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Wednesday, January 29, 2025

भगवान राम के द्वारा हनुमानजी का अहंकार नाश –

 भगवान राम के द्वारा हनुमानजी का अहंकार नाश – / आज का चिंतन -

 भगवान राम के द्वारा हनुमान

     जी का अहंकार नाश –

यह कथा उस समय की है जब लंका जाने के लिए भगवान श्रीराम ने सेतु निर्माण के पूर्व समुद्र तट पर शिवलिंग स्थापित किया था। 

वहाँ हनुमानजी को स्वयं पर अभिमान हो गया तब भगवान राम ने उनके अहँकार का नाश किया।


यह कथा इस प्रकार है-





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जब समुद्र पर सेतुबंधन का कार्य हो रहा था तब भगवान राम ने वहाँ गणेशजी और नौ ग्रहों की स्थापना के पश्चात शिवलिंग स्थापित करने का विचार किया। 

उन्होंने शुभ मुहूर्त में शिवलिंग लाने के लिए हनुमानजी को काशी भेजा। 

हनुमानजी पवन वेग से काशी जा पहुँचे। 

उन्हें देख भोलेनाथ बोले- 

“ पवनपुत्र! ” 

दक्षिण में शिवलिंग की स्थापना करके भगवान राम मेरी ही इच्छा पूर्ण कर रहे हैं....! 

क्योंकि महर्षि अगस्त्य विन्ध्याचल पर्वत को झुकाकर वहाँ प्रस्थान तो कर गए....! 

लेकिन वे मेरी प्रतीक्षा में हैं।

इस लिए मुझे भी वहाँ जाना था। 

तुम शीघ्र ही मेरे प्रतीक को वहाँ ले जाओ। 

यह बात सुनकर हनुमान गर्व से फूल गए और सोचने लगे कि केवल वे ही यह कार्य शीघ्र- 

अतिशीघ्र कर सकते हैं।




यहाँ हनुमानजी को अभिमान हुआ और वहाँ भगवान राम ने उनके मन के भाव को जान लिया। 

भक्त के कल्याण के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं। 

हनुमान भी अहंकार के पाश में बंध गए थे। 

अतः भगवान राम ने उन पर कृपा करने का निश्चय कर उसी समय वारनराज सुग्रीव को बुलवाया और कहा-

“ हे कपिश्रेष्ठ! 

शुभ मुहूर्त समाप्त होने वाला है और अभी तक हनुमान नहीं पहुँचे। 

इस लिए मैं बालू का शिवलिंग बनाकर उसे यहाँ स्थापित कर देता हूँ। ”




तत्पश्चात उन्होंने सभी ऋषि- मुनियों से आज्ञा प्राप्त करके पूजा - अर्चनादि की और बालू का शिवलिंग स्थापित कर दिया। 

ऋषि - मुनियों को दक्षिणा देने के लिए श्रीराम ने कौस्तुम मणि का स्मरण किया तो वह मणि उनके समक्ष उपस्थित हो गई। 

भगवान श्रीराम ने उसे गले में धारण किया। 

मणि के प्रभाव से देखते - ही-देखते वहाँ दान -  दक्षिणा के लिए धन, अन्न, वस्त्र आदि एकत्रित हो गए। 

उन्होंने ऋषि - मुनियों को भेंटें दीं। 

फिर ऋषि - मुनि वहाँ से चले गए।




मार्ग में हनुमानजी से उनकी भेंट हुई। 

हनुमानजी ने पूछा कि वे कहाँ से पधार रहे हैं? 

उन्होंने सारी घटना बता दी। 

यह सुनकर हनुमानजी को क्रोध आ गया। 

वे पलक झपकते ही श्रीराम के समक्ष उपस्थिति हुए और रुष्ट स्वर में बोले-

“ भगवन! 

यदि आपको बालू का ही शिवलिंग स्थापित करना था तो मुझे काशी किसलिए भेजा था? 

आपने मेरा और मेरे भक्ति भाव का उपहास किया है। "


" श्रीराम मुस्कराते हुए बोले- 

पवनपुत्र! शुभ मुहूर्त समाप्त हो रहा था....! 

इस लिए मैंने बालू का शिवलिंग स्थापित कर दिया। 

मैं तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। 

मैंने जो शिवलिंग स्थापित किया है तुम उसे उखाड़ दो.....! 

मैं तुम्हारे लाए हुए शिवलिंग को यहाँ स्थापित कर देता हूँ। 

” हनुमान प्रसन्न होकर बोले-“

ठीक है भगवन! 

मैं अभी इस शिविलंग को उखाड़ फेंकता हूँ।

उन्होंने शिवलिंग को उखाड़ने का प्रयास किया....! 

