतान, धन और कीर्ति बढ़ती है ऐसी पौराणिक मान्यता है....! 

एकादशी व्रत करने वालों को जया एकादशी व्रत की कथा का श्रवण करना चाहिए तभी इसका फल प्राप्त होता है।

जया एकादशी व्रत कथा:

एक बार देवताओं के राजा इन्द्र, नन्दन वन में भ्रमण कर रहे थे। 

गान्धर्व गायन कर रहे थे तथा गन्धर्व कन्यायें नृत्य कर रही थीं। 

वहीं पुष्पवती नामक गन्धर्व कन्या ने माल्यवान नामक गन्धर्व को देखा तथा उस पर आसक्त होकर अपने हाव - भाव से उसे रिझाने का प्रयास करने लगी। 

माल्यवान भी उस गन्धर्व कन्या पर आसक्त होकर अपने गायन का सुर - ताल भूल गया। 

इस से संगीत की लय टूट गयी तथा संगीत का समस्त आनन्द क्षीण हो गया।

सभा में उपस्थित देवगणों को यह अत्यन्त अनुचित लगा। 

यह देखकर देवेन्द्र भी रूष्ट हो गये। 

क्रोधवश इन्द्र ने पुष्पवती तथा माल्यवान को श्राप दे दिया - 

" संगीत की साधना को अपवित्र करने वाले माल्यवान और पुष्पवती! 

तुमने देवी सरस्वती का घोर अपमान किया है, अतः तुम्हें मृत्युलोक में जाना होगा। 

व तुम अधम पिशाच असंयमी के समान जीवन व्यतीत करोगे। "

देवेन्द्र का श्राप सुनकर वे दोनों अत्यन्त दुखी हुये तथा हिमालय पर्वत पर पिशाच योनि में दुःखपूर्वक जीवन यापन करने लगे।

एक दिन उस पिशाच ने अपनी स्त्री से कहा पिशाच योनि से नरक के दुःख सहना अधिक उत्तम है।

भगवान की कृपा से एक समय माघ के शुक्ल पक्ष की जया एकादशी के दिन इन दोनों ने कुछ भी भोजन नहीं किया तथा न ही कोई पाप कर्म किया।

उस दिन मात्र फल - फूल ग्रहण कर ही दिन व्यतीत किया तथा महान दुःख के साथ पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। 

दूसरे दिन प्रातः काल होते ही प्रभु की कृपा से इनकी पिशाच योनि से मुक्ति हो गयी तथा पुनः अपनी अत्यन्त सुन्दर अप्सरा एवं गन्धर्व की देह धारण करके तथा सुन्दर वस्त्रों एवं आभूषणों से अलङ्कृत होकर दोनों स्वर्ग लोक को चले गये।

माल्यवान ने कहा - 

" हे देवताओं के राजा इन्द्र! श्रीहरि की कृपा तथा जया एकादशी के व्रत के पुण्य से हमें पिशाच योनि से मुक्ति प्राप्त हुयी है " इन्द्र ने कहा -" 

हे माल्यवान! एकादशी व्रत करने से तथा भगवान श्रीहरि की कृपा से तुम लोग पिशाच योनि को त्यागकर पवित्र हो गये हो....! 

इसी लिये हमारे लिये भी वन्दनीय हो....! 

क्योंकि भगवान शिव तथा भगवान विष्णु के भक्त हम देवताओं के वन्दना करने योग्य हैं....! 

अतः आप दोनों धन्य हैं।

अब आप प्रसन्नतापूर्वक देवलोक में निवास कर सकते हैं।

   || विष्णु भगवान की जय हो ||

|| प्रयाग महात्म्य ||

प्रयाग, जिसे प्रयागराज या इलाहाबाद के नाम से भी जाना जाता है।





हिंदू पौराणिक कथाओं और प्राचीन संस्कृत साहित्य में एक अत्यंत पूजनीय स्थान रखता है। 

पवित्र नदियों गंगा ( गंगा ), यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम पर स्थित, इसे अक्सर " तीर्थराज " यानी तीर्थ स्थलों का राजा कहा जाता है। 

प्रयाग का महत्व प्राचीन वेदों से लेकर पुराणों और महान महाकाव्यों तक कई संस्कृत ग्रंथों में प्रतिध्वनित होता है।

प्रयागस्य पवेशाद्वै पापं नश्यतिः तत्क्षणात्।

प्रयाग में प्रवेश मात्र से ही समस्त पाप कर्म का नाश हो जाता है। 

प्रयाग को ब्रह्मवैवर्त पुराण में तीर्थराज कहा गया है।

सभ्यता के आरंभ से ही यह ऋषियों की तपोभूमि रही है। 

यहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था। 

इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ माधव रूप में विराजमान हैं। 

भगवान के यहाँ बारह स्वरूप विध्यमान हैं। 

जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है। 

प्रयाग स्थल पवित्रतम नदी गंगा और यमुना के संगम पर स्थित है। 

यहीं सरस्वती नदी गुप्त रूप से संगम में मिलती है....! 

