💝 कन्हैया से सम्बन्ध / वृन्दावन के एक संत की कथा / महामंत्र : / "हे कृष्ण" 💝
💝 कन्हैया से सम्बन्ध 💝
आप सभी को मकर संक्रांति के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।
हर्ष और उल्लास का यह पावन पर्व सभी के जीवन में उत्तम स्वास्थ्य एवं सुख - समृद्धि लेकर आए।
प्रतिमास भगवान् भुवनभास्कर सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में गमन करते हैं।
इसे संक्रान्ति या संक्रमण कहते हैं।
धनुराशि से मकर राशि में संक्रमण को मकर संक्रान्ति कहते हैं।
हम प्रतिवर्ष प्रसन्तापूर्वक मकर संक्रान्ति पर्व का यथाशक्ति समायोजन कर रहे हैं, किन्तु हमारी विचारधारा के क्षेत्र में कोई संक्रमण नहीं हो रहा है।
अपेक्षा है कि हम मकर संक्रान्ति के पावन पर्व से पाश्चात्त्य चिन्तन धारा की दासता को समाप्त करके स्वकीय वेद-पुराण - स्मृति - रामायण - महाभारतादि की सनातन चिन्तन धारा को दृढता से अङ्गीकार करें तथा स्वधर्मानुसार जीवनयापन करें।
आने वाले कल को स्वर्णिम बनाने की चिंता तनाव को पैदा करती है, बीते हुए कल की गलतियाँ विषाद यानी विवशता को जन्म देती है ।
तनाव और विषाद दोनोंअलग - अलग स्थितियाँ हैं मानव जीवन की।
बीते हुए कल को जीने वाले लोग अक्सर क्रोध और पछतावे में विवेकहीन जिंदगी जीते है।
जबकि तनाव में एक अजीब सी खींचतान मन में शुरू हो जाती हैं मन में विचारों का वेग त्वरित हो जाता है कुछ कर गुजरने की झुंझलाहट हर दम बनी रहती हैं।
वर्तमान में जीना सहज है सरल है पर ये जो कल का काल है जो सिरों पर नृत्य करता रहता है इसी से जीवन में भूचाल बना रहता हैं।
वर्तमान योजनाओं को बनाने और दुर्घटनाओं को भुलाने का संक्रांति काल होता है,और उसी में जीवन का सारा सार छुपा होता है।
जीवन बस इसी क्षण घटित होता है वर्तमान ये चीख़ चीख कर कहता है इसी को जी लो कल का किसको पता हैं।
सूर्य देव के उत्तरायण के साथ ही आप सभी परिजनों के जीवन में नई सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो....!
जिसके फलस्वरूप आप सब इस पूरे साल हर्षित, आनंदित एवं स्वस्थ रहें.....!
वृन्दावन के एक संत की कथा है ।
वे श्री कृष्ण की आराधना करते थे.उन्होंने संसार को भूलने की एक युक्ति की. मन को सतत श्री कृष्ण का स्मरण रहे, उसके लिए महात्मा ने प्रभु के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ा कि मै नन्द हूँ, बाल कृष्ण लाल मेरे बालक है।
वे लाला को लाड लड़ाते,यमुना जी स्नान करने जाते तो लाला को साथ लेकर जाते।
भोजन करने बैठते तो लाला को साथ लेकर बैठते.ऐसी भावना करते कि कन्हैया मेरी गोद में बैठा है.
कन्हैया मेरे दाढ़ी खींच रहा है.श्री कृष्ण को पुत्र मानकर आनद करते.श्री कृष्ण के उपर इनका वात्सल्य भाव था। महात्मा श्री कृष्ण की मानसिक सेवा करते थे ।
सम्पूर्ण दिवस मन को श्री कृष्ण लीला में तन्मय रखते, जिससे मन को संसार का चिंतन करने का अवसर ही न मिले...!
निष्क्रय ब्रह्म का सतत ध्यान करना कठिन है।
परन्तु लीला विशिष्ट ब्रह्म का सतत ध्यान हो सकता है....!
महात्मा परमात्मा के साथ पुत्र का सम्बन्ध जोड़ कर संसार को भूल गये, परमात्मा के साथ तन्मय हो गये, श्री कृष्ण को पुत्र मानकर लाड लड़ाने लगे।
महात्मा ऐसी भावना करते कि कन्हैया मुझसे केला मांग रहा है।
बाबा!