लेकिन पूरी शक्ति लगाकर भी वे उसे हिला तक न सके। 

तब उन्होंने उसे अपनी पूंछ से लपेटा और उखाड़ने का प्रयास किया। 

किंतु वह नहीं उखड़ा। 

अब हनुमान को स्वयं पर पश्चात्ताप होने लगा। 

उनका अहंकार चूर हो गया था और वे श्रीराम के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगे।

इस प्रकार हनुमान ने अहम का नाश हुआ। 

श्रीराम ने जहाँ बालू का शिवलिंग स्थापित किया था उसके उत्तर दिशा की ओर हनुमान द्वारा लाए शिवलिंग को स्थापित करते हुए कहा कि ‘ इस शिवलिंग की पूजा - अर्चना करने के बाद मेरे द्वारा स्थापित शिवलिंग की पूजा करने पर ही भक्तजन पुण्य प्राप्त करेंगे। '

यह शिवलिंग आज भी रामेश्वरम में स्थापित है।

    और भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थ ( धाम ) है।

|| आज का चिंतन- ||

आज का आदमी मेहनत में कम और मुकद्दर में ज्यादा विश्वास रखता है। 

आज का आदमी सफल तो होना चाहता है मगर उसके लिए कुछ खोना नहीं चाहता है। 

वह भूल रहा है कि सफलताएँ किस्मत से नहीं मेहनत से मिला करती हैं। 

किसी की शानदार कोठी देखकर कई लोग कह उठते हैं.....! 

कि काश अपनी किस्मत भी ऐसी होती लेकिन वे लोग तब यह भूल जाते हैं....! 

कि ये शानदार कोठी, शानदार गाड़ी उसे किस्मत ने ही नहीं दी अपितु इसके पीछे उसकी कड़ी मेहनत रही है। 

मुकद्दर के भरोसे रहने वालों को सिर्फ उतना मिलता है जितना मेहनत करने वाले छोड़ दिया करते हैं।

किस्मत का भी अपना महत्व है। 

मेहनत करने के बाद किस्मत पर आश रखी जा सकती है मगर खाली किस्मत के भरोसे सफलता प्राप्त करने से बढ़कर कोई दूसरी नासमझी नहीं हो सकती है।

दो अक्षर का होता है " लक ", ढाई अक्षर का होता है भाग्य, तीन अक्षर का होता है....! 

नसीव लेकिन चार अक्षर के शब्द मेहनत के चरणों में ये सब पड़े रहते हैं।

||  पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 

( द्रविड़ ब्राह्मण ) ||

  || जय श्री राम जय हनुमान ||


Saturday, January 25, 2025

पितृगण का उद्धार भक्ति से...!

 पितृगण का उद्धार भक्ति से


((((  पितृगण का उद्धार भक्ति से ))))


चित्रकूट के पास एक श्यामदास नाम के उच्चकोटी के नाम जापक महात्मा थे। 









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एक दिन एक लड़का उनके पास आकर बोला की हमको संसार से विरक्ति होने लगी है। 

उसने महात्मा से साधन पूछा तो उन्होंने कहां की भगवान का जो नाम तुम्हे पसंद हो।

उसको जपने लग जाओ और वैष्णवी आचार विचार का पालन करो। 

उसको श्री सीताराम जी का रूप व नाम प्रिय था। 

वह श्री सीताराम श्री सीताराम इस नाम का आश्रय लेकर भजन करने लगा। 

कई दिनों तक भजन करता रहा और एक दिन जप करते करते उसको बहुत सी आवाजे आयी...!

जय हो जय हो। 

अगले तीन चार दिन फिर कुछ आवाजे आयी.....! 

बेटा अति सुंदर, जय हो। 

उस बालक को लगा की लगता है कुछ गड़बड़ है। 

वह बालक श्यामदास जी के पास आकर सारी बात बताकर बोला.....!

संत जी, क्या मुझसे कोई अपराध बन रहा है या किसी तरह की बीमारी है ? 

श्यामदास जी ने ध्यान लगाकर देखा तो प्रसन्न होकर बोले : 







बच्चा! तेरे इस शरीर के और पूर्व के शरीरों के पितृगण विविध योनियों से मुक्त होकर भगवान के धाम को जा रहे है और वे ही तुम्हारी जय जय कार करते है। 

कुछ और पितृगण बच गए है। 

पांच दिनों तक तुम्हे इनकी आवाज आएगी।

इसके बाद बंद हो जाएगी।

आस्फोट यन्ति पितरो नृत्यन्ति च पितामहाः।
मद्वंशे वैष्णवो जातः स नस्त्राता भविष्यति।।
(पद्मपुराण)







जब किसी वंश मे वैष्णव उत्पन्न होता है।

( या वैष्णव दीक्षा ग्रहण करता है ) तो पितृ पितामह प्रसन्न होकर नृत्य करते है कि.. 
.
हमारे वंश में भगवान का भक्त उत्पन्न हुआ है,अब यह नाम जपेगा कथा सुनेगा संत सेवा करेगा। हमारा तो उद्धार निश्चित है..!!

राधे राधे

 🙏🏻 *जीवन का सबसे बड़ा अपराध , किसी की आंखों में आंसू , आपकी वज़ह से होना।* 

आपकी वजह से मुस्कराए कोई दूसरा!!* *तो ये दुनिया की है, सबसे बड़ी पूजा!!*           
            
*निस्वार्थ कर्म ही ईश्वर की सेवा है। इस में ही आनंद मिलेगा आपको हमेशा चेहरे पर मुस्कुराहट रखें, आपका चेहरा खिल उठेगा।

*किसी के बारे में ना बुरा सोचे, ना बुरा बोलें।इससे आप को कोई फायदा नहीं होने वाला है...?