अतः ये त्रिवेणी संगम कहलाता है, जहां प्रत्येक बारह वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है।

प्रयाग सोम, वरूण तथा प्रजापति की जन्मस्थली है।

प्रयाग का वर्णन वैदिक तथा बौद्ध शास्त्रों के पौराणिक पात्रों के सन्दर्भ में भी रहा है। 

यह महान ऋषि भारद्वाज, ऋषि दुर्वासा तथा ऋषि पन्ना की ज्ञानस्थली थी। 

ऋषि भारद्वाज यहां लगभग 5000 ई०पू० में निवास करते हुए 10000 से अधिक शिष्यों को पढ़ाया। 

सागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश से छलककर अमृत की बूंद यहां गिरी थी। 

इस घटना के पश्चात यहां कुंभ का आयोजन होता चला आ रहा है जिसमें जप, तप, यज्ञ, हवन और सत्संग की धारा बहती है।

वैदिक उत्पत्ति: 

ऋग्वेद परिषद में प्रयाग और उससे जुड़ी तीर्थयात्रा प्रथाओं का सबसे पहला उल्लेख है। 

इससे पता चलता है कि वैदिक परंपरा के प्रारंभिक चरणों में भी प्रयाग की पवित्रता को मान्यता दी गई थी।

पुराण ( पौराणिक कथाओं और ब्रह्माण्ड विज्ञान से परिपूर्ण प्राचीन हिन्दू ग्रंथ ) प्रयाग के विषय में किंवदंतियों और प्रतीकात्मकता का समृद्ध ताना - बाना प्रस्तुत करते हैं।

मत्स्य पुराणः 

प्रयाग को उस स्थान के रूप में चित्रित करता है जहाँ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने महाप्रलय के बाद पहला बलिदान ( यज्ञ ) दिया था, जिससे यह स्थान पवित्र हो गया। यहाँ एक प्रासंगिक श्लोक है:-

प्रयागे तु महादेव यज्ञं यज्ञपतिर्यौ। 
तत्रापश्यत् स्वयं ब्रह्मा तीर्थराजं जग्गुरुम् ॥

अर्थात् :

प्रयाग में, यज्ञों के स्वामी महेश्वर [ शिव ] ने एक वार यज्ञ किया था। 

वहाँ, ब्रह्मा ने स्वयं तीर्थों के राजा, संपूर्ण जगत के गुरु को देखा।

अग्नि पुराण : 

अग्नि पुराण और अन्य पुराण प्रयाग के बारे में विस्तार से बताते हैं, इसे एक ऐसा स्थान बताते हैं जहाँ तीर्थ यात्री, पुजारी और विक्रेता एकत्रित होते हैं, यह आध्यात्मिक साधकों , अनुष्ठानिक कार्यों और रोज़मर्रा की ज़िंदगी का जीवंत संगम है।

त्रिवेणी संगम ( तीन नदियों का संगम ) पर अनुष्ठान स्रान को कई पुराणों में मुक्ति और शुद्धि के मार्ग के रूप में वर्णित किया गया है।

प्रतिष्ठित हिंदू महाकाव्यों,रामायण और महाभारत ने भी प्रयाग को अपनी कथाओं में शामिल किया है।

रामायणः 

रामायण में प्रयाग का उल्लेख ऋषि भारद्वाज के पौराणिक आश्रम के स्थान के रूप में किया गया है। 
इसी आश्रम में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण ने अपने वनवास के दौरान ऋषि का आशीर्वाद लिया था । 
महाभारतः 

महाभारत में कई संदर्भों में प्रयाग के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। 

महाकाव्य में शुभ समय पर प्रयाग में स्नान करने से अपार आध्यात्मिक पुण्य की प्राप्ति का वर्णन है।

तीर्थाणि पुण्यान्यकाशेऽन्तर्दिवि स्थिता ।
तानि सर्वाणि गंगायां प्रयागे च विशेषतः ॥

अर्थात् :

यहां तक कि वे पवित्र स्थान जो स्वर्ग में या स्वर्ग और पृथ्वी के बीच मौजूद हैं, वे गंगा में पाए जा सकते हैं, विशेष रूप से प्रयाग में।

प्रयाग की शक्तिः प्रतीकवाद और महत्व संस्कृत ग्रंथों में प्रयाग का वर्णन गहन प्रतीकात्मकता को उजागर करता है:-