मुझे केला दो, ऐसा कह रहा है....!
महात्मा मन से ही कन्हैया को केला देते.....!
महात्मा समस्त दिवस लाला की मानसिक सेवा करते और मन से भगवान को सभी वस्तुए देते.....!
कन्हैया तो बहुत भोले है.....!
मन से दो तो भी प्रसन्न हो जाते है.महात्मा कभी कभी शिष्यों से कहते कि इस शरीर से गंगा स्नान कभी हुआ नहीं, वह मुझे एक बार करना है.....!
शिष्य कहते कि काशी पधारो.महात्मा काशी जाने की तैयारी करते परन्तु वात्सल्य भाव से मानसिक सेवा में तन्मय हुए की कन्हैया कहते-
बाबा मै तुम्हारा छोटा सा बालक हूँ।
मुझे छोड़कर काशी नहीं जाना।
इस प्रकार महात्मा सेवा में तन्मय होते....!
उस समय उनको ऐसा आभास होता था कि मेरा लाला जाने की मनाही कर रहा है।
मेरा कान्हा अभी बालक है. मै कन्हैया को छोड़कर यात्रा करने कैसे जाऊ?
मुझे लाला को छोड़कर जाना नहीं।
महात्मा अति वृद्ध हो गये. महात्मा का शरीर तो वृद्ध हुआ परन्तु उनका कन्हैया तो छोटा ही रहा.वह बड़ा हुआ ही नहीं!
उनका प्रभु में बाल - भाव ही स्थिर रहा और एक दिन लाला का चिन्तन करते - करते वे मृत्यु को प्राप्त हो गये।
शिष्य कीर्तन करते - करते महात्मा को श्मशान ले गये.अग्नि - संस्कार की तैयारी हुई....!
इतने ही में एक सात वर्ष का अति सुंदर बालक कंधे पर गंगाजल का घड़ा लेकर वहां आया
उसने शिष्यों से कहा -
ये मेरे पिता है....!
मै इनका मानस - पुत्र हूँ।
पुत्र के तौर पर अग्नि - संस्कार करने का अधिकार मेरा है...!
मै इनका अग्नि - संस्कार करूँगा....!
पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करना पुत्र का धर्म है।
मेरे पिता की गंगा - स्नान करने की इच्छा थी परन्तु मेरे कारण ये गंगा - स्नान करने नहीं जा सकते थे....!
इस लिए मै यह गंगाजल लाया हूँ।
पुत्र जिस प्रकार पिता की सेवा करता है,....!
इस प्रकार बालक ने महात्मा के शव को गंगा - स्नान कराया....!
संत के माथे पर तिलक किया....!
पुष्प की माला पहनाई और अंतिम वंदन करके अग्नि - संस्कार किया....!
सब देखते ही रह गये।
अनेक साधु - महात्मा थे परन्तु किसी की बोलने की हिम्मत ही ना हुई....!
अग्नि- संस्कार करके बालक एकदम अंतर्ध्यान हो गया.....!
उसके बाद लोगो को ख्याल आया कि महात्मा के तो पुत्र था ही नहीं बाल कृष्णलाल ही तो महात्मा के पुत्र रूप में आये थे।
महात्मा की भावना थी कि श्री कृष्ण मेरे पुत्र है....!
परमात्मा ने उनकी भावना पूरी की,...!
परमात्मा के साथ जीव जैसा सम्बन्ध बांधता है....!
वैसे ही सम्बन्ध से परमात्मा उसको मिलते है..!!