*और सबसे ऊपर ईश्वर को हमेशा याद करते रहें, और उनको धन्यवाद दें की आपको जो ईश्वर ने दिया, वो कम नहीं है।

*हम स्वार्थी ना बनें, अपने स्वार्थ के लिए किसी का दिल ना दुखाएं। 

हमेशा दूसरों को साथ दें, *पता नहीं ये पुण्य, ज़िन्दगी में कब आपका साथ दे जाए*।

विष्णु भगवान से कर जोड़ प्रार्थना है कि आप और आपके परिवार के ऊपर अपनी कृपा बनाए रखें*

*जय श्री कृष्णा जय श्री राधे*🙏🏻🙏🏻

  *|| प्रयागराज यानी तीर्थराज प्रयाग ||*
       

*तीर्थ - तीर्थयते अनेन इति तीर्थ:* 

*अर्थात् 

जिससे प्राणिमात्र संसार - सागर से तर जाते हैं , वही तीर्थ कहा जाता है।

हम सभी जानते हैं कि युग - युग से प्रयाग की प्रसिद्धि एक तीर्थराज के रूप में भारत के धर्मप्राण जनमानस में व्याप्त रही है। 

तीर्थराज के रूप में प्रयाग का वर्णन वेदों,पुराणों , उपनिषदों ,  रामायण ,  महाभारत , रघुवंश , रामचरितमानस आदि अनेक प्राचीन ग्रंथो में किया गया है।*

*पद्मपुराण में प्रयाग की महिमा*
 
 *का उल्लेख करते हुए कहा गया है -*

*ब्राह्मी पुत्री त्रिपथगास्त्रिवेणी* 
*समागमेन अक्षतयागमात्रान्।*

*यत्रप्लुतान् ब्रह्मपदं नयन्ति*
*स तीर्थराजो जयति प्रयाग:।।*

*अर्थ - 

सरस्वती , यमुना और गंगा - ये तीन नदियां जहां डुबकी लगाने वाले मनुष्यों को,जो त्रिवेणी - संगम के संपर्क से अक्षत योगफल को प्राप्त हो चुके हैं, ब्रह्मलोक में पहुंचा देती है,उस तीर्थराज प्रयाग की जय हो।









*ऋग्वेद में कहा गया है -*
     
*सितासिते सरिते यत्र संगते,*
*तत्राप्लुतासो दिवमुत्पतन्ति।*
 
*ये वै तन्वं विसृजन्ति धीरास्ते* 
*जनासो अमृतत्वं भजन्ते।।*

*अर्थ - 

जो मनुष्य श्वेत - श्याम दो नदियों के संगम स्थल पर स्नान करते हैं , वे स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। 

जो धीर मनुष्य वहां शरीर त्याग करते हैं , वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।*

*महाभारत के वनपर्व में उल्लेख है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की यज्ञभूमि प्रयाग ही रही है।*

*गंगायमुनयोर्मध्ये सङ्गमं लोकविश्रुतम्।* 
*यत्त्रयजल भूतात्मा पूर्वमेव पितामह*
*प्रयागमिति विख्यातं तस्मात् भरत सत्तम।।*

*तीर्थराज प्रयाग की महिमा का गुणगान करती हुई पद्मपुराण की पंक्तियां मुखरित हो उठती हैं -*

*कलिन्दजा संगममाप्य यत्र।*
*प्रत्यागता स्वर्गधुनी धनोति।*
 
*अध्यात्मतापत्रितयं जनस्य,*
*स तीर्थराजो जयति प्रयाग:।।*

*अर्थ - 

जहां आयी हुई गंगा कलिंदनंदिनी यमुना का संगम प्रकार मनुष्यों के तीन तापों - आध्यात्मिक , आधिदैविक और आधिभौतिक - का नाश करती है , उस तीर्थराज की जय हो।*

*भारत में तीर्थ तो बहुत से हैं , परंतु तीर्थराज तो एकमात्र प्रयाग ही है। 

अत्यंत प्राचीन काल से यह शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी था। 

महर्षि भरद्वाज का गुरुकुल यहीं पर था। 

वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में प्रयागगत भरद्वाज आश्रम का जैसा विस्तृत वर्णन है.....! 

उसके अनुसार महर्षि भरद्वाज के आश्रम को एक विशाल आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में समझा जा सकता है।

प्रभु श्री राम भी प्रयाग में भरद्वाज आश्रम में आए थे तथा महर्षि भारद्वाज ने राष्ट्रहित व संस्कृति की रक्षा हेतु उन्हें दक्षिण की ओर जाने का निर्देश दिया था। 

राम वनगमन के कुछ समय बाद महाराज दशरथ का अंतिम संस्कार करने के बाद भरत , परिवारजन , पुरजन , गुरु वशिष्ठ एवं अन्य मंत्रियों के साथ श्री राम को अयोध्या वापस लाने के प्रयास में मार्ग में प्रयाग में महर्षि भरद्वाज के आश्रम गए थे।

प्रयागराज मेंअक्षयवट के विषय में मान्यता है कि यह अजर,अमर व चिरंतन है। 

यह अनादि सनातन वृक्ष है। 

अक्षयवट का पूजन श्रद्धालुजन एन मनवांछित फल प्राप्त करने के लिए तथा मोक्ष प्राप्ति के लिए करते रहे हैं।

सनकादि कुमारों के पूछने पर अक्षयवट* 
  *के संबंध में विष्णु भगवान जी कहते हैं -*
          
*प्रयागं वैष्णवं क्षेत्रं,वैकुंठादधिकं मम।*
*वृक्षोऽक्षयश्चतत्रैव,मदाचारी विराजते ।।*

*अर्थ - 

प्रयाग मेरा क्षेत्र है,वह वैकुंठ से भी....!*

 *अधिक है। 

वहां अक्षयवट है,जो मेरा आश्रय है।*

ऐसे महिमामंडित प्रयागराज के बारे में तुलसीदास जी अयोध्या कांड में लिख ही डालते हैं -*

को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।*
        
अर्थात् प्रयागराज के माहात्म्य को कौन कह सकता है ?