पवित्र और अपवित्र का संगमः प्रयाग एक सीमांत स्थान का प्रतिनिधित्व करता है जहाँ दिव्य और सांसारिक जुड़ते हैं। 

नदियों का संगम विभिन्न मार्गों,परंपराओं और जीवन के पहलुओं के मिलन बिंदु का प्रतीक है।

शुद्धिकरण और नवीनीकरणः त्रिवेणी संगम में स्त्रान का अनुष्ठान पापों के शुद्धिकरण, नकारात्मकता को धोने और आध्यात्मिक नवीनीकरण का प्रतीक है।

लौकिक महत्वः 

सरस्वती नदी की गुप्त उपस्थिति पवित्रता की एक और परत जोड़ती है,जो बुद्धि, ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है।

हिंदू परंपरा की चेतना में गहराई से समाया प्रयाग आज भी एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थल बना हुआ है। 

प्राचीन संस्कृतग्रंथ इस पवित्र स्थान का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत करते हैं......! 

जो आस्था, अनुष्ठान और ईश्वर की खोज की शक्ति का एक कालातीत प्रमाण है।

      || तीर्थराज प्रयाग की जय हो ||

आपने नाम सुना होगा कलाई घड़ी, दीवार घड़ी, इलेक्ट्रॉनिक घड़ी और इलेक्ट्रॉनिक क्वार्ट्ज घड़ियां आदि का, लेकिन ' जैविक घड़ी ' का नाम आपने शायद ही सुना होगा। 

दरअसल, यह घड़ी आपके भीतर ही होती है। 

इस घड़ी के भी 3 प्रकार हैं- 

एक है शारीरिक समय चक्र और दूसरा मानसिक समय चक्र और तीसरा आत्मिक समय चक्र। 

यहां हम बात करेंगे शारीरिक समय चक्र की जिसे ' जैविक घड़ी ' कहा जाता है। 

जौविक घड़ी का नाम सुनकर आप चौंक जाएंगे।

महत्वपूर्ण जानकारी

जैविक घड़ी पर आधारित शरीर की दिनचर्या।
प्रातः 3 से 5 –

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से फेफड़ो में होती है। 

थोड़ा गुनगुना पानी पीकर खुली हवा में घूमना एवं प्राणायाम करना । 

इस समय दीर्घ श्वसन करने से फेफड़ों की कार्यक्षमता खूब विकसित होती है। 

उन्हें शुद्ध वायु ( आक्सीजन ) और ऋण आयन विपुल मात्रा में मिलने से शरीर स्वस्थ व स्फूर्तिमान होता है। 

ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले लोग बुद्धिमान व उत्साही होते है,और सोते रहने वालो का जीवन निस्तेज हो जाता है।

प्रातः 5 से 7 – 

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से आंत में होती है। 

प्रातः जागरण से लेकर सुबह 7 बजे के बीच मल - त्याग एवं स्नान का लेना चाहिए । 

सुबह 7 के बाद जो मल - त्याग करते है उनकी आँतें मल में से त्याज्य द्रवांश का शोषण कर मल को सुखा देती हैं। 

इससे कब्ज तथा कई अन्य रोग उत्पन्न होते हैं।

प्रातः 7 से 9 – 

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से आमाशय में होती है। 

यह समय भोजन के लिए उपर्युक्त है । 

इस समय पाचक रस अधिक बनते हैं। 

भोजन के बीच – बीच में गुनगुना पानी ( अनुकूलता अनुसार ) घूँट - घूँट पिये।

प्रातः 11 से 1 –

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से हृदय में होती है। 

दोपहर 12 बजे के आस–पास मध्याह्न – संध्या ( आराम ) करने की हमारी संस्कृति में विधान है। 

इसी लिए भोजन वर्जित है । 

इस समय तरल पदार्थ ले सकते है। 

जैसे मट्ठा ( छाछ ) पी सकते है। 

दही खा सकते है ।

दोपहर 1 से 3 -

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से छोटी आंत में होती है। 

इस का कार्य आहार से मिले पोषक तत्त्वों का अवशोषण व व्यर्थ पदार्थों को बड़ी आँत की ओर धकेलना है। 

भोजन के बाद प्यास अनुरूप पानी पीना चाहिए । 

इस समय भोजन करने अथवा सोने से पोषक आहार - रस के शोषण में अवरोध उत्पन्न होता है व शरीर रोगी तथा दुर्बल हो जाता है ।

दोपहर 3 से 5 - 

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से मूत्राशय में होती है 2 - 4 घंटे पहले पिये पानी से इस समय मूत्र - त्याग की प्रवृति होती है।