🙏🏼🙏🏿🙏🏾जय जय श्री राधे🙏🏽🙏🙏🏻
महामंत्र :
[ मकरसंक्रांति पर पतंग क्यों उड़ाई जाती है ]
मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ ॥
ग्रंथ 'रामचरितमानस' के आधार पर श्रीराम ने अपने भाइयों के साथ पतंग उड़ाई थी। इस संदर्भ में 'बालकांड' में उल्लेख मिलता है-
'राम इक दिन चंग उड़ाई।
इंद्रलोक में पहुँची जाई॥'
[ बड़ा ही रोचक प्रसंग है।
पंपापुर से हनुमान को बुलवाया गया था।
तब हनुमानजी बाल रूप में थे।
जब वे आए, तब 'मकर संक्रांति' का पर्व था।
श्रीराम भाइयों और मित्र मंडली के साथ पतंग उड़ाने लगे।
कहा गया है कि वह पतंग उड़ते हुए देवलोक तक जा पहुँची।
उस पतंग को देख कर इंद्र के पुत्र जयंत की पत्नी बहुत आकर्षित हो गई। ]
[ वह उस पतंग और पतंग उड़ाने वाले के प्रति सोचने लगी-
'जासु चंग अस सुन्दरताई।
सो पुरुष जग में अधिकाई॥'
इस भाव के मन में आते ही उसने पतंग को हस्तगत कर लिया और सोचने लगी कि पतंग उड़ाने वाला अपनी पतंग लेने के लिए अवश्य आएगा।
वह प्रतीक्षा करने लगी।
उधर पतंग पकड़ लिए जाने के कारण पतंग दिखाई नहीं दी, तब बालक श्रीराम ने बाल हनुमान को उसका पता लगाने के लिए रवाना किया। ]
[ पवन पुत्र हनुमान आकाश में उड़ते हुए इंद्रलोक पहुँच गए।
वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक स्त्री उस पतंग को अपने हाथ में पकड़े हुए है।
उन्होंने उस पतंग की उससे माँग की।
उस स्त्री ने पूछा-
"यह पतंग किसकी है?"
हनुमानजी ने रामचंद्रजी का नाम बताया।
इस पर उसने उनके दर्शन करने की अभिलाषा प्रकट की।
हनुमान यह सुनकर लौट आए और सारा वृत्तांत श्रीराम को कह सुनाया।
श्रीराम ने यह सुनकर हनुमान को वापस वापस भेजा कि वे उन्हें चित्रकूट में अवश्य ही दर्शन देंगे।
हनुमान ने यह उत्तर जयंत की पत्नी को कह सुनाया, जिसे सुनकर जयंत की पत्नी ने पतंग छोड़ दी।
कथन है कि-
'तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग।
खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।' ]
अद्भुद प्रसंग के आधार पर पतंग की प्राचीनता का पता चलता है।
जय माता दी ।
जय श्री राम ।
" हे कृष्ण...! "
एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा..!
हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही।
में आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ.....!
उसके गुण धर्म क्या क्या हैं....!
भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे...!
उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा -
"हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे.।
एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नही निभाई।
आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे।
आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका।
ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका...!
लेकिन यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया.!
आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दांव पर लगाना शुरू किया...!
तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे...!
किंतु आपने ये भी नहीं किया...!
इसके बाद जब दुष्ट दुर्योधन ने पांडवों को भाग्यशाली कहते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने हेतु प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे...!
लेकिन इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया जब द्रौपदी लगभग अपनी लाज खो रही थी....!
तब जाकर आपने द्रोपदी के वस्त्र का चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज बचाई किंतु ये भी आपने बहुत देरी से किया...!
उसे एक पुरुष घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे पुरुषों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है....!
जब आपने संकट के समय में पांडवों की सहायता की ही नहीं की तो आपको आपदा बांधव ( सच्चा मित्र ) कैसे कहा जा सकता है....!
क्या यही धर्म है...!
भगवान श्री कृष्ण बोले -
हे उद्धव सृष्टि का नियम है कि जो विवेक से कार्य करता है विजय उसी की होती है उस समय दुर्योधन अपनी बुद्धि और विवेक से कार्य ले रहा था किंतु धर्मराज ने तनिक मात्र भी अपनी बुद्धि और विवेक से काम नही लिया इसी कारण पांडवों की हार हुई...!
भगवान कहने लगे कि हे उद्धव - दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन तो बहुत था....!
लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था...!
इस लिए उसने अपने मामा शकुनि से द्यूतक्रीडा करवाई यही तो उसका विवेक था...!
धर्मराज भी तो इसी प्रकार विवेक से कार्य लेते हुए ऐसा सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई को पासा देकर उनसे चाल चलवा सकते थे या फिर ये भी तो कह सकते थे कि उनकी तरफ से श्री कृष्ण यानी मैं खेलूंगा....!
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ?
पांसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार....!
चलो इसे भी छोड़ो.....!
उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया....!