ऐसे पावन प्रयागराज में पुण्यमय पूर्ण महाकुंभ लगा है। 

उसमें डुबकी लगाकर अपने तन - मन दोनों को पवित्र कर परमात्मा से मिलन की अभीप्सा अपने अंतःकरण में जागृत करें। 

( अगले अंक में प्रयागराज में महाकुंभ पर एक दृष्टि डाली जाएगी।)*
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પંડારામા પ્રભુ રાજ્યગુરુ 
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     *|| तीर्थराज प्रयाग की जय हो ||*

Tuesday, January 21, 2025

|| माघ महात्म्य ||

||  माघ महात्म्य  ||

*|| माघ महात्म्य पांचवाँ अध्याय ||*

   
दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन! एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ। 

भृगुवंश में ऋषिका नाम की एक ब्राह्मणी थी जो बाल्यकाल में ही विधवा हो गई थी। 

वह रेवा नदी के किनारे विन्ध्याचल पर्वत के नीचे तपस्या करने लगी। 

वह जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता, सुशील, दानशीलता तथा तप करके देह को सुखाने वाली थी।

वह अग्नि में आहुति देकर उच्छवृत्ति द्वारा छठे काल में भोजन करती थी। 







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वह वल्कल धारण करती थी और संतोष से अपना जीवन व्यतीत करती थी। 

उसने रेवा और कपिल नदी के संगम में साठ वर्ष तक माघ स्नान किया और फिर वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गई ।

माघ स्नान के फल से वह दिव्य चार हजार वर्ष तक विष्णु लोक में वास करके सुंद और उपसुंद दैत्यों का नाश करने के लिए ब्रह्मा द्वारा तिलोत्तमा नाम की अप्सरा के रूप में ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। 

वह अत्यंत रुपवती, गान विद्या में अति प्रवीण तथा मुकुट कुंडल से शोभायमान थी। 

उसका रूप, यौवन और सौंदर्य देखकर ब्रह्मा भी चकित हो गये. वह तिलोत्तमा, रेवा नदी के पवित्र जल में स्नान करके वन में बैठी थी।

तब सुंद व उपसुंद के सैनिकों ने चन्द्रमा के समान उस रुपवती को देखकर अपने राजा सुंद और उपसुंद से उसके रुप की शोभा का वर्णन किया और कहने लगे कि कामदेव को लज्जित करने वाली ऎसी परम सुंदरी स्त्री हमने कभी नहीं देखी। 

आप भी चलकर देखें तब वह दोनों मदिरा के पात्र रखकर वहाँ पर आए जहाँ पर वह सुंदरी बैठी हुई थी और मदिरा के पान विह्वल होकर काम - क्रीड़ा से पीड़ित हुए और दोनों ही आपस में उस स्त्री - रत्न को प्राप्त करने के लिए विवाद ग्रस्त हुए और फिर आपस में युद्ध करते हुए वहीं समाप्त हो गये ।

उन दोनों का मरा हुआ देखकर उनके सैनिकों ने बड़ा कोलाहल मचाया और तब तिलोत्तमा कालरात्रि के समान उनको पर्वत से गिराती हुई दसों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई आकाश में चली गई और देव कार्य सिद्ध करके ब्रह्मा के सामने आई तो ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से कहा कि हे चन्द्रवती मैंने तुमको सूर्य के रथ पर स्थान दिया। 

जब तक आकाश में सूर्य स्थित है नाना प्रकार के भोगों को भोगो। 

सो हे राजन! वह ब्राह्मणी अब भी सूर्य के रथ पर माघ मास स्नान के उत्तम भोगों को भोग रही है इस लिए श्रद्धावान पुरुषों को उत्तम गति पाने के लिए यत्न के साथ माघ मास में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।

 || माघ महात्म्य पांचवाँ अध्याय पूर्ण ||

*जब आप किसी भी कार्य, व्यवसाय, परिवार का नेतृत्व करते हैं। 

सबसे आवश्यक होता है कि बार बार नवीनता लाते रहें। 

जिससे लोगों में ऊर्जा बनी रहे।

कोई भी काम कितना भी रोमांचक हो उसमें
धीरे धीरे बोरियत आने लगती है। 

नौकरी पेशा व्यक्ति इसीलिये उदासीन होता है।

उसका सब कुछ निश्चित है। 

वह जो पाँच वर्ष पूर्व कर रहा था। 

वही आज भी करता है। 

उसे कोई असुरक्षा का भाव नहीं है। 

वह जल्दी ही बूढ़ा हो जाता है।

अभी कितनी नौकरी बची इसी ख्याल में जीता है।

वास्तव में हम सुरक्षा के लिये चिंतित रहते हैं।

जबकि जीवन का रोमांच असुरक्षा में होता है।

तो कुछ बड़ा करने कि प्रतीक्षा से अच्छा है।

कि कुछ नवीन अप्रत्याशित करना है।

इससे आप में और आपके साथ काम करने वालों में ऊर्जा बनी रहती है।





भव: शर्वो रुद्र: पशुपतिरथोग्र: सहमहां-
स्तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।

अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि
 प्रियायास्मै धाम्ने प्रविहितनमस्योऽस्मि भवते।।

हे महादेव!आपके जो आठ अभिधान ( नाम ) - भव,शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महादेव,भीम और ईशान हैं।

उनमें प्रत्येक में वेदमन्त्र भी पर्याप्त मात्रा में विचरण करते हैं और वेदानुगामी पुराण भी इन नामों में विचरते हैं; 

अर्थात 

वेद, पुराण सभी उन आठों नामों का अतिशय प्रतिपादन करते हैं। 

अतः परमप्रिय एवं प्रत्यक्ष समस्त जगत के आश्रय आपको मैं साष्टांग प्रणाम करता हूं।

*|| जय गौरीशंकर महादेव ||*

कुंभ में स्नान का महत्व-
     
*सहस्त्र कार्तिके स्नानं माघे स्नान शतानि च।*
*वैशाखे नर्मदाकोटिः कुंभस्नानेन तत्फलम्।।*

*अश्वमेघ सहस्त्राणि वाजवेय शतानि च।*
*लक्षं प्रदक्षिणा भूम्याः कुंभस्नानेन तत्फलम्।*
 
अर्थ:- 

कुंभ में किए गए एक स्नान का फल कार्तिक मास में किए गए हजार स्नान, माघ मास में किए गए सौ स्नान व वैशाख मास में नर्मदा में किए गए करोड़ों स्नानों के बराबर होता है। 

हजारों अश्वमेघ, सौ वाजपेय यज्ञों तथा एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो पुण्य मिलता है, वह कुंभ में एक स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।

  || तीर्थराज प्रयाग की जय हो ||
  
अजगर बने अघासुर का*l
  
 वध किया श्री कृष्ण ने....!
        
*भागवत में श्री कृष्ण द्वारा वृंदावन मे की गई लीलाओं में एक दिन भगवान श्री कृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गायों को चराने वन में गए। 

उसी समय वहां अघासुर नाम का भयंकर दैत्य भी आ गया । 

वह पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था।

वह इतना भयंकर था कि देवता भी उससे भयभीत रहते थे और इस बात की बाट देखते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाए।*

*श्री कृष्ण को मारने के लिए अघासुर ने अजगर का रूप धारण कर लिया और मार्ग में लेट गया। 

उसका वह अजगर शरीर एक योजन लम्बे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था।

अघासुर का यह रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृंदावन की कोई शोभा है।*

*उसका मुंह किसी गुफा की तरह दिखता था। 

बाल-ग्वाल उसे समझ न सके और कौतुकवश उसे देखने लगे।

देखते- देखते वे अजगर के मुंह में ही घुस गए। 

लेकिन श्री कृष्ण अघासुर की माया को समझ गए।*

अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्री कृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। 

परन्तु उसी समय श्री कृष्ण ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया कि अजगररुपी अघासुर का गला ही फट गया। 

आंखें उलट गईं। 

सांस रुककर सारे शरीर में भर गई और उसके प्राण निकल गए।* 

इस प्रकार सारे बाल-ग्वाल और गौधन भी सकुशल ही अजगर के मुंह से बाहर निकल आए। 

कान्हा ने फिर सबको बचा लिया। 

सब मिलकर कान्हा की जय - जयकार करने लगे।*





पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )
      || जय श्री कृष्ण जी ||
                     🙏🕉️🙏

Wednesday, January 15, 2025

💝 कन्हैया से सम्बन्ध /वृन्दावन के एक संत की कथा /महामंत्र :/"हे कृष्ण" 💝

💝 कन्हैया से सम्बन्ध  / वृन्दावन के एक संत की कथा  /  महामंत्र : / "हे कृष्ण"  💝 

            
         💝 कन्हैया से सम्बन्ध 💝

आप सभी को मकर संक्रांति के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं। 

हर्ष और उल्लास का यह पावन पर्व सभी के जीवन में उत्तम स्वास्थ्य एवं सुख - समृद्धि लेकर आए। 

प्रतिमास भगवान् भुवनभास्कर सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में गमन करते हैं। 

इसे संक्रान्ति या संक्रमण कहते हैं। 

धनुराशि से मकर राशि में संक्रमण को मकर संक्रान्ति कहते हैं। 

हम प्रतिवर्ष प्रसन्तापूर्वक मकर संक्रान्ति पर्व का यथाशक्ति समायोजन कर रहे हैं....! 