शाम 5 से 7 -

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से गुर्दे में होती है ।

इस समय हल्का भोजन कर लेना चाहिए । 

शाम को सूर्यास्त से 40 मिनट पहले भोजन कर लेना उत्तम रहेगा। 

सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक ( संध्याकाल ) भोजन न करे। 

शाम को भोजन के तीन घंटे बाद दूध पी सकते है । 

देर रात को किया गया भोजन सुस्ती लाता है यह अनुभवगम्य है।

रात्री 7 से 9 - 

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से मस्तिष्क में होती है इस समय मस्तिष्क विशेष रूप से सक्रिय रहता है । 

अतः प्रातः काल के अलावा इस काल में पढ़ा हुआ पाठ जल्दी याद रह जाता है । 

आधुनिक अन्वेषण से भी इसकी पुष्टी हुई है।

रात्री 9 से 11 -

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से रीढ़ की हड्डी में स्थित मेरुरज्जु में होती है। 

इस समय पीठ के बल या बायीं करवट लेकर विश्राम करने से मेरूरज्जु को प्राप्त शक्ति को ग्रहण करने में मदद मिलती है। 

इस समय की नींद सर्वाधिक विश्रांति प्रदान करती है । 

इस समय का जागरण शरीर व बुद्धि को थका देता है । 

यदि इस समय भोजन किया जाय तो वह सुबह तक जठर में पड़ा रहता है, पचता नहीं और उसके सड़ने से हानिकारक द्रव्य पैदा होते हैं जो अम्ल ( एसिड ) के साथ आँतों में जाने से रोग उत्पन्न करते हैं। 

इस लिए इस समय भोजन करना खतरनाक है।

रात्री 11 से 1 -

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से पित्ताशय में होती है । 

इस समय का जागरण पित्त - विकार, अनिद्रा , नेत्ररोग उत्पन्न करता है व बुढ़ापा जल्दी लाता है । 

इस समय नई कोशिकाएं बनती है ।

रात्री 1 से 3 - 

इस समय जीवन शक्ति विशेष रूप से लीवर में होती है । 

अन्न का सूक्ष्म पाचन करना यह यकृत का कार्य है। 

इस समय का जागरण यकृत ( लीवर ) व पाचन - तंत्र को बिगाड़ देता है । 

इस समय यदि जागते रहे तो शरीर नींद के वशीभूत होने लगता है, दृष्टि मंद होती है और शरीर की प्रतिक्रियाएं मंद होती हैं। 

अतः इस समय सड़क दुर्घटनाएँ अधिक होती हैं।

नोट :--

ऋषियों व आयुर्वेदाचार्यों ने बिना भूख लगे भोजन करना वर्जित बताया है। 

अतः प्रातः एवं शाम के भोजन की मात्रा ऐसी रखे, जिससे ऊपर बताए भोजन के समय में खुलकर भूख लगे। 

जमीन पर कुछ बिछाकर सुखासन में बैठकर ही भोजन करें। 

इस आसन में मूलाधार चक्र सक्रिय होने से जठराग्नि प्रदीप्त रहती है। 

कुर्सी पर बैठकर भोजन करने में पाचन शक्ति कमजोर तथा खड़े होकर भोजन करने से तो बिल्कुल नहींवत् हो जाती है। 

इस लिए ʹ बुफे डिनर ʹ से बचना चाहिए।

पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का लाभ लेने हेतु सिर पूर्व या दक्षिण दिशा में करके ही सोयें, अन्यथा अनिद्रा जैसी तकलीफें होती हैं।

शरीर की जैविक घड़ी को ठीक ढंग से चलाने हेतु रात्रि को बत्ती बंद करके सोयें। 

इस संदर्भ में हुए शोध चौंकाने वाले हैं। 

देर रात तक कार्य या अध्ययन करने से और बत्ती चालू रख के सोने से जैविक घड़ी निष्क्रिय होकर 
भयंकर स्वास्थ्य - संबंधी हानियाँ होती हैं। 

अँधेरे में सोने से यह जैविक घड़ी ठीक ढंग से चलती है।

आजकल पाये जाने वाले अधिकांश रोगों का कारण अस्त - व्यस्त दिनचर्या व विपरीत आहार ही है। 

हम अपनी दिनचर्या शरीर की जैविक घड़ी के अनुरूप बनाये रखें तो शरीर के विभिन्न अंगों की सक्रियता का हमें अनायास ही लाभ मिलेगा। 

इस प्रकार थोड़ी - सी सजगता हमें स्वस्थ जीवन की प्राप्ति करा देगी।

( यह जानकारी सुश्रुत संहिता से है। )
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )
  || आदि शक्ति देवी मां की जय हो ||