इसके लिए तो उन्हें क्षमा भी किया जा सकता है....!
लेकिन उन्होंने विवेक हीनता से एक और बड़ी गलती तब की जब उन्होंने मुझसे प्रार्थना की....!
कि मैं तब तक सभाकक्ष में न आऊँ....!
जब तक कि मुझे बुलाया न जाए....!
क्योंकि ये उनका दुर्भाग्य था कि वे मुझसे छुपकर जुआ खेलना चाहते थे....!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया....!
मुझे सभाकक्ष में आने की अनुमति नहीं थी इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर बहुत समय तक प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे कब बुलावा आता है.....!
पांडव जुए में इतने डूब गए कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए और मुझे बुलाने के स्थान पर केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे.....!
अपने भाई के आदेश पर जब दुशासन द्रोपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभाकक्ष में लाया तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही....!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा....!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया.....!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर.....!
' हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम...! '
की गुहार लगाते हुए मुझे पुकारा तो में बिना बिलम्ब किये वहां पहुंचा......!
हे उद्धव इस स्थिति में तुम्हीं बताओ मेरी गलती कहाँ रही.....!
उद्धव जी बोले कृष्ण आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है...!
किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई...!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा –
इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे....!
जब आपको बुलाया जाएगा.....!
क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे....!
भगवान मुस्कुराये - उद्धव सृष्टि में हर किसी का जीवन उसके स्वयं के कर्मों के प्रतिफल के आधार पर चलता है....!
में इसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नही करता.....!
मैं तो केवल एक ' साक्षी ' हूँ....!
जो सदैव तुम्हारे साथ रहकर जो हो रहा है उसे देखता रहता हूँ....!
यही ईश्वर का धर्म है।
'भगवान को ताना मारते हुए उद्धव जी बोले...! "
" वाह वाह, बहुत अच्छा कृष्ण....!".
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी कर्मों को देखते रहेंगें हम पाप पर पाप करते जाएंगे और आप हमें रोकने के स्थान पर केवल देखते रहेंगे....!
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते करते पाप की गठरी बांधते रहें और उसका फल भोगते रहें....!
भगवान बोले –
उद्धव, तुम धर्म और मित्रता को समीप से समझो....!
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे साथ हर क्षण रहता हूँ...!
तो क्या तुम पाप कर सकोगे ?
तुम पाप कर ही नही सकोगे और अनेक बार विचार करोगे की मुझे विधाता देख रहा है....!
किंतु जब तुम मुझे भूल जाते हो और यह समझने लगते हो....!
कि तुम मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो...!
तुम्हे कोई देख नही रहा तब ही तुम संकट में फंसते हो....!
धर्मराज का अज्ञान यह था....!
उसने समझा कि वह मुझ से छुपकर जुआ खेल सकता है....!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक प्राणी मात्र के साथ हर समय उपस्थित रहता हूँ...!
तो क्या वह जुआ खेलते....?
और यदि खेलते भी तो जुए के उस खेल का परिणाम कुछ और नहीं होता.....!
भगवान के उत्तर से उद्धव जी अभिभूत हो गये और बोले –
प्रभु कितना रहस्य छुपा है आपके दर्शन में.....!
कितना महान सत्य है ये !
पाप कर्म करते समय हम ये कदापि विचार नही करते कि परमात्मा की नज़र सब पर है....!
कोई उनसे छिप नही सकता....!
और उनकी दृष्टि हमारे प्रत्येक अच्छे बुरे कर्म पर है.....!
परन्तु इसके विपरीत हम इसी भूल में जीते रहते हैं....!
कि हमें कोई देख नही रहा.....!
प्रार्थना और पूजा हमारा विश्वास है....!
जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं....!
कि भगवान हर क्षण हमें देख रहे हैं....!
उनके बिना पत्ता तक नहीं हिलता तो परमात्मा भी हमें ऐसा ही आभास करा देते हैं...!
की वे हमारे आस पास ही उपस्तिथ हैं.....!
और हमें उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है....!
हम पाप कर्म केवल तभी करते हैं....!
जब हम भगवान को भूलकर उनसे विमुख हो जाते हैं..!!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू
( द्रविड़ ब्राह्मण )
🙏🙏🏽🙏🏾जय श्री कृष्ण🙏🏿🙏🏼🙏🏻