किन्तु हमारी विचारधारा के क्षेत्र में कोई संक्रमण नहीं हो रहा है। 

अपेक्षा है कि हम मकर संक्रान्ति के पावन पर्व से पाश्चात्त्य चिन्तन धारा की दासता को समाप्त करके स्वकीय वेद - पुराण - स्मृति - रामायण - महाभारतादि की सनातन चिन्तन धारा को दृढता से अङ्गीकार करें तथा स्वधर्मानुसार जीवनयापन करें। 







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आने वाले कल को स्वर्णिम बनाने की चिंता तनाव को पैदा करती है, बीते हुए कल की गलतियाँ विषाद यानी विवशता को जन्म देती है ।

तनाव और विषाद दोनोंअलग - अलग स्थितियाँ हैं मानव जीवन की।

बीते हुए कल को जीने वाले लोग अक्सर क्रोध और पछतावे में विवेकहीन जिंदगी जीते है। 

जब कि तनाव में एक अजीब सी खींचतान मन में शुरू हो जाती हैं मन में विचारों का वेग त्वरित हो जाता है कुछ कर गुजरने की झुंझलाहट हर दम बनी रहती हैं। 

वर्तमान में जीना सहज है सरल है पर ये जो कल का काल है जो सिरों पर नृत्य करता रहता है इसी से जीवन में भूचाल बना रहता हैं। 

वर्तमान योजनाओं को बनाने और दुर्घटनाओं को भुलाने का संक्रांति काल होता है,और उसी में जीवन का सारा सार छुपा होता है।

जीवन बस इसी क्षण घटित होता है वर्तमान ये चीख़ चीख कर कहता है इसी को जी लो कल का किसको पता हैं।

सूर्य देव के उत्तरायण के साथ ही आप सभी परिजनों के जीवन में नई सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो....!

जिसके फलस्वरूप आप सब इस पूरे साल हर्षित, आनंदित एवं स्वस्थ रहें.....!

वृन्दावन के एक संत की कथा है । 

वे श्री कृष्ण की आराधना करते थे.उन्होंने संसार को भूलने की एक युक्ति की. मन को सतत श्री कृष्ण का स्मरण रहे, उसके लिए महात्मा ने प्रभु के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ा कि मै नन्द हूँ, बाल कृष्ण लाल मेरे बालक है।

वे लाला को लाड लड़ाते,यमुना जी स्नान करने जाते तो लाला को साथ लेकर जाते। 

भोजन करने बैठते तो लाला को साथ लेकर बैठते.ऐसी भावना करते कि कन्हैया मेरी गोद में बैठा है.
कन्हैया मेरे दाढ़ी खींच रहा है.श्री कृष्ण को पुत्र मानकर आनद करते.श्री कृष्ण के उपर इनका वात्सल्य भाव था। महात्मा श्री कृष्ण की मानसिक सेवा करते थे । 

सम्पूर्ण दिवस मन को श्री कृष्ण लीला में तन्मय रखते, जिससे मन को संसार का चिंतन करने का अवसर ही न मिले...!

निष्क्रय ब्रह्म का सतत ध्यान करना कठिन है।

परन्तु लीला विशिष्ट ब्रह्म का सतत ध्यान हो सकता है....!

महात्मा परमात्मा के साथ पुत्र का सम्बन्ध जोड़ कर संसार को भूल गये, परमात्मा के साथ तन्मय हो गये, श्री कृष्ण को पुत्र मानकर लाड लड़ाने लगे।

महात्मा ऐसी भावना करते कि कन्हैया मुझसे केला मांग रहा है।

बाबा! 

मुझे केला दो, ऐसा कह रहा है....!

महात्मा मन से ही कन्हैया को केला देते.....!

महात्मा समस्त दिवस लाला की मानसिक सेवा करते और मन से भगवान को सभी वस्तुए देते.....!

कन्हैया तो बहुत भोले है.....! 

मन से दो तो भी प्रसन्न हो जाते है.महात्मा कभी कभी शिष्यों से कहते कि इस शरीर से गंगा स्नान कभी हुआ नहीं, वह मुझे एक बार करना है.....!

शिष्य कहते कि काशी पधारो.महात्मा काशी जाने की तैयारी करते परन्तु वात्सल्य भाव से मानसिक सेवा में तन्मय हुए की कन्हैया कहते- 

बाबा मै तुम्हारा छोटा सा बालक हूँ।

मुझे छोड़कर काशी नहीं जाना।

इस प्रकार महात्मा सेवा में तन्मय होते....!

उस समय उनको ऐसा आभास होता था कि मेरा लाला जाने की मनाही कर रहा है।

मेरा कान्हा अभी बालक है. मै कन्हैया को छोड़कर यात्रा करने कैसे जाऊ?

मुझे लाला को छोड़कर जाना नहीं।

महात्मा अति वृद्ध हो गये. महात्मा का शरीर तो वृद्ध हुआ परन्तु उनका कन्हैया तो छोटा ही रहा.वह बड़ा हुआ ही नहीं! 

उनका प्रभु में बाल - भाव ही स्थिर रहा और एक दिन लाला का चिन्तन करते - करते वे मृत्यु को प्राप्त हो गये।

शिष्य कीर्तन करते - करते महात्मा को श्मशान ले गये.अग्नि - संस्कार की तैयारी हुई....! 

इतने ही में एक सात वर्ष का अति सुंदर बालक कंधे पर गंगाजल का घड़ा लेकर वहां आया
उसने शिष्यों से कहा - 

ये मेरे पिता है....!

मै इनका मानस - पुत्र हूँ।
 
पुत्र के तौर पर अग्नि - संस्कार करने का अधिकार मेरा है...!

मै इनका अग्नि - संस्कार करूँगा....!

पिता की अंतिम इच्छा पूर्ण करना पुत्र का धर्म है। 

मेरे पिता की गंगा - स्नान करने की इच्छा थी परन्तु मेरे कारण ये गंगा - स्नान करने नहीं जा सकते थे....!
 
इस लिए मै यह गंगाजल लाया हूँ। 

पुत्र जिस प्रकार पिता की सेवा करता है,....!

इस प्रकार बालक ने महात्मा के शव को गंगा - स्नान कराया....!

संत के माथे पर तिलक किया....!

पुष्प की माला पहनाई और अंतिम वंदन करके अग्नि - संस्कार किया....!

सब देखते ही रह गये।

अनेक साधु - महात्मा थे परन्तु किसी की बोलने की हिम्मत ही ना हुई....!

अग्नि- संस्कार करके बालक एकदम अंतर्ध्यान हो गया.....!

उसके बाद लोगो को ख्याल आया कि महात्मा के तो पुत्र था ही नहीं बाल कृष्णलाल ही तो महात्मा के पुत्र रूप में आये थे।

महात्मा की भावना थी कि श्री कृष्ण मेरे पुत्र है....!

परमात्मा ने उनकी भावना पूरी की,...!

परमात्मा के साथ जीव जैसा सम्बन्ध बांधता है....!

वैसे ही सम्बन्ध से परमात्मा उसको मिलते है..!!
    🙏🏼🙏🏿🙏🏾जय जय श्री राधे🙏🏽🙏🙏🏻

 महामंत्र : 

[ मकरसंक्रांति पर पतंग क्यों उड़ाई जाती है ] 

मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ ॥

ग्रंथ 'रामचरितमानस' के आधार पर श्रीराम ने अपने भाइयों के साथ पतंग उड़ाई थी। इस संदर्भ में 'बालकांड' में उल्लेख मिलता है-

'राम इक दिन चंग उड़ाई। 
इंद्रलोक में पहुँची जाई॥'

[ बड़ा ही रोचक प्रसंग है। 

पंपापुर से हनुमान को बुलवाया गया था। 

तब हनुमानजी बाल रूप में थे। 

जब वे आए, तब 'मकर संक्रांति' का पर्व था। 

श्रीराम भाइयों और मित्र मंडली के साथ पतंग उड़ाने लगे। 

कहा गया है कि वह पतंग उड़ते हुए देवलोक तक जा पहुँची। 

उस पतंग को देख कर इंद्र के पुत्र जयंत की पत्नी बहुत आकर्षित हो गई। ]

[ वह उस पतंग और पतंग उड़ाने वाले के प्रति सोचने लगी-

'जासु चंग अस सुन्दरताई।
सो पुरुष जग में अधिकाई॥'

इस भाव के मन में आते ही उसने पतंग को हस्तगत कर लिया और सोचने लगी कि पतंग उड़ाने वाला अपनी पतंग लेने के लिए अवश्य आएगा। 

वह प्रतीक्षा करने लगी। 

उधर पतंग पकड़ लिए जाने के कारण पतंग दिखाई नहीं दी, तब बालक श्रीराम ने बाल हनुमान को उसका पता लगाने के लिए रवाना किया। ]

[ पवन पुत्र हनुमान आकाश में उड़ते हुए इंद्रलोक पहुँच गए। 

वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि एक स्त्री उस पतंग को अपने हाथ में पकड़े हुए है। 

उन्होंने उस पतंग की उससे माँग की। 

उस स्त्री ने पूछा- 

"यह पतंग किसकी है?" 

हनुमानजी ने रामचंद्रजी का नाम बताया। 

इस पर उसने उनके दर्शन करने की अभिलाषा प्रकट की। 

हनुमान यह सुनकर लौट आए और सारा वृत्तांत श्रीराम को कह सुनाया। 

श्रीराम ने यह सुनकर हनुमान को वापस वापस भेजा कि वे उन्हें चित्रकूट में अवश्य ही दर्शन देंगे। 

हनुमान ने यह उत्तर जयंत की पत्नी को कह सुनाया, जिसे सुनकर जयंत की पत्नी ने पतंग छोड़ दी। 
कथन है कि-

'तिन तब सुनत तुरंत ही, दीन्ही छोड़ पतंग।
खेंच लइ प्रभु बेग ही, खेलत बालक संग।' ]

अद्भुद प्रसंग के आधार पर पतंग की प्राचीनता का पता चलता है।
जय माता दी । 
जय श्री राम ।

" हे कृष्ण...! "  



एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा..!

हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही।

में आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ.....!

उसके गुण धर्म क्या क्या हैं....!

भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे...!

उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा -

"हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे.।

एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नही निभाई।

आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे।

आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका।

ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका...!

लेकिन यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया.!

आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दांव पर लगाना शुरू किया...! 

तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे...!

किंतु आपने ये भी नहीं किया...!

इसके बाद जब दुष्ट दुर्योधन ने पांडवों को भाग्यशाली कहते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने हेतु प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे...!

लेकिन इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया जब द्रौपदी लगभग अपनी लाज खो रही थी....!
 
तब जाकर आपने द्रोपदी के वस्त्र का चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज बचाई किंतु ये भी आपने बहुत देरी से किया...!

उसे एक पुरुष घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे पुरुषों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है....!

जब आपने संकट के समय में पांडवों की सहायता की ही नहीं की तो आपको आपदा बांधव ( सच्चा मित्र ) कैसे कहा जा सकता है....!

क्या यही धर्म है...!

भगवान श्री कृष्ण बोले - 

हे उद्धव सृष्टि का नियम है कि जो विवेक से कार्य करता है विजय उसी की होती है उस समय दुर्योधन अपनी बुद्धि और विवेक से कार्य ले रहा था किंतु धर्मराज ने तनिक मात्र भी अपनी बुद्धि और विवेक से काम नही लिया इसी कारण पांडवों की हार हुई...!

भगवान कहने लगे कि हे उद्धव - दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन तो बहुत था....! 

लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था...!
 
इस लिए उसने अपने मामा शकुनि से द्यूतक्रीडा करवाई यही तो उसका विवेक था...!

धर्मराज भी तो इसी प्रकार विवेक से कार्य लेते हुए ऐसा सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई को पासा देकर उनसे चाल चलवा सकते थे या फिर ये भी तो कह सकते थे कि उनकी तरफ से श्री कृष्ण यानी मैं खेलूंगा....!

जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ? 

पांसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार....!

चलो इसे भी छोड़ो.....! 

उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया....! 

इसके लिए तो उन्हें क्षमा भी किया जा सकता है....!

लेकिन उन्होंने विवेक हीनता से एक और बड़ी गलती तब की जब उन्होंने मुझसे प्रार्थना की....!

कि मैं तब तक सभाकक्ष में न आऊँ....! 

जब तक कि मुझे बुलाया न जाए....! 

क्योंकि ये उनका दुर्भाग्य था कि वे मुझसे छुपकर जुआ खेलना चाहते थे....!

इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया....!

मुझे सभाकक्ष में आने की अनुमति नहीं थी इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर बहुत समय तक प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे कब बुलावा आता है.....!

पांडव जुए में इतने डूब गए कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए और मुझे बुलाने के स्थान पर केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे.....!

अपने भाई के आदेश पर जब दुशासन द्रोपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभाकक्ष में लाया तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही....!
 
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा....!

उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया.....!

जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर.....!
 
' हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम...! '
 
की गुहार लगाते हुए मुझे पुकारा तो में बिना बिलम्ब किये वहां पहुंचा......!
 
हे उद्धव इस स्थिति में तुम्हीं बताओ मेरी गलती कहाँ रही.....!

उद्धव जी बोले कृष्ण आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है...! 

किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई...! 

क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?

कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा – 

इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे....! 

जब आपको बुलाया जाएगा.....!

क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे....!

भगवान मुस्कुराये - उद्धव सृष्टि में हर किसी का जीवन उसके स्वयं के कर्मों के प्रतिफल के आधार पर चलता है....!
 
में इसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नही करता.....!

मैं तो केवल एक ' साक्षी ' हूँ....! 

जो सदैव तुम्हारे साथ रहकर जो हो रहा है उसे देखता रहता हूँ....! 

यही ईश्वर का धर्म है।

'भगवान को ताना मारते हुए उद्धव जी बोले...! "

" वाह वाह, बहुत अच्छा कृष्ण....!". 

तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी कर्मों को देखते रहेंगें हम पाप पर पाप करते जाएंगे और आप हमें रोकने के स्थान पर केवल देखते रहेंगे....!
 
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते करते पाप की गठरी बांधते रहें और उसका फल भोगते रहें....!

भगवान बोले – 

उद्धव, तुम धर्म और मित्रता को समीप से समझो....! 

जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे साथ हर क्षण रहता हूँ...! 

तो क्या तुम पाप कर सकोगे ?

तुम पाप कर ही नही सकोगे और अनेक बार विचार करोगे की मुझे विधाता देख रहा है....!

किंतु जब तुम मुझे भूल जाते हो और यह समझने लगते हो....! 

कि तुम मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो...! 

तुम्हे कोई देख नही रहा तब ही तुम संकट में फंसते हो....!

धर्मराज का अज्ञान यह था....! 

उसने समझा कि वह मुझ से छुपकर जुआ खेल सकता है....!

अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक प्राणी मात्र के साथ हर समय उपस्थित रहता हूँ...!

तो क्या वह जुआ खेलते....?
 
और यदि खेलते भी तो जुए के उस खेल का परिणाम कुछ और नहीं होता.....!

भगवान के उत्तर से उद्धव जी अभिभूत हो गये और बोले – 

प्रभु कितना रहस्य छुपा है आपके दर्शन में.....!

कितना महान सत्य है ये ! 

पाप कर्म करते समय हम ये कदापि विचार नही करते कि परमात्मा की नज़र सब पर है....! 

कोई उनसे छिप नही सकता....!

और उनकी दृष्टि हमारे प्रत्येक अच्छे बुरे कर्म पर है.....!
 
परन्तु इसके विपरीत हम इसी भूल में जीते रहते  हैं....! 

कि हमें कोई देख नही रहा.....!

प्रार्थना और पूजा हमारा विश्वास है....! 

जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं....! 

कि भगवान हर क्षण हमें देख रहे हैं....!

उनके बिना पत्ता तक नहीं हिलता तो परमात्मा भी हमें ऐसा ही आभास करा देते हैं...! 

की वे हमारे आस पास ही उपस्तिथ हैं.....! 

और हमें उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है....!

हम पाप कर्म केवल तभी करते हैं....! 

जब हम भगवान को भूलकर उनसे विमुख हो जाते हैं..!!
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )

   🙏🙏🏽🙏🏾जय श्री कृष्ण🙏🏿🙏🏼🙏🏻